महान लोगों का देश
पैदा होने के कुछ ही वर्षों में, जब मै होश सम्हाल रहा था, तभी मुझे ये एहसास हो गया था कि मै किसी महान देश में अवतरित हो गया हूँ। घर के अंदर पुरखों की फ़ोटो घरेलू मंदिर में भगवान के ऊपर शोभायमान हुआ करतीं थीं। स्कूल पहुंचा तो स्कूल का नाम ही महापुरुष के नाम पर रक्खा हुआ था। प्रधानाचार्य के कमरे से ले कर क्लासरूम तक हर कमरे में महापुरुष विद्यमान थे। लाइब्रेरी की सारी दीवार महापुरुषों की फोटोज़ से भरी हुई थी। सबके दैदीप्यमान चेहरे छात्रों को आकृष्ट किये बिना न रहते। सडकों के नाम महापुरुषों पर और हर चौराहे पर किसी महापुरुष की मूर्ति।इस बात में कतई शक़ नहीं की भारत भूमि ने अनेकों महापुरुष पैदा किये हैं। जिनके बारे में पढ़ कर हम उन पर और खुद पर गर्व किये बिना नहीं रह सकते। ये बात अलग है कि उनके विचारों और कृत्यों को अपने जीवन में उतारना सदैव कठिन रहा है इसलिए हम सिर्फ फ़ोटो और मूर्ति लगा कर महान लोगों को श्रद्धांजलि दे लेते हैं। उनके ऋण से उऋण होने का शायद ये ही सबसे आसान तरीका है।
घर के पास चौराहे पर एक महापुरुष की प्रतिमा स्थापित थी। एक बार गर्मी की छुट्टियों में पिता जी के साथ प्रातःकाल टहलने निकला तो पिता जी ने एक प्रश्न किया कि यदि ये मूर्ति जीवित हो जाये तो सबसे पहले क्या करेगी। हम भला क्या बताते। उत्तर भी उन्होंने ही दिया सबसे पहले अपने सर से चिड़िया की बीट साफ़ करेगी। यानि मूर्तियों को स्थापित तो कर दिया पर उनका रख-रखाव भगवान भरोसे ही था अर्थात उन मूर्तियों को सफाई के लिए बरसात का इंतज़ार रहता। कुछ मूर्तियां जो रूलिंग पार्टी की हुआ करतीं, वो महापुरुष के जन्म और मरण दिवस पर अवश्य धुल जातीं पर सरकार बदल जाए तो उनका भी वही हश्र हुआ करता जो अन्य मूर्तियों का होता था। कुछ महान लोग सत्ता से परे थे। शिक्षा, साहित्य, कला या लोकल कार्यकर्त्ता अपनी मूर्तियों की दुर्गति अगर खुद देख लेते तो बहुत सम्भव है महान बनने से इंकार कर देते। कहते भाई जीवन भर तो हम देश-समाज सेवा के चक्कर में अभावों में जिये अब मरने के बाद तो हमें बक्श दो।
कालांतर में हमें बड़े होना लिखा था सो बड़े हुए भी। लगभग पचास बसंत पूरे होने को हैं। इस अवधि में बहुत लोगों को महान बनते देखा और बहुत लोगों को महान बनाते देखा। प्रजातंत्र में प्रजा ये निर्णय लेती है कि कौन सरकार बनाये और सरकार ये निर्णय लेती है कि वो किसे-किसे महान घोषित करे। इस प्रकार अंततोगत्वा ये मान लिया जाता है कि प्रजा इन्हें महान मानती रही है सरकार तो बस माध्यम मात्र है। पता नहीं विदेशों में महानता आइडेंटिफाई करने के क्या मानक हैं। हाल ही में अमेरिका में संगीतकार श्री ए. आर. रहमान के नाम पर किसी सड़क का नामकरण हुआ है। बाहर देशों में गांधी, टैगोर, लता और रविशंकर जी को भी सम्मान मिला है। ये भारत की वैश्विक पहचान बन गए हैं। यहाँ तो एक ग्रुप किसी को आइडेंटिफाई करता है तो दूसरा ग्रुप भी अपना एक महापुरुष खोज लाता है। कहता है कि एक आपका तो एक हमारा भी। अगर पावरफुल ग्रुप ने दूसरे ग्रुप का कुछ कर्जा खा रक्खा है तो मामला सेटेल वर्ना दूसरे ग्रुप को अपने पावर में आने तक इंतज़ार करना पड़ सकता है।
जो भी सत्ता में आया उसके सभी पुरखे महान हो गए। विश्व बंधुत्व का सन्देश देने वाला देश शुरूआत अपने परिवार से ही करता है। इस मामले में वो अंग्रेजी कहावत 'चैरिटी बिगिन्स ऐट होम' को अपना ब्रम्हवाक्य मान लेता है। ये तो गनीमत है कि भाई-चारे वाले इस देश और इस देश के प्रदेशों में कुछ गिने-चुने परिवारों का ही राज रहा है। इसलिए महान लोगों की संख्या भी सीमित रह गयी। भला हो जनता का जो उन्हीं लोगों को बार-बार चुनती रही वरना महानता की फेहरिश्त कहाँ रुकती कहना मुश्किल है। हर साल सत्ता पक्ष कुछ महान लोगों को चिन्हित करता है तुरंत प्रतिपक्ष वाले कुछ और नाम उछाल देते हैं। सीधा सवाल होता है कि अगर आप अपने वाले को महान समझते हैं तो हमारे वाले महानता में किससे कम हैं। अभी एक निर्विवाद रूप से महान व्यक्ति को देश ने सम्मान दिया। पर विवाद करने वालों का क्या वो तो इसी ताक में रहते हैं उन्होंने कहना शुरू कर दिया इनसे पहले इन्हें अवार्ड दिया जाना चाहिए था।
जिन लोगों ने देश, प्रदेश, जनता के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में कुछ किया उनका महान हो जाना वाकई गौरव की बात है। पर जो लोग सिर्फ इसलिए महान हो गए कि उनके पोते या पर-पोते पावर में आ गए तो अफ़सोस होता है। परन्तु मै इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। कल का क्या पता। हमारे भी पोते या पर-पोते या उनके बच्चे कभी पावर में आ जाएं तो मेरे नाम पर एक सड़क, एक मोहल्ला या एक शहर बन जाए और महान ब्लॉगर वाणभट्ट भी अमर हो जाए। पर मै अपनी वसीहत में लिख जाउंगा कि अगर किसी चौराहे पर मेरी मूर्ति लगवाना तो मूर्ति नॉन-स्टिक मटेरियल की होनी चाहिए ताकि चिड़िया की बीट न चिपके।
- वाणभट्ट