शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

जागे हुये लोग

सुबह सवेरे हमारे घर की शुरुआत विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून से होती थी. वंदेमातरम जो आज तक कंठस्थ है, उसके बाद शुरू होता था. फिर शुरू होती थी हम लोगों की भागम-भाग. सात बजे तक स्कूल पहुँचना होता था. प्रार्थना सभा में ही अटेंडेंस हुआ करती थी. पिता जी की दिनचर्या बहुत ही नियमित थी. जाड़ा-गर्मी-बरसात पाँच बजे टहलने निकल जाते थे. बस बरसात में छड़ी, छाते से बदल जाती थी. संडे हो या छुट्टी हो या समर-विन्टर वेकेशन्स. न उनका नियम टूटता था, न हम लोगों का सुबह-सुबह उठना. ये बात अलग है कि छुट्टियों में हम लोगों का उठने का कोई इरादा नहीं होता था, लेकिन उठना पड़ता था क्योंकि पापा टहल के लौटने के बाद किसी को बिस्तर पर देखना पसन्द नहीं करते थे.

गर्मी की छुट्टी से पहले अगले क्लास की किताबें आ जाती थीं और विन्टर वेकेशन्स में तो होम वर्क मिला ही करता था. एक गीत वो अक्सर कोट किया करते थे - भिंसहरे होगी अच्छी पढ़ाई, मुझको जगाना मेरे मुर्गे भाई. उनका मानना था कि प्रातः काल जो पढ़ाई होती है, वो लम्बे समय तक टिकती है.  लेकिन वो ज़माना अलग था. तब बच्चे बड़ों की बातें सिर्फ़ इसलिये मानते थे क्योंकि वो बड़े थे. आजकल के अन्तरजाल युग के बच्चों के पास हर चीज़ के तर्क हैं. उन्हें कुतर्क कहना ज़्यादा उचित होगा. रात के समय ज़्यादा शान्ति होती है, तब पढ़ाई में मन लगता है. और हम लोगों का बॉडी सायकिल भी समय के हिसाब से बदल गयी है. लेकिन इस पीढ़ी की एक बात तो माननी पड़ेगी, इन्हें जब उठना होता है, तो उठ ही जाते हैं, वो भी बिना अलार्म के. सुबह-सुबह मेरा भी मन करता है कि पूरे घर को उठा दूँ, लेकिन ख़ुदा के खौफ़ से ज़्यादा बेग़म का ख़ौफ़ होता है, जो हमेशा बच्चों के खेमे में खड़ी रहती हैं. रात भर पढ़ते हैं बच्चे, कब सोये तुम्हें क्या पता. तुम तो शुरू हो जाते हो सुबह-सुबह. तड़के सुबह उठने की बात हमारे समय के हिसाब से सही भी थी. कोई टीवी-मोबाइल-इंटरनेट तो था नहीं. सब टाइम से सोते थे और टाइम से उठते थे. अब जब उम्र का तकाज़ा है कि अपनी नींद पौ फटने से पहले ही खुल जाती है, तो पापा का दर्द समझ आता है. जब आप जग गये हों तो दूसरे लोगों को सोते हुये देखना बड़ा कष्टकारी होता है, आपके लिये.

रात में बिस्तर पर लेटने के बाद नींद न आये तो डॉक्टर इसे भयंकर बीमारी इन्सोम्निया बताते हैं. इसके लिये उनके तरकश में बहुत सी दवाइयाँ हैं. रात में सोने से पहले लीजिये और चैन से सोइये. लेकिन सुबह-सुबह बिना कारण सूर्योदय से पहले उठ जाना भी बीमारी से कम नहीं है. ये ऐसी बीमारी है कि जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है. इसे बीमारी कहना सही है या गलत, ये निर्णय मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ. लेकिन ये कहाँ तक सही है कि आप सबको इसलिये जगाने में लग जायें क्योंकि आप की आँख खुल चुकी है. दूसरों के सुख से सुखी न होना बीमारी नहीं तो और क्या है. वो भी सुबह-सुबह की अधजगी नींद जिसमें आपके मन के सपने साकार होते दिखते हैं. सुबह के सपनों के सच होने की सम्भावना भी अधिक रहती है क्योंकि वो ही तो कुछ-कुछ याद रह जाते हैं. ख़ुद जग जाना शायद बीमारी नहीं है लेकिन दूसरों को जगाने की इच्छा रखना मेरी समझ में बीमारी से कम नहीं है.

इस बीमारी से बड़े-बड़े लोग भी नहीं बच पाये. इस संसार में जो भी जग गया, वो दूसरों को जगाने में लग जाता है. फिर वो चाहे बुद्ध हों या महावीर हों. इन लोगों ने तो इतने लोगों के जीवन दर्शन को प्रभावित किया कि भगवान बन गये. हर युग में जब आदमी को हर तरफ़ अन्धकार ही दिख रहा हो, महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है. उन्होंने पाया कि अज्ञानता का अन्धकार प्रकाश की अनुपस्थिति से ज़्यादा गहन होता है. उन्होंने दुःख पर विजय के मार्ग खोजे. और लोगों में अपने ज्ञान का प्रसार करने में लग गये ताकि अन्य लोगों के जीवन को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर सकें. लेकिन बुद्ध के बता देने मात्र से कोई बुद्ध नहीं बन जाता. उनका ज्ञान सबके लिये सहज उपलब्ध था लेकिन सब उसका लाभ नहीं उठा पाये. ज्ञान की प्राप्ति के लिये सबसे पहले पात्रता विकसित करनी होती है. 

ये तो भला हो वे लोग हज़ारों वर्ष पहले धरा पर अवतरित हुये थे वरना आज के युग में जब ज्ञान इंटरनेट पर एक क्लिक में उपलब्ध है तो कौन भला किसे भगवान माने. पियर रिव्यूड जर्नल में जब तक न छप जाये, उस ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं है. भले लोग इम्युनिटी बढ़ाने के लिये आँवले का मुरब्बा खायें या तुलसी जी का काढ़ा पियें लेकिन डॉक्टर जब तक इलाज न करे, उसका ज्ञान व्यर्थ है. एक तरफ़ जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान है तो दूसरी तरफ सदियों के टाइम टेस्टेड देसी घरेलू नुस्ख़े हैं. अब चूँकि हमारी शिक्षा ही अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी पद्यति से हुयी है तो हमारा ज्ञान भी पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रभावित हो गया है. आज हम अपने परम्परागत ज्ञान पर विश्वास कर पाने में असमर्थ इसलिये हैं क्योंकि सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा ने अपना मूलभूत आधार ही खो दिया है. प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और होम्योपैथी के प्रति एक नकारात्मकता इसलिये देखने को मिलती है क्योंकि इसको पश्चिमी ज्ञान की स्वीकार्यता नहीं मिली है. दवाई की दुकानों पर ऐसी भीड़ देखने को मिलती है, जितनी किराना की दुकान पर नहीं. इसका मुख्य कारण लाइफ़ स्टाइल में बदलाव के बजाय दवाइयों का सेवन कहीं आसान है. आजकल एक बाबा और जग गये हैं, जो लोगों को स्वस्थ जीवन शैली अपनाने के लिये दिन-रात एक किये पड़े हैं. और लोग हैं कि एलोपैथी के पीछे लट्ठ लिये भाग रहे हैं. चूँकि बाबा की भाषा देसी है, अंग्रेजी पढ़े लोगों को उस पर विश्वास कम होता है. लेकिन दिनोंदिन बाबा के फॉलोवर्स बढ़ते जा रहे हैं. बाबा भी उत्साहित हो कर डटे हुये हैं. कुछ लोग ऐसे ही प्राकृतिक और जैविक खेती के प्रति लोगों को जागरूक करने में लगे हैं. यहाँ भी देसी और विदेशी शिक्षा का अन्तर्द्वन्द देखने को मिल सकता है. लेकिन जो लोग जग गये हैं, उन्हें चैन कहाँ जब तक सबको जगा न लें. 

आज सुबह भी हर रोज की तरह पौ फटने से पहले नींद खुल गयी तो इसी प्रकार के ना ना विचार मन-मस्तिष्क में घूमने लगे. ये भी महसूस हुआ कि जब बुद्ध को ज्ञान मिल गया तो उन्हें दूसरों को बताने की क्या आवश्यकता थी कि ज्ञान प्राप्ति का ये ही रास्ता है. यही बात महावीर, ओशो, कबीर और तमाम उन ज्ञानियों पर लागू होती है, जिन्होंने सनातन धर्म से निकल कर अपने-अपने सम्प्रदाय खड़े कर दिये. उन्होंने जिस ज्ञान का अनुभव किया उसके लिये उन्होंने अपने-अपने पथ चुने. यानि जितना ज्ञान उतने ही पंथ. हर एक का रास्ता अलग लेकिन लक्ष्य वही, परमात्मा या परमानन्द. सारी नदियों का उद्गम भले अलग हो लेकिन अंततः सब पहुँचती हैं उसी समुद्र में. आँखें मूँदे मैं सुषुम्ना का आरोहण अनुभव कर रहा हूँ. सारे चक्र खुलते जा रहे हैं. एक दिव्य प्रकाश कूटस्थ पर दीप्तमान हो रहा है. उस ब्रह्म-चेतना में ये अनुभव हो रहा है कि बुद्ध ने क्यों कहा था - अप्प दीपो भव. अंतःकरण में एक ध्वनि प्रतिध्वनित हो रही थी. बुद्ध-बुद्ध-बुद्ध. हर तरफ़ बस परमानन्द.

परमानन्द की अवस्था बनी रहती यदि उसी ध्यान में एक आवाज़ न आती - ऑफ़िस के लिये देर हो रही है. और एकाएक आँखें खुल गयी. जैसे किसी स्वप्न से जग गया हूँ. घड़ी अभी भी छः बजा रही थी. ऑफ़िस जाने के लिये पर्याप्त समय था. मैं पूरी तरह जग चुका था. अन्तर्ज्ञान के लिये बाहर की नहीं अन्दर की यात्रा करनी होगी. इसका कोई सेट फॉर्मूला नहीं है. हर एक की यात्रा अलग है, जो उसे स्वयं तय करनी है. अपनी गति से और अपनी विधि से. बुद्ध होना एक घटना है. कभी भी घट सकती है, किसी के साथ. 

मैं जग गया तो सोचा औरों को जगाने के उद्देश्य से एक लेख ही लिख डालूँ. इंटरनेट पर जब कुण्डली जागरण जैसे विषय पर वीडिओज़ उपलब्ध हैं तो कोई मुझ जैसे अज्ञानी की बात तो मानने से रहा. लोगों को ये बताना जरूरी है कि तुम्हारा जागरण भी भीतर ही घटित होगा. जगा हुआ आदमी भला दूसरों को सोता कैसे देख सकता है. न मैं बुद्ध हूँ न महावीर. न किसी पियर रिव्यूड पेपर का लेखक. लोग हँसेंगे कि क्या बक़वास है, सोच के मैं लोगों को जगाने का प्रयास तो नहीं बन्द कर दूँगा. घर में तो किसी ने न बुद्ध की सुनी न महावीर की. इसलिये मुझे भी शुरुआत बाहरी लोगों से ही करनी पड़ेगी. भाइयों और बहनों ये फ्री का ज्ञान है. इसे तुरन्त ले लीजिये. एक बार पॉपुलर हो गया तो बाद में कोचिंग लगा के बेचूँगा. फ़िलहाल अभी ये फ्री है ताकि अधिक से अधिक लोग इसका लाभ ले सकें. 

सोते हुये शहर को जगाने की चाह है

सोते शहर में जागना भी इक गुनाह है

ऐसा भला कौन सोच सकता है, सिवाय एक और अकेले वाणभट्ट के.


-वाणभट्ट

शनिवार, 11 नवंबर 2023

शुभ दीपावली

शुभ दीपावली

हठ पर बैठे दियों ने ठानी है
आज रात अमावस भगानी है
सूर्य जब भी तम में खो गया है
जुगनुओं ने भी अँधेरों से लड़ा है

हर अँधेरी रात की इतनी कथा है
सूर्य उगने तक ही सारी व्यथा है
तब तक अँधेरों से तुझे लड़ना पड़ेगा
बाती बन दीप में स्वयं जलना पड़ेगा

एक दीपक से सभी दीपक जला लो
काली अमावस में धरा को जगमगा लो
हर एक के कुछ त्याग से यह देश है
दीपावली पर्व का बस यही सन्देश है

शुभ-समृद्ध-मंगलमय दीपावली...सभी को...🪔🪔🪔

-वाणभट्ट

मंगलवार, 7 नवंबर 2023

बाज़ार

टहलने के बाद और श्रीमती जी के उठने से पहले, मैं चाय बनाने की प्रक्रिया में लगा हुआ था. यही समय है जब कमल, मेरा अख़बार वाला, अख़बार डालता है. तब तक सुबह के छ: बज चुके होते हैं. ये रोज की बात है. देर-से सोने के कारण कभी मै लेट हो सकता हूँ लेकिन यदि कमल ने पेपर नहीं डाला तो जरुर कोई इमरजेंसी होगी या वो शहर के बाहर गया होगा, वो भी किसी जरूरी काम से. एक हिंदी और एक अंग्रेजी अख़बार पलट लेने की अपनी पुरानी आदत आज भी बदस्तूर चल रही है. अख़बार गिरने की आवाज़ सुन कर मै बाहर निकल आया. आज सन्डे था इसलिये रविवासरीय परिशिष्ठ का भी दोनों समाचार पत्रों के साथ आना तय था. जब अख़बार उठाया तो वो असामान्य रूप से भारी था. ईमानदारी से बताऊँ कि मेरे मन में पहला विचार यही आया कि उतने ही पैसे में आज ज्यादा रद्दी मिल रही है कबाड़ी को बेचने के लिये. ये भी लगा, आज मसाला काफ़ी है. ख़बरों से ज्यादा मुझे परिशिष्ठों का इंतज़ार रहता है. खबरों का क्या है. वही घिसी-पिटी ख़बरें. चाहे दस साल पुराना अखबार भी उठा लो, ख़बरें वही रहतीं हैं. बस उनसे जुड़े नाम भले बदल जायें. कोई घटना घटेगी तो आज की खोजी पत्रकारिता उसे ऐसे प्रस्तुत करेगी जैसे आज से पहले ऐसी घटना कभी घटी ही नहीं. किसी विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की न्यूज़ ने सारे टीवी चैनलों और अखबारों में ऎसी धूम मचा रखी थी, जैसे कोई उस विभाग के भ्रष्ट आचरण को जानता ही न हो. आम आदमी तो सरकार को ही भ्रष्टाचार का पर्याय मानता है. नहीं तो अच्छे पे-पैकेज वाले प्राइवेट जॉब्स को छोड़ कर कौन सरकारी नौकरी के लिये जान देता. ये सोच कर कि ब्रेकफ़ास्ट के बाद इत्मीनान से पढूँगा, अख़बारों का पुलिन्दा सेंटर टेबल पर छोड़ दिया. 

नहा-धो कर, नाश्ता करके पूरे फुरसतिया मोड में अख़बार उठा कर सोफ़े पर विराजमान हो गया. दोनों अख़बारों में दो-दो परिशिष्ठ रखे हुये थे. लेकिन ये क्या अख़बार के ऊपर के दोनों पन्नों पर दोनों साइड फुल पेज विज्ञापन छपे हुये थे. आखिरी पेज पर भी ऐसा ही विज्ञापन था. न्यूज़ तीसरे पन्ने से शुरू हुयी थी. उस पर भी आधे पन्ने का विज्ञापन. विज्ञापन इतने आकर्षक और लुभावने थे कि समाचारों की ओर नज़र डालना मुश्किल हो रहा था. नया मकान खरीदना हो या कार बदलनी हो. मॉल्स की सेल हो या किचन अप्लायेंसेज़ पर भारी छूट. इन ख़बरों से अख़बार भरा पड़ा था. पूरा का पूरा एक परिशिष्ठ विज्ञापनों को ही समर्पित था. सब तरफ तकनीकी उत्पादों  के नये-नये मॉडल्स को देख के ऐसी फीलिंग आ रही थी, मानो मेरा घर, घर न हो कर कोई म्यूज़ियम हो. सारे के सारे अप्लायेंसेज़ पचीस साल की गृहस्थी में धीरे-धीरे जमा हुये थे. नए एडवान्स मॉडल्स के सामने सब ओब्सलीट हो चुके लगते थे. इन विज्ञापनों से मुझे याद आया कि दीपावली करीब है, इसलिये बाज़ार घर में घुसने के लिये बेताब हो रहा है. अपनी पुरानी कार, मोटर सायकिल, टीवी, वाशिंग मशीन, मिक्सी आदि को बदलने के बारे में सोच कर मै डिप्रेशन की कगार तक पहुँचने वाला था कि धर्मपत्नी जी कुछ घर के बाहर के काम ले कर आ गयीं. मै यथाशीघ्र अख़बार को टेबल के नीचे छिपा के बाहर निकल लिया. 

एक-आध घन्टे बाद जब मै वापस लौटा तो घर का दृश्य देखने लायक था. माँ-बेटी सेंटर टेबल हटा कर पूरा अख़बार जमीन पर  फैलाये बैठी थीं. जिस पेज को देख कर उनकी आँखें चमक रही थीं, वो इस बात का एलान कर रहा था कि उन्हें बेडशीट्स से लेकर पर्दों से लेकर सोफ़ा कवर और कुशन्स बदलने की प्रेरणा मिल चुकी है. उन्हें मालूम था कि कार और टीवी बदलने की माँग ख़ारिज हो जायेगी. हिन्दुस्तानी महिलायें अपने से ज़्यादा अपने घर के बारे में सोचती हैं. लिहाजा मुझे बताया गया कि शहर के सबसे बड़े मॉल में होम फ़र्निशिंग आइटम्स की सेल लगी है. घर के पुराने पर्दे-चादरें बदल दिये जायें. दीपावली सेल में बहुत सारे समान विशेष छूट के साथ मिल रहे हैं. नये कपड़े भी तो लेने हैं सबके लिये. आप हम दोनों को वहाँ छोड़ दीजिये. शॉपिंग के बाद आपको बुला लेंगे. आदमी भले ही ख़ुद को हेड ऑफ़ द फैमली समझे, पर उसकी औकात एक ड्राइवर से ज़्यादा नहीं होती. लेकिन ड्राइवर होने के अपने फ़ायदे हैं, ज़्यादा दिमाग़ नहीं लगाना पड़ता. बस आर्डर और इंस्ट्रक्शंस फ़ॉलो करने होते हैं. 

मॉल दूर था इसलिये सिर्फ़ छोड़ने का कोई मतलब नहीं था. मुझे रुकना ही पड़ेगा. इंडिया...सॉरी...भारत और साउथ अफ्रीका के मैच की तो ऐसी-तैसी होती दिख रही थी. लेकिन फिर मौका भी नहीं था. अगले हफ़्ते ही तो दिवाली थी. मॉल तक पहुँचने से पहले ही लग गया कि पूरा शहर ही बाज़ार बन गया है और हर कोई घर के बाहर आ चुका है. त्योहार कोई मेरा अकेले का तो है नहीं. दुकानें फुटपाथ छोड़ कर सड़क तक आ गयीं हैं. फुटपाथ तो साल भर घिरे रहते हैं. कभी-कभी तो ये लगता है कि फुटपाथ न होते तो हिंदुस्तानी दुकानदारों की दुकान कैसे चलती. इन्हें ट्रैफ़िक की कोई चिंता नहीं. पहले फुटपाथ घेरेंगे, फिर कोई ग्राहक उनकी दुकान देखने से वंचित न रह जाये, इसलिये बोर्ड सड़क पर लगा देंगे. ये ट्रैफ़िक का सरदर्द है कि वो सड़क खोजे और उस पर चले. भीड़-भाड़ वाले इलाकों में भेंड़ की तरह चलते लोग हॉर्न्स के आदी हो चले थे. यहाँ से गुजरते हुये यदि आपने सम्पुटों का प्रयोग नहीं किया तो आप स्वयं को छोटा-मोटा तपस्वी मान सकते हैं. मैने नहीं किया, लेकिन उसके पीछे कारण कुछ और था. साथ में धर्मपत्नी और बेटी थे. वो क्या सोचेंगे कि मेरी अपब्रिंगिंग सही नहीं हुयी है.

बहरहाल राम-राम करते-करते मॉल के आस-पास पहुँच गये. कुछ दूर से ही जाम का माहौल बन रहा था. मुझे लगा कि सब्जी मंडी होने के कारण जाम लगा होगा. जब मॉल के गेट पर पहुँचा तो समझ आया सब गाडियाँ अन्दर जाने पर उतारू हैं. पार्किंग में उपलब्ध जगह का एहसास बाहर ही होने लगा था. पार्किंग से पहले ही कुछ कारें खड़ी हुयी थीं. अन्ततोगत्वा तीसरे लेवल की पार्किंग में बमुश्किल जगह मिली. त्योहार मनाना तो कोई हिंदुस्तानियों से सीखे, साल भर त्योहार और हर त्योहार एक उत्सव. होली और दिवाली तो विशेष हैं ही. 

मॉल में भीड़ बेइन्तहा थी. एक से एक सामान आकर्षक पैकिंग में उपलब्ध थे. बड़े-बड़े होर्डिंग्स में मॉडल्स आपको वो-वो चीजें खरीदने को प्रेरित कर रहे थे जिनका इस्तेमाल लोग सिर्फ़ स्टेटस दिखाने के लिये करते हैं. स्टेटस भी वो ही देखेगा जिसे ब्राण्ड का पता होगा. होर्डिंग्स का ये ही फ़ायदा है, मेरे जैसे लोग जो ब्राण्ड नहीं, दाम देख कर शॉपिंग करते हैं, उन्हें भी मालूम हो जाता है कि कौन-कौन से पॉपुलर ब्राण्ड मार्केट में मौज़ूद हैं. विज्ञापन की चकाचौंध इतनी आकर्षक होती है कि आपको लगने लगता है - समथिंग इज़ मिसिंग. ये हर किसी को याद दिलाते रहते हैं कि आपके पास क्या-क्या नहीं है. कोई कमज़ोर दिल का आदमी हो तो इंफेरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स में गोते लगाने लगे. विज्ञापनों का स्टैण्डर्ड इतना हाई है कि आपको लगता है कि दुनिया कितने आगे निकल गयी है और हम पीछे छूट गये हैं. शायद इन्हीं विज्ञापनों को देख कर दुष्यन्त कुमार ये कहने को विवश हुये हों-

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार

मॉल की शॉपिंग के कुछ फ़ायदे हैं और कुछ नुक़सान. आपको वो चीजें दिख जाती हैं जो आपकी लिस्ट में नहीं होतीं. नुक़सान बस इतना है कि न चाहते हुये भी ख़र्च बढ़ जाता है. त्योहार में तो वैसे भी दिल दरिया हो जाता है. मेरा परिवार थोड़ा मितव्ययी है इसलिये मुझे भरोसा रहता है कि वे कम से कम फ़ालतू के समान तो खरीदने से रहे. सो मैं निश्चिन्त हो कर एक कोने में खड़ा हो गया. उम्मीद थी कि दो घण्टे तो इन्हें लग ही जायेंगे. तब तक मोबाइल पर एक ब्लॉग लिखने की गुंजाइश बनती दिख रही थी. ब्लॉग कोई शोध पत्र तो है नहीं कि जिसके लिये दो-चार जगह से काटा-पीटा-चेपा जाये. शुद्ध क्रिएटिव काम है. कोना देख के मै उसमें रम गया. बता दिया कि तुम लोग शॉपिंग जब कर लेना तो बुला लेना. अपने यूपीआई से पेमेन्ट कर दूँगा. 

तकरीबन दो घण्टे बाद दोनों लोग दिखायी दिये, दो ट्रॉली लिये. मेरा ब्लॉग ख़त्म होने को था लेकिन ख़त्म हुआ नहीं था. मोबाइल देना सम्भव नहीं था. सो उनके हाथ में एटीएम कार्ड दे कर मैं उपसंहार की प्रस्तावना बनाने लगा. सुधी पाठकों का ख़्याल रखना लेखक की ज़िम्मेदारी है. पात्रों को समझना और उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना कि लगे वो आम आदमी की आम ज़िन्दगी की कहानी है. उसमें घटनायें-दुर्घटनायें तो हो सकती हैं लेकिन फिल्मों की तरह उसमें कोई एक्सट्रीम हीरो या एक्सट्रीम विलेन नहीं होता. हर किरदार अपनी-अपनी जगह सही होता है. बस आपको उसके दृष्टिकोण से देखना होता है. ब्लॉग में अगर पाठकों को कुछ नया न मिले तो उनका पढ़ना और मेरा लिखना दोनों व्यर्थ गया. इसी उधेड़बुन में एक घण्टा कब निकल गया, मुझे पता नहीं चला. ब्लॉग ख़त्म करके जब मैं काउन्टर की ओर पहुँचा तो दृश्य बहुत ही विकट था. हर काउन्टर पर लम्बी-लम्बी कतारें लगी थीं. अभी भी इन लोगों की लाइन में इनकी दो ट्रॉली के आगे दो ट्रॉली और लगी थीं. जिनमें सामान ऊपर तक भरा था. मुझे लगा कि ये पन्द्रह मिनट और मिल जाते तो मैं बाज़ार और इश्तहार से पीड़ित कहानी के मुख्य पात्र की व्यथा के साथ उचित न्याय कर पाता.

-वाणभट्ट

शनिवार, 4 नवंबर 2023

तजुर्बा

चाचा जी का चेम्बर बड़ा था और उसमें पड़ी एक बड़ी मेज के पीछे वो बैठे हुये थे. यूनिवर्सिटी अंग्रेजों के जमाने की थी. पुराने लोग चाहे हमारे पूर्वज रहे हों या मुग़ल या अंग्रेज़, छोटा नहीं सोचते थे. इसलिये मंदिर से बड़ा मंदिर का प्रांगण हुआ करता था. जितने बड़े विश्विद्यालय के भवन नहीं थे, उससे कहीं बड़ा उसका परिसर था. उसमें हॉकी, क्रिकेट और इनडोर या आउटडोर स्पोर्ट्स के लिये स्टेडियम तक की व्यवस्था थी. इतने बड़े कैम्पस में घुसने के बाद ग़ुम हो जाने का शुबहा बना रहता था. 

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का प्रांगण था भी ऐसा कि वहाँ जाने का मन किया करता था. उसके कारण वही थे, जिसके कारण लड़के हायर स्टडीज़ के लिये प्रेरित होते और कुछ बनने के सपने पाल बैठते हैं. और भी कई कारण थे. मेरे एक मित्र की सम्भावित माशूका बॉटनी डिपार्टमेंट में दिखा करती थीं. पता नहीं उसे पता भी था या नहीं, लेकिन ये भाई साहब उस पर लट्टू हुआ करते थे. हम लोग बस दोस्ती निभाने के लिये साथ चले जाते थे कि भाई पिट-पिटा गया तो कम से कम घर तक तो पहुँचा देंगे. हमारा जाना इसलिये भी ज़रूरी हो जाता था कि मेरे एक बाल सखा के पिता जी वनस्पति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हुआ करते थे. हर बार उनसे मिलना ज़रूरी नहीं था, लेकिन कहीं गलती से किसी ने पूछ लिया कि यहाँ क्या कर रहे हो तो जवाब थोड़ा ऑथेंटिक रहे. हालाँकि कभी किसी ने पूछा नहीं. 

उस जमाने के बच्चे अंकल-आंटी शब्द से परहेज करते थे. इसका उपयोग कॉन्वेंटी बच्चों के लिये छोड़ रखा था. हिन्दी मीडियम का बच्चा, चाचा-ताऊ-बाबा-दादा से काम चलाता था. अंकल बोलने पर चाचा जी टाइप के लोगों को अपनेपन की फीलिंग नहीं आती थी. और इसकी परिणति एक ज्ञान व्यापी लेक्चर से होती थी. साल-छः महीने में चाचा जी से मिल भी लेते थे. इस तरह वो मेरे कई दोस्तों से वाकिफ़ भी हो चले थे. 

उस दिन मैं अकेला ही चला गया उनसे मिलने. चाचा जी ने मुस्कराते हुये चुहल भरे अंदाज़ में पूछा - आज तुम्हारा दोस्त दिखायी नहीं दे रहा है. तब लगा कि हम बुजुर्गों को जितना बुजुर्ग समझते हैं, वो उतने होते नहीं. जब तक घाट-घाट के पानी न पी लो, उम्र बढ़ती कहाँ है. अपनी झेंप मिटाने के उद्देश्य से मैं मेज के दूसरी तरफ़ उनके चरणों में झुक गया. वो घुटना छूने वाला दौर भी न था. झुक के चरण छुओगे तो पीठ पर स्नेहिल स्पर्श के साथ आशीर्वाद भी मिलता था. चाचा जी ने उस बड़ी मेज की पहली तरफ़ मुझे बैठने की आज्ञा दी, जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूँ. 

मैंने उनको हृदय के पूर्ण अंतःकरण से बधाइयाँ अर्पित कीं. उनका बड़ा चेम्बर और बड़ी मेज देख कर मैं अभिभूत हुआ जा रहा था. इधर नैनी स्थित एग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट में पढ़ने के कारण यूनिवर्सिटी आने का समय नहीं मिलता था. बचपन से उनके सहायक प्रोफेसर से प्रोफेसर बनने तक के दौर का साक्षी था मैं. कॉलेज से लौटते हुये अपनी काइनेटिक विश्वविद्यालय गेट के अन्दर घुसेड़ दी. शाम के साढ़े छः बजे रहे थे. पहले की बात होती तो शायद मिलने की सम्भावना न होती लेकिन अब बात अलग थी. शायद मुलाक़ात हो जाये. ख़बर मिली थी कि चाचा जी विभागाध्यक्ष बन गये हैं, तो उन्हें उन्हीं के चेम्बर में बधाई देने की इच्छा बलवती हो गयी. चाचा जी को विभागाध्यक्ष बने लगभग एक महीना हो चुका था. पूछा - चाचा जी कैसा लग रहा है.

चाचा जी मौन हो कर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुये मेरी ओर देखने लगे गये. उन्हें मैंने बहुत करीब से देखा था. चाचा जी खुशमिज़ाज व्यक्ति थे. ज़िन्दगी जीने का अपना ही फ़लसफ़ा लिये, सम्पूर्ण निर्लिप्तता के साथ अब तक का जीवन जिया था उन्होंने. उसी तरह मुस्कुराते हुये बोले - बेटा तुम तो मुझे बचपन से जानते हो. ईमानदारी से पढ़ते-पढ़ाते ज़िन्दगी गुज़र गयी. लेक्चर लेना, प्रैक्टिकल कराना, और एक-दो छात्रों को गाइड करना. कभी ये देखने की कोशिश ही नहीं की कि दुनिया कहाँ जा रही है. बस अपने काम से काम. समय से आना समय से जाना. ज़रूरत हो तो कभी भी आओ कभी भी जाओ. ज़्यादा रोक-टोक थी नहीं. कितनी ईज़ी गोइंग लाइफ़ रही है. मैने पहले कभी नहीं देखा कि वरांडे में रखे गमलों में पानी पड़ा है या नहीं. चपरासी ने मेरा कमरा खोल कर मेज साफ़ की या नहीं. सुराही और कूलर में पानी भरा या नहीं. अपनी सुराही लॉन वाले नल से भरने में मुझे कभी संकोच नहीं हुआ. स्टाफ़ का हाल तो ये है कि लगता है दिन भर कैंटीन में ही बैठा रहता है. यूनिवर्सिटी के कामों से हमेशा बचता रहा. अब डिपार्टमेंट के सामने का लॉन हो या बोटैनिकल गार्डन सब का ध्यान रखना पड़ता है. आज की जेनरेशन ऐसी नहीं रही है जो सीनियरों का लिहाज करे. कोई काम बता दो तो इतना लटका देते हैं कि उससे अच्छा है ख़ुद ही कर डालो. बाक़ी लोग कब आते हैं कब जाते हैं, इस पर कभी ध्यान नहीं दिया. अब डीन और वीसी कब तलब कर लें पता नहीं. कोई आये या न आये, मुझे तो सुबह से शाम तक रहना है. ख़ुद को कंट्रोल में रखना आसान है लेकिन दूसरों पर कंट्रोल करने की तो कहीं ट्रेनिंग मिलती नहीं एकेडेमिक्स में. लोगों ने तो हेड के लिये अप्पलायी करना ही बन्द कर दिया है. जो सीनियर मोस्ट हो जाता है, उसी को चार्ज पकड़ा दिया जाता है. रोटेशन में है इसलिये तीन साल तो झेलना ही पड़ेगा. तब तक तो चला-चली की बेला आ जायेगी. ख़ैर ये तो मालूम ही था कि एक दिन तो ऐसा आना ही है. अभी आदत नहीं है, धीरे-धीरे पड़ जायेगी. ज़िन्दगी के तजुर्बों में एक तजुर्बा और सही. 

-वाणभट्ट


शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

नेतागिरी

नेतागिरी

दरवाज़ा उढ़का हुआ था. खटखटाते ही बिना आवाज़ के खुल गया. अन्दर का दृश्य कम से कम मेरी कल्पना के परे था. कमरे में मेज, कुर्सी और बक्से के बाद जमीन पर जितनी जगह बाकी थी, वहाँ कोई न कोई सो रहा था. लगभग 8-10 लोग तो रहे होंगे. मैं असमंजस में पड़ गया. नेता जी को मैं पहचानता नहीं था. मेरे कज़िन को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छोड़े कई साल हो गये थे. कुछ छात्रवृत्ति फँसी हुयी थी. वो इंटरनेट और ईमेल का ज़माना तो था नहीं कि बिना हिले कोई अपनी दिक्क़तें शीर्ष अधिकारी तक पहुँचा सकें. ऐसी परिस्थितियों में जहाँ आप के पास चक्कर लगाने का समय न हो तो आप जुगाड़ की तलाश में लग जाते हैं. किसी ने इन छात्र नेता का पता बता दिया. साथ ही शर्त लगा दी कि सुबह छः साढ़े छः बजे के पहले पहुँचना, तभी नेता जी मिलने की प्रबल संभावना होती है. गर्मी के दिन थे मैं शायद और जल्दी पहुँच गया. कमरे में सोता पड़ा हुआ था. मैं उहापोह की स्थिति में था कि नेता जी को आवाज़ लगाऊँ या उनके उठने का इंतज़ार करूँ. तभी एक शरीर सहसा उठ के बैठ गया. उसके चेहरे पर नींद से एकाएक उठने या उठाये जाने का कोई भाव नहीं था. वो मुस्कुराते हुये कमरे के बाहर आ गया. कमरे में मेरे लिये जगह भी नहीं थी. वो नेता जी ही थे. 

मिलते ही उन्होंने ने मेरा नाम, पता और आने का कारण पूछ लिया. और 10 बजे सारे काग़ज़ लेकर यूनिवर्सिटी के यूनियन हॉल में मिलने को कहा क्योंकि तब तक विश्वविद्यालय के ऑफिस खुल जाते हैं. उन्होंने ये भी आश्वासन दिया कि यदि मेरी समस्या नियमानुसार है तो वो उसका निस्तारण करायेंगे. साथ ही उन्होंने एक वाक्य और जोड़ दिया कि मैं सदैव सही और सत्य के साथ हूँ, गलत काम मुझसे करवाने के लिये न कहियेगा. नेताओं पर आम आवाम जितना भरोसा करती थी, मुझे नेताओं पर उतना ही भरोसा था. सब बहुत स्वार्थी, चालाक और कमीशन खोर होते हैं.

दस बजे जब मैं यूनियन ऑफिस पहुँचा तो नेता जी को अपना इंतज़ार करते पाया. अब उन्होंने पूरे कागज़ात पर भरपूर नज़र डाली. बोले ये तो सही काम है. ये काम तो अपने आप हो जाना चाहिये था. बाबू लोग खामख्वाह स्टूडेंट्स को परेशान करते हैं. आप चलिये मेरे साथ, अभी आपका काम करवाता हूँ. और वो मुझे लेकर उचित विभाग में पहुँच गये. क्लर्क ने भी नेता जी को देख कर फ़टाफ़ट काम कर दिया. जैसी उम्मीद थी कि नेता जी अब कुछ चाय-पानी के लिये बोलेंगे. मैं भी मानसिक रूप से इसके लिये तैयार था. भाई ने ख़र्चा-पानी उठाने के लिये सहमति दे रखी थी. काम के बाद उन्होंने कहा - चलिये चाय पीते हैं. मैंने भी हामी भर दी. मुझे लगा सस्ते में निपट जायेंगे. लेकिन चाय की दुकान पर एक-एक करके नेता जी के दसियों दोस्त पहुँच गये. चाय पीने में मेरा मन नहीं लग रहा था, बस उनके दोस्त गिने जा रहा था. आख़िर बिल तो मुझे ही देना था. कुछ ने बिस्किट की फ़रमाइश की, कुछ ने मठरी की, कुछ ने पकौड़ी की. चाय तो दो रुपये की थी लेकिन चेलों की बढ़ती फरमाइशें मुझे पशोपेश में डाल रही थीं. मेरी जेब में पैसे तो थे लेकिन डर था कि कहीं कम न पड़ जाये. नेता जी कुछ माँग लेते तो सहर्ष दे देता किन्तु उनके चेलों का बिल भरने का दिल नहीं कर रहा था. सोच रहा था नेता जी ऐसे ही मुर्गा पकड़ते होंगे और चेले मुर्गे को हलाल करने पहुँच जाते होंगे. चाय खत्म होने के बाद मैं बिना कहे काउंटर की ओर बढ़ चला था. नेता जी ने मेरा पहला नाम लेकर पीछे से आवाज़ दी. कहाँ जा रहे हो. यहाँ मेरा खाता चलता है महीने का महीने. बिदाई से पहले उन्होंने स्नेह से हाथ मिलाया और सहज रूप से मेरा धन्यवाद स्वीकार किया. भविष्य में कभी भी किसी भी काम के लिये निमंत्रण भी दे दिया. इतनी सदाशयता और सहृदयता की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन ये शंका बनी हुयी थी कि नेता है तो कभी न कभी सूद-ब्याज सहित वसूलेगा. जिस बात ने सबसे ज़्यादा मुझे प्रभावित किया वो थी सुबह-सुबह नाम पूछा था. जब सारी दुनिया वर्मा-शर्मा-मिश्रा से काम चला रही हो तो मुझे पूरी उम्मीद थी कि उन्हें मेरा उपनाम सिर्फ़ वर्मा याद रह जाये तो ही बहुत है. लेकिन बन्दे को मेरा पहला नाम भी याद था. इस पूरे प्रकरण में नेता जी के व्यवहार में जो निश्छलता और स्वच्छंदता देखने को मिली, उसने मुझे उनका कायल बना दिया.

इलाहाबाद मेरी जन्मस्थली है इसलिये वहाँ अक्सर जाना होता रहता है. उसके बाद कोई ऐसा काम नहीं पड़ा कि नेता जी से मिलने का संयोग बने. चूँकि नेता जी की डेलीगेसी हमारे ही मोहल्ले में पड़ती थी, इसलिये मार्केट में गाहे-बगाहे वो दिख जाते थे. लेकिन कभी भी उन्होंने मुझे वर्मा कह कर नहीं बुलाया. हमेशा मुझे पहले नाम के साथ जी लगा के ही सम्बोधित किया. इंसानी स्वार्थीपन की इन्तेहा देखिये कि मैं नेता जी का नाम भूल गया. मुझे उपनाम ही याद रह गया. अब पुनः पूछने में बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है. तब से अब तक समय चक्र बहुत आगे निकल गया है. इस घटना को सालों बीत चुके हैं. नौकरी के चलते मेरा इलाहाबाद छूट गया. लेकिन महीने दो महीने पर जाना हो जाता है. नेता जी जब तक यूनिवर्सिटी में बने रह सकते थे, बने रहे. बीए, एमए, लॉ और न जाने क्या-क्या कर डाला. उम्मीद थी कि कोई न कोई पार्टी उन्हें ज़रूर खोज लेगी. लेकिन शायद किसी दल को ईमानदार नेता की ज़रूरत ही न हो. जब यूनिवर्सिटी में पढ़ने की अन्तिम आयु भी निकल गयी तो उन्होंने हाईकोर्ट में वक़ालत शुरू कर दी थी. जब कहीं मुलाक़ात होती है तो नेता जी का मेरा पहला नाम लेकर बुलाना मुझे हतप्रभ कर देता है. अब भी वो उतनी ही आत्मीयता से मिलते हैं, जितनी आत्मीयता से पहली बार मिले थे. मुझे लगा सामाजिक रूप से सक्रिय लोग ऐसे ही होते होंगे. सदैव समाजसेवा को तत्पर.

नेता लोगों को हम दूर से देखते हैं. लगता है सब बहुत चालाक और धूर्त होते हैं. बस अपने लाभ के लिये जनता को चूना लगाने में व्यस्त रहते हैं. यदि गौर से देखिये तो अन्य प्रोफ़ेशन्स की तरह नेतागिरी भी एक प्रोफ़ेशन है. जैसे हम हर प्रोफ़ेशन में ग्रोथ चाहते हैं, नेताओं के भी एम्बिशन्स होते होंगे. वो भी अपने क्षेत्र में अपना उत्थान करने में लगे रहते हैं. हमारी सारी की सारी पढ़ायी-लिखायी-मेहनत सिर्फ़ अपने लिये होती है. अपने लाभ के लिये हमारे पास अपनों के लिये ही समय नहीं है. देश-समाज के लिये कुछ सोचने-समझने के लिये न समय है, न इच्छा. समाजसेवा का तो प्रश्न ही नहीं उठता. और एक नेता है जो हर समय हर किसी के लिये उपलब्ध है. पब्लिक भी उन्हीं नेताओं को जान पाती है जो कुछ हद तक सफल हो जाते हैं. नेताओं के जिस रूप को समाज देखता है, वो उनकी कड़ी मेहनत और अथक प्रयासों का नतीजा है. नेता कहीं समाज के बाहर से नहीं आते. जैसा समाज होगा वैसा ही लीडर खोजेगा. हम भी उसी नेता का चयन चाहते हैं जो हमारे गलत से गलत काम में सहयोग देने को तैयार हो. फिर वो उसकी कीमत भी तो वसूलेगा. समाज ने यदि सही-गलत के फ़र्क को मिटा दिया है तो नेता के भी पथभ्रष्ट होने की पर्याप्त सम्भावना है. ये सब मैं इसलिये लिख रहा हूँ कि देश में हर कोई समाज सेवा करना चाहता है और उसकी आड़ में उसकी नज़र मेवे (फण्ड) पर लगी रहती है. यदि सब नेता ख़राब होते तो देश उत्तरोत्तर पीछे जाता लेकिन हम निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं तो इसमें नेताओं का योगदान तो होता ही है. अगली बार जब हम किसी नेता के बारे में बुरा बोलें या सोचें तो ये भी सोचें कि हमने समाज सेवा में कितना समय दान दिया. हमने जहाँ समय लगाया, उसका फल भी हमें वहीं मिला है. नेता ने समाज के लिये समय दिया है, तो वो वहीं तो बढ़ेगा. आजकल नेताओं के ख़िलाफ़ लोग कुछ भी बोल देते हैं. मुझे लगता है जब हमने समाज को समय देने से इन्कार कर दिया तो वो लोग सामने आये जिनमें समाज सेवा का हौसला था. जहाँ भी वित्तीय प्रावधान होते हैं, वहाँ सामान्य मानव के फिसलने की सम्भावना होती है. ये हर विभाग, हर क्षेत्र में देखने को मिलता है. भ्रष्ट से भ्रष्टतम नेता भी समाज को समय तो देता ही है. सब नेता भ्रष्ट हो ऐसा भी नहीं है. फिर भी वो आम आदमी से ज़्यादा समय दूसरों पर अर्पित कर देता है. यूनिवर्सिटी के एक सामान्य किन्तु ईमानदार नेता से न मिलता तो शायद मैं भी आम लोगों की तरह नेताओं से नफ़रत कर सकता था. 

भीड़ लेती है वक़्त रहनुमा परखने में

कारवान बनाने में कुछ देर तो लगती है - अमज़द

-वाणभट्ट

शनिवार, 16 सितंबर 2023

ऑर्गन डोनेशन

 ऑर्गन डोनेशन

जब ऑर्गन डोनेशन का फॉर्म ऑनलाइन भरा तो सरकार की तरफ़ से एक सर्टिफिकेट मिल गया. उसमें शरीर के सभी अवयव जिनको किसी की मृत्यु के उपरान्त किसी और के लिए उपयोग में लाया जा सकता है, उनकी लम्बी-चौड़ी फ़ेहरिश्त लगी हुयी थी. ये देख कर मेरा मन-मस्तिष्क गर्व से भर गया. ऐसी फिलिंग आयी जो शायद महर्षि दधीचि को आयी हो जब उन्होंने देवराज इन्द्र को असुरों से लड़ने के लिये वज्र बनाने हेतु अपनी अस्थियों का दान दिया हो. पुराना जमाना होता तो शाम को यार-दोस्तों की महफ़िल में ढिंढोरा पीट देता कि मित्रों आज मैंने एक बहुत ही महान कार्य सम्पन्न किया है. मृत्योपरान्त अपने ऑर्गन्स को दान देने का निर्णय लिया है. लेकिन पुराना जमाना होता तो यार-दोस्त जम के गरियाते, इस बेवकूफ़ी भरे कार्य के लिये. जिस देश में दूसरे को खून का कतरा भी देने में लोग वर्जनाओं का शिकार हो जाते हों, वहाँ शरीर के अवयव को निकालने की कल्पना करना भी असम्भव सा लगता था. यहाँ लेने का रिवाज़ है, देने की बात करो तो इष्ट-मित्र भी कन्नी काट के निकल जाते हैं. किसी को ब्लड न डोनेट करना पड़ जाये, इसके भी सौ बहाने निकाल लेते हैं. रहीम दास जी को इसीलिये लिखना पड़ा होगा कि 'रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होय, हित-अनहित या जगत में जान पडत सब कोय'. इस दोहे से तो यही लगता है हिमोग्लोबिन कम हो जाने के चक्कर में सम्भवतः कवि को खून की आवश्यकता हुयी हो, तब उसका दोस्तों की असलियत से सामना हुआ हो. बाद में चुकन्दर, शलजम और खजूर ही काम आये. 

आजकल जमाना बदल चुका है. यार-दोस्त बचे नहीं. जो बचे हैं वो मिलते नहीं. और यदि आपका मन मिलने के लिए बहुत फ़ड़फ़ड़ा रहा हो, तो जेब ढीली करनी होगी और एक मस्त पार्टी रखनी पड़ेगी. लेकिन पीने-पिलाने के बाद आपके इस महान कृत्य को  सुनने लायक कोई बचेगा या नहीं, इसमें सन्देह है. इन विषम परिस्थितियों में एक सस्ता-सुन्दर-टिकाऊ माध्यम है - सोशल मीडिया. फ्री में चेपो-चिपकाओ और हजार-दो हजार लोगों तक अपनी बात पहुँचाओ. ये 'बिना हर्र फिटकरी के चोखा रंग' मुहावरे का सबसे लेटेस्ट उदाहरण है. जब लोग-बाग़ 'इटिंग मैगी और हगिंग बनाना' टाइप की पोस्ट्स को सार्वजनिक करने में लगे हुये हैं, फिर हमने तो वाकई एक महान कार्य किया है. जिससे और लोग भी प्रेरित हो सकते हैं. इस बात को पूरे भारत को जानना चाहिये. दुर्योग से हमारे व्हाट्सएप्प का स्टेटस मात्र दो-ढाई हज़ार लोगों तक ही उपलब्ध है. कॉन्टैक्ट लिस्ट में बहुत से नाते-रिश्तेदारों को ब्लॉक कर रखा है. और पता नहीं कौन-कौन स्टेटस में झाँक जाता है. इसी तरह फ़ेसबुक पर भी हज़ार लोगों को फ्रेंड बना रखा है. अब हम कोई सेलिब्रिटी तो है नहीं कि बिना रिक्वेस्ट भेजे लाखों लोग फॉलो करने लगें. जिसको फ्रेण्ड बनाना चाहते हैं, वो लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट रिजेक्ट कर देते हैं और जो हमसे दोस्ती करना चाहते हैं, उन्हें हम पेन्डिंग लिस्ट में लटकाये हुये हैं. फिर भी ना-ना करते करते लगभग हज़ार लोग फ्रेंड बन चुके हैं. बैंक फ्रॉड के चक्कर में आजकल नयी फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेज रहा हूँ वर्ना बर्थडे विश करने में ही पूरा दिन चला जाये. फ़ेसबुक पर भी कई करीबी नाते-रिश्तेदार-दोस्त लोगों को भी या तो हमने अन्फ्रेंड कर रखा है या उन्होंने मुझको. कुल मिला के स्थिति ये हो रखी है कि - 'मै भी रानी तू भी रानी, कौन भरेगा पानी'. जिस देश में सभी आत्मनिर्भर हो जायें, उस देश का तो भगवान भी क्या भला करेगा. इसलिये थोड़ी बहुत पारस्परिक निर्भरता जरुरी है. किन्तु इस बात का ध्यान तब आता है, जब आदमी अस्पताल की ओर कूच करे या शमशान की ओर. परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. फिर वो कहता घूमता है - जमाना बहुत ख़राब है. लाइफ़ इज़ गिव एंड टेक सिर्फ़ लेते रहने वाले भले ख़ुद को बहुत चालक और अफ़लातून मानते रहें, लेकिन ज़िन्दगी बहुत सीधी और सरल है. दुनियादारी के लिये स्मार्टनेस की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ज़िन्दगी के लिये नहीं.       

एक बारगी हमें अपने ऊपर बहुत संतोष हुआ कि कम से कम दो-ढाई हज़ार लोगों तक तो ढिंढोरा पीट ही सकते हैं. इतना महान कार्य किया है. कोई न जाने तो क्या फ़ायदा. और हो सकता है मेरा यह कृत्य किसी के लिये प्रेरणा बन जाये और वो इस मिशन में शामिल होना चाहे. इस गरज से सर्टिफिकेट अपने ब्रॉडकास्ट, सभी वाट्सएप्प ग्रूपों, स्टेटस और फ़ेसबुक पर चेप आया. इंसानी फ़ितरत है कि वो अपने हर काम में दूसरों की अप्रूवल या दूसरों से प्रशन्सा खोजता है. ढाई हज़ार में से बमुश्किल ढाई लोगों ने कहा कि भाई बड़ा महान कार्य कर दिया है. कुछ लोगों ने पोस्ट पर ठेंगा, तो कुछ ने हार्ट दिखा कर अपनी अभिव्यक्ति दे डाली. लेकिन क्या मजाल जो किसी ने कहा हो कि आपके इस कृत्य से प्रेरणा पा कर हम भी ऐसा ही करने की सोच रहे हैं. लेने वालों के देश में देने की बात लोगों के गले उतारना थोडा मुश्किल है. श्री लंका जैसे छोटे से देश में नेत्र-दान के लिये एक सोसायटी है, जिसके 450 केन्द्र हैं और 15000 वालेंटियर हैं. श्री लंका दुनिया का सबसे बड़ा कॉर्निया उपलब्ध कराने वाला देश है. लेने वाले देशों में सबसे उपर कौन सा देश हो सकता है? आपका अन्दाज़ एकदम सही है - पाकिस्तान. पहले की सरकारें रेवड़ियाँ बाँटने में विश्वास रखती थीं. सरकार क्या बदली, नयी सरकार आपसे देशप्रेम के नाम पर सब निकलवाने में लगी है. पहले गैस सब्सिडी रखवा ली, मीठी-मीठी बातें करके. फिर ना-ना प्रकार के टैक्स निकलवा रही है. अब ऑर्गन डोनेशन के लिये अपील कर रही है. अभी तो शुरुआत है. लेकिन अगर जनता समय रहते न जगी, तो पक्का है कि ये अध्यादेश ला कर ऑर्गन डोनेशन कम्पलसरी करवा देगी. चूँकि अब मै कसम खा चुका हूँ, तो इसे कम्पलसरी कर देना चाहिये. बाकी लोगों को भी चाहिये कि कम से कम शपथ तो खा ही लें. यदि गवर्नमेन्ट ऑर्गन डोनेशन को लेकर वाकई संजीदा है, तो उसे शपथ लेने वालों को एक इन्क्रीमेंट देने का प्रावधान कर देना चाहिये. यहाँ लोग लेन-देन पर बहुत विश्वास करते हैं. एक इन्क्रीमेंट के चक्कर में बहुत लोग नस बन्द करवाने से भी परहेज नहीं करते. ऐसा जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिये किया जाता है. तब मुझे उम्मीद है कि कम से कम सरकारी नौकर तो ऑर्गन डोनेशन की बात पर ज़रूर गौर करेंगे. 

इन दस-बारह घन्टों में जब सोशल मीडिया पोस्ट का गर्दा सेटेल हो गया तो हम ने अनुभव किया कि बात की बात में बहुत बड़ा बयाना ले लिया. अब  अपने शरीर और उसके अवयवों को सम्हाल के रखना होगा ताकि वो मरणोपरांत किसी के काम आ सकें. अवयव तो वो ही उपयोग में आयेंगे जो स्वस्थ हालातों में होंगे. लीवर-किडनी-हार्ट-लंग्स को मरने तक स्वस्थ बनाये रखना, अब मेरी पर्सनल जिम्मेदारी है. अगर ऐसा कर सका तो ही जीते जी और मर के भी मैं देश की सेवा कर पाऊँगा. अन्यथा इस शपथ का क्या महत्व है. इस शपथ के एनेक्स्चर में एक और शपथ होनी चाहिये कि हम अपने शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिये हर संभव प्रयास करेंगे और शराब-सिगरेट-गुटके जैसे हानिकारक व्यसनों का परित्याग करेंगे. पहली बार मुझे अपने उपर गर्व हुआ. अब तक तो सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के लिये जी रहा था. इस छोटी सी शपथ के बाद  लगा कि अब सिर्फ़ अपने लिये नहीं देश के लिये भी जी रहा हूँ. मोटिवेशन में ओत-प्रोत हो कर अर्धान्गिनी जी को आवाज़ दे दी कि शायद आज उसे अपने निकृष्ट से लगने वाले पति पर कुछ गर्व हो सके. उसको मोबाईल पर सर्टिफ़िकेट दिखा दिया और पूछा कि उसका क्या इरादा है. उम्मीद थी कि वो कुछ गौरवान्वित महसूस करेगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उसने हल्के से झिड़कते हुये कहा - आप भी खाली बैठे-बैठे कुछ न कुछ किया करते हैं. मुझे अपने शरीर की दुर्दशा नहीं करानी. सारा का सारा गौरव यकीन मानिये दो मिनट में धुल गया. लेकिन प्रबुद्ध पाठकों को इस बात की ख़ुशी अवश्य होनी चाहिये कि आज की शिक्षित व सुदृढ़  नारी अपने निर्णय स्वयं लेती है. ऐसा नहीं है कि तथाकथित पति-परमेश्वर कुछ भी कह दें तो वो मान ही ले. सबको लगता है कि उन्हें न तो कभी खून की ज़रूरत पड़ेगी, न ही किसी अवयव की. इसलिये क्या लेना और क्या देना. यही सोच कर लोग इस मिशन में जुड़ने से थोडा हिचकिचायेंगे. लेकिन उम्मीद है कि जब यह विचार एक आन्दोलन के रूप में अपने चरम पर आयेगा तो सभी इसमें भागीदार बनना चाहेंगे.       

आदमी क्या है, कुछ नहीं बस अपने विचारों की प्रतिमूर्ति है. जो जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है. अपने अन्दर काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार-ईर्ष्या-द्वेष-हिंसा समेटे आदमी अपने को धरती का सबसे श्रेष्ठ प्राणी मानता है. कुछ अच्छाइयाँ, जैसे प्रेम-करुणा-दया-वात्सल्य-दान-धर्म-सहयोग भी इसी मानव जीवन का अभिन्न अंग है. लेकिन प्रायः स्वार्थ और आत्म-केन्द्रित होने की प्रवृत्तियों के कारण बुराइयाँ, अच्छाइयों पर हावी हो जाती हैं. शायद दुनियादारी के लिये आवश्यक समझी जाने वाली चालाकी अंततः सभी सामाजिक व्यवस्थाओं पर भारी पड़ती है. यदि हम अपने अन्तर में निहित अच्छी प्रवित्तियों का निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि उनकी उत्पत्ति हृदय में होती है. डार्विन के 'सर्वाइवल फॉर द फिटेस्ट' को मूल मन्त्र मानने वाले, 'वीर भोग्या वसुन्धरा' पर विश्वास करते हैं. उनका जीवन सिर्फ़ उन्हीं तक ही सीमित रहता है. बस वन टू का फ़ोर और लाभ-हानि का गणित. मानव जीवन में व्याप्त बुराइयों की जड़ यदि हम खोजने चलेंगे तो वो मस्तिष्क यानि दिमाग़ से उपजी मिलेंगी. यानि कि किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके दिल और दिमाग़ के सम्मिश्रण को प्रदर्शित करता है. और यहीं पर आदमी और इंसान का अंतर समझ आता है. दिमाग़ का अत्यधिक उपयोग आपको सफल तो बना सकता है, लेकिन यदि दिल का संतुलन न हो तो, सम्भव है इंसानियत आप से दूर रहना पसन्द करे. मृत्यु केवल शरीर की नहीं होती. जब दिल या दिमाग़ या दोनों फेल हो जाते हैं, तभी मृत्यु होती है. लेकिन मेडिकल रूप से तभी डेथ डिक्लेयर की जाती है जब अन्दर की घृणा-क्रोध-अहंकार जैसी सभी बुराइयाँ निकल जाती हैं. यानी डॉक्टरी रूप से आदमी तभी मृत माना जाता है जब ब्रेन डेथ होती है. सर्टिफ़िकेट से एक बात समझ आयी कि दिमाग, जिस पर हम सबसे ज़्यादा गुमान करते हैं, स्मार्ट और चालाक होने का, जिसके अहं का पोषण करने में पूरा जीवन निकाल देते हैं, न मरने के पहले किसी और के काम आता है, न मरने के बाद. 

दिल ने भले मान लिया कि सिर्फ़ शपथ ले कर हमने कोई बड़ा काम नहीं किया लेकिन दिमाग़ क्रेडिट लेने को बेताब दिख रहा था. उसने तुरन्त घमण्ड में आ कर कबीर की भाषा में कहा - 'हम न मरब मरिहै संसारा', कम से कम अगले चार सौ सालों तक. तब उसे कदाचित भान न रहा हो कि बुराई का अन्त शरीर के साथ ही हो जायेगा. केवल अच्छाईयाँ ही आगे जा सकती हैं. फिर भी दिल अपनी अच्छाई कैसे छोड़ देता. वो घमंडिया दिमाग़ का दिल नहीं तोडना चाहता था, सो बस मुस्करा कर रह गया.

-वाणभट्ट 

शनिवार, 19 अगस्त 2023

यूँ होता तो क्या होता

यूँ होता तो क्या होता

हुयी मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है 

वो हर इक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता 

ये शेर ग़ालिब के लिखे उन शेरों में से है जिसे समझने के लिये फ़ारसी जानना जरूरी नहीं है. अगर आप ने ग़ालिब को पढ़ा हो तो यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि बादशाहों के ज़माने में भी बन्दा बेख़ौफ़ बोलता-लिखता था. बेख़ौफ़ था तभी शायद वो इतना बेहतरीन लिख सका कि आज तक के कवि और शायर उनका नाम इज्ज़त से लिया करते हैं. क्रियेटिव कामों के लिये एक अलग प्रकार के इको सिस्टम का निर्माण करना होता है - वेयर माइंड इज़ विदाउट फ़ियर एंड हेड इज़ हेल्ड हाई.

आज़ादी के बाद से ही बुजुर्गों को अपने भविष्य यानि बेटे-बेटियों, नाती-पोतों के लक्षण अच्छे नहीं लग रहे थे. अगली पीढ़ी सभी को निकम्मी और नाकारा लगती है. लेकिन दुनिया हमेशा आगे ही गयी है तो इसका पूरा श्रेय नयी पीढ़ी की नयी सोच और नये दृष्टिकोण को जाना चाहिये. लेकिन बुजुर्गों का क्या, ये स्वेच्छा से नये लोगों को रास्ता नहीं देते. इसी बात के चलते न जाने कितने ही प्रगतिशील और नवोन्मेषी विचारों ने धरा पर उतरने से पहले ही दम तोड़ दिया. ज्ञान-विज्ञान-तकनीक में अपने से आगे देख कर हर पीढ़ी अपने से अगली पीढ़ी को एरोगेंट और संस्कारहीन सिद्ध करने में लग जाती है. आपके जमाने में टीवी-फ़्रिज-कार और सुख-सुविधाओं का इतना बड़ा ज़खीरा तो था नहीं. तो आपके सपने भी लिमिटेड हुआ करते थे. जब आप के ज़माने में वैन हियुज़न के कपडे मिलते ही नहीं थे तो आपको अन्सारी टेलर से काम चलाना ही था. अन्सारी साहब भी मितव्ययिता की मिसाल हुआ करते थे. पापा की ही शर्ट में बच्चों की भी लेंथ नाप के बता देते थे. दसवीं तक तो मै ये ही समझता रहा कि कुम्भ मेले में हम बिछड़ न जायें इसलिये पापा अपनी, मेरे बड़े भाई और मेरी शर्ट एक ही थान से कटवाते हैं. पता तब चला जब भाई साहब ने विद्रोह कर दिया कि मै अपनी शर्ट का कपडा ख़ुद सेलेक्ट करूँगा. 

ग़ालिब स्वान्तः सुखाय के लिये लिखा करते थे. उनके ज़माने में यदि डिबरी में मिटटी का तेल हो और वो रात में भी शायरी लिख सकें, यही लग्ज़री हुआ करती थी. यहीं से शायद मिडनाइट ऑयल जलाने वाला मुहावरा निकला हो. ग़ालिब साहब खुशकिस्मत थे कि उनके लेखन का अधिकतर समय स्वयं शेर-ओ-शायरी करने वाले बादशाह बहादुर शाह ज़फर के कार्यकाल में बीता. जिन्होंने उनके इल्म को निखारने के लिये अनेक प्रोत्साहन दिये. फ़ाकाकशी की नौबत आयी होती तो शायद उनको भी दर्द भरी शायरी से रूबरू होना पड़ता. उनकी रचनाओं में एक बेलौस सा अक्खड़पना झलकता है. हमें जो कहना है कहेंगे, तुमको सुनना हो तो सुनो. चूँकि उनके अधिकतर शेर और ग़ज़ल फ़ारसी ज़ुबान में हुआ करती थी, तो भला कौन हिमाकत करता कि बात में वज़न नहीं है. नहीं तो उसकी अपनी जाहिलियत प्रदर्शित हो जाती. बहुत से अच्छे-अच्छे शायरों की शायरी पर हमें भी वाह-वाह सिर्फ़ इसलिये करनी पड़ जाती है कि कोई मेरे मज़ाक-ए-शेरफ़हमी (शेर समझने की सलाहियत) का मज़ाक न उडाये. साथियों पर रौब गाँठने की गरज से दीवान-ए-ग़ालिब खरीद लाया था. उसमें से कुछ वही शेर पल्ले पड़े जो आसान थे और गुलज़ार-नसीरुद्दीन-जगजीत के ग़ालिब पर बेस्ड सीरियल में सुनने को मिले थे. तब समझ आया कि वाणभट्ट के उम्दा से उम्दा शेर को दाद क्यों नहीं मिलती. दरअसल वाणभट्ट की शायरी लोगों को समझ में आ जाती है इसलिये कोई दाद देने की जरूरत नहीं समझता.

एक नया ट्रेंड चल गया है. बहुत से नये-नये शायर ग़ालिब के नाम से अपने शेर सोशल मिडिया पर चेप रहे हैं. चूँकि दीवान मेरी नज़रों के सामने से गुजरा है, सो मै फट से बता सकता हूँ कि ये ग़ालिब का है या नहीं. अगर शेर समझ आ गया तो पक्का है कि ग़ालिब का तो हो ही नहीं सकता. ऐसे ही मै चचा ग़ालिब के भतीजे गुलज़ार साहब के शेर पकड़ने में माहिर हूँ. अगर शब्दों कोई मतलब निकल रहा है तो शर्तिया ये गीत या ग़ज़ल गुलज़ार साहब की नहीं हो सकती. चूँकि ग़ालिब साहब का भूख-दर्द-विरह टाइप के मानवीय मूल्यों से पाला नहीं पड़ा था, इसलिये उनकी लेखनी बिन्दास थी. जब बादशाह और उनके शहज़ादे ख़ुद फ़ारसी सीखने के चक्कर में ग़ालिब की शागिर्दी किया करते थे, तो भला उन्हें क्या गरज़ थी कि बादशाह सलामत की ख़ुशामद करें. कहने का अभिप्राय ये है कि ग़ालिब को पूरी छूट थी कि किसी को कुछ भी राय दे सकते थे - 'कि यूँ होता तो क्या होता-कैसा होता'. दरबार में उनका अलग मुक़ाम था. उनकी कौन सी नौकरी थी कि हाँ में हाँ मिलाने की मज़बूरी होती. 

मेरे एक सीनियर ट्रैक्टर कम्पनी में मार्केटिंग का इंटरव्यू दे कर लौटे तो जूनियर्स उनसे ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा से उनके पास चले गये. उन्होंने बताया कि इंटरव्यू लेने वाले मैनेजर्स ने चार साल की पढ़ाई-लिखाई बारे में थोडा बहुत ही पूछा. फिर बोले कि भाई ट्रैक्टर तो बाद में बेचना, पहले ख़ुद को बेच कर दिखाओ. हम तुम्हें क्यों हायर करें. फिर क्या सीनियर ने अपनी शान के कसीदे काढ़ने में सारे घोड़े खोल दिये और नौकरी हासिल कर के ही लौटे. उस दिन एहसास हुआ कि कोई सामान बेचना आसान हो सकता है लेकिन ख़ुद को बेच पाना आसान न होगा. इस तरह मार्केटिंग में जॉब करने का मेरा इरादा खत्म सा हो गया. कुछ ग़ालिब टाइप की अपनी भी फ़ितरत हुआ करती थी. कभी-कभी तो लगता है कि आजादी के पहले पैदा हुये होते तो अपने ही भाई-बन्धुओं ने शहीद कर दिया होता. कौन सा अंग्रेजों को पता चलता था कि किसने क्रान्ति की मशाल जलायी है. ये तो अपने ही थे जो अपनों को निपटाने में लगे थे. ताकि उनको समय से पहले राय बहादुर की पदवी मिल जाये. सोचा अध्यापन और शोध में यूँ-क्यूँ करने की गुंजाइश हुआ करती है, इसलिये शोध के कम्पटीशन से पहले कहीं बायोडाटा नहीं भेजा.   

जब आपका लक्ष्य क्लियर हो तो एग्जाम पास करना भी आसान हो जाता है. पहले प्रयास में जब शोध कार्य के लिये सेलेक्शन हो गया तो लगा सही जगह आ गये हैं. छिहत्तर लोगों के बैच की ट्रेनिंग में एक प्रोफ़ेसर ने पूछा कि आप में से कितने वैज्ञानिक बनना चाहते थे. तो तीन लोगों ने हाथ उठाया. उसमें एक हाथ मेरा भी था. बाद में पता चला कि अधिकांश ने आईएएस-पीसीएस बनने की प्रक्रिया में पीएचडी कर डाली. और उन्हें गिरती-पड़ती हालत में शोध से संतोष करना पड़ रहा है. उस समय हम भी युवा हुआ करते थे, सो नये-नये आइडियाज़ कुलाँचे मारते रहते थे. जब उन आइडियाज़ को लेकर बॉस के पास जाता तो वो बताते यदि ये हो सकता होता तो अमरीका-जापान वाले कर चुके होते. हाई-फ़ाई काम करने की तमन्ना लिये रोज-रोज नये-नये प्रोजेक्ट बनाता और बड़े भाई दो मिनट में उनको नेस्तनाबूद कर देते. बहुत दिनों टहलाने के बाद भाई साहब ने बताया कि आटा चक्की पर काम करो. तो पता चला शोध भी एक तरह की नौकरी है और इसमें यूँ और क्यूँ करने का स्कोप नहीं है. नौकरी है तो उसकी अपनी सीमायें भी होती हैं. लगभग तीस साल होने को आये इस नौकरी में. ग़ालिबी फ़ितरत का खामियाज़ा भुगतने के बाद भी फ़ितरत कम तो हुयी पर पूरी तरह गयी नहीं. लेकिन इस फ़ितरत ने हमेशा रैट रेस से दूर रखा. बहुत से नये-नये काम करा डाले लेकिन प्रमोशन के लिये आवश्यक हथकण्डों को अपनाने नहीं दिया. ज्ञान कहीं से भी मिले ले लेना चाहिये. एक दिन एक जूनियर से अन्न के भण्डारण पर बात हो रही थी कि फिल इट - शट इट - फॉरगेट इट टाइप की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये ताकि अनाज को बिना रख-रखाव के अधिक दिनों तक भण्डारित किया जा सके. जूनियर मुस्कुराया और बोला सर आप एक चीज़ भूल रहे हैं - फिल  इट - शट इट - पब्लिश इट एंड देन फॉरगेट इट.

अब हमारा काम कोई चन्द्रयान या मंगलयान जैसा काम तो है नहीं कि बेसिक और अप्पलाइड शोध के सैकड़ों लोग एक साथ मिल कर काम करें. यहाँ तो हर किसी को अपना काम ख़ुद ही प्रमोट करना है और अपने काम को जस्टिफाई भी करना है. सिस्टम के बाकी लोगों का उससे कुछ लेना-देना नहीं है. सबको अपने-अपने लिये काम करना है और उसकी उपयोगिता सिद्ध करनी है. अब मार्केटिंग और शोध में ज्यादा अन्तर नहीं रह गया है. बनाने से ज़्यादा आपको बेचना आना चाहिये. अपनी शान में कसीदे काढिये और अपनी पीठ ख़ुद थपथपाईये. देर से ही सही, सीनियर की वो बात भी समझ आ रही है कि ट्रैक्टर तो कोई भी बेच लेगा, ख़ुद को कैसे बेचोगे, ये महत्वपूर्ण है.

पाठकों की सुविधा के लिये एक नॉन-ग़ालिब शेर पेश कर रहा हूँ-

ग़ालिब बुरा न मान जो कोई बुरा कहे

ऐसा भी कोई है जिसे सब भला कहे

-वाणभट्ट

जागे हुये लोग

सुबह सवेरे हमारे घर की शुरुआत विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून से होती थी. वंदेमातरम जो आज तक कंठस्थ है, उसके बाद शुरू होता था. फिर शुरू होती थ...