गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

अपने-अपने सच हैं सबके

अपने-अपने सच हैं सबके

झूठ पकड़ कोई आगे बढ़ता
कोई है सच का दमन थामे
सही गलत कोई क्या आंके
आखिर सबके अपने सच हैं

दीन-धरम दुनिया की बातें
करते कोई नहीं अघाते
पर जब करने की बारी आती
अपने सच हावी हो जाते

पाप-पुण्य सब परिभाषाएं हैं
झूठ-कपट अब मूल-मंत्र है
लम्पटता सिद्धांत बन गई
इस युग का तो यही तंत्र है

संग समय के जो नहीं चलते
समय उन्हें धूसर कर देता
गुनी जनों ने देखा तौला
और सदाचार से कर ली तौबा

- वाणभट्ट

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

क्षणिकायें

१. परिणाम
आहत माँ
उफान कर बोली,
"उपजा बबूल,
बोया था आम.
चिरसिंचित अभिलाषाओं का,
उफ़!
ये परिणाम.

२. परदा
चाँद को घूरता पा कर.
धरती ने ओढ ली,
चांदनी कि झीनी चादर.
और,
उस चादर कि आड़ ले,
घूरे जा रही है चाँद को,
प्यार से.

- वाणभट्ट

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

गलती

गलती

आती हुई हवा में
खड़क उठे पन्ने
बलात्कार के लिए
क्या हम ही मिले

तुम्हारे अन्दर भड़ास है
पर ऐसी भी क्या ख़ास है
औरों को इससे क्या वास्ता
सब चल रहे अपना अपना रास्ता

तुम मेरी जान के पीछे क्यों पड़े हो
कलम को हथियार बना मुझे चीरते हो
कागज काले करने से कुछ ना होगा
अगर हिम्मत है तो कुछ कर गुजरना होगा

हे कागज, हे कलम मुझे माफ़ करना
मेरी भी कुछ मजबूरियां हैं
ये अलफ़ाज जब जेहन में रहते हैं तो चुभते हैं
और जब बाहर निकलते हैं
तो सबको गड़ते हैं

आज कल
जब सबको अपनी-अपनी पड़ी है
तो बताओ इसमें मेरी भी क्या गलती है

- वाणभट्ट

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

ड्रा में मेरा नाम आया है

ड्रा में मेरा नाम आया है.

लौटरी खेलना मुझे नहीं भाता.
पर खेल खेल में,
अख़बारों की रेल-पेल में,
एक पत्र ने ड्रा का एक खेला खेल.
मै क्या जानूं ऊपर वाला खेल रहा है कोई खेल.

मैंने कभी न उस विज्ञापन पर ध्यान दिया.
न ही उसके कूपन काटे नहीं उसका फॉर्म भरा.

कूपन काटे पापा जी ने,
उनको चिपकाया बिटिया जी ने.
जब मै ब्लॉग पर अपनी भड़ास निकल रहा था.
बेटा मेरे पास आया,
पापा हौकर का नाम है क्या?
जा कुछ पढ़,
मै झल्लाया.

अगले दिन जब बच्चे चल दिए स्कूल.
पापा जी ने याद दिलाया,
आज आखरी दिन है फॉर्म जमा करने का.

पत्नी जी ने बच्चों की सारी अलमारी देखी
हर पुस्तक का पन्ना देखा.
पिता जी पड़े हुए थे उस फॉर्म के पीछे.
फिर वो फॉर्म मिला कहीं अख़बारों के नीचे.

अख़बारों संग चाय की चुस्की में,
मै डूबा था सबकी परेशानीओं से परे.
जब श्रीमती जी ने वो फॉर्म दिया मुझको
भरने.

फॉर्म भर के मै चला नहाने,
नाश्ता करके जब ऑफिस बैग उठाया,
पिता जी ने फिर याद दिलाया बेटा फॉर्म डालने की आज लास्ट डेट है.

पर फॉर्म नहीं था अपनी मेज पर
फिर क्या था सब मिल कर लगे खोजने,
पर फॉर्म को न मिलना था न मिला.
स्थिति कुछ ऐसी थी
कि
जमीन खा गयी या आसमान निगल गया
या
फॉर्म ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सर से सींग.

मुझे ऑफिस की देर हो रही थी.
मां बोली की क्या जी आप भी लौटरी के चक्कर में पड़े हुए हैं.
जाने दो इसको देर हो रही है.
मेरी जान में जान आई और इस तरह मैंने जान छुटाई.
कर्टसी वश बोला
गर मिल जाए तो फ़ोन कर देना,
मै लंच में आ कर ड्रॉप कर दूंगा.

फॉर्म मिल गया, पर लंच में कुछ व्यस्त रहा
कुछ आने की इच्छा भी न थी.
मन में शंका थी की इस काम से कोई लाभ नहीं.

फिर भी सबका दिल रखने को मैंने फ़ोन किया की अब आता हूँ
पत्नी बोली धुप बहुत है मत आना
मै बोला की आता हूँ
फिर माता जी ने फ़ोन किया की मत आना
धुप बहुत है और पापा की तो आदत है की एक बात के पीछे ही जाते हैं पड़.
मैंने राहत की सांस ली,
और भूल गया की समय है शाम ४ बजे तक.

उसी समय मेरे एक मित्र आये वो बोले मै उसी ओर जा रहा हूँ
घर से लेकर फॉर्म डाल दूंगा
मैंने कहा ये आपकी जर्रा नवाजी है, पिता जी खुश हो जायेंगे
और मेरा फॉर्म पहुँच गया ड्रॉप बॉक्स में.

अगले दिन मुझको अख़बार के ऑफिस से फ़ोन आया,
वर्माजी ड्रा में आपका नाम आया है.
कुछ आश्चर्य कुछ ख़ुशी से मैंने खबर सबको बताई
पर मेरे एक बात समझ आई
उस कागज के टुकड़े को सही जगह पहुंचना था
इस लिए वो मेरे न चाहते हुए भी अपने गंतव्य तक पहुँच गया

मेरे उस मित्र ने इसे और भी समझाया
कर्म पर अपना अधिकार है फल पर नहीं
बिना कर्म के भाग्य भी नहीं
फॉर्म पहुँचाने के कर्म के बाद ही भाग्य ने अपना काम किया

गीता का ज्ञान सहज ही मेरी समझ में आ गया.

- वाणभट्ट

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

गाँधी जी कि याद आती है

गाँधी जी कि याद आती है.

जब किसी मन्दिर से भजन
और
मस्जिद से अजान
की
आवाज आती है.

जिसने धर्म का मर्म जाना
गीता-कुरान का सार माना
पर इस देश में जब
मजहबी नारों की आवाज आती है
गाँधी तेरी बहुत याद आती है.

पर-उपदेश तो कुशल हैं बहुतेरे,
संत वही जो खुद पर तौले
सुबह चैनलों पर जब बाबाओं की
फ़ौज आती है
बापू तुम्हारी याद आती है

तस्वीर तेरी है हर थाने में,
खादी ओढ़े नेताओं में,
अक्स तेरा है.
पर जो मन से तुझको माने,
ऐसा कोई शख्श कहाँ है.

हिंसा का तांडव चंहुओर
भ्रष्टाचार हुआ बहुजोर
सहमी सी है न्यायपालिका
और
किम्कर्तव्यविमूढ़ सरकार.

कैसे फैले उजियारा
इस दीप में, तेल है न बाती है

गाँधी की उपयोगिता आज भी समझ आती है.

- वाणभट्ट

 

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

सन्नाटे बोलते हैं

सन्नाटे बोलते हैं

अभी कुछ बोलने का वक्त नहीं है,
सुनो तो, ये राज खोलते हैं.
एक तूफ़ान गुज़रा है.
एक मुहाने पर थमा है.

सड़कों की वीरानी
माँओं  की हैरानी
बापों की पेशानी
बताती है.

आसमान की रंगत
हवाओं की गर्मी
और
समय की करवट
बताती है.

कि
सन्नाटा गुज़र रहा है बिना आहट किये.
इसे टोकना नहीं गुज़र जाने दो.
ठीक नहीं इसका, ठहरना.

- वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...