गुरुवार, 18 जनवरी 2024

रेन डियर

वो सामने से चला आ रहा था. उसे पहचान पाना बहुत मुश्किल था. शरीर का एक-एक हिस्सा उसने पूरी तरह ढँक रखा था. मिस्टर इण्डिया जैसी फिल्मों को देख कर हर खुराफ़ाती बालक इस फंतासी से जरुर गुजरता है कि वो क्या-क्या कर सकता है, यदि वो किसी प्रकार अदृश्य हो जाये. टीचर की अलमारी से होने वाले मैथ्स एग्जाम का पेपर निकाल लाये और 100 प्रतिशत अंक लेकर अपनी क्लास में रौब जमाये. या क्लास के सबसे अच्छे बच्चे का असाइन्मेंट गायब कर दे ताकि उसे भी क्लास के बाहर मुर्गा बनाया जाये. बड़े होते-होते इस तरह की फैंटेसी की ऐसी की तैसी हो जाती है. 

बड़े हो कर उसे लगता कि वो हर समय किसी न किसी के रडार पर है. चाहे घर में माँ-बाप-दादी-बाबा-भाई-बहन के, चाहे बाहर सशंकित पडोसीयों के. पहले के पडोसी वैसे पडोसी नहीं हुआ करते थे, जैसे आजकल के. तब सुविधाओं का दौर न था. सबको लगता था कि किसी की भी जरूरत पड़ सकती है. इसलिये पडोसी भी रिश्तेदार हुआ करते थे. कोई अंकल नहीं था. सब चाचा-मामा-भैया-भाभी-दीदी-जीजा-मौसी-मौसा टाइप के लोग होते थे. जिन्हें अपने बच्चों से ज्यादा पड़ोसियों के बच्चों में दिलचस्पी होती थी. हाईस्कूल का रिज़ल्ट आया तो सिर्फ़ डिविज़न पूछ लें और मिठाई खा कर निकल जायें, ऐसे पडोसी किस्मत वालों को नसीब होते थे. ये भाई लोग एक-एक सब्जेक्ट के मार्क्स पूछ कर, जोड़ कर और परसेंटेज निकाल कर ही डिविज़न मानते थे. कहीं वर्मा का लड़का झुट्ठै फ़र्स्ट डिविज़न तो नहीं पेल रिया है. उस सब्जेक्ट पर ज़रूर ज्ञान देते जिसमें नम्बर कम आया हो. मैथ्स कमज़ोर है, तो बेटा बॉयोलॉजी या एग्रीकल्चर ले लेना. मैथ्स तुम्हारे बस की बात नहीं है. और तो और, कुछ ऐसे भी लोग थे (हरामखोर कहना तो नहीं चाहता लेकिन कहना पड़ रहा है), जो कम्बख्त मिठाई खाने के बाद बताते कि शर्मा के लौंडे की तो फ़र्स्ट डिविज़न विथ डिस्टिंक्शन आयी है. कसम से मन करता कि हलक में हाथ डाल के अपनी मिठाई निकाल लूँ. लेकिन पडोसी धर्म सर्वोपरि होता था. पिता जी को भी अपने बच्चे के कैरियर से ज़्यादा पड़ोसियों के कमेंट्स की चिन्ता होती थी. बस यही कहते बेटा फ़र्स्ट डिविज़न ले आना नहीं तो समाज में नाक कट जायेगी. पहले तो मुझे लगता था कि पिता जी तो थ्रू आउट फ़र्स्ट क्लास रहे होंगे. लेकिन बाद में पता चला कि उनके ज़माने में पास हो जाना ही काफी हुआ करता था. 

यदि किसी की सेकेण्ड डिविज़न आ जाये तो घर और पड़ोस का जुल्म इतना था कि हाईस्कूल पास नन्हीं सी जान को लगता वो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहा. कुछ दिन वो मोहल्ले वालों की नज़रों से दूर रह कर यही पता करता रहता कि मोहल्ले में किस-किस के बच्चे की सेकेण्ड डिविज़न आयी है. आजकल जब कोई पडोसी, पडोसी के बच्चे को क्या, पडोसी को नहीं पूछता, तो मुँह छुपा कर चलने का फैशन बढ़ गया है. लोग मुँह छिपाये घूमना ज्यादा पसंद करते हैं. पहले तो महिलायें ही घूँघट-बुर्के-हिज़ाब की आड़ लेती थीं. जबसे कोरोना आया पुरुषों को भी हिजाब पहनने का परमिट मिल गया है. मिस्टर इंडिया में अदृश्य होने का फ़ॉर्मूला विलेन को इसलिये चाहिये था कि वो उसका उपयोग गलत काम के लिये कर सके. जबकि हीरो उसे समाज सेवा के लिये उपयोग में लाना चाहता था.  बहरहाल जिस तरह समाज का चारित्रिक और नैतिक पतन हुआ है, वो प्रतिदिन के अखबार में परिलक्षित होता है. ऐसे में यदि कोई ऐसी जड़ी-बूटी बन गयी कि आदमी गायब हो सके, तो निश्चय ही अपराध दर में भयन्कर इज़ाफा होना तय है. बिना पात्रता के जब शक्ति मिलती है तो विनाश की शुरुआत हो जाती है.

लेकिन यहाँ ऐसी कोई बात नहीं थी. सर्दी का सितम अपने चरम पर था. तो जनाब ने अपने को सर से पैर तक पूरी तरह कवर कर रखा था. वो इस कदर पैक था कि पास आने के बाद भी मेरे लिए उसे पहचान पाना मुश्किल था. कद-काठी-चाल से अंदाज़ तो लग रहा था कि वो वही है जो मै समझ रहा हूँ. उसने अपना मुँह एन-90 मास्क से कवर कर रखा था. आँखों पर चढ़े चश्मे ने उसे पहचान सकने की बची-खुची सम्भावना को भी दर-किनार कर दिया. संयोग से मेरा चेहरा खुला हुआ था, इसलिये वो मुझे पहचान सकता था. लेकिन आजकल वैसे भी कौन किसे पहचानना चाहता है, यदि काम न हो तो. 

हाड़-कपाऊ ठण्ड की ठण्डी हवा से मेरी चन्द्र नाड़ी यानि बायीं नाक चोक लेने लगी थी. जैसी उम्मीद थी मेरे जैकेट की जेब से एक पुराना सर्जिकल मास्क निकल आया. लगा ऊपर वाला इस उम्र में मुझे -जैसे को तैसा- जैसा ब्रह्मज्ञान सिखाना चाह रहा है. जब वो नहीं पहचान रहा तो मैंने भी उसे हेलो कहने के बजाय मास्क लगाना श्रेयस्कर समझा. अपनी वाकिंग स्पीड को बढ़ा कर मैंने उसे क्रॉस कर लिया. मास्क की वजह से मेरी साँसों की गर्म हवा अब मेरे ही नथुनों को गर्म कर रही थी. थोड़ी दूर चलने के बाद महसूस हुआ कि मेरी बायीं नाक जो लगभग बंद हो गयी थी, खुल गयी है. मेरे मस्तिष्क से सामने अनायास ही बर्फ़ीले आर्कटिक क्षेत्र में पाये जाने वाले रेनडियर की शक्ल कौंध गयी. जिसकी नाक बर्फ़ीली ठंडी सर्द हवा को अन्दर लेने से पहले गर्म कर देती है. अब मुझे इस एक्सट्रीम ठण्ड से लड़ने के लिये जैकेट, मफ़लर, टोपी, दस्ताने के अलावा एक और हथियार मिल गया था.

-वाणभट्ट    

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मैं कमीज़ पहनता हूं तो जैसे कवच पहनता हूं घर से निकलता हूं तो किसी युद्ध के लिए - देवी प्रसाद मिश्र एक जमाना जब पढ़े-लिखे लोग कम थे, लेकिन व...