शनिवार, 8 मार्च 2025

इन द परस्युट ऑफ़ हैप्पीनेस

देवेश का फोन आया तो उसमें आग्रह के भाव से कहीं ज्यादा अधिकार का भाव था. 'भैया हमका महाकुम्भ नय नहलउबो का. तुम्हार जइस इलाहाबादी के रहे हम डुबकी नय लगाय पाये तो तुम्हार प्रयागराजी होवै के का फ़ायदा.' 

इस महाकुम्भ में एक बार पहले भी नहा पाने की स्मृतियाँ जीवन्त हो गयीं. कानपुर से निकलते ही मेले का सा माहौल बन गया था. जिसे देखो प्रयागराज की ओर बढ़ा चला जा रहा है. रास्ते में कोई चाय की दुकान या ढाबा नहीं था जहाँ लोगों की भीड़ न हो. जहाँ-जहाँ टोल प्लाजा और डाईवर्ज़ंस थे, वहाँ-वहाँ यही भीड़ जाम में कन्वर्ट हो जा रही थी. पेट्रोल पम्प पर गाड़ियों की लम्बी-लम्बी लाइनें लगी हुयी थीं. ऐसी लाइनें हम लोगों को तभी देखने को मिलती थीं जब अफवाह फ़ैल जाती थी कि बजट में तेल का दाम बढ़ने वाला है, या शहर के सभी पेट्रोल पम्पों में बस दो दिन का पेट्रोल बचा है. लोग वाहन उपयोग के इतने आदी हो चले हैं कि यात्रा के किसी अन्य मोड के बारे में सोच भी नहीं सकते. सब टैंक फुल कराने में लगे रहते. मौकापरस्त लोग पेट्रोल के थोड़े ज्यादा पैसे भी वसूल लें तो वाहन स्वामी सहर्ष दे देते. अख़बारों और न्यूज़ चैनेल्स में प्रयागराज जा रही सभी ट्रेनों के ठसाठस फुल होने के दृश्य दिखाये जा रहे थे. स्टेशन पर भी ट्रेन्स में चढने-उतरने में मारा-मारी दिखायी जा रही थी. कुछ स्टेशनों पर तो तिल रखने की भी जगह नहीं दिख रही थी. क्या रिजर्वेशन और क्या बिना रिजर्वेशन. भीड़ इतनी की ना तो कोई टिकट खरीद सकता था, ना कोई उसे चेक कर सकता था. जब आप पुण्य कार्य के लिये जा रहे हों तो टिकट खरीदने या देखने या दिखाने को प्रभु के कार्य में हस्तक्षेप ही माना जायेगा. लेकिन ये तय है कि बिना श्रद्धा के कोई घर से निकलने की हिम्मत नहीं कर सकता. वैसे भी हमारे यहाँ मान्यता है कि जब कोई अदृश्य शक्ति आपको प्रेरित करती है, तभी आप तीर्थ के लिये निकल पाते हैं. आप गंगा जी नहीं जाते, गंगा जी आपको बुलाती हैं.

बहुत से मन के चंगे लोगों ने कठौती में ही गंगा मान कर बाल्टी स्नान कर लिया. और जो लोग प्रयागराज रिटर्न थे, उनको भी अपने इस ब्रह्म ज्ञान से वंचित न रहने दिया. कुछ को प्रयागराज से लौटे श्रद्धालुओं द्वारा लाया संगम का जल मिल गया था. यदि कोई कहता है कि भारत में भगवान बसते हैं, तो उसने सही ही कहा है. एक सौ पचास करोड़ के देश में यदि मात्र दस प्रतिशत लोग ही आज़ादी के पचहत्तर साल बाद विकसित भारत की सुविधाओं का लाभ लेने में सक्षम हों तो बाकी एक सौ पैंतीस करोड़ को भी तो जीने का कोई ना कोई सबब चाहिये ना. पढ़े-लिखे अज्ञानी इसे अन्ध भक्ति कह सकते हैं. उन्हें धर्म को अफ़ीम बोलने में किसी प्रकार की आत्मग्लानि महसूस नहीं होती. लेकिन मज़हब को नासूर बोलने में चोक लेने लगती है.

जितने लोग निकल पड़े थे, उन्हें स्वयं से ज्यादा भगवान का ही भरोसा था. कब और कैसे पहुँचेंगे, कहाँ रुकेंगे, क्या खायेंगे, ये सोच लिया होता तो वे घर से निकल ही नहीं पाते. सरकार ने बहुत पुख्ता इंतज़ामात किये थे, ताकि अधिक से अधिक लोग महाकुम्भ में सम्मिलित हो सकें. मुख्य नहान दिनों के अलावा प्रतिदिन एक से दो करोड़ लोगों द्वारा संगम पर आस्था की डुबकी लगाना जीवन में एक बार प्राप्त होने वाला अनुभव था. लेकिन उस अनन्त जनसमूह में आपका अपना अहम तिरोहित हो जाता है. एक अस्तित्वहीनता का बोध जन्म लेता है. साथ ही ये भान भी होता है बूँद-बूँद से सिन्धु बना है. बूँदों के बिना सागर का अस्तित्व नहीं है. सागर में बूँद का कोई वज़ूद हो न हो लेकिन हर बूँद में सागर के समस्त गुण-धर्म-अवयव उपस्थित हैं. सब अपने-अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार धरती पर अवतरित और अवस्थित हैं. सब की अपनी-अपनी नितान्त एकाकी यात्रा है. सब यहाँ यदि उमड़े पड़ रहे हैं तो अपने-अपने व्यक्तिगत मोक्ष की कामना के साथ. 

हमारे वाकर्स ग्रूप के चार बन्दों ने पच्चीस जनवरी को महाकुम्भ जाने का निर्णय लिया. मैंने जब से होश सम्भाला है हर पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी को देश के झण्डे को नमन अवश्य किया है. मुझे उम्मीद थी कि पच्चीस को जा कर, उसी दिन लौट के आ पाना शायद सम्भव न हो पाये, इसलिये मैंने जाने से मना कर दिया. शाम को हम और गर्ग साहब जब आराम से चाय का लुफ्त उठा रहे थे, बर्थवाल जी का फोन आया कि यार मिश्रा ने भीड़-भाड़ देख कर जाने का आइडिया ड्राप कर दिया है. हम लोग की विशेषता है कि व्यक्तिवाचक नामों के ऊपर सहजता से जातिवाचक सूचकों से लोगों को बुला लेते हैं. माँ-बाप खामख्वाह ही बच्चों के नाम पर रिसर्च करते हैं. जब कि हम वर्मा-शर्मा से भी काम चला सकते हैं. अब कोई और इंटरेस्टेड हो तो उसे अकोमोडेट किया जा सकता हैं. शायद गंगा मैया की पुकार थी जिसने मुझे बॉस से स्टेशन लीव लेने के लिये प्रेरित किया. 'सर यदि इजाज़त हो तो इस बार मै प्रयागराज में ही झन्डा फहरा लूँ.' माँ गंगे की कृपा से मुझे इस बात की सहर्ष अनुमति भी मिल गयी. अब भी अगर मै कहूँ कि मै प्रयागराज गया था, तो मेरी भूल होगी. करने और करवाने वाला तो बस केशव है, हम तो बस अपने-अपने अहम् का वहम पाले बैठे हैं. प्रभु की माया ही ऐसी है. 

हम लोग प्रातः छ: बजे इलाहाबाद के रास्ते पर निकल पड़े थे. रास्ते के दृश्य का बखान पहले ही कर चुका हूँ. बहरहाल किसी तरह लखनऊ वाली तरफ से हम इलाहाबाद में प्रवेश कर पाये. हाइवे छोड़ने के बाद सामने अन्तहीन जाम से सामना हुआ. शहर के भीतर के जाम की स्थिति कोई बेहतर नहीं थी. कई डायवर्ज़ंस को झेलते हुये किसी तरह हम लोग अपने बाघम्बरी स्थित घर पहुँच पाये. मित्रों ने राय दी कि कार को घर पर ही छोड़ दिया जाये और आगे की यात्रा पैदल तय की जाये. इलाहाबाद में जिसका जीवन बीता हो उसे घर से संगम तक पैदल जाने की बात थोड़ी अटपटी लगी. मैंने प्रतिरोध किया कि कार जहाँ तक जा सकती है वहाँ तक चलते हैं, उसके बाद पैदल चल लेंगे. लेकिन जाम के मद्देनज़र मित्रों ने लोकल व्यक्ति की सलाह मानने से इन्कार कर दिया. मन मसोस के मुझे भी उनके साथ पैदल चलना पड़ गया. ये तो बाद में पता चला कि ये हम लोगों का उस दिन का सबसे अच्छा निर्णय था. संयोग से हमारे घर से संगम की कुल दूरी अधिक से अधिक पाँच किलोमीटर की होगी. सो ये तो पता था कि अधिकतम कितना चलना पड़ सकता है. जाम-डाईवर्ज़ंस में घूमते-फिरते हम लोगों संगम स्नान करके लौटने में छ: घन्टे लगे. इस बीच जब हम लोग कुछ अल्पाहार के लिये रुके तो मुझे ध्यान आया कि मेरा एकादशी का व्रत भी है और सुबह से कुछ संतरों और केलों का ही सेवन किया था. बाकी लोगों ने बीच में भोजन जैसा कुछ लिया था. शाम तीन बजे से निकले-निकले रात नौ बजे हम वापस घर लौट पाये. सुबह छ: बजे से हम निरंतर यात्रा पर थे. सभी के शरीर थक चुके थे लेकिन संगम स्नान के बाद सभी की आत्मा जोश से लबरेज थी. स्नान के बाद माथे पर चन्दन-टीका करके हम सब एक अनजान स्फूर्ति का अनुभव कर रहे थे. 

मैंने पता किया पास ही एक स्कूल के प्रांगण में झन्डा फहराने का कार्यक्रम सुबह नौ बजे संपन्न होना था. मैंने कहा उसके बाद निकलने में कल दस तो बज ही जायेगा. सबने एक दूसरे की ओर देखा. बर्थवाल ने बोला - कल यदि झन्डा आप अपने ऑफिस में ही फहरायें तो कैसा रहेगा. सभी के चहरे चमक उठे. अगले पाँच मिनट में हम फिर सफ़र पर थे. जितना जाम जाने में था उतना ही जाम लौटने में भी था. लेकिन शहर के भीतर, हाइवे पहुँचने तक. जाने वाले रास्ते पर अभी भी जाम की स्थिति बनी हुयी थी. हमारी लौटने वाली साइड पर कतिपय कम भीड़ थी. रात तीन बजे हम लोग वापस कानपुर आ सके और मै अपने संस्थान के 26 जनवरी समरोह में सम्मिलित भी हुआ. अब इसे कोई दैवी शक्ति न माने तो न माने, मुझे मालूम है कि ये सब मुझे मेरे सामर्थ्य के बाहर प्रतीत होता यदि मैंने माँ गंगा के बुलावे पर अपना दिमाग लगा दिया होता. यही स्थिति कमोबेश सभी श्रद्धालुओं के साथ हुयी होगी. कुछ को शहर प्रवेश से ही पन्दरह-बीस किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था. लेकिन आध्यात्म से चमकते उनके चेहरों पर पुलिस-प्रशासन के लिये अतिश्योक्तिरंजित शब्द थे. किसी को किसी प्रकार का न गिला था न शिकवा.    

देवेश बाबू, हैं तो पटना के खाँटी बिहारी, लेकिन इलाहाबाद में साथ बीटेक करने के दौरान इलाहाबादी भाषा-शैली में विशारद भी कर डाली. ये उपाधि कोई संस्थान या विश्वविद्यालय नहीं देता. इसे आपको परम ज्ञानी इलाहाबादियों संगत में रह कर ही प्राप्त करना होता है. जिसका उपयोग रिक्शे-ऑटो से करना नितान्त आवश्यक है, अन्यथा वे आपको बाहरी समझ कर दुगना पैसा वसूल लें. इसका दूसरा सबसे प्रयोग होता था तब होता है जब इलाहाबादी बकैतों को डील करना हो. अगर आपने बहस-मुबाहिसा (वाद-विवाद) में परिस्कृत भाषा शैली का प्रयोग गलती से कर दिया तो आपके लिये लॉजिकल तरीके से बात कहना मुश्किल हो जाये. बहुत मुमकिन है कि इलाहाबादी आपको बताय दे कि तुम अबहिन लरका हो और तुमका कुच्छौ नय मालूम है. ऐके बाद बहस की कौनो गुंजाईश बचत है का. आपको बैकफुट पर आना ही पड़ता कि इन जाहिलों से कौन भिड़े. 

मेरा इलाहाबाद कुछ हद तक सन अट्ठासी के बाद से छूट सा गया था, ये बात अलग है कि आप चाहिये तो भी इलाहाबाद छूटता कहाँ है. दिल्ली-पंजाब में रहने के बाद हिन्दी जैसा कुछ तो बचा रहा लेकिन इलाहाबादी भाषा पर कमांड जाता रहा. फेसबुक और वाट्सएप्प पर इलाहाबादी ग्रूप्स में होने के कारण हम लोग गाहे-बगाहे इलाहाबादी की प्रैक्टिस कर लेते हैं. ईश्वरीय विधान के अनुसार फिलहाल मेरा डेरा कानपुर है, जो कि एक गंगा किनारे वाला शहर है. मैंने देवेश को बताने की कोशिश की कि भाई भगवान् के फज़ल से मै पहले ही पच्चीस जनवरी को ही संगम स्नान का पुण्य लाभ ले आया. मेरी अब तक की ज़िन्दगी में अटेंड किये गए माघ, अर्धकुम्भ और कुम्भ मेलों में पहला अवसर था, जब मुझ इलाहाबादी को अपने घर से संगम तक की दूरी पैदल नापनी पड़ी हो. इसके पहले सायकिल, स्कूटर या कार संगम क्षेत्र तक चली जाया करती थी. लेकिन 144 साल बाद पड़ने वाला ये महाकुम्भ भी तो पहली बार पड़ा था. देवेश के पुन: गंगा स्नान के आग्रह को मुझे मानना ही था. दोस्ती होती भी तो निभाने के लिये है. तय हुआ कि 21 फरवरी को सुबह निकल कर भाई दिल्ली से कानपुर आ जायेगा और शाम को ऑफिस करके हम लोग प्रयागराज को कूच कर जायें ताकि रात 12 तक हम संगम तट पर पहुँच जायें. 

लेकिन ऐसा हो न सका, देवेश भाई का प्रवेश कानपुर में रात आठ बजे के बाद हुआ. खाना-पीना करके हम लोग रात ग्यारह बजे उसकी ऑटोमेटिक गियर वाली एसयूवी से निकल पाये. उसके ड्राइवर ओम को कानपुर में आराम करने के लिये बमुश्किल आधा एक घंटा मिला होगा. लेकिन वो ड्राइवर ही क्या जो ये न हाँके कि मैंने तीन-तीन दिन तक लगातार कार चलायी है. उसका एक पक्ष ये है कि मेरे रहते साहब को आराम न मिला तो मेरे होने का क्या लाभ. दूसरा पक्ष ये भी हो सकता है कि साहब की ड्राइविंग पर उसे भरोसा कम हो. गाडी ऑटोमेटिक थी और बड़ी थी इसलिये मुझ जैसे छोटी गाड़ी ब्रिओ चलाने वाले पर न तो दोस्त को विश्वास था न ड्राइवर को. 

प्रयागराज की बानगी भौती बायपास से ही दिखनी शुरू हो गयी थी. हमें लगा शायद जाम कानपुर के एन्ट्री पॉइंट रामदेवी तक हो लेकिन जल्द ही ये एहसास हो गया कि पूरे इलाहाबाद तक इस जाम से जूझना पड़ेगा. बाई पास के बाद जाम और बढ़ता जा रहा था. कोई ढाबा, चाय की दुकान, पेट्रोल पम्प खाली नहीं था. जाम में जो गाड़ियाँ दिख रही थीं, उनमें से गाहे-बगाहे ही यूपी की गाड़ियाँ थीं. पंजाब, गुजरात, हिमाचल, राजस्थान आदि प्रदेशों से आ रही गाड़ियों का ताँता लगा हुआ था. उसमें हमारी दिल्ली की एक गाडी भी फँस गयी थी. किसी को कोई हड़बड़ी आज नहीं थी. कोई कान-फोडू हॉर्न नहीं. सब शांति से अपनी लेन में गाड़ी लगाये खड़े थे. जगह मिलती तो बढ़ते, न मिलती तो खड़े रहते. ये बात अलग है कि छ: लेन सड़क पर आठ लेन बन चुकीं थीं, जो जाम के दृश्य को और भी भयावह बना रही थीं. ड्राइवर के बगल वाली सीट पर मै काबिज था, पीछे वाली सीट पर भाई रश्मि भाभी के साथ विराजमान थे. सामने वाली कार लगभग दस मीटर मूव कर चुकी थी, पीछे वाले से रहा नहीं गया, उसने हॉर्न ठोंक दिया. मैंने ओम की ओर मुड़ के देखा तो उसे आँख बन्द किये ध्यानावस्था में पाया. हल्के से आवाज़ देकर उसे गाडी किनारे किसी चाय की दुकान पर लगाने को कहा. 

उसके बाद की कमान देवेश ने सम्हाली और ड्राइवर साहब एक घन्टे की नैप लेने के इरादे से बगल वाली सीट पर बैठ गये. सुबह 6 बजे हम लोग इलाहाबाद के एन्ट्री पॉइंट पर थे. और गूगल मैप आगे का रास्ता नीला दिखा रहा था, जो हमें किसी चमत्कार जैसा लगा. लगा हाइवे छोड़ के हम एक घन्टे में घर पर होंगे. लेकिन एन्ट्री पॉइंट पर आठ लेन ट्रैक का जाम बगल सब लेन में भी प्रवेश कर चुका था. ओम तब तक अपनी नींद पूरी करके उठ गया था. एक पेट्रोल पम्प पर हम लोगों ने टैंक फुल करा लिया ताकि लौटते समय पेट्रोल की चिंता न रहे. वहीं पर चाय पी गयी. चाय वाले से पूछा यहाँ इतने बड़े जाम का क्या कारण है, जबकि आगे सड़क खाली है. उसने एक कातिल मुस्कराहट के साथ जवाब दिया - यहाँ से इलाहाबाद में प्रवेश बंद है. सब को लखनऊ वाली तरफ से ही घुसना होगा. बनारस रूट पर आगे बढने से पहले एक टोल भी है. अब मुझे उस जाम का कारण समझ आ गया था. ओम ड्राइविंग सीट पर अपनी जगह पुन: स्थापित हो गया और देवेश पिछली सीट पर बैठते ही नींद के आगोश में आ चुका था.          

लगभग 15-20 लाख की शहरी आबादी वाले शहर में प्रतिदिन एक करोड़ से ज्यादा लोगों के आने से प्रशासन को यदि अप्रत्याशित कदम उठाने पड़ें, तो उठाने ही पड़ेंगे. एक तरफ से आओ और दूसरी तरफ से निकल जाओ. मुझे लगा ऐसी व्यवस्था ठीक ही है. चूँकि इस यात्रा के सूत्रधार मा-बदौलत ही थे तो मेरी पलक झपकने का सवाल ही कहाँ था. चलाना मुझको था नहीं सो मेरी ड्यूटी बस ये ही देखने की थी कि ड्राइव करने वाला झपिया तो नहीं रहा. लेकिन इस भीषण जाम में झपियाने की गुंजाईश नहीं थी. झपियाये नहीं कि आगे या पीछे से ठुंके नहीं. इस बात का संतोष था कि धीरे ही सही, आगे बढ़ तो रहे हैं. लखनऊ रूट से जब इलाहाबाद के लिए बढ़े तो लगा, अब घर सारे जामों के बाद भी जल्द पहुँच जायेंगे. लेकिन आगे बढ़ने पर बताया गया फाफामऊ पुल से प्रवेश निषेध है. आगे बेला कछार से स्टील ब्रिज के द्वारा शहर में प्रवेश किया जा सकता है. हमने मान लिया कि जाम से बचने का एक तरीका डायवर्ज़न भी है, सो बिना किसी हील-हुज्जत के आगे बढ़ लिये. इलाहाबादी होने के नाते मुझे ऐसे किसी पुल का ज्ञान नहीं था जो सीधे स्टैनली रोड पर खुलता हो, लेकिन इंतजाम पुलिस का था और पुलिस का विनम्रता से आग्रह करना अपने आप में एक अजूबा सा लगा. ये भी लगा कि ज्यादा झिकझिक की तो भाई लोग अपने पुराने रूप में न आ जायें. तो हम लोग बढ़ते चले गये. और स्टील ब्रिज से होते हुये स्टैनली तक पहुँच गये. अब मेरा गन्तव्य, मेरा घर, मात्र छ:-सात किलोमीटर यानि आधा घंटा की दूरी पर था. तभी सामने चौराहे पर एकाएक कुछ पुलिस वाले प्रकट हो गये. उन्होंने बताया - दरअसल बेला कछार में पार्किंग बनायी ही इसलिये गयी है कि वहाँ इलाहाबाद के बाहर से आने वाली गाड़ियों को खड़ा करा दिया जाये. वहाँ दूर दूर तक न हाथी था ना घोड़ा था, सभी को पैदल ही जाना था. रेतीली मिटटी में इ-रिक्शे चल नहीं सकते थे. मै तो बस इस ख़ुलूस में बढ़ा जा रहा था कि अपना घर तो है ही.            

पुलिस वाले ने मुस्कुराते हुये बड़ी मासूमियत से हमें रोक दिया. आप अपनी गाड़ी बेला कछार में लगा दीजिये. मैंने बताया कि मै इलाहाबाद का ही रहने वाला हूँ. उसने बताया या तो इलाहाबाद की कार हो या इलाहाबाद का आधार हो तब ही हम आपको शहर प्रवेश की इज़ाजत दे सकते हैं. मैंने चिरौरी के अन्दाज़ में कहा - भाई जब नौकरी बाहर है, आधार भी कानपुर का है, तो क्या करूँ. देवेश की तन्द्रा कुछ देर पहले ही टूटी थी. बिफर गया - ये कह तो रहे हैं कि इनका घर है यहाँ पर और ये भी सरकारी अधिकारी हैं सेन्ट्रल गवर्नमेंट में. पुलिस वाले पर देवेश के पर्सनालिटी का कुछ रौब पड़ा या नहीं ये तो कहना मुश्किल है लेकिन पीछे लग रहे जाम की अपेक्षा हम लोगों को प्रवेश की अनुमति देना उसे ज्यादा उचित लगा. हमारे मुड़ने की जगह भी नहीं थी. उसने साथ ही ये शब्द भी जोड़ दिये सीधे से निकल जाइये आप लोग दाहिने कहाँ मुड़ने जा रहे थे. उस दिन पहली बार मुझे अपने ही शहर में बेगानेपन का एहसास हुआ. शुक्र है कि हम आगे निकल गये अगर वापस लौट के बेला कछार में गाड़ी पार्क करनी पड़ती तो हम लोगों को भले थोडा ज्यादा चलना होता लेकिन बेचारे पाठकों का क्या होता. उनके के लिये ये लम्बा ब्लॉग और लम्बा हो जाता. उस पुलिस वाले में हमें देवदर्शन हो गये. भगवान् के प्रति आस्था कुछ और बढ़ गयी. 

शहर के जाम से जूझते हुये किसी तरह जब हमने घर के सामने गाडी खड़ी की तो दोपहर का एक बजा था. कानपुर से इलाहाबाद अपने घर तक की यात्रा में हमें चौदह घन्टे लग चुके थे.  

अब हमारा अगला काम था जल्दी से फ्रेश हो कर संगम की ओर पैदल प्रस्थान करना. पिछले अनुभव ने यही सिखाया था. शहर में जिधर देखो आदमी ही आदमी. पूरा रास्ता पैदल श्रद्धालुओं से भरा हुआ था. आपको अपने लिये जगह बनाते हुये आगे बढ़ना एक चुनौती से कम नहीं था. तीर्थयात्रियों के लिये आने और जाने के मार्ग को भी अलग करने का प्रयास किया गया था. भीड़ को कम करने के उद्देश्य से बैरिकेड्स लगा कर रूट डाईवर्जन्स भी किये गये थे. सामने दिख रहे गंतव्य तक पहुँचने में आपको कितनी दूरी तय करनी होगी और कितना समय लगेगा ये कहना मुश्किल था. इ-रिक्शे ने अलोपी मन्दिर पर छोड़ दिया. किसी ने बताया आजकल यंग बाइकर्स मोटरसायकिल पर लोगों को थोडा और आगे तक ले जा सकते हैं. किराया दो सौ रुपये प्रति सवारी और एक मोटरसायकिल पर दो सवारी से कम नहीं बैठा रहे थे. वो दो मोटरसायकिल वाले भी हमें देवदूतों से कम नहीं लगे. लेकिन उन्होंने शास्त्री ब्रिज के नीचे जहाँ छोड़ा वहाँ से भी संगम एरिया ढाई किलोमीटर तो रहा ही होगा. लेकिन रेले के साथ बढ़ते हुये शायद ही किसी को ये ध्यान आया हो कि हम सबने रात भर यात्रा की है या किसी प्रकार की थकान है. शिव रात्रि और मेले का आखिरी स्नान करीब ही था और हर कोई चाहता था कि वो इस महाकुम्भ का हिस्सा बने इसलिये प्रतिदिन एक से डेढ़ करोड़ लोग प्रयागराज में संगम स्नान कर रहे थे. संगम पर हर तरफ़ आदमी ही आदमी दिख रहे थे. कहीं भी कपड़े-बैग रखने की जगह नहीं दिख रही थी. मेले की खासियत होती है, आप बढ़ते जाते हैं तो रास्ता निकलता जाता है. हम सबने बारी-बारी से स्नान किया. इस भीड़ में हर व्यक्ति अकेला था. उसके संकल्प, उसकी मान्यतायें उसकी अपनी थीं. सभी उस अद्भुत वातावरण में राग-द्वेष से पूरी तरह मुक्त थे. जितने संकल्प उतनी डुबकी. डुबकी सभी इष्ट-मित्र-परिवार के लिये. भाभी जी ने सम्पूर्ण भक्ति भाव के साथ पूजा अर्चना सम्पन्न की. लेकिन चन्दन-टीका और सेल्फी भी ज़रूरी थी स्नान को यादगार बनाने के लिये. 


पाप-पुण्य की अह्मंयताओं से मुक्त ये स्नान हमारे जीवन के कुछ अविस्मरणीय क्षणों में शामिल हो गया. आनन्द की खोज में सभी इधर-उधर भटक रहे हैं. यूँ ही करोड़ों लोग कष्ट झेलते हुये हर साल माघ मेले में संगम तट पर नहीं पहुँच जाते. इस बार तो ग्रहों का विशेष संयोग वैसे भी 144 साल बाद पड़ा था. इस भीड़ का हिस्सा बनके हर व्यक्ति आल्हादित अनुभव कर रहा था. हम भी उनमें से एक थे. लेकिन एक बात हमें अच्छे से समझ आ गयी थी, कष्ट जितना अधिक होगा आनन्द का लेवल भी उतना ही अधिक होगा. कम या अधिक सभी 60 करोड़ श्रद्धालुओं ने इस यात्रा में कष्ट उठाये होंगे. लेकिन सब तृप्त आत्मा से वापस लौट गये. उन करोड़ों लोगों की तरह वापस लौटते हुये हम भी इस अद्भुत अनुभव को संजोने में लगे थे. गंगाजल और संगम की मिट्टी साथ थी, अपने उन इष्ट-मित्रों के लिये जो किसी कारण से संगम तक नहीं पहुँच पाये थे. आनन्द वो नहीं है जो आप अपने लिये करते हैं. आनन्द वो है जो हम दूसरों के लिये करते हैं. और इसकी खासियत है कि ये बाँटने से बढ़ता है. 

- वाणभट्ट 

3 टिप्‍पणियां:

  1. कुम्भ यात्रा का जीवंत चित्रण, आपकी मित्रता की डोर गंगा मैया की कृपा से और भी मजबूत हुई, इस आध्यात्मिक यात्रा के साझीदार बने। मेरा भी विश्वास है कि ऐसे अनुभव के लिए बुलावा ही आता है अन्यथा निमित्त नही बन पाते। आपकी लाज़बाब लेखनी से ब्लॉग की धारा बहती रहे।जय गंगे मैया,हर हर गंगे🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. 👏👏👏 जय हो गंगा मैया की 😌🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. कुंभ यात्रा का रोचक एवं सटीक चित्रण किया है आपने।

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

इन द परस्युट ऑफ़ हैप्पीनेस

देवेश का फोन आया तो उसमें आग्रह के भाव से कहीं ज्यादा अधिकार का भाव था. 'भैया हमका महाकुम्भ नय नहलउबो का. तुम्हार जइस इलाहाबादी के रहे ह...