रविवार, 26 जुलाई 2015

ब्लेम इट टू ब्रिट्स

ब्लेम इट टू ब्रिट्स 

हम सभी, जो अपने आप को थोड़ा बहुत बुद्धिजीवी समझते होंगे, ने थरूर साहब का वायरल हुआ वीडियो ज़रूर देखा होगा। बहुत ही सलीके से उन्होंने, सधी हुयी अंग्रेजी में, उन्हीं के देश में, उन्हीं लोगों के सामने, उनकी जिस तरह से धज्जी उड़ाई है, वो काबिल-ए-तारीफ़ है। उससे पूरा प्रबुद्ध भारत एक फील गुड फैक्टर का शिकार हो गया। जो लोग आज भी अंग्रेजों के राज में अंग्रेजों के साथ होते, वो भी देश प्रेम की इस आँधी में कूद पड़े हैं। हर तरफ वाह-वाह होनी भी चाहिये। इतने सालों बाद ही सही किसी ने आइना पूरी ईमानदारी के साथ दिखने की कोशिश तो की। अंग्रेज़ी जानने और बोलने वालों की इस देश में ब्रिटिश शासन के दौर से ही कोई कमी नहीं रही। लेकिन उनमें से अधिकतर की सोच पर भी ब्रितानी भाषा और संस्कृति का प्रभाव छाया रहा। वो अंग्रेज़ों की भारत में छूट गयी औलादों की तरह ही बर्ताव करते रहे। और यदि हम सभी अपने आस-पास पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो आज भी हम अंग्रेज़ी संस्कार और शिष्टाचार की ही नक़ल करते दिखाई देते हैं। वर्षों की गुलामी ने हमारी नींव को हिला के रख दिया है। नेता जी, इस शब्द से हम पुराने लोगों के जेहन में सिर्फ आदरणीय सुभाष चन्द्र बोस की ही तस्वीर आती है, ने अपनी एक पुस्तक में आज़ादी के बाद कुछ वर्षों की लिमिटेड डिक्टेटरशिप का ज़िक्र किया था। उनका मानना था कि सैकड़ों सालों की गुलामी के कारण भारतवासी अपनी अस्मिता को भूल चुका है। उसके हृदय में देश प्रेम, देश भक्ति, आत्मगौरव, स्वदेश और स्वाभिमान की अलख जगाना प्राथमिकता होनी चाहिये तभी देश सही दिशा में विकास कर पायेगा।   

थरूर साहब का भाषण ऑक्सफ़ोर्ड सोसाइटी द्वारा आयोजित वाद-विवाद का एक हिस्सा था। बाकी वक्ताओं के विचारों को सुनाने-समझने के लिये पूरा प्रोग्राम वायरल होना चाहिये। पक्ष-विपक्ष दोनों ही ने अपनी बात को दमदार तरीक़े से रखने के लिये तथ्यों का सहारा लिया होगा। हमारी दिक़्क़त ये हैं कि हम वही सुनते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। ताली बजाना शायद सबसे आसान काम है। दूसरे करें और हम सिर्फ तमाशा देखें। इस देश में ऐसे वक्ताओं की कमी नहीं है, जिनके भाषणों में देश प्रेम न झड़ता हो, लेकिन उनके आचरण में इस चरित्र का सर्वथा अभाव रहता है। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को तो भ्रष्ट से भ्रष्ट नेता-अधिकारी-कर्मचारी इस प्रेम में सराबोर दिखाई देता है।राजनीति में जब सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों देश प्रेमी हैं, तो देश को विकसित होने से कौन रोक सकता है। लेकिन ये सब जानते हैं कि पिछले छः दशकों हमें जहाँ होना चाहिए था, हम वहाँ नहीं पहुँच पाये। इतिहास के पन्नों में दर्ज़ किन-किन विसंगतियों का हिसाब हम किन-किन देशों से माँगेंगे। चंगेज़ खाँ से लेकर महमूद ग़ज़नवी, मोहम्मद गोरी से लेकर सिकंदर, फ्रांसीसियो पुर्तगालियों और अंग्रेज़ों, जिसे देखो मुँह उठाया और चला आया। किस-किस से हिसाब माँगते फिरेंगे हम। इतने वर्षों की गुलामी के बाद भी जो हम नहीं सीखने को तैयार हैं, वो है इतिहास से सबक। अगर आप में एका नहीं है तो बाहर वाला तो इस फ़िराक़ में बैठा ही है कि आपके घर में घुसा जाये। देश का विकास सत्ता पक्ष भी करना चाहता है और प्रतिपक्ष भी। लेकिन किसी भी मुद्दे पर ये एकजुट नहीं हैं। मामला क्रेडिट लूटने का है। वो भी देश की बलि दे कर। 

जिन देशों से हम मुकाबला करना चाहते हैं उनमें कई साझा बातें हैं। देश के प्रति प्रेम, नियम-कानून का पालन, अपने वैधानिक पदों की गरिमा और त्वरित न्याय प्रक्रिया कुछ ऐसी ही बातें हैं। और ख़ास बात ये है कि ये सब मूल्य में दो-ढाई साल की उम्र से ही घुट्टी में पिलाये जाते हैं। जब हम अपने बच्चों को पापा-मम्मा सीखा रहे होते हैं वो था-था सीखा रहे होते हैं। जिससे बच्चे को थैंक यू कहने में आसानी हो। जिस देश में सत्य, अहिंसा, न्याय, देश प्रेम सिर्फ भाषणों तक सीमित हो गया हो और इनका पालन करने वाला स्वयं को अल्पसंख्यक और असहाय समझता हो, उस देश में क्रांतियाँ सिर्फ कागज़ों में आती है। हक़ीक़त में आते-आते पीढ़ियाँ गुज़र जातीं हैं। समस्यायें अनंत हैं। उतने ही वादे, उतने ही नारे। बेटी बचाओ, पर्यावरण बचाओ, बिजली बचाओ, पानी बचाओ। क्लीन इण्डिया, ग्रीन इण्डिया, मेक इन इण्डिया। खासियत ये कि सारा देश भी यही चाहता है। पक्ष-विपक्ष, अमीर-गरीब, सरकारी-गैरसरकारी सब। लेकिन यक्ष प्रश्न है करेगा कौन। प्रधानमन्त्री कहेगा कि सफाई रक्खो तो हम गन्दगी फैलाएंगे। हम वो सब करेंगे जो एक संभ्रांत नागरिक को नहीं करना चाहिये। इसी से हमें आज़ादी का एहसास होता है। और आज़ादी का सम्बन्ध मन से है, तन भले ही कीचड़ में लोट रहा हो। आमिर खान को सत्यमेव जयते के एक भी एपिसोड करने की ज़रूरत नहीं पड़ती अगर हम प्राइमरी शिक्षा में मॉरल-एथिक्स पर जोर देते और बच्चों के सामने वो नज़ीर रखते जो सिर्फ लफ़्फाज़ियों में बर्बाद कर देते हैं। बच्चा अपने बड़ों से ही सब सीखता है। घर-परिवार-समाज का रोल भले दिखाई न दे किन्तु हमारे अंदर तक पैठ जाता है। सदियों की गुलामी ने हमारे डीएनए को बदल डाला है। हम अभी भी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। पहले फिरंगी थे अब अपने ही रंग वाले। पान-गुटका खा के हमारा नागरिक जब पाव लीटर फेचकुर सड़क पर फेंकता है तो निश्चय ही उसके हृदय में क्रांतिकारी भाव होता होगा। मानो लार्ड क्लाइव के मुँह पर उसका पीक पड़ने वाला हो। कोई नागरिक अपने ही देश-स्थान को कैसे गन्दा कर सकता है।

हमारी एक आदत सी बन गयी है। हर बुराई का आरोप दूसरों पर मढ़ देना। अंग्रेज़ों के माफ़ी माँग लेने से हमारा अतीत नहीं बदलने वाला। किसी को नीचा दिखा कर हम ऊँचे नहीं हो जायेंगे। सेल्फ इम्प्रूवमेंट की कोई भी किताब पढ़ लें। वो पहले ही आगाह करते हैं, वर्तमान परिस्थितियों के लिए स्वयं जिम्मेदार बनिये। दूसरों को दोष देने से कुछ नहीं होने वाला। मुझे स्वामी विवेकानन्द की कुछ पंक्तियाँ, जो कभी बहुत पहले आँखों के सामने से गुज़रीं थीं, प्रेरणा देतीं हैं - और किसी का नहीं दोष तो मेरा ही है … मै ही तो अपना साकार अतीत हूँ …। हम आज़ादी के साठ साल बाद भी अपनी कमज़ोरियों का ठीकरा दूसरों के सर फोड़ने में लगे हैं। यदि हम भारत को उन्नत राष्ट्रों  देखना चाहते हैं तो ये काम आदर्श नागरिकों के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। और आदर्श नागरिक की बुनियाद दो -ढाई साल के बच्चे से तो सम्भव है, लेकिन पचीस साल के नवजवान को सही गलत भेद समझा पाना कठिन है। उनको क़ानून समझायेगा। देर कभी नहीं होती। जब जागो तभी सवेरा। चंग़ेज़ों, ग़ज़नवियों, गोरियों और अंग्रेज़ों के समय हमने जो गलतियाँ की थीं कम से कम उन्हें तो न दोहरायें। बँधी मुट्ठी ही ताक़त है। लोग बाग़ आजकल ग़ालिब के नाम से कुछ भी चेप देते हैं.

हमें अपनों ने लूटा गैरों में कहाँ दम था  
मेरी कश्ती वहां डूबी जहाँ पानी कम था  

(मुझे शक है। ऐसा शेर कम से कम ग़ालिब तो नहीं लिख सकते। किन्तु बात सही है। असली शायर को आभार।)  

- वाणभट्ट 

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