शुक्रवार, 17 मार्च 2023

साज़िश

पियर रिव्यू मीटिंग होनी थी आज। सुबह-सुबह नहाने धोने से पहले जूता पॉलिश से चमका कर रख दिया। मीटिंग फॉर्मल थी।

रैगिंग के दौरान सीनियर्स के दिये प्रवचन इंजीनियरिंग कॉलेज के पहले छः महीनों में ही कंठस्थ करा दिये जाते हैं। कई प्रकार के सम्पुट, उद्बोधन और विशेषणों के साथ ये समझा दिया जाता था कि आप अपने घर के वरांडे में नहीं टहल रहे हैं। कॉलेज का डेकोरम होता है। लाइट कलर की शर्ट, डार्क कलर की पैंट, कमर में बेल्ट और लेदर शूज़ के साथ-साथ जब तक फ्रेशर्स फंक्शन न हो जाये, टाई पहनना अनिवार्य था। ताकि सीनियर्स को जूनियर्स को आइडेंटिफाई करने में कोई दिक्कत न हो। 

एक नियम सीनियर्स के आगे अपनी शर्ट के तीसरे बटन को देखते हुये बात करना। उसके पीछे औचित्य यही रहा होगा कि आप ये न देख पायें कि कौन क्या बक रहा है। हमारे कॉलेज में रैगिंग का उद्देश्य इंट्रोडक्शन तक ही सीमित था। सबकी हिडेन टैलेंट्स को खोजा जाता। कौन ड्रॉइंग अच्छी बनाता है, किसकी राइटिंग अच्छी है, कौन गाना सुना सकता है और कौन चुटकुले। ताकि सीनियर्स को मालूम रहे कि किससे ड्रॉइंग बनवानी है, किससे असाइनमेंट लिखवाने हैं और किस-किस का उपयोग एंटरटेनमेंट के लिये करना है। छः महीनों में ही ऐसी आदत पड़ गयी कि चप्पल-सैंडल-पम्प शूज़ हम लोगों के जीवन से बाहर हो गये। तब स्पोर्ट्स शूज़ के नाम पर उतनी वैरायटीज़ नहीं थीं जितनी आज हैं। जिन्हें दौड़ना-खेलना होता था, उनके पास सफ़ेद पी.टी. शूज़ के अलावा कोई ऑप्शन नहीं था। चार साल निकलते-निकलते लेस वाले लेदर शू हमारी पर्सनालिटी का अभिन्न अंग बन चुके थे। 

जब से ऑफिस सुबह 9 बजे का हुआ है, समय से ऑफिस पहुँचने ले लिये आपा-धापी मची रहती है। पूरी तरह तैयार होने के बाद आख़िरी आइटम जूते का ही बच रहा था। जूता तो तैयार था ही। मोजा पहन कर ज्यों ही लेस चढ़ाने की कोशिश की तो आधा लेस हाथ में आ गया। दूसरे जूते पर पॉलिश करने का समय तो था नहीं। पैंट-शर्ट के साथ स्पोर्ट्स शू सूट नहीं करता, लेकिन मजबूरी आदमी से जो न कराये। मीटिंग में शायद ही किसी ने मेरे जूतों पर ध्यान दिया हो, लेकिन मुझे लगता रहा कि आज कुछ तो गड़बड़ है।

सुबह उठने में किसी दिन देर हो जाये तो पूरे दिन के टारगेट वाले 10000 स्टेप्स पूरे करना मुश्किल हो जाता है। शाम को स्टेप्स पूरे करने और फ़ीता लेने की गरज से चाय पी कर टहलने निकल पड़ा। पास के पनकी मार्केट में जूतों की बड़ी-बड़ी दुकानें और शो रूम्स थे।

मुझे थोड़ा आश्चर्य ज़रूर हुआ जब पहले शो रूम के वर्कर ने रुखाई से फ़ीता न होने की बात कही। अगले शो रूम पर भी वैसा ही जवाब मिला। फिर तो मैं अगले-अगले-अगले और अगले शो रूम्स की ओर बढ़ता गया। सबका जवाब वही था और मेरा आश्चर्य बढ़ता जा रहा था। 

अमूमन मुझे 3000 स्टेप्स पूरे करने में 30 मिनट लग जाते हैं। डेढ़ घण्टे होने को आये लेकिन फ़ीता पूरे मार्केट से नदारद लग रहा था। स्टेप्स पूरे करते-करते पनकी रोड से बिठूर रोड तक पहुँच गया। दसियों दुकानों पर निगेटिव उत्तर मिल चुका था। इस बार तो गर्मी फरवरी से ही चढ़ चुकी थी। बिना पानी-वानी पिये जब मैं ग्यारहवीं दुकान पर पहुँचा होऊंगा तो पसीना बाहर तक झलक रहा था और तालू सूख रहा था। फ़ीता बोलना चाहा लेकिन ज़बान फ़ी पर ही अटक गयी। पहला दुकानदार था, जो कुछ मुस्कुराया। पीछे उसने वर्कर को आवाज़ दी - भाई साहब को पानी पिलाओ। इतना सत्कार देख के मैं भाव-विभोर होने ही वाला था कि उसने आगे कहा - भाई साहब पहले लोग पैदल चलते थे तो दो-चार साल में जूता बदलने की नौबत आ जाती थी। सबके पास चार-चार जोड़ी जूते हैं। लोग कार और स्कूटर पर चलते हैं। अब जूते कहाँ टूटते हैं। फ़ीते न टूटें तो कोई जूता न खरीदे। कहिये तो नया जूता दिखाऊँ।

मोची के यहाँ से लिये सस्ते फ़ीते लेदर के जूतों से मैच तो नहीं कर रहे थे। लेकिन जिस वाणभट्ट ने बीटेक के चार साल एक नार्थ स्टार में ही काट लिये हों, वो नया जूता खरीदने से तो रहा।

-वाणभट्ट

शनिवार, 4 मार्च 2023

आँखों देखी 

अगर वो किसान का खेत होता और बाबा की गाय घुस गयी होती तो कोई हंगामा नहीं बरपता. हमारे किसान संतोषी टाइप के जीव हैं. बिजनेस की तरह नहीं कि अपने उत्पाद और मेहनत की कीमत मनमानी माँग लें. जब बिजनेस वाला शो देखना शुरू किया, तब पता चला कि एक बार ब्रैंड बन जाये तो मार्केट प्राइस और मुनाफ़ा आप ख़ुद डिसाइड कर सकते हैं. जबकि खेती में किसान मेहनत ख़ुद करते हैं और आशीर्वाद ऊपर वाले का माँगते हैं कि सब ठीक-ठाक निकल जाये तो बिचौलियों का कर्ज़ उतर जाये. 

जब हमारी विभागीय कार धूल उडाती हुयी गाँव में प्रधान जी के दालान में पहुँची तो ग्रामीण भाइयों की भीड़ लग गयी. सभी को उम्मीद रहती है कि बड़ी गाड़ी आयी है तो कुछ बीज-खाद दे कर जायेगी. खेतों का मुआयना करने हमारी टीम जिधर भी जाती तो लोगों का एक छोटा लेकिन दृश्यमान हुजूम उधर बढ़ लेता. वो भीड़ में सबसे पीछे धीरे-धीरे लाठी के सहारे चला आ रहा था. उपरी शरीर पर कोई कपडा नहीं था और नीचे का हिस्सा एक मैली सी आधी धोती से कुछ ढँका-अनढँका सा था. चेहरा पूरी तरह से भाव रहित था. भीड़ का अंग हो कर भी वो भीड़ से अलग दिख रहा था. उसे देख कर मन में दया भाव का आना सहज ही था. सोचा जब चलने लगूँगा तो कुछ सहायता राशि उसके हाँथों में रख दूँगा. हमारे टीम लीडर एक खेत के पास जा कर रुक गये. और आवाज़ लगाते हुये बोले - अरे भाई सिरोही, तुम्हारी मूँग तो सब नील गाय ने खराब कर दी. कुछ भी नहीं मिलेगा. अब वो पीछे से अपनी उसी चाल से चलते हुये टीम के सामने आ गया. साहब क्या बतायें नील गाय की बहुत समस्या है लेकिन उपर वाले की मेहरबानी रही तो खेत एक-दो कुन्तल दे कर ही जायेगा. तब मुझे एहसास हुआ कि जिस व्यक्ति के प्रति मेरे मन में दया भाव आ रहा था दरअसल वो एक जमीन का मालिक है. और जिसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ है, उसे कोई क्या दे सकता है. मै कुछ देता तो शायद वो ले भी लेता लेकिन जमींदार व्यक्ति को कुछ देने की हिमाक़त करने की मेरी हिम्मत न हुयी. 

यहाँ बात अलग थी. शोध का खेत था. रात में किसी आवारा जानवर ने खेत में घुस कर फसल को तितर-बितर कर दिया था. ये ऐसा नुक्सान था जिसके पीछे वर्षों की मेहनत और शोध लगा था. उस नुक्सान का आँकलन करना कतई सम्भव नहीं था. जिसका नुक्सान हुआ उसका गुस्सा जायज़ भी था. लेकिन जहाँ खेत की फेंस कई जगह से गल के ख़राब हो चुकी हो वहाँ से किसी छुट्टा पशु का आ जाना असंभव नहीं था. बगल के खेतों में गन्ने की कटाई हो जाने के कारण संभव है कि जानवर इधर घुस गये हों. उनके लिये आम खेत और शोध खेत में फ़र्क करना सम्भव होता तो शायद वो इधर न आते. किसी ने बताया आठ-दस सूअर झुण्ड में आ कर फसल को रौंद गये. किसी ने बताया जहाँ से फेंस टूट गयी है, वहाँ से सूअरों का झुण्ड घुस आता है और फसल तबाह कर जाता है. जहाँ से ये फेन्स टूटी थी, वहाँ से इस खेत के बीच में कई और खेत भी पड़ते थे. किसी ने सूअरों के चरित्र पर प्रकाश डाला कि वो सबसे आख़िर में जो खेत होता है, वहीं विचरना पसन्द करते हैं. वो फसल खाते कम हैं और लोटते ज़्यादा हैं. शहरी सूअरों के बारे में तो हमें कुछ आइडिया है, जो नाली के कीचड़ और गन्दगी में घुस के पड़े रहने में ही आनन्द लेते हैं. सींग वाले जंगली सूअरों के बारे में उतना ही पता है, जितना जिम कॉर्बेट की कहानी में खौफ़नाक जंगली सूअर के शिकार का ज़िक्र था. लेकिन जब दृश्य को रीक्रियेट किया गया तो सीन कुछ ऐसा बना - जहाँ से फेंस टूटी हुयी थी वहाँ से दर्जन भर जंगली सूअरों ने प्रवेश किया. वो फेन्स के किनारे-किनारे या सड़क पर चलते हुये आखिरी उस खेत तक आये, जहाँ फ़सल पक के कटाई के लिये तैयार खड़ी थी. उसे देख के उनके मन उल्लास से भर गये और वो उसमें लोटने लगे. 

सुबह प्रत्यक्षदर्शी सिर्फ तहस-नहस हुये खेत को ही देख पाये. ये वारदात रात में हुयी थी. जिसका कोई चश्मदीद गवाह न था. नुक्सान बहुत बड़ा था. आक्रोश उससे भी ज़्यादा. तीस साल के मेरे अनुभव में ऐसा नुक्सान शायद ही कभी हुआ हो. समाधान फेन्स को मजबूत करने में था. लेकिन नतीजा निकाला गया कि चूँकि बुजुर्ग सिक्योरिटी इन्चार्ज अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं कर पा रहा है इसलिये उसे काम छोड़ कर स्वेच्छा से रिटायर्मेंट ले लेना चाहिये. बहुत सम्भव है इस घटना की पटकथा इसी मन्तव्य से लिखी गयी हो. ऐसा भी हो सकता है.

बैक मिरर में सभी पीड़ित पक्ष चाय लड़ाने के उद्देश्य से ऑफिस बिल्डिंग की ओर बढ़ते दिखे.

-वाणभट्ट   

 


सोमवार, 13 फ़रवरी 2023

 फ़नी सिंह

अगर वो कांफ्रेंस न होती और उसमें कुछ बैण्ड-बाजा-बारात टाइप की जिम्मेदारी न मिली होती तो फ़नी से मुलाक़ात न होती. 

बत्रा जी के पास सारे इवेन्ट को कराने का काम दिया गया था. लेकिन उनके बड़े-बड़े कामों में व्यस्त रहने के चलते, उनसे फोन पर भी बात कर पाना मुश्किल था. इवेन्ट की डेट्स करीब आती जा रही थी. बत्रा जी से जब भी बात होती तो जवाब का लब्बोलबाब होता - तुस्सी क्यों चिन्ता करते हो, असी हैं ना. जितनी हमारे दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं उतना ही बत्रा जी के आश्वासनों का कॉन्फिडेंस भी बढ़ता जा रहा था. बड़े-बड़े प्रोग्राम कराने का उनका रिकॉर्ड था. लेकिन इस क्षेत्र में मेरा तजुर्बा अपेक्षाकृत बहुत कम था. 

इस विषय में मेरा ज्ञान शादी-विवाह-छट्ठी-जन्मदिन आदि कार्यक्रमों में शामिल होने से ज़्यादा का नहीं था. और ये तो अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी थी. अपने सहज व्यवहारिक ज्ञान से ये भी ज्ञात था कि हर इवेन्ट येन-केन-प्रकारेण हो ही जाता है. फिर जिसकी जैसी श्रद्धा कार्यक्रम को सफल या असफ़ल घोषित करने में लग जाता. जब से लोगों में स्वयं को शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत दिखलाने का प्रचलन बढ़ा है, जीजा-फूफा प्रकृति के लोग लुप्त होते जा रहे हैं. जब से एक-दो बच्चों वाले छोटे और दुखी परिवारों की संख्या में वृद्धि हुयी है, तब से इन प्रजातियों को संरक्षित करने की आवश्यकता जान पड़ती है. सभी कोई जब सब कुछ अच्छा-अच्छा बताने लगेंगे, तो भला पारिवारिक आयोजनों में किसे मज़ा आयेगा. ये सोच कर कि "इनका तो काम है कहना", यदि आपने मान्य लोगों की परवाह करना छोड़ दिया गया तो यकीन मानिये भारतीय परम्पराओं से अगली पीढ़ी का विश्वास ही उठ जायेगा. इसलिये देश की खातिर यदि आप कुछ नहीं कर सकते तो परिवार में वैमनस्य बनाये व बढवाये रखने की ख़ातिर इनकी परवाह करते रहिये. 

दरिया की धार का अंदाज़ा किनारे पर बैठ के नहीं किया जा सकता. इस बार मुझे ये पता चला कि जिस काम को हम हो जाता है समझते थे, दरअसल उसे हुलवाना पड़ता है. और हुलवाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर भी लगाना पड़ता है. जो कार्यक्रम दर्शक दीर्घा में बैठ के सहज दिखता है, उसमें बहुत से लोगों की बहुत सी मेहनत लगी होती है. मेरी कमेटी का काम ज़्यादा बड़ा नहीं था. बस कुछ झंडे-डंडे-पोस्टर-बैनर आदि लगवाने थे, ताकि माहौल बन जाये कि कुछ होने वाला है. इसी सिलसिले में बत्रा जी का नम्बर मिला. उनका नम्बर कम ही उठता था, सो उनसे पूछा कि कोई और संपर्क सूत्र दीजिये जिससे हम बात करके बता सकें कि हम लोगों की आवश्यकतायें क्या हैं. इस प्रक्रिया में वैभव का नम्बर मिला और प्रिन्स का भी. लेकिन जब डी-डे सर पर आ कर सर पर बैठ गया, तो दो दिन पहले पता चला कि सारा का सारा दारोमदार फ़नी पर है.      

फ़नी साहब को फोन लगाया गया तो उनका भी वही जवाब था - साहब ये हमारा रोज का काम है, आप कतई टेंशन न लो. पूछा कब आओगे, तो जवाब मिला कार्यक्रम से एक दिन पहले सुबह 10 बजे से काम शुरू कर देंगे, पूरी टीम लग जायेगी और शाम तक आपकी वेन्यू तैयार. बात में कॉन्फिडेंस इतना था कि मुझे ये एहसास हो गया कि तुम क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो जब फ़नी साथ है. शाम के चार बजे जब काम नहीं शुरू हुआ तो फ़नी जी को फोन लगाया गया. बाक़ी लोगों की तरह इन्होने कभी ऐसा नहीं किया कि फोन न उठाया हो. हर बार आश्वासन की इंटेंसिटी बढती जा रही थी, जिसका सीधा सम्बन्ध मेरी बढती पल्स बीट्स से था. लेकिन चिन्ता करने के अलावा हमारे पास करने के लिये कुछ भी नहीं था. चार बजे बताया कि शिंदे हॉल का काम खत्म होते ही मिलता हूँ. बाद में बताया कि अभी विज्ञान भवन में कार्यक्रम कर चल रहा है. रात दस बजे तक पहुँच जाउँगा. आप निश्चिन्त रहिये, सुबह आपको सब तैयार मिलेगा. 

रात साढ़े दस बजे कमेटी के मेम्बर्स ने बताया कि अभी तक फ़नी साहब की कोई गतिविधि आरम्भ नहीं हुयी है. मैंने 'हरे कृष्णा' को याद किया और बोला सब लोग सो जाओ सुबह पाँच का अलार्म लगा कर. अब बात हम लोगों के कंट्रोल से बाहर है, ऐसे में ऊपर वाले के अलावा सिर्फ़ फ़नी पर ही भरोसा किया जा सकता था. सुबह साढ़े पाँच बजे कमेटी के मेम्बर्स तैयार थे. जब हॉल की साइट पर पहुँचे तो युद्ध स्तर पर काम चालू था. फ़नी जी से तभी पहली मुलाक़ात हुयी. देख कर ही लग रहा था कि उनकी नींद से भरी आँखों में सोने की गुंजाइश नहीं थी. नौ बजे का प्रोग्राम था और आखिरी समय तक उनकी टीम ने सारा काम व्यवस्थित तरीक़े से कर दिया था. और उन्होंने ये भी बताया कि जब तक आपका प्रोग्राम चल रहा है, आपको किसी चीज़ की चिन्ता नहीं करनी. बस उन्हें फोन करना है. धन्यवाद देने के लिये जब उनसे हाथ मिलाया तो हाथ का खुरदुरापन बता रहा था कि ग्राउंड ज़ीरो पर काम कौन करता है. 

जब थोड़ी फुर्सत मिली तो फ़नी जी से पूछा कि क्या आपका नाम यो-यो हनी सिंघ्ह से प्रभावित हो कर तो नहीं रखा गया है. तब उन्होंने बताया कि उनका नाम फणी सिंह प्रधान है. बंगाल के रहने वाले हैं और दिल्ली में बस गये हैं. और दिल्ली की पंजाबी मिश्रित हिन्दी में फणी का फ़नी हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है.

तीन दिन के कार्यक्रम में इनऑग्र्ल का पहला दिन सकुशल गुजर गया. आयोजनकर्ता - गुड बिगन इज़ हाफ़ डन - फ़ील कर रहे थे. 

अगले दिन सुबह ठीक से हुयी भी नहीं थी कि सोशल मीडिया पर एक वायरल चित्र मेरे फोन पर आ गया. जिसे चटखारे लेने के लिये साझा किया गया था. उसमें कॉन्फ्रेंस का बोर्ड उल्टा रखा दिखायी दे रहा था. प्रिमिसेज के बाहर का चित्र था इसलिये उस पर हमारा ध्यान जाना सम्भव नहीं था. रात भर काम करने के चक्कर में सम्भव है कि गल्तियाँ हो जायें. ऐसा भी सो सकता है कि फनी की टीम उसे रख कर लगाना भूल गयी हो. जिस देश में डूबते आदमी को बचाने के बजाय लोग वीडियो बनाने में लग जायें, वहाँ इस प्रकार के वायरल मैसेजेज़ पर आश्चर्य नहीं किया जा सकता. 

तुरन्त वो फोटो फ़नी जी को फॉरवर्ड करके ठीक करने को कहा. काफी देर बाद जब चेक किया तो टिक ब्लू नहीं हुये थे. जिनके काम के पीछे काम लगा हो, उन्हें फोन करके बताना पड़ता है कि भाई मैसेज देख ले. कुछ देर बाद ही उनका मैसेज आया - कर दिया.     

मितभाषी फ़नी जब मिले तो उनके चेहरे का भाव कह रहा था  -  यो यो फ़नी सिंघ्ह - यानि आपका अपना फ़नी सिंह.

- वाणभट्ट 

पुनश्च: इस लेख में नाम काल्पनिक नहीं है. फणी सिंह का आभार व्यक्त करना इस लेख का मूल उद्देश्य है.  

   

मंगलवार, 24 जनवरी 2023

मर्दानगी

स्टेशन पर गहमागहमी थी। सभी ट्रेनें लेट चल रही थीं। ठंड का हाई एलर्ट जारी हो चुका था। मौसम के साथ ट्रेनों को भी जुकाम हो जाता है। 

मैं भी जैकेट, दस्ताने और कनटोप से लैस हो कर अपनी ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। वेटिंग रूम ठसाठस भरा होने के कारण मैने बाहर प्लेटफ़ॉर्म पर ही खड़े रहने का निर्णय लिया। 

रात के दो बजे का समय रहा होगा। एक बुज़ुर्ग दम्पति बन्द पड़ी बुक स्टाल के सामने कम्बल बिछा और ओढ़ के बैठे हुये थे। बुज़ुर्ग की उम्र पचहत्तर के आसपास लग रही थी। उनकी पत्नी की भी उम्र सत्तर के ऊपर रही होगी। इस ठंड को भगाने के लिये चाय ही सबसे मुफ़ीद लग रही थी, सो मैं चाय की दुकान की ओर बढ़ गया। 

पत्नी ने जरूर चाय की फ़रमाइश की होगी, जो महोदय को चाय की दुकान तक आना पड़ा। उम्र के कारण या ठंड के कारण, कहना मुश्किल है, उनके हाथों में चाय के कप कुछ काँप से रहे थे। मेरी चाय खत्म हो चुकी थी, लेकिन उनको हेल्प ऑफ़र करके उनके स्वाभिमान को ठेस लगाने का मेरा मन नहीं किया। दोनों बुज़ुर्गों को चाय पीते देखना एक सुकून भरा दृश्य था। 

ढाई-पौने तीन के करीब उनकी ट्रेन का एनाउंसमेंट हो गया। गाड़ी को चार नम्बर प्लेटफ़ॉर्म पर आना था। हम लोग एक नम्बर पर थे। बुज़ुर्ग ने उठ कर दोनों कम्बल को तहा कर एक पिट्ठू बैग में डाल दिया। दोनों हाथों में अन्य दो बैग को लेकर वो बढ़ने ही वाले थे कि पत्नी ने एक बैग पकड़ लिया। आप एक बैग तो मुझको दे दीजिये। पति ने जोर दिया - कोई बात नहीं हल्के ही तो हैं। लेकिन पत्नी ने एक हल्का सा दिखने वाला बैग जबरदस्ती छुड़ा लिया।

पति ने उसे रुकने का इशारा किया। फिर पत्नी के बैग को खोल कर उसमें से दो लीटर पानी की बोतल को निकाल कर अपने बैग में डाल लिया। इस मर्दानगी पर कौन न हो जाये फ़िदा। मुझे भी होना ही था।

-वाणभट्ट

शनिवार, 7 जनवरी 2023

मेट्रो सिटी

आपने सुना होगा कि बहुत से देश तरक्क़ी कर के डेवलप्ड नेशन बन चुके हैं. हमने जब से होश सम्हाला है तब से अब तक देश डेवलप ही हो रहा है. जीवन के साठ बसन्त के करीब पहुँच के मुझे ये लगने लगा है कि इस जीवन में तो ये सम्भव नहीं दिख रहा है. कुछ लोगों से मिल कर ये एहसास जागृत होने लगता है कि हम बहुतों से बहुत आगे निकल चुके हैं लेकिन बस आप जैसे लोग (यानी मैं) अपने इंफेरियॉरिटी काम्प्लेक्स के चलते इस विकास को स्वीकार नहीं कर पाते. जैसे सावन के अंधे को हर तरफ़ हरा-हरा दिखता है, वैसे ही जेठ के अंधे को हर तरफ़ सूखा ही सूखा दिखायी देता है. आप दिन-रात विकास को खोजते रहते हैं, जबकि यहाँ विकास की ऐसी बाढ़ आयी हुयी है कि सब कुछ बहा जा रहा है. यदि अब भी आपको विकास नहीं दिखता तो आपकी दृष्टि में दोष है.

एक जमाना था जब हमारे बाप-दादा को सायकिल दहेज में मिलती थी. आज क्या मजाल कि कोई एसयूवी से नीचे बात करे. जिससे पूछो भाई बेटी की शादी में कितना ख़र्च हुआ तो गर्व से बताता फिरता है कि लड़के वालों ने जो भी माँगा, वो सब दिया. लड़के वालों ने डेस्टिनेशन वेडिंग की डिमांड रखी थी, उसी में तीस लाख लग गये. लेकिन शादी इतनी धूमधाम से की कि सब लोग याद रखेंगे. पहले वॉल्व वाले रेडियो मिल जाये तो लोग धन्य हो जाते थे. अब 85 इंच का स्मार्ट टीवी भी हजम नहीं होता. लड़के-लड़की सब पैकेज की बात करते हैं. सैलरी तो सरकारी शब्द बन के रह गया है. गाँव-गाँव ब्यूटी पार्लर खुल गये हैं. शहर गाँवों में घुसा जा रहा है और आप जनाब पूछते फिर रहे हैं कि विकास कहाँ है.

आज से कुछ साल पहले कोई सोच सकता था कि यूपी के शहरों में भी मेट्रो चल जायेगी. जब परियोजना का खाका खींचा गया, तो लोग उसे चुनावी हथकण्डे से ज़्यादा मानने को तैयार न थे. ऐसी सरकार देखने की हमारी आदत लगभग छूट चली थी जो शिलान्यास भी करें और लोकार्पण भी. जहाँ सिंगल रोड नहीं दिखती थी, वहाँ चार लेन सड़क और मेट्रो के खम्भों का निकल आना किसी चमत्कार से कम नहीं है. तय समय के अन्दर प्रोजेक्ट का पूरा हो जाना भी एक अजूबा ही है.

शहर में मेट्रो क्या चली, कुछ-कुछ दिल्ली-कोलकता-मुम्बई वाली फीलिंग हावी होने लगी है. जगह की कमी के कारण बड़े-बड़े भूखण्डों पर उभरते हुये स्काई स्क्रैपर्स इस फीलिंग को और हवा देने लगते हैं. अम्बर पे खुलेगी खिड़की या खिड़की पे खुला अम्बर होगा - जैसी स्थिति के लिये लोग इंडिपेंडेन्ट मकानों से विमुख हो कर फ्लैट कल्चर की ओर मुड़ रहे हैं. एक सोसायटी में लगभग एक ही आय वर्ग के लोगों में कुछ साम्यता तो मिल जाती है. लिफ़्ट और पार्किंग एरिया कॉमन होने के कारण गाहे-बगाहे सब टकरा ही जाते हैं. छतों पर पानी की टंकियों के बीच कितने ही इश्क़ परवान चढ़ जाते हैं. मेट्रो सिटी में जो कुछ सम्भव है, वो यहाँ भी हो सकता है. किसी प्रकार की रोका-रोकी या टोका-टाकी नहीं होती है. यही तो मेट्रो कल्चर है.

लेकिन पेसिमिस्ट टाइप के लोगों को तो दोनों जहाँ एक साथ चाहिये. होना चाहते हैं अमरीका, वो भी गाँव के उपले पर बने चोखा-बाटी के साथ. देश चाहे जितनी तरक्क़ी कर ले, उन्हें तो पुराने जमाने में ऐसा होता था, वैसा होता था, करके ठंडी आहें भरने में ही आनन्द आता है. इनमें वो लोग भी शामिल हैं जिन्हें अब्रॉड में सेटल्ड अपने बच्चों के बच्चों के कारण दुनिया देखने का मौका मिल जाता है. क्या बतायें साहब, वहाँ इतनी तरक्क़ी हो रखी है कि बच्चा-बच्चा अंग्रेज़ी बोलता है. एक बार लौटने के बाद उनका बाकी जीवन इसी में बीत जाता है कि विकसित देशों का जीवन - अहा क्या जीवन है. पूरा देश चमचमाता रहता है. कूड़ा-करकट देखने को तो आँखें तरस गयीं. साफ़-सफ़ाई तो इतनी है कि जंगल में भी टॉयलेट बने हुये हैं. रेलवे ट्रैक पर कोई तीतर-बटेर लड़ाता नहीं दिखता. ये बात अलग है कि नाती-पोतों के बड़े हो जाने के बाद बच्चों से बस फेसटाइम और व्हाट्सएप वीडियो कॉल पर ही बात हो पाती है. अब फ्लैट टाइप के घरों में इतनी जगह तो होती नहीं कि बाबा-पोता साथ रह सकें. आख़िर आज के बच्चों को प्राइवेसी भी तो चाहिये. फॉरेन विज़िट का और कुछ फ़ायदा हो या न हो, इतना तो मालूम हो ही जाता है कि हम क्यों इतने बैकवर्ड हैं (फ़िरंगी इसी को डेवलपिंग बोलते हैं). 

बाहर के लोगों में क्या अच्छाई है और हम लोगों में क्या-क्या बुरायी है, इसका जायजा लेना हो तो किसी फॉरेन रिटर्न के साथ बैठ जाइये. निश्चय ही आपको अपने बैकवर्ड होने पर विश्वास होने लगेगा. जो हम नहीं सीख पा रहे हैं वो है तमीज़. देश और समाज में हमें कैसा व्यवहार करना है. दबंगयी और बदतमीज़ी को हमने स्मार्टनेस का दर्ज़ा दे दिया है. जब सो कॉल्ड मेट्रो सिटी में ई-बस शुरू हुयी तो घुसते ही बन्दे ने पूछा इसमें गुटखा कहाँ थूकेंगे खिड़की तो सब बन्द है. चार लेन सड़क पर लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ लेकर उल्टे चलते मिल जायेंगे. डोर-टू-डोर कूड़ा कलेक्शन की सुविधा हो जाने के बाद भी कूड़ों के ढेर दिख जाना असामान्य नहीं लगता. सारा देश सरकार से कुछ ज्यादा ही उम्मीद करता है और अपने कर्तव्यों को आदर्श वाक्यों के अधिक नहीं मानता. अड़ोस पड़ोस को और पड़ोस अडोस को इसलिये नहीं पहचानता क्योंकि सब के सब आत्म निर्भर हो गये हैं. रूल्स आर फ़ॉर द फूल्स की शिक्षा बच्चों को देने वाला, अपनी गलती तब रियलाइज करता है, जब बच्चे परिवार के रूल्स को तोड़ कर उसी का सिद्धान्त उसी पर अप्पलाई कर देते हैं. स्काई स्क्रेपर्स और मेट्रो हमारी तरक्की की इबारत नहीं लिखते, हाँ जिस समाज में हम रहते हैं वो कितना कल्चर्ड है, हमारी तरक्की को परिभाषित करता है. लेकिन अफसोस तब होता है जब रैट रेस के जनक स्कूल सबको ये बताते घूम रहे हैं कि कैसे अपने ही साथियों से आगे निकलना है, तो तमीज़ सिखाने की जिम्मेदारी घर-परिवार पर आ जाती है. लेकिन हर परिवार एक स्मार्ट सिकन्दर का इंतज़ार कर रहा है.

ऐसे ही फॉरेन रिटर्न बुजुर्ग ने बुरा से मुँह बनाया जब मॉल में उनके लिफ़्ट से निकलने से पहले एक अल्ट्रा मॉडर्न सा दिखने वाला लड़का लिफ़्ट में घुस गया. मुझे मालूम था कि उनके साथ अब उनके घर तक का सफ़र कितना ज्ञानवर्धक होने वाला है.

-वाणभट्ट

सोमवार, 2 जनवरी 2023

नया साल

एक साल पहले से मुझे पता था कि ठीक एक साल बाद नया साल आने वाला है. नये साल को आना था, तो आया भी. लेकिन जैसा इस साल आया मेरे विचार से ऐसा कभी न आया होगा. दो साल तक कोरोना की दहशत में रहने के बाद, इस बार जनता ने खुल कर नये साल का जश्न मनाया. और शायद ऐसा मनाया जैसा मेरी याददाश्त में कभी न मनाया गया होगा. ऐसा लग रहा था कि अब न मनाया तो फिर ये मौका मिले न मिले. कोरोना मुहाने पर टहल रहा है. बस सरकार के मोहर लगाने की देर है, फिर चेहरा मास्क के पीछे.

पहली तारीख़ को हर साल की तरह इस बार भी ठंड अपने चरम पर थी. ऊँचे पहाड़ों पर हुयी बर्फ़बारी ने मैदानी इलाकों की गलन को बढ़ा दिया था. 31 दिसम्बर की रात तो ठंड भगाने के जितने इन्तजाम सम्भव थे, सब उपलब्ध थे. मेरा मतलब अलाव, मूँगफली, गज़क, डीजे, डांस और म्यूज़िक से था. आपने कुछ और समझा तो सही ही समझा होगा. वही तो मेन फैक्टर है हर एंजॉयमेंट के पीछे. जब भी जहाँ भी चार यार मिल जायें तो फिर नये साल का इन्तज़ार कैसा. सारे क्लब-होटल-रेस्टोरेंट रौशन हो रखे थे. नया साल एक ऐसा त्योहार है जिसमें किसी प्रकार की कोई रोक-टोक नहीं है. जिसका मन जैसे करे वैसे मनाये. बल्कि इसे त्योहार कहना भी ठीक नहीं है. ये तो मौका है आज़ादी का, लिबर्टी का. कुछ भी करो घर वालों को जस्टिफाई करने की ज़रूरत नहीं है. सब सही-गलत नये साल के जश्न के नाम.

हमारे देश की एक अच्छाई है कि हमारी अन्तरात्मा सदैव जागृत रहती है. हम लोग नैतिक रूप से कभी भी गलत नहीं करते, न ही करना चाहते हैं. गलती हो भी जाये तो गलती मानने का तो कतई कोई रिवाज़ नहीं है. तभी तो एक ही मुद्दे पर पक्ष जितनी ज़ोरदार दलील देता है, विपक्ष उतने ही दमदार तरीके से उसका विरोध करता है. कई बार तो ये शक़ होता है कि ये पक्ष-विपक्ष की नूरा-कुश्ती सिर्फ़ जनता को दिखाने के लिये है. रात को जितना जश्न मनाया जाता है, उसका हैंगओवर उतारने के लिये उसकी दोगुनी भक्ति हावी हो जाती है, अगले दिन यानि एक जनवरी को. 

उम्र के जिस पड़ाव से गुजर रहे हैं उस में नैतिकता का ठेका अपने आप आपके सर पर थोप दिया जाता है. और बच्चों के सामने आदर्श रखने के इरादे से इस मुलम्मे को हम सहर्ष ओढ़ भी लेते हैं. रात जब पड़ोस में कुछ छड़े म्यूज़िक के फुल वॉल्यूम पर नये साल की मौज कर रहे थे, तो हमको मिर्ची लगना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी. धीरे से कुछ बड़बड़ाया ही था कि कंधे से ऊपर निकल चुके बच्चे ने रिमोट बढ़ा दिया - पापा आप दूरदर्शन लगा लो. मैं जरा दोस्तों से मिल के आता हूँ. दिल्ली के पंजाबियों ने और कुछ किया हो या न किया हो लेकिन हम यूपी वालों की हिन्दी भ्रष्ट कर दी है. बच्चों को 'लीजिये' की तुलना में 'लो' बोलना ज़्यादा सुविधाजनक लगता है. मैने जाना है, आपने खाना है, टाइप की हिन्दी सुनते ही रोम-रोम सुलग जाता है. मै कुछ कह पाता उससे पहले जनाब मुझे रिमोट थमा कर निकल लिये. 

रोज की तरह मेरा सवेरा सुबह पाँच बजे हो चुका था. चूँकि मैं रोज की तरह समय से सो गया था, तो मेरा सवेरा तो जल्दी होना ही था. कड़कड़ाती ठंड में टहलने सिर्फ़ इस लिये निकल गया कि साल के पहले दिन की शुरुआत हेल्दी होनी चाहिये. सात बजे तक जब लौट के आया तो घर में जागृत अवस्था के कोई लक्षण नहीं थे. पता नहीं माँ-बेटी-बेटा रात में कब सोये. बहरहाल घर में घुसते ही सबको खड़खड़ा दिया. आज पहली तारीख़ है सब जल्दी से नहा-धो कर तैयार हो जाओ मंदिर चलेंगे. जैसी उम्मीद थी रिस्पॉन्स बहुत ठंडा सा मिला लेकिन कभी कभी मैं याद दिलाने की कोशिश करता रहता हूँ कि बाप मै ही हूँ. 

फिर भी ब्रंच करते-करते ढाई-तीन तो बज ही गये थे. इस बार सन्डे होने के कारण घर वालों ने मेरी लम्बी पूजा-ध्यान का भरपूर ख्याल रखा. सब तैयार हो गये थे. निर्णय ये हुआ कि घर से दूर शहर के बाहर हाइवे से कुछ हट के एक मन्दिर है, वही चलते हैं. वहाँ अब तक जाना नहीं हो पाया था. 25-30 किलोमीटर की दूरी तय करके शहर की भीड़-भाड़ से जूझते हुये घण्टे-सवा घण्टे में जब हम हाइवे के उस मोड़ तक पहुँचे जहाँ से मन्दिर के लिये मोड़ था. दृश्य हमारी कल्पना से परे था. कारों की जितनी लम्बी कतार उस सड़क पर घुसने को आमादा थीं, उससे लम्बी लाइन निकलने वाली कारों की दिख रही थी. कोई सहज ही अंदाज लगा सकता था कि मन्दिर प्रांगण में पार्किंग का क्या हाल होगा. कुछ देर कार की लाइन में लगने के बाद हमने निर्णय किया कि आगे हाइवे पर एक और मन्दिर पड़ता है, वहाँ पार्किंग की दिक्कत नहीं होनी चाहिये. सो गाड़ी मेन हाइवे पर आगे बढ़ा दी. वहाँ भी हाइवे के किनारे कारों की लाइन लगी थी. और मन्दिर में भी श्रद्धालुओं की अच्छी-खासी लाइन थी. फाइनली हमने रोड से ही अनन्य श्रद्धा के साथ भगवान को प्रणाम किया और वापस घर के लिये गाड़ी मोड़ दी. 

अब तक शहर का जाम अपने पूरे शबाब पर था. सभी लोग अपनी-अपनी तरह से नये साल के पहले दिन को सेलिब्रेट करने निकले थे. जाम से बचने के लिए किन-किन गलियों और रास्तों से हमें गुजरना पड़ा, राम जाने.  चार घण्टे और अस्सी किलोमीटर की ड्राइव करके हम अपने घर के पास वाले मन्दिर में बाबा के सामने खड़े थे. भीड़ यहाँ भी रोज की अपेक्षा कुछ ज़्यादा थी. लेकिन दर्शन के लिये धक्का-मुक्की नहीं थी. 

-वाणभट्ट 


शनिवार, 5 नवंबर 2022

 बिजुरिया

अभी-अभी प्रकाशोत्सव का पर्व गुजरा है। पूरा का पूरा देश, प्रदेश, जिला, गली-मोहल्ला सब जगमगा रहा था। बड़ी-बड़ी लाइटें लगी थीं और छोटी-छोटी चीनी झालरों ने हर घर को रौशन कर दिया था। दिये भी जले थे, लेकिन शगुन के। जब झालर पर ख़र्च कर रहे हैं तो दिये की आवश्यकता सिर्फ़ पूजा के लिये ही बचती है। दिवाली है तो दिया तो जलेगा ही लेकिन मेरी दिवाली तुम्हारी दिवाली से ज्यादा रोशन तो तब ही होगी जब अमावस की रात भी कनफ्यूज हो जाये कि सूरज किस घर से उगने वाला है। 

सबने प्रकाश के गीत गाये। अँधेरे का मातम मनाया। लक्ष्मी जी की पूजा की और राम जी को भूल गये। दीपावली पर दीप गायब थे, लेकिन रोशनी थी और बम-पटाकों का शोर भी था। लक्ष्मी जी को पाने के लिये श्रम करना पड़ता है। बहुत से ऐसे तरीक़े हैं, जहाँ भाग्य ने साथ दे दिया तो वारे-न्यारे हो जाते हैं। इसीलिये भाग्यवादी लोग दीपावली पर लक्ष्मी जी को जगाने के लिये द्यूत-क्रीड़ा का प्रयोग भी करते हैं। कितने का बोर्ड और कौन सा पत्ता, इसके लिये भी रोशनी की दरकार होती है। पूरे प्रकाश पर्व में जो सबसे गौण विषय रह जाता है, वो है बिजली की उपलब्धता। यदि किन्हीं कारणों से कोई फॉल्ट हो गया और, बिजली चली गयी, तो दिये और मोमबत्ती इतने तो होते नहीं कि आकाश में झिलमिलाते तारों से कम्पटीशन कर सकें। तब सबको ख़्याल आता है बिजली का। और लानत-मलानत भेजने लगते हैं बिजली विभाग पर कि बहुसंख्यकों के त्योहार पर ही इन्हें बिजली काटनी होती है। इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ, कम से कम हमारे इलाके में।

इन्सान की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वो वस्तु या व्यक्ति का मूल्य तब तक नहीं समझता जब तक उसे खो नहीं देता। बिजली के साथ भी यही बात लागू होती है। जब तक रहती है, किसी को पता ही नहीं होता। जब लोग बाग सराउंड साउंड सिस्टम पर 80 इंच का टीवी देखते हैं, तो अनायास सीना 56 इंच फूल जाता है। टीवी तो इन्वर्टर से चल भी जाये लेकिन एसी-फ़्रिज के लिये जेनरेटर की ज़रूरत पड़ जाती है। इन्वर्टर और जेनरेटर भी बिजली ही देते हैं। लोग बिजली से चलने वाले तमाम यन्त्रों के पीछे तो भागते हैं लेकिन जो उन सबको चलाता है, उसके प्रति संवेदनशील नहीं होते। बिजली बचाना, बिजली उत्पादन से कम श्रेयस्कर नहीं है। बिजली बना नहीं सकते तो कम से कम बिजली बचा ही लीजिये। 

जिस तरह किसी यूज़र का ध्यान बिजली की ओर तभी जाता है जब वो नहीं आती। या कोई अप्लायंस काम करना बन्द कर देता है। जिन लोगों ने प्रशासन, वित्त और लेखा में बड़े-बड़े काम और नाम कमा रखे हैं, उन्हें कतिपय ही ये आभास होगा कि वो लोग अपना काम कुशलता से कर सकें, इसके लिये कोई न कोई सर्विस यूनिट वाला लगा रहता है। जिनके ऊपर रौब गाँठने का कोई मौका छोड़ा नहीं जाता। ये जो कम्प्यूटर और इंटरनेट के उपयोग से जो ज्ञान का अंतर्जाल बुना जा रहा है, उसके पीछे भी बिजली की सुनिश्चित उपलब्धता का योगदान है। बिजली और बिल्डिंग का वही रिश्ता है जो आत्मा का शरीर से होता है। लोग भी आजकल शरीर के रंग-रोगन पर ज्यादा ध्यान देते हैं, आत्मा के विकास पर नहीं। आज के युग में बिजली का वही हाल है जैसा रहीम दास जी के समय में पानी का हुआ करता था - 

रहिमन बिजली पाइये, बिन बिजली सब सून।

गीज़र बिन ना कटे दिसम्बर, न एसी बिन जून।।

ये नेता, अभिनेता, कलाकार, पत्रकार, बैंकर, डॉक्टर, ड्राइवर, लेखक, कुक, वैज्ञानिक या कोई भी, जो कुछ कर पा रहे हैं, उसके पीछे कहीं न कहीं किसी सर्विस देने वाले का कंट्रीब्यूशन जरूर होता है। ये काम अधिकतर इंजीनियर्स या टेक्निशियंस द्वारा संपादित किया जाता है। अपने चारों ओर नज़र घुमाइये जितनी भी चीजें आपको दिखायी दे रही हैं, उसे किसी न किसी तकनीकी व्यक्ति ने बनाया होगा। जब कोई पत्रकार पूरी बदतमीज़ी से बोलता है कि पुल के निर्माण में भ्रष्टाचार हुआ, तब वो भूल जाता है कि लोग फाइलों पर ही भ्रष्टाचार कर जाते हैं बिना कुछ डिलीवर किये। अक्सर ये वो लोग होते हैं जो अपने हाथ से एक पेंच भी नहीं कस सकते। जीके और इतिहास पढ़ के जो लोग केबीसी लायक होते हैं, वही लोग  प्रशासनिक शक्तियों के दुरुपयोग की सारी सीमायें लाँघ जाते हैं। कहीं भी, कोई भी यंत्र या व्यवस्था अगर सुचारू रूप से चल रही हो, तो कोई तकनीकी व्यक्ति उसका रख-रखाव कर रहा होगा। नौ मन तेल होता है तभी राधायें नाचती हैं। ये बात राधाओं को समझ नहीं आती। ऐसा नहीं है कि उनकी प्रतिभायें काबिल-ए-तारीफ़ नहीं हैं। किन्तु स्टेज पर लाइट-साउंड उनकी प्रस्तुति पर चार चाँद लगा देता है। तालियाँ तो उसी को मिलती हैं या मिलनी चाहिये जिसने मंच पर प्रस्तुतिकरण किया है। लेकिन तकनीकी सहयोग को भी ड्यू सम्मान मिलना चाहिये। लोग बाग डॉक्टर और वकील के आगे तो बेबस-लाचार से दिखते हैं, लेकिन इंजीनियर को देख के चौड़े हो जाते हैं। सब लोग सर्विस सेक्टर के लोगों को सेवक ही मान लेते हैं। एक मिनट के लिये नेटवर्क चला जाता है, तो इंटरनेट जीवी त्राहिमाम-त्राहिमाम कर उठता है। यदि किसी दिन इंजीनियरों ने सेवा को रोका तो अनर्थ हो सकता है। निश्चय ही उनका काम सेवा देना है, किन्तु दो शब्द धन्यवाद या सम्वेदना के सुनना उनके हौसले को बढ़ाता है।

हमारे वरिष्ठ सहयोगी पाल साहब को दीपावली के तुरन्त बाद सेवा निवृत्त होना था, सो हो भी गये। वो चूँकि बिजली विभाग के प्रमुख थे और सीनियर मोस्ट थे, तो उनके रिटायरमेंट से एक निर्वात का होना अवश्यम्भावी है। कुर्सियाँ कभी खाली नहीं रहतीं। अगले व्यक्ति को चार्ज मिलना ही था लेकिन पाल साहब की कर्मठता और कार्य के प्रति समर्पण निश्चय ही अन्य लोगों को प्रेरित करेगा। पाल साहब ने संस्थान में बिजली व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये कभी घर-परिवार की परवाह नहीं की। दिन-रात एक किये रहते। रात दो बजे लाइट गयी नहीं कि उनका फ़ोन कोई न कोई घनघना ही देता था। इसके बाद उनका काम शुरू हो जाता था और तभी खत्म होता, जब तक बिजली न आ जाये। आवश्यक विभागों को जेनरेटर की सप्लाई देते रहना भी उनकी आवश्यक सेवा का हिस्सा था। जब कोरोना ने दस्तक दी तो पूरा देश हाइबरनेशन मोड में चला गया। लेकिन एसेंशियल सर्विसेज़ बदस्तूर जारी रहीं। इलेक्ट्रिकल इंचार्ज होने के नाते पाल साहब ने ड्यूटी में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती। अगर अफ़सर अपनी ड्यूटी कर रहे हैं तो उन्हें एसी, कम्प्यूटर, नेट सब चलता हुआ चाहिये। चूँकि उन दिनों कोई किसी से मिलता-जुलता तो था नहीं, सब अपने-अपने कमरे से कार्य निष्पादित करने अपनी सुविधानुसार आते और जाते। लेकिन बिजली तो सबको चाहिये, आने और जाने के बीच। इस प्रकार पाल साहब और उनके सहयोगियों की ड्यूटी लगभग पूरे दिन की हो जाती। कोरोना पीरियड में जिसने भी ड्यूटी की, उसे कोरोना वारियर की संज्ञा से नवाज़ा गया। लेकिन क्या मजाल कि किसी का ध्यान बिजली की तरफ़ गया हो।

तीस से अधिक सालों से सेवा करते-करते कहीं से उन्हें ये लगने लगा कि आवश्यक सेवा में उनके योगदान को यथोचित मान्यता मिलेगी। वो कुछ दादा साहब फाल्के टाइप के वन्स इन लाइफ़ टाइम पुरस्कार से पुरस्कृत होंगे। उनके साथ जॉइन किये अन्य नॉन-टेक्निकल टाइप के टेक्निकल्स को संस्थान के बेस्ट वर्कर का आवर्ड मिल चुका था। फार्म इंचार्ज, सिक्योरिटी इंचार्ज, गेस्ट हाउस इंचार्ज और न जाने कितने प्रकार के इंचार्ज इस सम्मान से सम्मानित हो चुके थे। इलेक्ट्रिकल इंचार्ज की सेवाओं को मौखिक मान्यता तो सब देते रहे लेकिन वो अवार्ड में परिवर्तित नहीं हो पायी। आवश्यक सेवाओं की ये विडम्बना है कि सबको ख़ुश नहीं कर सकते। पाल साहब को बुरा तो ज़रूर लगा होगा लेकिन उन्होंने उसका ज़िक्र अपने रिटायरमेन्ट भाषण में करना उचित नहीं समझा। 

पानी और हवा की तरह बिजली भी वर्तमान समय की एक आवश्यकता बन चुकी है। बिजली के बिना हमारे सारे संसाधन व्यर्थ प्रतीत होते हैं। नॉन-टेक्निकल लोग टेक्निकल लोगों द्वारा आवश्यक सेवायें मुहैया कराये जाने को अधिकार की तरह माँगते हैं लेकिन उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। लेखकों और शायरों ने भी कभी इंजीनियर्स के योगदान पर कुछ भी लिखने से परहेज किया है। विदाई समारोह के लिये इंटरनेट पर उपलब्ध सारा साहित्य पलट मारा (पहले की तरह अब लाइब्रेरी की अवधारणा बदल गयी है)। लेकिन क्या मजाल कि बिजली पर कोई शेर या बकरी मिल जाये। कहते हैं जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। लेकिन मूर्धन्य से मूर्धन्य साहित्यकार वहाँ तक नहीं पहुँच सके, जहाँ से आधुनिक चिराग़ (बल्ब) रौशन हैं। कुछ नये लोगों ने प्रयास किया लेकिन उनकी बिजुरिया में साहित्यिक एंगल तो हो सकता है लेकिन टेक्निकल नहीं। नतीजन 'वाणभट्ट' को लेखनी उठानी पड़ गयी। 

बिजली है तो जीने के सारे सबब हैं,

ये एसी, ये ट्यूबलाइट, ये पंखे, ये टीवी, ये फ़्रिज हैं।

इक रूह सी है जो चलाये रखती है

वरना हम क्या हैं ज़नाब, एक बलब फ़्यूज़ हैं।।

-वाणभट्ट

साज़िश पियर रिव्यू मीटिंग होनी थी आज। सुबह-सुबह नहाने धोने से पहले जूता पॉलिश से चमका कर रख दिया। मीटिंग फॉर्मल थी। रैगिंग के दौरान सीनियर्स ...