एक्सलरेटर को हल्का सा ऐंठा ही था कि स्कूटर हवा से बातें करने लगा. फोर स्ट्रोक वाली हीरो-होण्डा चलाने वाले को पिकअप से संतोष करना ही पड़ता है. लेकिन होण्डा एक्टिवा की बात कुछ और है. हेलमेट लगा हो तो कब ये साठ पार कर जाती है, पता ही नहीं लगता. जब तक मैंने स्वयं एक्टिवा नहीं चलायी थी, मुझे लगता था कि लोग-बाग़ ख़ामख्वाह उड़े जा रहे हैं. आज की पीढ़ी या तो स्पीड चाहती है या टशन. बुलेट अगर डिमांड में है और धुआँधार बिक रही है तो उसके पीछे टेक्नोलॉजी से ज़्यादा स्टाइल स्टेटमेंट वाली बात है.
पंख होते तो उड़ आती रे या पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ मस्त गगन में आदि-इत्यादि गीतों की भावनायें इंसान की मूल रूप से स्वतंत्र रहने की प्रवृत्ति को दर्शाती है. पैदल जाने में आस-पड़ोस, घर-परिवार के द्वारा गंतव्य तक पहुँचने से पहले पकड़े जाने की सम्भावना अधिक रहती है. उड़ने में समय भी कम लगता है. फुर्र से उड़े और पहुँच गये. जिससे मिलना है मिले, और उसी तरह फुर्र से किसी को हवा लगने से पहले वापस हो लिये.
जब पहली बार सन् सत्तासी में हीरो-होण्डा भारत में इंट्रोड्यूस हुयी थी, तो मार्केट में स्कूटर 'हमारा बजाज' का बोलबाला था. बजाज को स्टार्ट करने से पहले उसकी आरती उतारने का एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर था. स्कूटर को तीन बार इंजन की ओर झुकाओ, तभी पेट्रोल कार्बोरेटर तक पहुँचता था. बजाज स्कूटर के मालिक को छोटा-मोटा मेकैनिक होना पड़ता था. कभी भी आपको स्पार्क प्लग साफ़ करना पड़ सकता था. एक-दो क्लच वायर तो स्कूटर की डिक्की में पड़े ही रहते थे, जिसे बदलना, कोई भी ओनर जल्दी ही सीख जाता था. संतोष धन से समृद्ध हम लोग एक लीटर में अस्सी किलोमीटर चलने वाली हीरो-होण्डा के उपर तीस किलोमीटर चलने वाले बजाज से मात्र इसलिये संतुष्ट थे कि उसकी रिसेल वैल्यू थी, और तब तक किसी को हीरो-होण्डा के रीसेल की नौबत नहीं आयी थी. दोनों के दाम में भी दुगने का अंतर था. जड़त्व के मामले में हम लोगों का कोई सानी नहीं है. काफी समय तक बजाज सिर्फ़ अपने स्थापित नाम और विज्ञापनों पर ही चलता रहा. 'यू जस्ट कांट बीट अ बजाज'. आज भी बहुत सी ऑब्सलीट हो चुकी पॉलिटिकल पार्टीज़ और एजेंडों को बस इसलिये ढोये जा रहे हैं क्योंकि वो पुरानी पार्टीयाँ और पुराने मुद्दे हैं. कुछ पुराने लीडर्स के प्रति हम स्वयं को प्रतिबद्ध समझते हैं.
उसी समय सबसे पहली ऑटोमेटिक गियर वाली स्कूटर काईनेटिक होण्डा ने भी इंडियन मार्केट में एंट्री मारी. टेक्नोलॉजिकली सुपीरियर इन गाड़ियों ने भारत के टू-व्हीलर सेगमेंट को अभूतपूर्व रूप से प्रभावित किया. नतीजन मार्केट में जापानी तकनीक वाली कावासाकी-बजाज और इंड-सुज़ुकी जैसी गाडीयाँ भी लॉन्च हुयीं. लेकिन मार्केट में हीरो होण्डा और काईनेटिक होण्डा का वर्चस्व बना रहा. इन भारतीय कंपनियों के माध्यम से होण्डा ने भारत के मार्केट पोटेंशियल का अध्ययन कर लिया. सन् सत्तासी में ही मैंने आँकलन कर लिया था कि जिस दिन होण्डा ने डायरेक्ट अपना प्रोडक्ट लॉन्च कर दिया, इन भारतीय कम्पनियों के लिये समस्या आ सकती है. कभी लूना और स्पार्क जैसी गाडियाँ देने वाली मार्केट लीडर रही काईनेटिक गायब हो गयी. हीरो और बजाज भी मार्केट में बने रहने के लिये निरंतर नये-नये मॉडल्स निकाल रहे हैं.
निसंदेह एक्टिवा के नये-नये मॉडल्स ने युवाओं को पंख दे दिये हैं. कल्पना तो कल्पना होती है. लेकिन किसी भी कल्पना का आधार कहीं से ली गयी प्रेरणा होती है. जब होंडा वालों ने अपने टू-व्हीलर सेगमेंट के लिये पंख का सिम्बल चुना तब मुझे शक़ नहीं हुआ कि इनका इरादा क्या है. इनका टू-व्हीलर आपको गति प्रदान करेगा और वो भी ऐसी वैसी नहीं. उड़ने के माफ़िक. आपको लगेगा कि पंख निकल आये हों. जिसे देखो भड़भड़ाया उड़ा जा रहा है. स्पीड इतनी की स्पीड ब्रेकर भी हैरान हो जाता है कि हम ख़ामख्वाह लेटे पड़े हैं. आज गति ही विकास है. विकास और परिवर्तन हमेशा आगे ही जाता है, लेकिन 'पाथ ऑफ़ नो रिटर्न' पर.
स्पीड की खोज में जुटे युवाओं के लिये इस गाड़ी में मुझे व्यक्तिगत तौर पर बस दो कमियाँ लगीं. १. चौड़े इंजन को कवर करने के लिये इन्होंने उतनी ही चौड़ी सीट लगा रखी है. इससे पिलीयन सीट पर बैठने वाले को हमेशा ये डर बना रहता है कि चढ़ते-उतरते कहीं उसकी तशरीफ़ का टोकरा पब्लिक दर्शन के लिये खुल न जाये. २. इसका फुटरेस्ट स्कूटर की बॉडी से बाहर काफ़ी निकला सा लगता है. बाक़ी हवा में उड़ने वालों के लिये इससे मुफ़ीद टू-व्हीलर फ़िलहाल तो मार्केट में नहीं दिखता.
अमूमन मोहल्ला मार्केटिंग के लिये कंधे का झोला मेरे ड्रेस कोड में शामिल है. उस दिन शाम को टहल के लौट रहा था, जब घर से फ़रमाइश आयी कि लौटते हुये माज़ा की दो लीटर की बोतल लिये आना. लिहाज़ा मुझे पॉलीथीन बैग लेना पड़ गया. जब से मार्केट का विस्तार हुआ है, तब से लगता है दुकानों ने पूरा फुटपाथ निगल लिया है. पैदल चलने वालों के लिये सड़क पर चलने की विवशता है. ख़रामा- ख़रामा मै सड़क पर अपनी बायीं साइड लिये घर की ओर चल दिया. तभी एक मोहतरमा सनसनाती हुयी मेरे बगल से एक्टिवा से गुजरीं. हेलमेट पहनने के बाद अधिकांश लोगों को लगता है उनकी गर्दन सामने की ओर फ़िक्स हो गयी है. ग़लती से कोई अगर मोड़ पर सर दायें-बाँयें घुमा लें, तो समझिये ड्राइविंग टेस्ट दे कर ही लाइसेंस बना है.
उनके पंख खुले हुये थे. पंख से एक सॉफ्ट फीलिंग आती है. एक्टिवा के फुटरेस्ट को डैने की संज्ञा देना अधिक उचित होगा. सशक्त पक्षियों जैसे गिद्ध, चील और बाज के डैनों को पंख कहना सही नहीं है. नयी पीढ़ी इतनी जल्दी में होती है कि इनको फुटरेस्ट खोलने का समय भले मिल जाये, लेकिन इसे बन्द करने की किसके पास फुरसत है. ये उसे बन्द इसलिये भी नहीं करते कि बार-बार क्या खोलना-बन्द करना. जापान में विकसित होण्डा एक्टिवा के निर्माताओं ने ये सोच कर की ड्राइविंग के बेसिक्स तो लोगों को पता होंगे, फुट रेस्ट बंद रखने का क्लाज मैनुअल में नहीं डाला. ना ही किसी ने इन्हें बताया कि जब फुटरेस्ट उपयोग में न हो तो बन्द कर देना चाहिये. सारे एक्टिवा वाले शार्प चाकू जैसा फुटरेस्ट लिये खुले-आम घूम रहे हैं. बाकी गाड़ियों के यूज़र्स का भी यही हाल है. लेकिन उनके फुटरेस्ट संभवतः हैंडल की चौड़ाई के भीतर आ जाते हों.
उनका फुटरेस्ट मेरे पैर पर भी लग सकता था, यदि मेरे दाहिने हाथ के पॉलीथीन में माज़ा की बोतल न लटक रही होती. पॉलीथीन का लिफ़ाफ़ा फट चुका था और माज़ा की बोतल सड़क पर रोल होते हुये पीछे से आती कार के ठीक सामने थी. कार वाला शाम को मार्केट में बढ़ती चहल-पहल के चलते नियन्त्रित स्पीड पर चल रहा था. उसने ब्रेक मार कर माज़ा को शहीद होने से बचा लिया.
बोतल की जगह यदि मेरा पैर चपेट में आ जाता तो स्थिति का अंदाज़ आसानी से लगाया जा सकता है. उधर उन मोहतरमा को पता भी नहीं लगा कि उनकी पीठ के पीछे मेरा काम लगते-लगते रह गया. यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि अधिकांश लोग स्कूटर का बैक मिरर अपने चेहरे पर फ़ोकस रखते हैं ताकि हैंड्स फ़्री पर बात करते हुये अपनी भाव-भंगिमा निहार सकें. पब्लिक की सेफ़्टी के मद्देनज़र कम्पनी को मेरा सुझाव है कि भाई जब इतनी अच्छी और मॉडर्न स्कूटर बना ही दी है तो एक बटन ऐसा भी लगा दो कि जिसे दबाते ही फुटरेस्ट खुल और बन्द हो सकें. मेन स्टैंड का उपयोग न जानने वाली और हमेशा साइड स्टैंड पर टू-व्हीलर खड़ा करने वाली युवा पीढ़ी के पास समय का सर्वथा अभाव है और रहेगा.
-वाणभट्ट