शनिवार, 16 सितंबर 2023

ऑर्गन डोनेशन

 ऑर्गन डोनेशन

जब ऑर्गन डोनेशन का फॉर्म ऑनलाइन भरा तो सरकार की तरफ़ से एक सर्टिफिकेट मिल गया. उसमें शरीर के सभी अवयव जिनको किसी की मृत्यु के उपरान्त किसी और के लिए उपयोग में लाया जा सकता है, उनकी लम्बी-चौड़ी फ़ेहरिश्त लगी हुयी थी. ये देख कर मेरा मन-मस्तिष्क गर्व से भर गया. ऐसी फिलिंग आयी जो शायद महर्षि दधीचि को आयी हो जब उन्होंने देवराज इन्द्र को असुरों से लड़ने के लिये वज्र बनाने हेतु अपनी अस्थियों का दान दिया हो. पुराना जमाना होता तो शाम को यार-दोस्तों की महफ़िल में ढिंढोरा पीट देता कि मित्रों आज मैंने एक बहुत ही महान कार्य सम्पन्न किया है. मृत्योपरान्त अपने ऑर्गन्स को दान देने का निर्णय लिया है. लेकिन पुराना जमाना होता तो यार-दोस्त जम के गरियाते, इस बेवकूफ़ी भरे कार्य के लिये. जिस देश में दूसरे को खून का कतरा भी देने में लोग वर्जनाओं का शिकार हो जाते हों, वहाँ शरीर के अवयव को निकालने की कल्पना करना भी असम्भव सा लगता था. यहाँ लेने का रिवाज़ है, देने की बात करो तो इष्ट-मित्र भी कन्नी काट के निकल जाते हैं. किसी को ब्लड न डोनेट करना पड़ जाये, इसके भी सौ बहाने निकाल लेते हैं. रहीम दास जी को इसीलिये लिखना पड़ा होगा कि 'रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होय, हित-अनहित या जगत में जान पडत सब कोय'. इस दोहे से तो यही लगता है हिमोग्लोबिन कम हो जाने के चक्कर में सम्भवतः कवि को खून की आवश्यकता हुयी हो, तब उसका दोस्तों की असलियत से सामना हुआ हो. बाद में चुकन्दर, शलजम और खजूर ही काम आये. 

आजकल जमाना बदल चुका है. यार-दोस्त बचे नहीं. जो बचे हैं वो मिलते नहीं. और यदि आपका मन मिलने के लिए बहुत फ़ड़फ़ड़ा रहा हो, तो जेब ढीली करनी होगी और एक मस्त पार्टी रखनी पड़ेगी. लेकिन पीने-पिलाने के बाद आपके इस महान कृत्य को  सुनने लायक कोई बचेगा या नहीं, इसमें सन्देह है. इन विषम परिस्थितियों में एक सस्ता-सुन्दर-टिकाऊ माध्यम है - सोशल मीडिया. फ्री में चेपो-चिपकाओ और हजार-दो हजार लोगों तक अपनी बात पहुँचाओ. ये 'बिना हर्र फिटकरी के चोखा रंग' मुहावरे का सबसे लेटेस्ट उदाहरण है. जब लोग-बाग़ 'इटिंग मैगी और हगिंग बनाना' टाइप की पोस्ट्स को सार्वजनिक करने में लगे हुये हैं, फिर हमने तो वाकई एक महान कार्य किया है. जिससे और लोग भी प्रेरित हो सकते हैं. इस बात को पूरे भारत को जानना चाहिये. दुर्योग से हमारे व्हाट्सएप्प का स्टेटस मात्र दो-ढाई हज़ार लोगों तक ही उपलब्ध है. कॉन्टैक्ट लिस्ट में बहुत से नाते-रिश्तेदारों को ब्लॉक कर रखा है. और पता नहीं कौन-कौन स्टेटस में झाँक जाता है. इसी तरह फ़ेसबुक पर भी हज़ार लोगों को फ्रेंड बना रखा है. अब हम कोई सेलिब्रिटी तो है नहीं कि बिना रिक्वेस्ट भेजे लाखों लोग फॉलो करने लगें. जिसको फ्रेण्ड बनाना चाहते हैं, वो लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट रिजेक्ट कर देते हैं और जो हमसे दोस्ती करना चाहते हैं, उन्हें हम पेन्डिंग लिस्ट में लटकाये हुये हैं. फिर भी ना-ना करते करते लगभग हज़ार लोग फ्रेंड बन चुके हैं. बैंक फ्रॉड के चक्कर में आजकल नयी फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेज रहा हूँ वर्ना बर्थडे विश करने में ही पूरा दिन चला जाये. फ़ेसबुक पर भी कई करीबी नाते-रिश्तेदार-दोस्त लोगों को भी या तो हमने अन्फ्रेंड कर रखा है या उन्होंने मुझको. कुल मिला के स्थिति ये हो रखी है कि - 'मै भी रानी तू भी रानी, कौन भरेगा पानी'. जिस देश में सभी आत्मनिर्भर हो जायें, उस देश का तो भगवान भी क्या भला करेगा. इसलिये थोड़ी बहुत पारस्परिक निर्भरता जरुरी है. किन्तु इस बात का ध्यान तब आता है, जब आदमी अस्पताल की ओर कूच करे या शमशान की ओर. परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. फिर वो कहता घूमता है - जमाना बहुत ख़राब है. लाइफ़ इज़ गिव एंड टेक सिर्फ़ लेते रहने वाले भले ख़ुद को बहुत चालक और अफ़लातून मानते रहें, लेकिन ज़िन्दगी बहुत सीधी और सरल है. दुनियादारी के लिये स्मार्टनेस की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ज़िन्दगी के लिये नहीं.       

एक बारगी हमें अपने ऊपर बहुत संतोष हुआ कि कम से कम दो-ढाई हज़ार लोगों तक तो ढिंढोरा पीट ही सकते हैं. इतना महान कार्य किया है. कोई न जाने तो क्या फ़ायदा. और हो सकता है मेरा यह कृत्य किसी के लिये प्रेरणा बन जाये और वो इस मिशन में शामिल होना चाहे. इस गरज से सर्टिफिकेट अपने ब्रॉडकास्ट, सभी वाट्सएप्प ग्रूपों, स्टेटस और फ़ेसबुक पर चेप आया. इंसानी फ़ितरत है कि वो अपने हर काम में दूसरों की अप्रूवल या दूसरों से प्रशन्सा खोजता है. ढाई हज़ार में से बमुश्किल ढाई लोगों ने कहा कि भाई बड़ा महान कार्य कर दिया है. कुछ लोगों ने पोस्ट पर ठेंगा, तो कुछ ने हार्ट दिखा कर अपनी अभिव्यक्ति दे डाली. लेकिन क्या मजाल जो किसी ने कहा हो कि आपके इस कृत्य से प्रेरणा पा कर हम भी ऐसा ही करने की सोच रहे हैं. लेने वालों के देश में देने की बात लोगों के गले उतारना थोडा मुश्किल है. श्री लंका जैसे छोटे से देश में नेत्र-दान के लिये एक सोसायटी है, जिसके 450 केन्द्र हैं और 15000 वालेंटियर हैं. श्री लंका दुनिया का सबसे बड़ा कॉर्निया उपलब्ध कराने वाला देश है. लेने वाले देशों में सबसे उपर कौन सा देश हो सकता है? आपका अन्दाज़ एकदम सही है - पाकिस्तान. पहले की सरकारें रेवड़ियाँ बाँटने में विश्वास रखती थीं. सरकार क्या बदली, नयी सरकार आपसे देशप्रेम के नाम पर सब निकलवाने में लगी है. पहले गैस सब्सिडी रखवा ली, मीठी-मीठी बातें करके. फिर ना-ना प्रकार के टैक्स निकलवा रही है. अब ऑर्गन डोनेशन के लिये अपील कर रही है. अभी तो शुरुआत है. लेकिन अगर जनता समय रहते न जगी, तो पक्का है कि ये अध्यादेश ला कर ऑर्गन डोनेशन कम्पलसरी करवा देगी. चूँकि अब मै कसम खा चुका हूँ, तो इसे कम्पलसरी कर देना चाहिये. बाकी लोगों को भी चाहिये कि कम से कम शपथ तो खा ही लें. यदि गवर्नमेन्ट ऑर्गन डोनेशन को लेकर वाकई संजीदा है, तो उसे शपथ लेने वालों को एक इन्क्रीमेंट देने का प्रावधान कर देना चाहिये. यहाँ लोग लेन-देन पर बहुत विश्वास करते हैं. एक इन्क्रीमेंट के चक्कर में बहुत लोग नस बन्द करवाने से भी परहेज नहीं करते. ऐसा जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिये किया जाता है. तब मुझे उम्मीद है कि कम से कम सरकारी नौकर तो ऑर्गन डोनेशन की बात पर ज़रूर गौर करेंगे. 

इन दस-बारह घन्टों में जब सोशल मीडिया पोस्ट का गर्दा सेटेल हो गया तो हम ने अनुभव किया कि बात की बात में बहुत बड़ा बयाना ले लिया. अब  अपने शरीर और उसके अवयवों को सम्हाल के रखना होगा ताकि वो मरणोपरांत किसी के काम आ सकें. अवयव तो वो ही उपयोग में आयेंगे जो स्वस्थ हालातों में होंगे. लीवर-किडनी-हार्ट-लंग्स को मरने तक स्वस्थ बनाये रखना, अब मेरी पर्सनल जिम्मेदारी है. अगर ऐसा कर सका तो ही जीते जी और मर के भी मैं देश की सेवा कर पाऊँगा. अन्यथा इस शपथ का क्या महत्व है. इस शपथ के एनेक्स्चर में एक और शपथ होनी चाहिये कि हम अपने शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिये हर संभव प्रयास करेंगे और शराब-सिगरेट-गुटके जैसे हानिकारक व्यसनों का परित्याग करेंगे. पहली बार मुझे अपने उपर गर्व हुआ. अब तक तो सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के लिये जी रहा था. इस छोटी सी शपथ के बाद  लगा कि अब सिर्फ़ अपने लिये नहीं देश के लिये भी जी रहा हूँ. मोटिवेशन में ओत-प्रोत हो कर अर्धान्गिनी जी को आवाज़ दे दी कि शायद आज उसे अपने निकृष्ट से लगने वाले पति पर कुछ गर्व हो सके. उसको मोबाईल पर सर्टिफ़िकेट दिखा दिया और पूछा कि उसका क्या इरादा है. उम्मीद थी कि वो कुछ गौरवान्वित महसूस करेगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उसने हल्के से झिड़कते हुये कहा - आप भी खाली बैठे-बैठे कुछ न कुछ किया करते हैं. मुझे अपने शरीर की दुर्दशा नहीं करानी. सारा का सारा गौरव यकीन मानिये दो मिनट में धुल गया. लेकिन प्रबुद्ध पाठकों को इस बात की ख़ुशी अवश्य होनी चाहिये कि आज की शिक्षित व सुदृढ़  नारी अपने निर्णय स्वयं लेती है. ऐसा नहीं है कि तथाकथित पति-परमेश्वर कुछ भी कह दें तो वो मान ही ले. सबको लगता है कि उन्हें न तो कभी खून की ज़रूरत पड़ेगी, न ही किसी अवयव की. इसलिये क्या लेना और क्या देना. यही सोच कर लोग इस मिशन में जुड़ने से थोडा हिचकिचायेंगे. लेकिन उम्मीद है कि जब यह विचार एक आन्दोलन के रूप में अपने चरम पर आयेगा तो सभी इसमें भागीदार बनना चाहेंगे.       

आदमी क्या है, कुछ नहीं बस अपने विचारों की प्रतिमूर्ति है. जो जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है. अपने अन्दर काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार-ईर्ष्या-द्वेष-हिंसा समेटे आदमी अपने को धरती का सबसे श्रेष्ठ प्राणी मानता है. कुछ अच्छाइयाँ, जैसे प्रेम-करुणा-दया-वात्सल्य-दान-धर्म-सहयोग भी इसी मानव जीवन का अभिन्न अंग है. लेकिन प्रायः स्वार्थ और आत्म-केन्द्रित होने की प्रवृत्तियों के कारण बुराइयाँ, अच्छाइयों पर हावी हो जाती हैं. शायद दुनियादारी के लिये आवश्यक समझी जाने वाली चालाकी अंततः सभी सामाजिक व्यवस्थाओं पर भारी पड़ती है. यदि हम अपने अन्तर में निहित अच्छी प्रवित्तियों का निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि उनकी उत्पत्ति हृदय में होती है. डार्विन के 'सर्वाइवल फॉर द फिटेस्ट' को मूल मन्त्र मानने वाले, 'वीर भोग्या वसुन्धरा' पर विश्वास करते हैं. उनका जीवन सिर्फ़ उन्हीं तक ही सीमित रहता है. बस वन टू का फ़ोर और लाभ-हानि का गणित. मानव जीवन में व्याप्त बुराइयों की जड़ यदि हम खोजने चलेंगे तो वो मस्तिष्क यानि दिमाग़ से उपजी मिलेंगी. यानि कि किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके दिल और दिमाग़ के सम्मिश्रण को प्रदर्शित करता है. और यहीं पर आदमी और इंसान का अंतर समझ आता है. दिमाग़ का अत्यधिक उपयोग आपको सफल तो बना सकता है, लेकिन यदि दिल का संतुलन न हो तो, सम्भव है इंसानियत आप से दूर रहना पसन्द करे. मृत्यु केवल शरीर की नहीं होती. जब दिल या दिमाग़ या दोनों फेल हो जाते हैं, तभी मृत्यु होती है. लेकिन मेडिकल रूप से तभी डेथ डिक्लेयर की जाती है जब अन्दर की घृणा-क्रोध-अहंकार जैसी सभी बुराइयाँ निकल जाती हैं. यानी डॉक्टरी रूप से आदमी तभी मृत माना जाता है जब ब्रेन डेथ होती है. सर्टिफ़िकेट से एक बात समझ आयी कि दिमाग, जिस पर हम सबसे ज़्यादा गुमान करते हैं, स्मार्ट और चालाक होने का, जिसके अहं का पोषण करने में पूरा जीवन निकाल देते हैं, न मरने के पहले किसी और के काम आता है, न मरने के बाद. 

दिल ने भले मान लिया कि सिर्फ़ शपथ ले कर हमने कोई बड़ा काम नहीं किया लेकिन दिमाग़ क्रेडिट लेने को बेताब दिख रहा था. उसने तुरन्त घमण्ड में आ कर कबीर की भाषा में कहा - 'हम न मरब मरिहै संसारा', कम से कम अगले चार सौ सालों तक. तब उसे कदाचित भान न रहा हो कि बुराई का अन्त शरीर के साथ ही हो जायेगा. केवल अच्छाईयाँ ही आगे जा सकती हैं. फिर भी दिल अपनी अच्छाई कैसे छोड़ देता. वो घमंडिया दिमाग़ का दिल नहीं तोडना चाहता था, सो बस मुस्करा कर रह गया.

-वाणभट्ट 

शनिवार, 19 अगस्त 2023

यूँ होता तो क्या होता

यूँ होता तो क्या होता

हुयी मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है 

वो हर इक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता 

ये शेर ग़ालिब के लिखे उन शेरों में से है जिसे समझने के लिये फ़ारसी जानना जरूरी नहीं है. अगर आप ने ग़ालिब को पढ़ा हो तो यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि बादशाहों के ज़माने में भी बन्दा बेख़ौफ़ बोलता-लिखता था. बेख़ौफ़ था तभी शायद वो इतना बेहतरीन लिख सका कि आज तक के कवि और शायर उनका नाम इज्ज़त से लिया करते हैं. क्रियेटिव कामों के लिये एक अलग प्रकार के इको सिस्टम का निर्माण करना होता है - वेयर माइंड इज़ विदाउट फ़ियर एंड हेड इज़ हेल्ड हाई.

आज़ादी के बाद से ही बुजुर्गों को अपने भविष्य यानि बेटे-बेटियों, नाती-पोतों के लक्षण अच्छे नहीं लग रहे थे. अगली पीढ़ी सभी को निकम्मी और नाकारा लगती है. लेकिन दुनिया हमेशा आगे ही गयी है तो इसका पूरा श्रेय नयी पीढ़ी की नयी सोच और नये दृष्टिकोण को जाना चाहिये. लेकिन बुजुर्गों का क्या, ये स्वेच्छा से नये लोगों को रास्ता नहीं देते. इसी बात के चलते न जाने कितने ही प्रगतिशील और नवोन्मेषी विचारों ने धरा पर उतरने से पहले ही दम तोड़ दिया. ज्ञान-विज्ञान-तकनीक में अपने से आगे देख कर हर पीढ़ी अपने से अगली पीढ़ी को एरोगेंट और संस्कारहीन सिद्ध करने में लग जाती है. आपके जमाने में टीवी-फ़्रिज-कार और सुख-सुविधाओं का इतना बड़ा ज़खीरा तो था नहीं. तो आपके सपने भी लिमिटेड हुआ करते थे. जब आप के ज़माने में वैन हियुज़न के कपडे मिलते ही नहीं थे तो आपको अन्सारी टेलर से काम चलाना ही था. अन्सारी साहब भी मितव्ययिता की मिसाल हुआ करते थे. पापा की ही शर्ट में बच्चों की भी लेंथ नाप के बता देते थे. दसवीं तक तो मै ये ही समझता रहा कि कुम्भ मेले में हम बिछड़ न जायें इसलिये पापा अपनी, मेरे बड़े भाई और मेरी शर्ट एक ही थान से कटवाते हैं. पता तब चला जब भाई साहब ने विद्रोह कर दिया कि मै अपनी शर्ट का कपडा ख़ुद सेलेक्ट करूँगा. 

ग़ालिब स्वान्तः सुखाय के लिये लिखा करते थे. उनके ज़माने में यदि डिबरी में मिटटी का तेल हो और वो रात में भी शायरी लिख सकें, यही लग्ज़री हुआ करती थी. यहीं से शायद मिडनाइट ऑयल जलाने वाला मुहावरा निकला हो. ग़ालिब साहब खुशकिस्मत थे कि उनके लेखन का अधिकतर समय स्वयं शेर-ओ-शायरी करने वाले बादशाह बहादुर शाह ज़फर के कार्यकाल में बीता. जिन्होंने उनके इल्म को निखारने के लिये अनेक प्रोत्साहन दिये. फ़ाकाकशी की नौबत आयी होती तो शायद उनको भी दर्द भरी शायरी से रूबरू होना पड़ता. उनकी रचनाओं में एक बेलौस सा अक्खड़पना झलकता है. हमें जो कहना है कहेंगे, तुमको सुनना हो तो सुनो. चूँकि उनके अधिकतर शेर और ग़ज़ल फ़ारसी ज़ुबान में हुआ करती थी, तो भला कौन हिमाकत करता कि बात में वज़न नहीं है. नहीं तो उसकी अपनी जाहिलियत प्रदर्शित हो जाती. बहुत से अच्छे-अच्छे शायरों की शायरी पर हमें भी वाह-वाह सिर्फ़ इसलिये करनी पड़ जाती है कि कोई मेरे मज़ाक-ए-शेरफ़हमी (शेर समझने की सलाहियत) का मज़ाक न उडाये. साथियों पर रौब गाँठने की गरज से दीवान-ए-ग़ालिब खरीद लाया था. उसमें से कुछ वही शेर पल्ले पड़े जो आसान थे और गुलज़ार-नसीरुद्दीन-जगजीत के ग़ालिब पर बेस्ड सीरियल में सुनने को मिले थे. तब समझ आया कि वाणभट्ट के उम्दा से उम्दा शेर को दाद क्यों नहीं मिलती. दरअसल वाणभट्ट की शायरी लोगों को समझ में आ जाती है इसलिये कोई दाद देने की जरूरत नहीं समझता.

एक नया ट्रेंड चल गया है. बहुत से नये-नये शायर ग़ालिब के नाम से अपने शेर सोशल मिडिया पर चेप रहे हैं. चूँकि दीवान मेरी नज़रों के सामने से गुजरा है, सो मै फट से बता सकता हूँ कि ये ग़ालिब का है या नहीं. अगर शेर समझ आ गया तो पक्का है कि ग़ालिब का तो हो ही नहीं सकता. ऐसे ही मै चचा ग़ालिब के भतीजे गुलज़ार साहब के शेर पकड़ने में माहिर हूँ. अगर शब्दों कोई मतलब निकल रहा है तो शर्तिया ये गीत या ग़ज़ल गुलज़ार साहब की नहीं हो सकती. चूँकि ग़ालिब साहब का भूख-दर्द-विरह टाइप के मानवीय मूल्यों से पाला नहीं पड़ा था, इसलिये उनकी लेखनी बिन्दास थी. जब बादशाह और उनके शहज़ादे ख़ुद फ़ारसी सीखने के चक्कर में ग़ालिब की शागिर्दी किया करते थे, तो भला उन्हें क्या गरज़ थी कि बादशाह सलामत की ख़ुशामद करें. कहने का अभिप्राय ये है कि ग़ालिब को पूरी छूट थी कि किसी को कुछ भी राय दे सकते थे - 'कि यूँ होता तो क्या होता-कैसा होता'. दरबार में उनका अलग मुक़ाम था. उनकी कौन सी नौकरी थी कि हाँ में हाँ मिलाने की मज़बूरी होती. 

मेरे एक सीनियर ट्रैक्टर कम्पनी में मार्केटिंग का इंटरव्यू दे कर लौटे तो जूनियर्स उनसे ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा से उनके पास चले गये. उन्होंने बताया कि इंटरव्यू लेने वाले मैनेजर्स ने चार साल की पढ़ाई-लिखाई बारे में थोडा बहुत ही पूछा. फिर बोले कि भाई ट्रैक्टर तो बाद में बेचना, पहले ख़ुद को बेच कर दिखाओ. हम तुम्हें क्यों हायर करें. फिर क्या सीनियर ने अपनी शान के कसीदे काढ़ने में सारे घोड़े खोल दिये और नौकरी हासिल कर के ही लौटे. उस दिन एहसास हुआ कि कोई सामान बेचना आसान हो सकता है लेकिन ख़ुद को बेच पाना आसान न होगा. इस तरह मार्केटिंग में जॉब करने का मेरा इरादा खत्म सा हो गया. कुछ ग़ालिब टाइप की अपनी भी फ़ितरत हुआ करती थी. कभी-कभी तो लगता है कि आजादी के पहले पैदा हुये होते तो अपने ही भाई-बन्धुओं ने शहीद कर दिया होता. कौन सा अंग्रेजों को पता चलता था कि किसने क्रान्ति की मशाल जलायी है. ये तो अपने ही थे जो अपनों को निपटाने में लगे थे. ताकि उनको समय से पहले राय बहादुर की पदवी मिल जाये. सोचा अध्यापन और शोध में यूँ-क्यूँ करने की गुंजाइश हुआ करती है, इसलिये शोध के कम्पटीशन से पहले कहीं बायोडाटा नहीं भेजा.   

जब आपका लक्ष्य क्लियर हो तो एग्जाम पास करना भी आसान हो जाता है. पहले प्रयास में जब शोध कार्य के लिये सेलेक्शन हो गया तो लगा सही जगह आ गये हैं. छिहत्तर लोगों के बैच की ट्रेनिंग में एक प्रोफ़ेसर ने पूछा कि आप में से कितने वैज्ञानिक बनना चाहते थे. तो तीन लोगों ने हाथ उठाया. उसमें एक हाथ मेरा भी था. बाद में पता चला कि अधिकांश ने आईएएस-पीसीएस बनने की प्रक्रिया में पीएचडी कर डाली. और उन्हें गिरती-पड़ती हालत में शोध से संतोष करना पड़ रहा है. उस समय हम भी युवा हुआ करते थे, सो नये-नये आइडियाज़ कुलाँचे मारते रहते थे. जब उन आइडियाज़ को लेकर बॉस के पास जाता तो वो बताते यदि ये हो सकता होता तो अमरीका-जापान वाले कर चुके होते. हाई-फ़ाई काम करने की तमन्ना लिये रोज-रोज नये-नये प्रोजेक्ट बनाता और बड़े भाई दो मिनट में उनको नेस्तनाबूद कर देते. बहुत दिनों टहलाने के बाद भाई साहब ने बताया कि आटा चक्की पर काम करो. तो पता चला शोध भी एक तरह की नौकरी है और इसमें यूँ और क्यूँ करने का स्कोप नहीं है. नौकरी है तो उसकी अपनी सीमायें भी होती हैं. लगभग तीस साल होने को आये इस नौकरी में. ग़ालिबी फ़ितरत का खामियाज़ा भुगतने के बाद भी फ़ितरत कम तो हुयी पर पूरी तरह गयी नहीं. लेकिन इस फ़ितरत ने हमेशा रैट रेस से दूर रखा. बहुत से नये-नये काम करा डाले लेकिन प्रमोशन के लिये आवश्यक हथकण्डों को अपनाने नहीं दिया. ज्ञान कहीं से भी मिले ले लेना चाहिये. एक दिन एक जूनियर से अन्न के भण्डारण पर बात हो रही थी कि फिल इट - शट इट - फॉरगेट इट टाइप की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये ताकि अनाज को बिना रख-रखाव के अधिक दिनों तक भण्डारित किया जा सके. जूनियर मुस्कुराया और बोला सर आप एक चीज़ भूल रहे हैं - फिल  इट - शट इट - पब्लिश इट एंड देन फॉरगेट इट.

अब हमारा काम कोई चन्द्रयान या मंगलयान जैसा काम तो है नहीं कि बेसिक और अप्पलाइड शोध के सैकड़ों लोग एक साथ मिल कर काम करें. यहाँ तो हर किसी को अपना काम ख़ुद ही प्रमोट करना है और अपने काम को जस्टिफाई भी करना है. सिस्टम के बाकी लोगों का उससे कुछ लेना-देना नहीं है. सबको अपने-अपने लिये काम करना है और उसकी उपयोगिता सिद्ध करनी है. अब मार्केटिंग और शोध में ज्यादा अन्तर नहीं रह गया है. बनाने से ज़्यादा आपको बेचना आना चाहिये. अपनी शान में कसीदे काढिये और अपनी पीठ ख़ुद थपथपाईये. देर से ही सही, सीनियर की वो बात भी समझ आ रही है कि ट्रैक्टर तो कोई भी बेच लेगा, ख़ुद को कैसे बेचोगे, ये महत्वपूर्ण है.

पाठकों की सुविधा के लिये एक नॉन-ग़ालिब शेर पेश कर रहा हूँ-

ग़ालिब बुरा न मान जो कोई बुरा कहे

ऐसा भी कोई है जिसे सब भला कहे

-वाणभट्ट

शनिवार, 29 जुलाई 2023

क़वायद

क़वायद

सुबह के बमुश्किल सात बजे थे, जब दरवाज़े पर किसी ने घंटी बजायी. बालकनी से झाँक के देखा तो गेट के सामने एक सरकारी गाड़ी खड़ी और सादी वर्दी में उससे उतरे कुछ लोग खड़े थे. उनके चेहरे से रुआब टपका पड़ रहा था. मुझे लगा आज ईडी ने रेड डाल ही दी. ख़ुशी भी हुयी कि मोहल्ले वाले जो मुझे किसी लायक नहीं समझते थे, उन्हें जलाने के लिये इस रेड का पड़ना आवश्यक था. नीचे आते-आते मै ये ही सोचता रहा कि कहीं समाज कल्याण में काम करने वाले मेरे पडोसी की जगह गलती से मेरी घंटी तो नहीं बजा दी. मेरे घर क्या पूरे खानदान की रेड डाल दो तो भी क्या मिलेगा. गेट पर पहुँचा तो चपरासीनुमा अधिकारी ने कुछ धमकी भरे अन्दाज़ में कहा - गेट खोलो हमारे पास तुम्हारे घर का सर्च वारेन्ट. मैंने कहा - भाई साहब आपको ग़लतफ़हमी हुयी होगी मै तो अदना सा वैज्ञानिक टाइप का निरीह प्राणी हूँ. लेकिन उसके चेहरे पर व्याप्त भाव से ऐसा लग रहा था मानो किसी माफ़िया के घर रेड डालने आया है. उसने वारेंट का कागज़ दिखाया. नाम और पता मेरा और मेरे घर का ही था. उसने बताया हम कोडेक्स अल्मेंटेरियस से आये हैं. खबर मिली है कि आपके किचन में हाइजीन का बिल्कुल ख्याल नहीं रखा जाता. आपके यहाँ का खाना खाने से आपके बच्चे, रिश्तेदार और दोस्त बीमार पड़ सकते हैं. आपके ही किसी दोस्त ने शिकायत दर्ज़ करायी है कि आपने हफ़्ता पुरानी मिठाई फ़्रिज से निकाल उन्हें सर्व कर दी. एक हफ़्ते से दिन में दस बार उठने-बैठने के कारण पैरों की मसल्स रप्चर हो गयीं हैं. डीहाईड्रेशन की दिक्क़त और डॉक्टरी खर्च अलग से. जब से बीवी-बच्चे हेल्थ कॉन्शस हुये हैं, घर में मिठाई का उपभोग कम हो गया है. लेकिन घर में मिठाई सिर्फ इस उदेश्य से रखी जाती है कि कहीं कोई मेहमान आ गया तो क्या सोचेगा. कई बार तो महीनों तक मेहमान नहीं आते तो उस मिठाई को मुझे ही खा के ख़त्म करना पड़ता है. बीवी-बच्चों का क्या सब के सब लाट साहब बने घूम रहे हैं. मेरी भी कोशिश होती है कि फंगस लगने के पहले खा लिया जाये, उसके बाद खाने में मिठाई थोड़ी खट्टी हो जाती है. आख़िर इसमें मेरे गाढे खून-पसीने की कमाई लगी है. उसे कचरे के ग्रीन डिब्बे में फेंकने से अपने ही दिल में दर्द होता है.

सहअस्तित्व में विश्वास वाले देश में मेरे घर के किचन के हालात भी वैसे ही थे जैसे शहर के. जहाँ छुट्टा सांड और कुत्ते सड़क पर चलना मुहाल किये हुये हैं, वहीं हमारे किचन में कॉकरोच और चूहों का वास हुआ करता है. छिपकली और मकड़ी का गाहे-बगाहे दिख जाना हमारे लिये सामान्य सी बात है. ये ड्रम-कनस्तर में भले न घुस पाते हों लेकिन किचन का टांड और डाइनिंग टेबल इनकी पसंदीदा सैरगाह हुआ करती है. वैसे तो ये प्राणी इतने समझदार हैं कि जब हम लोग सोने चले जाते हैं, तभी ये आबो-हवा बदलने के उद्देश्य से बाहर निकलते हैं. लेकिन यदि दिन ख़राब हुआ तो कहीं ये टीम के सामने ही हुला-हूप की प्रैक्टिस न शुरू कर दें. मुझे लगा किसी भी तरह इस टीम को किचन तक पहुँचने से रोकना होगा, नहीं तो लम्बी पेनाल्टी लगेगी. मैंने बताया कि आप जिनकी बात कर रहे हैं उनका हाजमा हमेशा खराब रहता है. वही मिठाई मैंने भी तो खायी थी, उन्हीं के साथ. मुझे तो कुछ नहीं हुआ. उनसे मैंने कई बार कहा कि शंकर जमादार के यहाँ जा के नस बैठवा लो, तुम्हारा पेट उखड गया है लेकिन भलाई का तो ज़माना ही नहीं रह गया है. उसने मेरी ही कम्प्लेंट लिखा दी. कल ही ताज़ी मिठाई आई है आप लोग बैठिये चाय-पानी पीजिये. कोई सेवा हो तो बताइये. इस पर चपरासीनुमा अफ़सर का चेहरा और कड़क हो गया. पूरी टीम जबरदस्ती मेरे किचन में घुस गयी. एक-एक डिब्बा, एक-एक कनस्तर पलट डाला. सबसे बुरा मुझे तब लगा जब उन्होंने बेचारे कॉकरोचों और चूहों की अलसुबह की नींद ख़राब कर दी. टीम को कितनी बद्दुआयें मिली होंगी गिनना संभव नहीं था. उन्होंने एक लम्बी सी चार्ज शीट बीवी के हाथों में पकड़ा दी और मुझे हथकड़ी पहना कर मेरे लाख विरोध करने के बाद भी धक्का मारते हुये गाड़ी में बैठा लिया. भयानक सपने ऐसे ही टूटते हैं. आँख खुली तो बेतरतीब हुयी चादर मेरे स्ट्रगल को बयान कर रही थी.

मेरा डर लाज़मी था. कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली में एक अंतर्राष्ट्रीय और विश्वस्तरीय सम्मेलन में भाग लेने का मौका मिला. दुनिया भर के विकसित और विकासशील देशों के खाद्य और औषधि प्रशासकों का जमावड़ा था एक छत के नीचे. उनका उदेश्य बहुत ही साफ़ था कि हाइजेनिक खाद्य पदार्थ पर सबका हक़ है और उसे उपलब्ध कराना उनकी ज़िम्मेदारी. दुनिया एक ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गयी है इसलिये बड़े-बड़े विकसित देशों के लिये विकासशील देशों की आम और ख़ास जनता के स्वास्थ्य का ख्याल रखना ज़रूरी हो जाता है. विकसित देशों के लिये विकासशील देशों की खाद्य सामग्री का ध्यान रखना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि बहुत सा कच्चा माल तो इन्हीं देशों से जाता है. वो चाहते हैं कि यदि आप ठेकुआ-अनरसा-बेडही भी बनायें तो विश्वस्तरीय मानदंडों के अनुरूप. इसके लिये केवल घरेलू या भारतीय मानकों से काम नहीं चलने वाला. इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट आज की आवश्यकता बन चुके हैं इसलिये सभी देशों को एक मंच पर आना चाहिये और एक ऐसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिये कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन करके बीमार पड़ने का डर न लगे. लेकिन सिर्फ मानक बना देने से काम नहीं चलने वाला इसे इम्प्लीमेन्ट करवाना लोकल प्रशासन की जिम्मेदारी होगी. विकसित देशों का तो पता नहीं पर विकासशील देशों की आम जनता प्रशासन से उचित और सुरक्षित दूरी बना कर के रहने में ही अपनी भलाई समझती है. खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में कार्य करने के कारण मेरी दिलचस्पी पैकेट पर लिखी हर एक इबारत पर रहती है. इतना तो मै दावे के साथ कह सकता हूँ कि अपनी पैकेजिंग तो विश्वस्तरीय हो ही गयी है. अन्दर खाद्य पदार्थ की गारेंटी लेने के लिये कुछ एक्रेडिटेड लैब्स हैं, जिन्होंने यदि सर्टिफिकेट दे दिया तो आप उत्पाद पर आँख मूँद कर भरोसा कर सकते हैं. उसके बाद भी यदि आप बीमार पड़े तो ये आपके पाचन तन्त्र की गड़बड़ी मानी जायेगी. पहले मै लोगों को फ़ूड इंडस्ट्री लगाने की सलाह दिया करता था, अब सजेस्ट करता हूँ कि भाई जितने में इंडस्ट्री लगायेगा उससे कम पैसे में एक लैब स्थापित कर ले फिर उसका एक्रेडिशन करा ले. जैसे पैथोलॉजी लैब्स में भीड़ लगी रहती है, तेरे ग्राहक भी लाइन लगाये खड़े मिलेंगे. न कुछ बनाना, न बेचना, बस फ़ायदा ही फ़ायदा. बनाने के काम में दस लफड़े हैं.   

मेरे सपने में शंकर जमादार का ज़िक्र सुधी पाठकों के ध्यान में अवश्य होगा. शंकर जमादार का घर शहर के बीचों बीच बसे एक गाँव में रहता था. उसे गाँव कहना तो सही नहीं था लेकिन किसी सरकारी विभाग के खेतों के बीच कुछ जमादार परिवार पुश्तों से रहते आये हैं. जब से शहर में सीवर व्यवस्था लागू हुयी, तब से घर वालों ने साफ़-सफ़ाई का जिम्मा खुद ही उठा लिया है. एक से एक डिज़ाइनर ब्रश और भाँति-भाँति के टॉयलेट क्लीनर्स बाथरूम की शोभा बढ़ाते देखे जा सकते हैं. पाल साहब जब शंकर के घर पहुँचे तो घर का दरवाज़ा खुला हुआ था. उन्होंने दो बार आवाज़ भी लगायी लेकिन अन्दर से कोई जवाब नहीं आया. सामने की पगडंडी से एक आदमी मटमैला सा धोती-कुर्ता पहने सायकिल से आता दिखायी दिया. पीछे जानवरों के चारे के लिये कटी हुयी घास का गट्ठर बंधा हुआ था. पाल साहब को लगा हो न हो ये ही शंकर है. वो मोटर सायकिल से उतर कर उसके आने का इंतज़ार करने लगे. पास आया तो देखा कि उसकी उम्र 30-35 के अल्ले-पल्ले रही होगी. बलिष्ठ कसा हुआ शरीर उसके मेहनतकश होने का सबूत दे रहा था. उसकी देहाती वेश-भूषा और कनपटी पर सफेद होते बालों को देख कर कोई उसे पचास के उपर भी समझ सकता था. सायकिल खड़ी कर वो सामने चबूतरे पर बैठ गया. 

शंकर भैया से मिलने आये हो. वो अभी कहीं बाहर गये हैं. आने में देर लग सकती है. पेट की नस उखड़ गयी है क्या. बिना झिझक उसने पूछ लिया. अंजान आदमी के सामने पाल साहब खुलना नहीं चाह रहे थे लेकिन उसने उनकी दुखती हुयी नब्ज़ को पकड़ लिया. हाँ कहने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था. अपनी इस परेशानी के लिये वो पिछले तीन महीनों से बड़े-बड़े डॉक्टरों के चक्कर लगा कर थक चुके थे. मोटी-मोटी फ़ीस देने और एंडोस्कोपी-कोलोनोस्कोपी कराने के बाद भी समस्या का निदान नहीं हो पा रहा था. तब किसी ने शंकर से मिलने की सलाह दी. 

शंकर भैया होते तो वो आपकी नाभि सेट कर देते. करना तो मै भी जानता हूँ लेकिन शंकर भैया इसके एक्सपर्ट हैं. आप चाहें तो बाद में आ जाइयेगा. आप एक काम करके देख लीजिये शायद आराम मिल जाये. दोनों पैरों को जोड़ कर उन्कडू बैठ जाइये. कोशिश कीजियेगा कि घुटना भी मिला रहे. अब धीरे-धीरे करके आप खड़े हो जाइये. पाल साहब को पेट में कुछ खिंचाव सा अनुभव हुआ. लगा मांसपेशियाँ जवाब दे जायेंगी. लेकिन जब खड़े हुये तो उनके पेट में जो हर समय गुड़गुड़ाहट बनी हुयी थी, बन्द हो गयी. उसने कहा - अब जाइये ऊपर वाले ने चाहा तो आपको दुबारा आना नहीं पड़ेगा. पाल साहब ने उस आदमी के हाथ में पचास रूपये का नोट रखने का प्रयास किया. बड़े-बड़े डॉक्टरों को सात सौ से हज़ार रूपये की फ़ीस दे चुके पाल साहब को लगा उस मैली धोती वाले के लिये पचास रुपये काफ़ी होंगे. लेकिन उसने लेने से मना कर दिया - आप ठीक हो जायें यही प्रार्थना है. जब शंकर भैया कोई पैसे नहीं लेते तो हम कैसे ले सकते हैं. खपरैल की झोपड़ी में इतनी दरियादिली देख कर पाल साहब को धन्यवाद जैसा शब्द बहुत छोटा लगने लगा. कृतज्ञ आँखों से उन्होंने उस व्यक्ति को प्रणाम किया और चल दिये. इस पूरे प्रकरण को विज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो टोने-टोटके से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा. लेकिन ये भी सच है कि पाल साहब को दुबारा उधर जाने की जरूरत नहीं पड़ी.

ऐसा ही तजुर्बा तब हुआ जब एक आईआईटी पास बाबा, जैसा मुझे बताया गया था, के यहाँ जाने का अवसर मिला. वो भी बीच शहर में एक गैरेज में बैठा करते थे. उनके आस-पास सीखने की इच्छा लिये कुछ चेले बैठे रहते थे. जगह बहुत गन्दी थी और हाईजीन का तो नामो-निशान तक न था. कोई सम्भ्रान्त व्यक्ति वहाँ न जाना चाहे न बैठना. लेकिन बाहर एसयूवीज़ खड़ी थीं, गाड़ियों की लाइनें लगी थीं. भेजने वाले ने पहले ही बता रखा था ज़्यादा ज्ञानी बनने की कोशिश नहीं करना वरना बाबा क्लास ले लेंगे. यथासम्भव हिन्दी बोलने के प्रयास के बाद भी कुछ अँग्रेजी शब्द आ ही गये. बाबा ने गियर शिफ़्ट किया और अँग्रेजी मोड में आ गये. उन्होंने अपनी चिकित्सा पद्यति के बारे में विस्तार से समझाया. यदि व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार भोजन करे तो बहुत सी बीमारियों से बच सकता है. वो सिर्फ़ नाड़ी देखते थे. और चन्द्र नाड़ी या सूर्य नाड़ी के अनुसार क्या खाना है और क्या नहीं इनकी पूरी लिस्ट छपवा रखी थी. कुछ सॉलिड और लिक्विड दवाइयाँ भी दीं, जिसे उन्होंने चूरन-चटनी की संज्ञा दे रखी थी. रिसाइकिल्ड प्लास्टिक की बोतलों में जो दवाइयाँ दीं. उनका सेवन हम जैसे आरओ का पानी पीने वाले शायद ही कर पायें. फ़ीस किसी भी मामले में एक एमडी डॉक्टर से कम न थी. लेकिन बाहर खड़ी लोगों की भीड़ बता रही थी कि लोगों को लाभ मिला होगा. ये भी समझ आया कि सिर्फ़ शुद्ध खाना ही काफ़ी नहीं है. जरूरी है ये जानना कि क्या खायें क्या नहीं. कभी न कभी सबने महसूस किया होगा कि स्वाद के चक्कर में सेहत ख़राब हो गयी. लेकिन ये बात शरीर को मोटरसाइकिल समझने वाले हाइली क्वालीफाइड लोगों के सेलिबस के बाहर है. और उनमें ये माद्दा है कि इस इलाज को झोला-छाप बता कर बाबा को अन्दर भी करवा दें.

कभी-कभी मुझे लगता है कि पूर्व जन्मों के कर्मों से हमें पढ़ाई का माहौल क्या मिल गया हम ने स्वयं अर्जित ज्ञान वालों को हल्के में ले लिया. आज जब कोई लंगोट पहने अपने पूर्वजों के ब्रम्हांडीय और चिकित्सकीय ज्ञान का ज़िक्र करता है तो अपनी छाती 56 इंच तक फूल जाती है. हजारों वर्षों के अपने ज्ञान-विज्ञान के इतिहास को नकार के जब हम अंग्रेजी में लिखे शब्द समूहों को ब्रम्ह्वाक्य मान लेते हैं तो भारतेंदु हरिश्चन्द्र की पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं - घर की तो बस मूँछे ही मूँछे हैं. हमको जो ज्ञान बाहर से ठूँस दिया गया उसी को हमने अपनी आधारशिला बना दिया. इसीलिये आज भी हम अपने शोध और शोधपत्रों पर बाहरी स्वीकृति खोजने में लगे हुये हैं. ज्ञान भले बाहर से आता हो लेकिन अन्तर्ज्ञान अन्दर से ही आता है. परन्तु उसके लिये मनन-चिन्तन का समय कहाँ है. पढाई का तो लक्ष्य एक अदद नौकरी से ज्यादा नहीं था. इतने स्पेशैलिटी एरियाज़ हैं. हर कोई अपने-अपने विषय में पारन्गत है किन्तु समग्रता का सर्वथा अभाव है. सब के सब अपनी आँखों पर ज्ञान की पट्टी बाँधे अपने-अपने ज्ञानानुसार हाथी को परिभाषित करने में लगे हैं. जिसके हिस्से जो लग गया उसी को समझ और समझा रहा है. जब अनपढ़ आदमी अपने तजुर्बे से पाल साहब को ठीक कर सकता है तो ये मानना पड़ेगा कि जीवन किताबी ज्ञान से पहले भी था और बाद भी रहेगा. अन्य सभी प्राणी सामान्य जीवन जीते हैं क्योंकि वहाँ न तो विशेषज्ञ होते हैं न इलाज. ज्ञानीजनों का काम है कि अपने-अपने क्षेत्र की महत्ता को बढ़-चढ़ के बताना-दिखाना. एक ज़माना था जब हम बेख़ौफ़ पानी पिया करते थे, आज अगर बिना ब्रैंड का पानी पीना पड़ जाये तो एक-दो दिन तक  साँस अटकी रहती है. अब यही खतरा भोजन और खाद्य पदार्थों में भी दिखाई दे रहा है. इसका दायरा इतना बढ़ गया है कि साल में दो बार आपको अपने फ़ूड प्रोडक्ट की टेस्ट रिपोर्ट जमा करनी पड़ेगी नहीं तो लाइसेंस कैंसलेशन और पेनाल्टी के लिये तैयार रहिये.  

विकसित देश, जिनकी महारत युद्ध पोत, विध्वंसक मिसाइल और युद्धक विमान बनाने में है, वो तो अवश्य चाहेंगे कि उनके भोजन की व्यवस्था उनकी ही शर्तों पर विकासशील देश करें. इसलिये ऐसी सभाओं में बहुत ही डरावने आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 200 प्रकार की खाद्यजनित बिमारियों के कारण हर साल लगभग 600 मिलियन लोग बीमार पड़ जाते हैं. लेकिन यदि डॉक्टर पीटर ग्लिडडेन के अमेरिकन मेडिकल जर्नल के आधार पर दिये गये बयान को सही माना जाये तो अमेरिका में मृत्यु का तीसरा बड़ा कारण डॉक्टर्स द्वारा किया इलाज है. इस समिट में चालीस देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था. सबने अपने-अपने तरीके से खाद्य सुरक्षा की अनिवार्यता और कार्यान्वयन पर बल दिया. जबसे प्रसंस्कृत खाद्य सामग्रियों का उपयोग बढ़ा है, लोगों की ये जानने में दिलचस्पी है कि वो क्या खा रहे हैं. पहले ये पता नहीं था कि वो क्या-क्या खा रहे हैं. कपड़ों और जूतों की तरह यहाँ भी बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों का बोल बाला है. ब्रैंड के नाम पर लोग कुछ भी खा सकते हैं और ब्रैंड के नाम पर मुँह-माँगे दाम भी देने को तैयार रहते हैं. हर आदमी चाहता है कि उसे पता हो वो क्या खा रहा है, उसकी शेल्फ़ लाइफ़ कितनी है, उसमें किसी प्रकार का नुकसानदेह पदार्थ तो उपस्थित नहीं है. यदि कोई कमी है तो माल को वापस लौटाने तक का प्रावधान है. इस काम के लिये दुनिया के सभी देशों को चाहिये अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का पालन करें और करायें ताकि किसी व्यक्ति कम से कम भोजन की वजह से बीमार पड़ने की नौबत न आये. प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में अप्राकृतिक रंग और संरक्षक रसायनों का उपयोग होना अवश्यम्भावी है. निश्चित रूप से फ्रेश भोजन की तुलना में प्रसंस्कृत उत्पाद स्वाद और पौष्टिकता में भले ही उन्नत हो लेकिन उसमें विषाक्तता का अंश अवश्य होगा, भले ही मानक सीमा के अन्दर हो. पूरी बात का सारांश ये है कि इतने नियम-कानून हैं कि उनका अक्षरशः पालन करना आसान तो नहीं होगा. खास तौर पर छोटे और मझोले खाद्य उद्यमियों के लिये.  

खाद्य सुरक्षा से जुड़े हर विषय के विशेषज्ञों ने दो दिवसीय सम्मलेन में ज्ञान की अविरल गंगा बहा दी. चूँकि सम्मलेन की भाषा अंग्रेज़ी थी तो ऐसा लगना लाज़मी था कि ये जो हम लोग अनब्रान्डेड और अनलेबेल्ड खाद्य पदार्थों का सेवन कर रहे हैं, वो देश और समाज के प्रति किसी द्रोह से कम नहीं है. उस सम्मेलन के दौरान बहुत से ऐसे पल भी मिले जिनमें समाधिस्थ अवस्था में चिन्तन-मनन किया जा सके, विशेष रूप से भोजनावकाश के बाद वाले सेशन्स में. ऐसे ही क्षणों में ये विचार भी कहीं से कूदने लगा कि विशेषज्ञों का काम ही डराना बन गया है ताकि उनकी रोजी-रोटी चलती रहे. किसी को ग्लोबल वार्मिंग की चिन्ता है, तो किसी को क्लाइमेट चेन्ज की. लेकिन 2500 सीसी के इंजन वाली कार और ढाई टन का एसी चलाते हुये उनकी आत्मा अपराधबोध से मुक्त रहती है. रोज-रोज लीवर-किडनी-हार्ट के एक्सपर्ट्स सोशल मिडिया के माध्यम से ये बताने में लगे हैं कि किस-किस तरह से आप खतरे में हैं. ख़ास बात है कि हर छोटे-बड़े शहर में हर समस्या का समाधान करने के लिये डॉक्टर्स हैं, हालाँकि उनकी संख्या आवश्यक डॉक्टर्स की संख्या से बहुत कम है. इसीलिये कितने ही झोलाछाप चिकित्सकों के धंधे भी फल-फूल रहे हैं. डॉक्टर्स की फ़ीस इतनी ज्यादा हो गयी है कि लोग मेडिकल शॉप के केमिस्ट भैया को ही हाल बता कर दवाइयाँ लेने लग गये हैं. विशषज्ञों का काम है पहले तो हर आदमी के सबकॉन्शस माइंड में ये फीड कर देना कि इतना प्रदूषण है कि हवा, भोजन सब दूषित हो रखा है. तुम स्वस्थ रह ही नहीं सकते. फिर शुरू होता है जीवनपर्यन्त चलने वाले इलाज का सिलसिला. ऐसी मेडिकल व्यवस्था के बाद खाद्य सुरक्षा का ढिंढोरा सिर्फ ये एहसास दिलाता है कि पढ़े-लिखे लोग सिर्फ अपने द्वारा अर्जित ज्ञान का बखान करने के लिये ज़िन्दगी को कॉम्प्लीकेट करते जा रहे हैं. पहले पानी कहीं भी कैसा भी पी लेते थे अब ब्रैंडेड कम्पनी की बोतल में बंद न हो तो भरोसा नहीं होता.  

फिर लगा शायद ये क़वायद सिर्फ इसलिए है कि विज्ञान अपने आप को सिद्ध करना चाहता है कि पढ़े-लिखे लोग अनपढ़ों से बेहतर हैं. और पढ़े-लिखे लोग ये एहसास दिलाना चाहते हैं कि हम तुम्हारा भला करना चाहते हैं. मेरी बात मानो, मेरे पीछे आओ. इसी में उनकी खुद की भलाई निहित है. पहले एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी अब अनेकों कम्पनियाँ ग्लोबलाइजेशन के नाम पर घुस आयी हैं. आप के उपर अपने मानक थोपने की तैयारी है. बहुत सी कम्पनी-संस्थान-विभाग एक अंतरराष्ट्रीय मानक संस्था का सर्टिफिकेट लिये हुये हैं, लेकिन क्या मजाल कि उनकी कार्यशैली में धेले भर का भी परिवर्तन आया हो. हाँ, वो संस्था सर्टिफ़िकेट देने के नाम पर एक अच्छी खासी राशि वसूलती है. यही हाल राष्ट्रीय स्तर पर लैब्स के मानकीकरण का भी हो गया है. ये बात अलग है कि इनका हाल फोरेंसिक लैब्स सा हो रखा है. ये भी कारतूस किसी और कट्टे से निकला बता सकते हैं. अब जब करोना ने ये सिद्ध कर दिया है कि जिनकी इम्युनिटी अच्छी होगी उन्हें चिकित्सकों की आवश्यकता कम पड़ेगी. गरीबों के बच्चों की तुलना में डब्बा बंद खाद्य सामग्री और दूध का सेवन करने वाले सम्पन्न बच्चों के बीमार पड़ने की सम्भावना अधिक होती है. यही हाल रहा तो हम भी हाईजीन के नाम पर डिब्बा बंद चीजों पर भरोसा करने को विवश होंगे. ये कोई नहीं बतायेगा कि ये सब मार्किट के चोचले हैं जिनका उद्देश्य बस मुनाफ़ा कमाना है. जब हमने केमिस्ट्री-माइक्रोबायोलॉजी-फ़ूड सेफ़्टी जैसे जटिल विषयों का अध्ययन कर लिया है तो उसे जस्टिफाई करना भी तो जरूरी है. लोगों को भले उसकी कम या ज़्यादा जरुरत हो लेकिन उसके बिना हमारा क्या होगा. इसलिये ये समझना जरूरी है कि इंसान तो वैसे भी जी लेगा लेकिन साइंस को अपने आप को सिद्ध करना है कि मेरे बिना दुनिया नहीं चलेगी. वो भी इसलिये कि उपर वाले ने हमें शिक्षा का अवसर दिया. इतना पढ़-लिख के हम सबके स्वास्थ्य और सुरक्षा की बात कर सकते हैं. लेकिन जीवन इन सब चकल्लसों से उलट है, और सारे जीवों पर बराबर से लागू होता है.

किसी भी गोष्ठी का सबसे बड़ा आकर्षण वहाँ का फ़ूड कोर्ट होता है. यदि डेलिगेट्स को लजीज़ भोजन मिलता रहे तो अपने-अपने मुद्दे उठाये ये सब साइंस के लिये लड़ मरें वर्ना बस बदइंतज़ाम को कोसते घूमें. यदि पार्टिसिपेंट्स ख़ुश हैं तो मीटिंग सफल. सम्मेलन के गहन विचार-विमर्श की गम्भीरता को देखते हुये खान-पान की समुचित व्यवस्था थी. आपको भूख न लगे इसका बहुत ही अच्छे से ध्यान रखा गया था. आजकल इन्टरमिटेंट फास्टिंग की वक़ालत करने वाले दौर में हर दो घन्टे पर आपके पेट और स्वाद का ध्यान रख पाना, किसी भी मीटिंग की सफलता का द्योतक है. सब एक सुर में इस नतीजे पर पहुँचे फ़ूड क्वालिटी स्टैंडर्ड्स से कोई भी खाद्य सामग्री छूटनी नहीं चाहिये. चाहे वो रेडी वाला हो, रेस्टोरेन्ट का मालिक हो या मिठाई की दूकान वाला सब इस कानून की जद में आने चाहिये. आख़िर जनता के स्वास्थ्य का मामला है. सावन के महीने में विदेशी मेहमानों की पसन्द का ख्याल रखते हुये मुर्गे-मीट-मछली की समुचित व्यवस्था थी. एक से एक हिन्दुस्तानी तहज़ीब के शाकाहारी और माँसाहारी लजीज़ व्यंजन देखने को मिले. खाने के लिये प्लेट और पेट में जगह कम पड़ जाती थी. स्वादिष्ट भोजन को देख कर जो सबसे अच्छी बात मुझे लगी वो ये थी कि प्लेट में भोजन लेने से पहले न तो किसी ने मुर्गे का जन्मदिन पता किया, न किसी ने मछली की जात पूछी, न शाही पनीर की कैलोरी. भोजन अगर सुस्वाद हो तो ये बातें गौण हो जाती हैं. 

दो दिवसीय मीटिंग का निष्कर्ष ये निकला कि चाहे सड़क किनारे रेडी वाला हो या मल्टीनेशनल कम्पनी सभी से मानकों का पालन करना और करवाना अनिवार्य है. कानूनों का पालन कराने के लिये भी एक संस्था है और उसमें दरोगाओं की फ़ौज है. वो दिन दूर नहीं जब उसके घेरे में हमारे-आपके किचन भी होंगे. कोई दरोगा कभी भी आपके घर में मुँह उठाये घुस आयेगा और बतायेगा कि आपकी रसोईं अन्तर्राष्ट्रीय मानदंडों का पालन नहीं करती. इसलिए आपके किचन को बंद किया जाता है. मार्केट ब्रान्डेड प्रोडक्ट्स से भरा पड़ा है सुरक्षित भोजन हेतु अलां और फलां कम्पनी का डब्बा बन्द उत्पाद खाओ. डॉक्टर्स के पास जाना और इलाज़ कराना तो आपकी हॉबी है लेकिन हमारा प्रयास है कि कम से कम आप फ़ूड पॉइजनिंग से बीमार न हों. जब भारतीय संस्कृति स्वास्थ्य को आचार-विचार-व्यवहार से जोड़ के देखती है तो साइंस के लिये जरूरी हो जाता है कि वो अपने अस्तित्व को बचाये और बनाये रखने के लिये ऐसी क़वायद करती रहे.

-वाणभट्ट 

शनिवार, 15 जुलाई 2023

एक ग़ज़ल - बेवजह

एक ग़ज़ल - बेवजह


कभी आईने में दिखते अक्स पर गौर करना...

फिर देखना धीरे-धीरे अपनी परतों का उधड़ना...


हर शख़्स जानता है दूसरे को करीब से...

बहुत मुश्किल है ख़ुद का सामना करना...


रिश्तों में अजब से जज़्बात हैं शामिल...

कहने को अपने हैं, समझे तो बेगाना...


दुनिया की रफ़्तार भी गजब की है...

सब चाहते हैं सबसे आगे निकल जाना...


बारिश कभी कम सर्दी कभी ज़्यादा...

उस पर चाहते हो तुम क़ुदरत को नचाना...


घर पे रहो तो बाहर निकलने का करता है दिल...

साथ हो जब अपने तो कैसा घबराना...


एक दिन तो जान जायेगा जीने का फ़लसफ़ा...

दूसरों के फ़लसफ़े ख़ुद पे न आजमाना...


ख़ुद से ही ख़ुद को भी कभी दाद 'भट्ट' दे ले...

मसरूफ़ ज़माने को मुमकिन नहीं फ़ुर्सत मिल पाना...


वाह-वाह क्या बात है...ये स्वरचित पंक्तियाँ हैं...योगेश जी को धन्यवाद...एक उम्दा ग़ज़ल लिखवाने के लिये...😊


-वाणभट्ट

रविवार, 11 जून 2023

जान हथेली पर

 जान हथेली पर 

"तुमने किसी की जान को जाते हुये देखा है, वो देखो मुझसे रूठ कर मेरी जान जा रही है". यह गीत यमक अलंकार का एक फ़िल्मी उदाहरण है. जहाँ एक शब्द बार-बार रिपीट होता हो लेकिन हर बार उसका अर्थ बदल जाता हो, उसे यमक अलंकार कहते हैं. इस गीत में पहली वाली जान का अर्थ असली वाली जान है. दूसरी वाली जान अगर चली जाये तो तीसरी मिलने की सम्भावना रहती है, लेकिन यदि पहली वाली चली गयी तो आप माया-मोह के समस्त बन्धनों से मुक्त हो सकते हैं.

आज़ादी के पचहत्तरवें साल के आते-आते हिन्दुस्तान मेरी जान कहने और मानने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुयी है. पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जवनरी में देश प्रेम के रंग में रंगे जियालों को देख के लगता है अगर ये लोग पहले पैदा हो गये होते तो अंग्रेजों क्या मुग़लों की भी भारत की ओर मुँह उठा कर देखने की हिम्मत न पड़ती. हालात ये हैं कि जिसे देखो वही जान देने पर आमादा लगता है. हर कोई जान हथेली पर लिये घूम रहा है. ये बात अलग है कि अब देश अपना है, सरकार अपनी है, तो ऐसा कोई विशेष मुद्दा बचता नहीं है, विशेष रूप से सिविलियन्स के लिये, जिसके लिये जान दी जाये. बेवजह जान देने-लेने से न तो देश को कोई लाभ होता है, न ही समाज-परिवार को. लेकिन बिना रवानी के जवानी का क्या मतलब. जान देनी है तो देनी है. समझदार लोग एडवेंचर भी करते हैं तो सेफ्टी के साथ. बिना सुरक्षा के साहस दिखाने का प्रयास यदि बेवकूफी नहीं है तो उससे कम भी नहीं है. रैश ड्राइविंग एक ऐसी ही बेवकूफी है, जिससे लोग अपनी और दूसरे की जान को हमेशा जोख़िम में डालने पर आमादा दिखते हैं.

जब मोहल्ला बना होगा, तभी प्लॉटिंग से पहले सड़क बनी होंगी. बेचने के बाद सोसायटी या निगम को क्या परवाह कि सडक बची है या नहीं. पहले तो सड़कों में गड्ढे हुये फिर धीरे-धीरे गड्ढे में सड़क हो गयी. हम लोगों में सहनशीलता की भावना और भगवान के प्रति आस्था इतनी गहरी है कि 400 साल कि ग़ुलामी भी हमारे इस विश्वास को तोड़ नहीं पायी कि - होइहैं वही जो राम रची राखा. विदेशी भाषा और सभ्यता के प्रति हमारी अगाध श्रद्धा आज भी हर तरफ परिलक्षित होती दिखती है. संतुष्टि का लेवल इतना अधिक है कि किसी प्रकार का धन-सम्पदा-वैभव, हमें ऊँचे मैटेरियलिस्टिक लक्ष्यों के लिये प्रेरित नहीं कर पाता. हमारी तो बस छोटी सी मंशा रहती है कि प्रभु हमें अपने पडोसी-यार-दोस्तों-नाते-रिश्तेदारों से आगे रखना. चीन-जापान-ताइवान तरक्की करें तो करें. अंत तो सबका वही होना है. खाली हाथ ही जाना है सबको. गीता के ज्ञान से हमने अपने मतलब का सार निकाल लिया है - क्या ले के आये हो, क्या ले के जाना है. कभी ये सोचने का प्रयास नहीं किया कि क्या छोड़ कर या दे कर जाना है. गीता-सार का पहला हिस्सा थोथा समझ के उड़ा दिया कि कर्म करना हमारे वश में है. और फल तो अवश्य मिलेगा लेकिन हरि इच्छानुसार. दुनिया ने पहले हमारे वेद-पुराण-ग्रंथों के कॉपीराईट की धज्जियाँ उडायीं. यहाँ पर जन्मे कर्म सिद्धान्त को चुरा कर जापान-अमरीका-चाइना-कोरिया-ताइवान, सब आगे निकल गये तो क्या हुआ. हमने भी उनके सॉफ्टवेयर के कॉपीराईट्स और इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की ऐसी-गम-तैसी कर डाली. हमारी पाइरेसी पॉलिसी ने सबको पानी पिला रखा है. ये तो भला हो हमारे यहाँ दुनिया का सबसे जीवन्त प्रजातन्त्र जीवित है वर्ना चीन की तरह यदि एकाधिपत्य वाली सरकार होती तो हम पता नहीं क्या-क्या कर गुजरते. जिनमें थोडी बहुत भी कुछ कर गुजरने की चाहत बची है वो अमरीका-इंग्लैण्ड-जर्मनी-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया का इनविटेशन जेब में डाले घूम रहे हैं. यहाँ तो हम अपनी विश्वगुरु का स्टेटस मेंटेन करने में लगे हैं. टैलेन्ट तो हर एक में इस कदर कूट-कूट के इतना भरा है कि पूरा सोशल मीडिया त्रस्त है. पूरी बात का लब्बोलाबाब ये है कि हम चाहें तो बहुत आगे निकल जायें लेकिन हम चाहते ही नहीं हैं. हम जानते हैं कि सडकें हैं तो गड्ढे हैं. सड़क न होती तो गड्ढे ही गड्ढे होते. हमारे वाहनों को वैसे ही चलना पड़ता जैसे चाँद और मार्स पर रोवर विचरण करते हैं.      

गड्ढा रहित और डामर सहित काली-काली सड़कें देखे अरसा हो रखा था. भला हो नगर निगम चुनाव का. वो न आता तो कदाचित टूटी पड़ी सड़कों की ओर किसी का ध्यान जाता. वोट देना भी सबकी मजबूरी है. किसी न किसी को तो देना ही है. ये बात नेता और जनता दोनों को पता है. उसे ही वोट देना समझदारी है जिसे आप जात-पात-धर्म या पड़ोस के नाते जानते हों. वोट माँगने तो हर कोई चला आ रहा है. लेकिन कोई थोड़ा बहुत काम करके वोट माँगे तो जनता उसे कभी निराश नहीं करती. यदि नेता ने चुनाव जीतने के बाद शुरुआती दौर में काम करा दिया तो पाँचवाँ साल आते-आते जनता का स्मृति लोप होने का खतरा बना रहता है. इसलिये मँजे हुये नेता सारा का सारा काम आखिरी साल के लिये रख छोड़ते हैं. चुनाव दिवस से एक हफ्ते पहले कॉलोनी की एक-एक सड़क, एक-एक गली काली हो गयी. यहीं पर हमारे लीडरान की इच्छाशक्ति की दाद देने का मन करता है. ये चाह लें तो क्या से क्या हो जाये. लेकिन ये भी जानते हैं कि अगर बिना तरसाये-तड़पाये जनता का भला कर दिया तो जनता उसकी कद्र नहीं कर पाती. वो दिल ही क्या जो न माँगे मोर. पहले ज़्यादा कर दो तो जनता फ्री की बिजली-पानी की उम्मीद पाल बैठती है. सिलिंडर सस्ता कर दीजिये लेकिन उपलब्धता न बढाइये, जनता आप को ही वोट देगी क्योंकि वो बस सिलिंडर का दाम देखती है. यदि सिलिंडर नहीं मिला तो क्या. वो लकड़ी-कोयला-केरोसिन फूँक लेगी, लेकिन यदि मज़बूरी में भी सिलिंडर का दाम बढ़ा दिया तो वोट तो की तो भूल ही जाइये और गाली खाने को तैयार रहिये. प्याज-टमाटर-आलू पर सरकारें गिर जाती हैं. गैस तो बहुत बड़ी चीज़ है. 

चुनाव के पहले, हफ्ते भर में रातों-रात सारी की सारी सडकें बन के तैयार हो गयी. रातों-रात मतलब रातों-रात. जब सोने गये तो सड़क पर सन्नाटा पसरा था और जब सो के उठे तो भी सड़क खाली थी. फ़र्क बस इतना था कि पूरी की पूरी सड़क गड्ढा मुक्त और काली थी. अब आपको टहलने के लिये किसी म्युनिसिपलिटी के पार्क का टिकट लेने की जरूरत नहीं. जहाँ चाहिये जितना चाहिये फ्री में टहलिये. हमारे देश में कुछ खानदानी लोगों का काम ही है हर काम में नुक्स निकालना. अभी मॉर्निंग वाक के लिये घर के बाहर कदम रखा ही था कि सार्वभौमिक रूप से निगेटिव शख्स सामने पड़ गये. बोले मै बता रहा हूँ - ये सडक चले-वलेगी नहीं. ऐसे कहीं सडक बनती है. मैंने बचपन से सडक बनते देखा है. पहले मिट्टी फिर गिट्टी डाल के सालों छोड़ दिया जाता है ताकि सब अच्छे से सेटेल हो जाये फिर डामर-गिट्टी पड़ती है. बस बरसात आने दीजिये, नालियाँ तो बहती नहीं. पहली बारिश में पानी भरा नहीं कि सारी सड़क भरहरा जायेगी. पहले नाली बनानी चाहिये थी, फिर सड़क. ये वो सज्जन थे जिन्होंने क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिये अपने घर के सामने का फुटपाथ घेर कर बगीचा जैसा कुछ बना रखा था. घर के अन्दर की एक-एक इन्च जमीन पक्की करके हरियाली और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पूरा फुटपाथ कब्ज़ा लिया है. यहाँ तक की उनके गेस्ट हमारे घर के सामने कार खड़ी करने को विवश हैं. मैंने थोडा प्रतिवाद करने का प्रयास किया कि अब सड़क बनाने की टेक्नॉलोजी बदल गयी है. उस पर उन्होंने अन्ध भक्तों को एक भद्दी से गाली दी और मेरी भी ढंग से लानत-मलानत भेज दी. गाँधी और बुद्ध जी किसी और देश में पैदा हुये होते तो मै भी उनको उनके हिसाब से उचित व्यवहार से नवाजता. लेकिन आज मै खुश था कि इतने वर्षों बाद चलो सड़क बन तो गयी इसलिये सिर्फ़ मुस्कुरा के रह गया. इस पर उन्हें और बुरा लग गया तो मैं भला क्या कर सकता हूँ.   

सड़क काली हुये अभी कुछ ही दिन हुये थे कि आदत से मजबूर हमारे मोहल्ले वालों ने दुखी हो कर मोहल्ला विकास समिति की एक मीटिंग आहूत कर ली. मुद्दा नयी सड़कों पर स्पीड ड्राइविंग को लेकर था. आजकल मोहल्ले में वो मोहल्ले वाला टच कहाँ रह गया. साठ को बुलाओ और सात पहुँच जायें तो बड़ी बात. शनिवार शाम 7 बजे का समय नियत किया गया ताकि किसी के पास ऑफिस या किसी काम का बहाना न रहे. नियत दिन और समय पर पाँच लोग पहुँचे. जो बढ़ते-बढ़ते साढ़े सात बजे तक दस तक पहुँच पाये. मीटिंग में न आने का कोई विशेष प्रयोजन रहा हो ऐसा नहीं था. दरअसल लोगों को लगता है कि मीटिंग में गये तो अगली मीटिंग उनके घर भी फिक्स हो सकती है. सारी कमेटी के चाय-पानी के इंतजाम के लिये पता नहीं बीवी तैयार होगी या नहीं. पहले आने वाले तीन लोगों में समिति के अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष और सचिव थे. भीड़ बढ़ाने की गरज से मै और एक और सज्जन पहुँच गये थे. अध्यक्ष जी ने धीर-गम्भीर आवाज़ में बोलना शुरू किया कि साथियों आप सभी को बधाई हो कि समिति के अथक प्रयासों से सड़क का जीर्णोद्धार हो गया है. पार्षद-महापौर-एमएलए-सांसद सब इसका क्रेडिट लेना चाहेंगे तो अध्यक्ष जी क्रेडिट कैसे छोड़ दें. दिल के किसी कोने से ये आवाज़ अनायास आ गयी. उन्होंने अपनी बात को जारी रखते हुये कहा - लेकिन इधर बहुत लोगों ने शिकायत की है कि जब से सड़क बनी है, सड़क पर चलना दुश्वार हो गया है. लौंडे-लपाड़ी साले सत्तर के स्पीड पर मोटरसायकिल पेले पड़े हैं. कार वाले भी बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ ऐसे दौड़ा रहे हैं जैसे हाइवे पर चल रहे हों. यदि ऐसा ही चलता रहा तो हम लोगों का घर से निकलना मुश्किल हो जायेगा. आये दिन एक्सिडेंट्स होंगे. कई लोगों ने मुझसे संपर्क किया है कि हमें नगर निगम से कह कर हर मोड़ -  हर चौराहे के पहले स्पीड ब्रेकर बनवाने चाहिये. नहीं तो ये मोटरसायकिल सवार किसी दिन बुढ़ापे में हम लोगों की हड्डी-पसली बराबर कर देंगे. जिन-जिन लोगों ने मुझसे शिकायत की थी, उनमें से कोई भी आज दिखायी नहीं दे रहा है. कभी-कभी मुझे लगता है कि मुझे समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिये. सचिव और कोषाध्यक्ष जी ने उनके इस प्रस्ताव का त्वरित खंडन इसलिये किया कि ये बवाल किसी और के सर रहे तो अच्छा है. लेना एक न देना दो, जिसे देखो अध्यक्ष को परेशान किये रहता है. अध्यक्ष जी, स्ट्रीट लाईट गड़बड़ चल रही है, पावर कट बहुत हो रहा है, स्वीपर नहीं आ रहा है. मीटिंग्स में आ कर अपनी बात रखते नहीं लेकिन रास्ता चलना मुहाल किये रहते हैं. इस मीटिंग को बुलाने का मुख्य उद्देश्य स्पीड ब्रेकर का निर्माण कराना था. 

दुनिया एक कदम आगे बढ़ाना चाहती है तो जमाना उसे चार कदम पीछे लाने में लग जाता है. नयी सड़क पर फर्राटा दौड़ने का अभी बच्चों का शौक पूरा भी न हो पाया था कि पुरातनपंथी बड़े उस पर अंकुश लगाने के लिये खड़े हो गये. उन्हें स्पीड से नफ़रत हो सकती है लेकिन नये ज़माने के नये बच्चे, ज़माने की रफ़्तार से चलना चाहते हैं. उन्हीं के लिये तो हर कंपनी हाई स्पीड गाड़ियाँ निकाल रही है. और ज़माने की दुश्मन बुजुर्ग पीढ़ी हर उस चीज़ से इत्तेफाक़ नहीं रखती जो उसे करने को नहीं मिलीं. अभी सड़क बन के तैयार नहीं हुयी कि ऐसी समस्या आ जायेगी, कम से कम मैंने तो नहीं सोचा था. पुरानी पीढ़ी किसी भी बात पर नयी पीढ़ी को बुरा-भला कहने से नहीं चूकती. ये बात अलग है कि दुनिया उत्तरोत्तर आगे ही गयी है. मैंने अपनी बात कहने की कोशिश की कि अभी कुछ दिन बच्चों को इन सड़कों का आनन्द ले लेने दो. लेकिन यहाँ भी हर मीटिंग्स की तरह आवाज़ में दम वाले बात में वजन वालों पर हावी हो गये. सारे लोग अध्यक्ष के साथ सुर मिलाते नज़र आये. इस देश में डेमोक्रेसी सिर्फ़ इसीलिये मज़ाक बन के रह गयी है कि संख्याबल कुछ भी सही-गलत करवा-मनवा सकता है. नक्कारखाने में तूती की आवाज़ दब के रह गयी. विधेयक पारित हो गया कि नयी सड़कों पर स्पीड ब्रेकर बनना ज़रूरी है ताकि सभी लोग महफूज़ रह सकें. मन तो किया कि कह दें आप लोग गड्ढे में ही रहने के लायक हैं. लेकिन अगर सब लोग हर बात खुल के कह सके तो दिल के इलाज़ का धन्धा न बन्द हो जाये. समिति को जिंदा रखने के लिये कुछ मुद्दों को जिलाये रखना भी ज़रूरी होता है.      

उस दिन मेरा सामना हो ही गया. कॉलोनी की कुन्ज गली में साक्षात् यमराज का अवतार मेरी तरफ़ दौड़ा चला आ रहा था. वो मोटरसाइकिल पर सवार था और मोटरसायकिल की स्पीड सत्तर के तो ऊपर ही रही होगी. पीछे वाली ऊँची सीट पर एक दूसरा बच्चा वैसे ही बैठा दिख रहा था, जैसे विक्रम के कन्धे पर वेताल. हेलमेट लगाये होता तो मुझे लगता कि घर वालों ने कुछ नियम-कानून-संस्कार दिये हैं. लेकिन ये समझना कठिन नहीं था कि पिता जी द्वारा प्रदत्त वाहन के सारे फीचर्स को टेस्ट करने के लिये बच्चे टेस्ट ड्राइव पर निकले थे. उम्र ने अभी बमुश्किल अट्ठारह को छुआ हो. स्पीड इतनी थी कि ये समझना मुश्किल था कि वो मोटरसाइकिल चला रहा है या मोटरसाइकिल उसे उड़ाये लिये जा रही है. हेलमेट बिना सारे बाल बिना जैल लगाये सीधे खड़े थे और अगर आँखों पर स्टाइलिश जीरो नम्बर का चश्मा न चढ़ा होता तो आँखों का बाहर टपक पड़ने का अंदेशा था. शायद मोटरसाइकिल की मैक्सिमम स्पीड चेक की जा रही हो. मोटरसाइकिल की धक-धक इतनी तेज़ थी कि मेरा हार्ट दो-चार बीट तो मिस कर ही गया होगा. मैं सड़क छोड़ कर फुटपाथ के आखिरी सिरे पर कब पहुँच गया, पता नहीं. उनके गुजर जाने के थोड़ी देर बाद मेरी मिसिंग पल्स वापस लौटी तो बड़ी राहत महसूस हुयी. मैंने कल्पना की कि यदि इसी स्पीड पर ये बच्चा स्पीड ब्रेकर पर चढ़ जाता तो उसका प्रोजेक्टाइल कहाँ जाता. और बिना हेलमेट के उसका क्या हश्र होता. फिर एक क्षण बाद दिमाग में ये कल्पना भी आयी कि ख़ुदा-न-खास्ता इनकी चपेट में मै आ जाता तो मेरा क्या हाल होता. अस्पताल में हाथ और टांग लटकाये अपने चित्र के बारे में सोच कर आत्मा सिहर उठी. 

एक तरफ तो हम स्पीड की ओर भाग रहे हैं, दूसरी तरफ नियम-कानून का न हमें पता है और न ही हम जानना चाहते हैं. आप को पूरी आज़ादी है कि अपनी जान को आप हथेली में रखें या अपने पिछवाड़े में, जैसी आपकी इच्छा. लेकिन दूसरों की जान तो बक्श दीजिये. बढती हुयी सड़क दुर्घटनाओं के पीछे आसानी से बन सकने वाले लाइसेन्स का प्रभाव और ड्राइविंग सेन्स के नितान्त अभाव को सहज महसूस किया जा सकता है. उल्टी दिशा में चलना, ट्रिपल राइडिंग, हेलमेट और सीट बेल्ट के प्रति दुराग्रह, रैश ड्राइविंग, नियमों का उल्लंघन, चलते वाहन से थूकना या कूड़ा फेंकना आदि नयी पीढ़ी को मुफ्त में मिली घनघोर आज़ादी के लक्षण हैं. इसी कारण दिन प्रति दिन बढ़ती दुर्घटनाओं से अख़बार पटे रहते हैं. आप घर से निकले और सही सलामत वापस आ गये तो समझिये आपसे ज़्यादा खुशकिस्मत कोई नहीं है. कविवर देवी प्रसाद मिश्र ने शायद इन्हीं परिस्थितियों के लिये ये मुक्तक लिखा हो-

मै कमीज़ पहनाता हूँ,

तो जैसे कवच पहनता हूँ,

और घर से निकलता हूँ,

 तो किसी युद्ध के लिये.

दुनिया को आगे जाना है तो आगे जायेगी ही. लेकिन बिना नियम-कानून का पालन किये कहाँ पहुँचेगी, ये देखने के लिये जरुरी है कि हम सिंगल पीस में धरती पर बने रहें. सबकी जान कीमती है और सब लोगों को चाहिये कि अपनी-अपनी जान की हिफाज़त करें. जल्द ही ऐसे पोस्टर नज़र आयें कि - 'वाहन चलाने वालों से सावधान', तो आश्चर्य न कीजियेगा. वो दिन दूर नहीं जब पैदल चलने वालों के लिये भी हेलमेट कम्पलसरी करना पड़ जाये. उस दिन मुझे लगा कि मोहल्ला कमेटी की चिन्ता जायज़ थी. नयी सड़क के लिये स्पीड ब्रेकर का फंड पास करा पाना नगर निगम के लिये आसान नहीं होगा. अब तो बरसात का इन्तजार कीजिये. ताकि फिर कुछ गड्ढों का विकास हो, जो इस बेलगाम होती स्पीड पर लगाम कसने में कामयाब हों.  

-वाणभट्ट 

शनिवार, 3 जून 2023

मुस्कुराइये आप लखनऊ में हैं

मुस्कुराइये आप लखनऊ में हैं

उस दिन एबिडेमी का चेहरा कुछ मायूस सा लग रहा था. रात तो अच्छा भला छोड़ के गया था. उसका मूड सातवें आसमान पर था. गेस्ट हाउस की सब्जी-रोटी-दाल की जगह मुर्ग-मुसल्लम का डिनर, वो भी कॉकटेल के साथ. उसकी कई दिनों की पेंडिंग मुराद पूरी जो हो गयी थी. कुछ दिन पहले ही उसका भारत आना हुआ था. नॉलेज एक्सचेंज प्रोग्राम की तहत, नाइजेरिया से. इस एक्सचेंज प्रोग्राम के साथ-साथ उसे उम्मीद थी कि कुछ भारत देखने को भी मिलेगा. अकेले आया था. नया देश, नये लोग और नया खान-पान. उसके आने से पहले ट्रेनिंग कोऑर्डिनेटर ने एक नॉलिजियेबल प्रोग्राम बना दिया था. बहुत ही टाइट शेड्यूल था कि बन्दा लौटे तो ज्ञान का कोई कोना छूट न जाये. हफ़्ते भर क्लास-प्रैक्टिकल-इंडस्ट्री विज़िट और सन्डे-सन्डे उसके इंटरटेन्मेंट के नाम पर आस-पास के टूरिस्ट प्लेसेज़ का भ्रमण. ये बात अलग है कि हमारे यहाँ देशाटन से ज़्यादा तीर्थाटन की सम्भावना है. बेचारा मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च में माथा टेक-टेक के हैरान हो गया. बा-मुश्किल 25 साल के युवा ने ऐसी भयंकर ट्रेनिंग की कल्पना भी नहीं होगी.

उसके साथ मुझ जैसे खड़ूस आदमी को अटैच कर दिया गया. जो न खाये, ना खिलाये. जो न पिये, ना पिलाये. उस समय तक मुस्कुराने की आदत भी कम थी. हाँ, दिल का तब भी बहुत अच्छा था, जैसे कि हम सभी हिन्दुस्तानी होते हैं, दिल के अच्छे-सच्चे-साफ़. क्योंकि राज कपूर साहब बरसों पहले फरमा गये थे कि इस देश के लोग इसलिये सच्चे और साफ़ हैं क्योंकि सिर्फ़ इसी देश में गंगा बहती है. और गंगा जी हैं तो सारे पाप धोने का प्रावधान भी है. लेकिन ये बातें अगर आचार-व्यवहार और चेहरे से न झलके तो किसी को कैसे पता चले. अच्छे दिल वाली बात सिर्फ़ मुझे ही पता थी. दूसरे पता नहीं क्या सोचते हों मेरे बारे में. शायद घमण्डी-धूर्त-चालाक-मतलबी, नहीं पता. अन्फ्रेंडली टाइप के लोगों के विषय में शायद मेरे विचार भी कुछ ऐसे ही होते. एबिडेमी की ये ट्रेनिंग सरकार की ओर से प्रायोजित थी. जिसके लिये एक बजट निर्धारित  था. ये भी हो सकता है कि हमारे विश्विद्यालय ने इस ट्रेनिंग के लिये फीस निर्धारण किया हो. उसमें अपने यहाँ उपलब्ध सुविधाओं के हिसाब से ट्रेनिंग ख़र्च का आँकलन लगाया गया हो. आते ही उसे आम स्टूडेंट समझ के विश्वविद्यालय के गेस्ट हॉउस में रख दिया गया. सात फुट के करीब लम्बाई वाले व्यक्ति का भारतीय एवरेज लम्बाई के बेड पर अटक पाना कठिन था. अगले ही दिन जब मैं उससे मिलने गया तो देखा गद्दा जमीन पर आ चुका था.

हफ़्ते भर तक गेस्ट हॉउस का शुद्ध शाकाहारी भोजन कर-कर के एबिडेमी की हालत बिगड़ चुकी थी. मेरा अन्फ्रेंडली, बिना मुस्कुराहट वाला चेहरा देख के उसकी कुछ कहने या डिमाण्ड करने की इच्छा भी नहीं हुयी होगी. दूसरा शनिवार आते-आते उसका सब्र टूट सा गया. उसने धीरे से कहा 'डू यू पीपल ऑलवेज़ ईट वेजेटेरियन फूड्स'. सद्भावना के तौर पर मुझे बताना पड़ा कि नहीं ऐसा नहीं है. 'वी हैव वेरी वाइड रेंज ऑफ़ नॉन-वेज डिशेज़. बट इन द गेस्ट हाउस एंड द पैकेज फ़ॉर योर ट्रेनिंग, देयर इज़ प्रोविज़न फ़ॉर वेजिटेरियन मील्स ओनली'. उसके चेहरे के हाव-भाव से लग रहा था कि बहुत बड़ी गलती कर दी यहाँ आ कर. पता नहीं कहाँ फँस गया. मेरा गुडनेस ऑफ़ हार्ट जागने लगा था. पहले थोड़ा सा मुस्कुराया, फिर खुल के मुस्कुराया. वो भी मुस्कुराने लगा. मैंने उससे कहा - भाई पहले बताना था. उसने छूटते ही कहा कि भाई तुम्हें पहले मुस्कुराना था. आइस ब्रेक होने की शुरुआत हो चली थी.

यहाँ एक से एक नॉनवेज रेस्टोरेंट्स हैं. मैं इतना कर सकता हूँ कि लंच तो नहीं पर डिनर में बाकी बचे दिनों के लिये तुम्हें लखनऊवा हॉस्पिटैलिटी का आनन्द दिलाता हूँ. वापस जा के ये मत कहना कि कोई हिन्दुस्तान मत जाना नहीं तो लौकी-तरोई-टिंडे से तुम्हारा स्वागत होगा. यहाँ के व्यंजन खा कर तुम ख़ुद बार-बार लखनऊ आना चाहोगे. फिर क्या था. रोज शाम  को पूरे के पूरे दस दिन तक लखनऊ के लज़ीज़ नॉनवेज का उसे आनन्द दिलाने में मुझे भी बहुत आनन्द आया. टुंडे कबाबी, दस्तरख़्वान, फ़लक़नुमा, करीम्स आदि का जो चस्का एबिडेमी को लगा तो वो इंडियन स्पाइसी फूड्स का दीवाना हो गया. उसके जाने में अभी चार दिन बाकी थे, जब उसने कुछ संकोच करते हुये बार के बारे में पूछा. मुझे ये तो मालूम था कि ढंग के बार-रेस्टोरेंट्स में पैग बहुत मँहगे पड़ते हैं. बाहर एक पेग की कॉस्ट में पूरा क्वार्टर आ जाता है. और ये भी पता था कि गेस्ट हॉउस की दीवारों पर लाल अक्षरों में बड़ा-बड़ा धूम्र और मदिरा पान निषेध लिखा हुआ था. ये भी अजीब विधान है कि यदि ग़लत काम छुप के किया जाये वो अपराध और खुले-आम डंके की चोट पर किया जाये तो आन्दोलन बन जाता है. अंग्रेजों की सरकार होती तो ये आन्दोलन भी मै कर गुजरता विदेशी मेहमान के लिये. लेकिन यहाँ अपने बाबा की सरकार रोकती-टोकती तो नहीं पर पकड़े जाने पर तोडती बहुत है. इस कर के उसकी या मेरी आन्दोलन करने कि हिम्मत नहीं हुयी. तय हुआ कि अपराध ही कर के देख लिया जाये. दिक्क़त ये थी कि दुकान से ख़रीदे कौन. पीता मै था नहीं. शहर में जानने वालों के बीच मेरी टी-टोटलर की इमेज को धक्का लगने की सम्भावना थी. यदि किसी ने देख लिया तो बची-खुची भी गयी. और ये भी पक्का था कि यदि एबिडेमी लेने गया तो दुकानदार अनाप-शनाप पैसे माँग सकता है. केयर टेकर लोग इस मामले में सहायक सिद्ध होते हैं, यदि उनका ख्याल कर लिया जाये तो. जो इन परिस्थितियों में गलत भी नहीं था. अपराध-भाव कुछ कम हो गया जब उसने बताया कि यहाँ आये नेशनल और इन्टरनेशनल अधिकांश लोगों को इस सुविधा की दरकार होती है. लोगों के घर से टूर पर निकलने का ये भी एक मुख्य कारण हुआ करता है. उनका इंतजाम उसे ही देखना पड़ता था. टुंडे के कबाब और रुमाली रोटी, और करीम के मुर्ग-मुसल्लम के साथ स्कॉच और रम के कॉकटेल के साथ एबिडेमी ने अपना यादगार डिनर किया. गेस्ट हॉउस अटेंडेंटस को भी उस रात अंग्रेजी से काम चलाना पड़ा.

जब एबिडेमी से पूछा कि - भाई आज क्यों बड़े मायूस से दिख रहे हो. तो उसने बताया कि सुबह जल्दी नींद खुल गयी तो मॉर्निंग वाक पर निकल गया. हर आदमी ऐसे देख रहा था, जैसे कि चिड़ियाघर से कोई जानवर निकल भागा हो. मैंने वेव किया, गुड मॉर्निंग की, स्माइल दी, लेकिन सब के सब घूरते हुये निकलते जाते थे. 

देश की इज्जत का सवाल था. मैंने समझाने का प्रयास किया - इसमें कोई बड़ी बात नहीं है. तुम हो भी तो सबसे अलग. इतने लम्बे हो कि देखने वाले के सर की टोपी गिर जाये. हम लोग थोड़े रिज़र्व टाइप के लोग होते हैं. हम आर्टिफिशियल तरीके से मुस्कुराना नहीं जानते. हमें इस बारे में न बताया जाता है ना सिखाया. पहले तुम भी मेरे बारे में पता नहीं क्या सोचते थे. एबिडेमी ने बताया कि हम लोग भी किसी अनजान को देख कर नहीं मुस्कुराते लेकिन जब आँखों से आँखें मिल ही जायें तो हेलो-हाय-गुड मॉर्निंग/इवनिंग कह के मुस्कुरा देने में कोई बुराई तो नहीं. लेकिन यहाँ लोग देख तो रहे थे पर रिस्पोंस बिल्कुल नहीं दे रहे थे. मुझे बड़ा अजीब लगा. उसे समझाने के लिये बताना पड़ा कि ये चिन्तकों-मनीषियों का देश है. यहाँ लोग देखते कहीं हैं और सोचते कुछ और हैं. लेकिन सब दिल के अच्छे हैं, बस प्रकट करना नहीं जानते. 

उसे क्या बताता कि आजकल यहाँ यही लेटेस्ट ट्रेन्ड चल रहा है. बचपन में नमस्ते करना सिखाया जाता था. लेकिन उसमें इतना आदर-भाव निहित होता था, जितने आदर के लायक हर व्यक्ति नहीं होता. शनै-शनै लोगों ने नमस्कार अपना लिया क्योंकि इसके माध्यम से आप थोडा तिरस्कार प्रदर्शित कर सकते हैं. लेकिन उसमें भी कम्पटीशन है कि पहले कौन करे. यहाँ बाद में करने वाला ख़ुद को विजेता महसूस करता है. हम मुस्कुराते ही तब हैं जब हमारा किसी से कोई काम पड़ने वाला हो. अगला भी तभी मुस्कुरायेगा जब अगले को मालूम हो कि उसे आप से भी कोई काम पड़ सकता है. यदि ये मालूम हो कि आप से कोई काम नहीं पड़ना, तो खामख्वाह मुस्कराहट क्यों वेस्ट करनी. और कभी जब काम पड़ ही गया, तब मुस्कुरा भी लिया जायेगा. मुस्कराहट की डेप्थ से आप नाप सकते हैं कि किसका किससे काम पड़ने वाला है. जिसके चेहरे पर बत्तीसी दिखाऊ टूथपेस्ट के विज्ञापन वाली स्माइल हो, उसका काम पड़ने वाला है. और फीकी स्माइल वाला जानता है कि जरा सा ज़्यादा मुस्कुरा दिये तो ये अभी ही काम बता देगा. अगर कोई बिना कारण मुस्कुरा रहा है, तो समझ लो कुछ गड़बड़ है. कोई काम पड़ने वाला है. अनजान लोगों से तो कोई काम पड़ना नहीं, तो मुस्कुराना कैसा. सामने से निकलने वाले हर स्त्री-पुरुष को घूरते हुये चलना तो हमारी राष्ट्रीय बीमारी है. लेकिन क्या मजाल कि कोई मुस्कुरा दे या विश कर दे. मेरे एक पड़ोसी और उनकी पत्नी को नाती होने के उपलक्ष्य में बेटी-दामाद ने अमरीका का टिकट भिजवा दिया. न्यूक्लियर फ़ैमिली में, बच्चा जब तक सम्हल न जाये, दादी-बाबा-नानी-नाना की अहमियत बनी रहती है. उनके दो दिन वहाँ रहने के बाद ही एक शाम दामाद जी दो काले चश्मे लेकर ऑफिस से लौटे. बेटी ने धीरे से बताया कि जब आप लोग शोना को घुमाने ले जाते हैं तो ये चश्मे लगा के जाया कीजिये. जाने-अनजाने आप लोग जिसे देखते हैं, देखते ही रह जाते हैं. इसे यहाँ लोग बुरा समझते हैं. पड़ोसी का बच्चा हो या कुत्ता किसी को भी घूरने की जरूरत नहीं है. आप लोग इतनी जल्दी आदत तो बदल नहीं सकते इसलिये चश्मा लगा के निकला कीजिये. 

कुछ आत्मनिर्भर टाइप के लोग भी होते हैं. जो लोग चाहते हैं कि ना वो किसी से काम लें और ना किसी के काम आयें, वो अन्तर्मुखी हो जाते हैं. न किसी की ओर देखते हैं, न मुस्कुराते हैं. सम्भवतः वे ही श्रेष्ठ प्राणी हैं.


-वाणभट्ट

शनिवार, 29 अप्रैल 2023

अंतिम संस्कार

अंतिम संस्कार 

वर्मा पीपल के एक पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर पहुँच के उल्टा लटक गया. कैम्पस में बहुत से पीपल के पेड़ बिना प्लानिंग के उग आये थे. चूँकि पीपल में देवी-देवताओं का वास होता है इसलिये श्रद्धा के कारण कोई उसे हटाने को तैयार न था. पाप का भागी कौन बने. सरकारी कैम्पस किसी की व्यक्तिगत प्रॉपर्टी तो होती नहीं. अपना घर-जमीन हो तो मट्ठा डाल-डाल के निकालें. अब आलम ये है कि-

उग रहा है दर-ओ-दीवार पर सब्जा 'ग़ालिब'

हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आयी है 

जुम्मा-जुम्मा आठ साल ही हुये थे, वर्मा को रिटायर हुये. घर-बार-परिवार आज जो कुछ भी उसके पास था, उसके पीछे एक अदद नौकरी का होना ही मुख्य कारण था. वरना दिल के अच्छे और सच्चे लोगों से की दुनिया में कोई कमी है क्या. लेकिन क्या मजाल कि कोई लड़की या लड़की का बाप ऐसे इंसान को अपना पति या दामाद, क्रमशः, बनाने को तैयार हो. नौकरी लगना अपने आप में एक लॉटरी है. जहाँ एक-एक, दो-दो नम्बर से सफलता चूक जाती हो, वहाँ सफलता का श्रेय अपनी कड़ी मेहनत को देना और असफलता का ठीकरा भगवान की मर्ज़ी पर फोड़ना ही नियत बन जाती है. और सबसे बड़ी बात ये थी कि माशाल्लाह वर्मा की शुद्ध सरकारी नौकरी थी. जब तक प्राइवेट में काम करता रहा, वर्मा को ख़ुद ही डाउट हुआ करता था कि शादी होगी भी या नहीं. लड़की वाले इंजीनियर समझ कर आते थे और प्राइवेट के नाम पर मुँह पर ही मुँह बिचका के चले जाते थे. बाद में कितने ही प्रपोजल सिर्फ़ इसलिये आये कि वर्मा के पीछे सरकार खड़ी थी. ये बात तब की है जब प्राइवेट कम्पनियों में पैकेज का दौर शुरू नहीं हुआ था. लड़कियाँ भी स्मार्ट से ज़्यादा लल्लू टाइप के भरोसेमन्द लड़कों को पसन्द करती थीं, जो उनके हिसाब से दिन को रात और रात को दिन बता सके. इस प्रकार उनके घर-बार की स्थापना हुयी. समय के साथ परिवार और समृद्धि में वृद्धि होनी ही थी और हुयी भी. अब उनको काफी हद तक सुखी कहा जा सकता था.  

चूँकि उनके सब कुछ का आधार नौकरी ही थी, इसलिये उन्होंने 'कर्म ही पूजा है' का स्लोगन अपने ऑफिस में अपनी कुर्सी के पीछे लगा रखा था. जिससे हर आने वाला उसे बिना मिस किये पढ़ सके. जिसका नज़रिया सरकारी नौकरी में भी ऐसा हो, वो व्यक्ति कितना महान होगा. वैसे वर्मा कर्मठ व्यक्ति था भी. लेकिन सिर्फ़ कर्मठ होने से काम नहीं चलता. अपने को कर्मठ सिद्ध करने के लिये हर समय मथे रहिये कि आप कर्मठ हैं (और बाक़ी सब निकम्मे). मार्केटिंग का जमाना कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. सेल्फ़ प्रमोशन के लिये जो भी करना हो, करना चाहिये. भविष्य के इतिहास के जिस हिस्से को हम जी रहे हैं, उसे देख कर सहज आभास हो जाता है, जब महान लोग जीवित रहे होंगे, तो उन्हें लोगों की कितनी आलोचना झेलनी पड़ती होगी. और लोग अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप उन्हें कितने हल्के शब्दों से नवाज़ते रहे होंगे. वो तो तब कैमरे और न्यूज़ चैनेल्स नहीं थे, बस प्रिन्ट मीडिया हुआ करता था और पढना सब जानते नहीं थे. आज के इतने खुले वातावरण में जब मीडिया को गोदी में बैठाया जा सकता है तो तब का इतिहास भी आकाओं के हिसाब से लिखवाया गया होगा. चूँकि वर्मा को उस जमाने में काफी रगड़-घिस के नौकरी मिली थी, तो वो उसके महात्म्य को भली-भाँती समझता था. जो भी जिम्मेदारी मिलती थी उसे यथायोग्यता अनुसार पूरी करने का प्रयास करता था. एक कहावत है 'जहाँ गधे पर नौ मन वहाँ एक मन और' भी डाल दो तो वो चीं नहीं करेगा. जिम्मेदारी निभाते-निभाते वर्मा का हाल वैसा ही हो गया था. सारे थैंकलेस टाइप के कामों के लिये वो हमेशा डिमाण्ड में रहता. ऑफिस के चक्कर में उसने घर को घर नहीं समझा. जाने का तो टाइम था लौटने का कोई पुरसा हाल नहीं. ज़िन्दगी ऐसे ही चलती रही और वर्मा को कभी कोई शिकायत रही हो, ऐसा भी न था. साठ साल की उम्र में जब वो रिटायरगति को प्राप्त हुआ तो उसके बॉसों ने उन पर कशीदों की झड़ी लगा दी. उनके बिना एक निर्वात खड़ा होने वाला था. उसकी पूर्ति कैसे होगी. एक बारगी तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि क्या वो वाकई इतना अच्छा आदमी था, जितना बताया जा रहा था.

लेकिन ये तो समय चक्र है जो नौकरी में आया है, वो साठ का होते ही जायेगा, चाहे वो कितना भी स्वस्थ और एक्टिव हो. कर्मयोगी लोग रिटायर्मेंट के बाद अक्सर इसीलिये बीमार हो जाते हैं कि पूरे दिन में इतना समय है, करें तो करें क्या. रिटायर्मेंट के एक दिन पहले तक इतने व्यस्त रहे कि पूजा-अर्चना-योग-ध्यान और शौक के लिये समय ही नहीं था. अब रोज उठते हैं तो देखते हैं पूरा दिन पहाड़ की तरह सामने खड़ा है. कितना टहलें, कितनी सब्जी लायें. बच्चे सब बंगलौर-पूना-कनाडा-अमरीका निकल लिये. जब तक बच्चों के बच्चों को बस्ते नहीं टंगे थे, दादी-बाबा को लगता था, मूल का सूद ही अब उनके जीवन का मकसद है. लेकिन बस्ता टंगते ही थ्री बीएचके फ्लैट्स में जगह की कमी हो जाना स्वाभाविक सी बात है. टिन्कू को एक अपना अलग स्पेस चाहिये और यदा-कदा आने वाले आगंतुकों के लिये गेस्ट रूम. पापा हर समय टिन्कू को टीवी में घुसाये रखते हैं और मम्मी के लाड ने तो टिन्कू को बिगाड़ रखा है. जब तक शरीर स्वस्थ था, तो वर्मा जी साल में चार बार बच्चों के यहाँ चक्कर काट आते थे. लेकिन पिछले विजिट में उन्हें ये आभास हो गया कि उनके रहने से टिन्कू की पढायी डिस्टर्ब होती है. वो अपने बनाये मकान और अपने कर्मक्षेत्र वाले शहर वापस आ गये. पुराने यार-दोस्तों के बीच कुछ समय सब ठीक चला. उसके बाद जो उन्हें हुआ उसे बीमारी नहीं कहा जा सकता. डिप्रेशन से बचने के लिये योग-प्राणायाम की जगह बच्चों के सजेशन पर डॉक्टरों की सलाह ले ली. लेकिन जैसे-जैसे दवा करते गये मर्ज बढ़ता ही गया. कुछ दिन आईसीयू में बीते.

आज वो बहुत हल्का महसूस कर रहे थे. 'गाईड' की वहीदा रहमान की तरह जीने की तमन्ना और मरने का इरादा साथ-साथ कुलाँचे मार रहा था. आईसीयू से उनके शरीर को बाहर कर दिया गया था. बच्चे आये. जल्दी में थे. तीन दिन में सभी संस्कारों को समाप्त करके सब निकल गये. पत्नी को भी साथ लेते गये कि मम्मी का मन बदल जाये. बच्चों का माता जी के प्रति प्रेम और सम्मान वर्मा को खुश कर गया. तेरह दिन तक तो आत्मा अपने घर में ही रहती है इसलिये वो वहाँ रहे.

वापस चलने ही वाले थे कि उन्हें ध्यान आया, सोने के समय को छोड़ दें तो जागते हुये समय का अधिकांश समय तो उसने ऑफिस में ही बिताया है. वही ऑफिस जिसके लिये उनका दिल-औ-जाँ समर्पित हुआ करती थी. वहाँ भी तो कोई संस्कार बाक़ी होगा. लोग बाग हैं कि बस फ़ेसबुक और वाट्सएप्प पर आरआईपी और ओम शांति से काम चलाना चाहते हैं. वो आ गये और तब से उल्टे लटके पड़े हैं, पीपल के पेड़ की सबसे ऊँची टहनी पर कि कन्डोलेंस हो जाये तो चलें.          

-वाणभट्ट 

ऑर्गन डोनेशन

  ऑर्गन डोनेशन जब ऑर्गन डोनेशन का फॉर्म ऑनलाइन भरा तो सरकार की तरफ़ से एक सर्टिफिकेट मिल गया. उसमें शरीर के सभी अवयव जिनको किसी की मृत्यु के ...