यूँ होता तो क्या होता
हुयी मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता
ये शेर ग़ालिब के लिखे उन शेरों में से है जिसे समझने के लिये फ़ारसी जानना जरूरी नहीं है. अगर आप ने ग़ालिब को पढ़ा हो तो यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि बादशाहों के ज़माने में भी बन्दा बेख़ौफ़ बोलता-लिखता था. बेख़ौफ़ था तभी शायद वो इतना बेहतरीन लिख सका कि आज तक के कवि और शायर उनका नाम इज्ज़त से लिया करते हैं. क्रियेटिव कामों के लिये एक अलग प्रकार के इको सिस्टम का निर्माण करना होता है - वेयर माइंड इज़ विदाउट फ़ियर एंड हेड इज़ हेल्ड हाई.
आज़ादी के बाद से ही बुजुर्गों को अपने भविष्य यानि बेटे-बेटियों, नाती-पोतों के लक्षण अच्छे नहीं लग रहे थे. अगली पीढ़ी सभी को निकम्मी और नाकारा लगती है. लेकिन दुनिया हमेशा आगे ही गयी है तो इसका पूरा श्रेय नयी पीढ़ी की नयी सोच और नये दृष्टिकोण को जाना चाहिये. लेकिन बुजुर्गों का क्या, ये स्वेच्छा से नये लोगों को रास्ता नहीं देते. इसी बात के चलते न जाने कितने ही प्रगतिशील और नवोन्मेषी विचारों ने धरा पर उतरने से पहले ही दम तोड़ दिया. ज्ञान-विज्ञान-तकनीक में अपने से आगे देख कर हर पीढ़ी अपने से अगली पीढ़ी को एरोगेंट और संस्कारहीन सिद्ध करने में लग जाती है. आपके जमाने में टीवी-फ़्रिज-कार और सुख-सुविधाओं का इतना बड़ा ज़खीरा तो था नहीं. तो आपके सपने भी लिमिटेड हुआ करते थे. जब आप के ज़माने में वैन हियुज़न के कपडे मिलते ही नहीं थे तो आपको अन्सारी टेलर से काम चलाना ही था. अन्सारी साहब भी मितव्ययिता की मिसाल हुआ करते थे. पापा की ही शर्ट में बच्चों की भी लेंथ नाप के बता देते थे. दसवीं तक तो मै ये ही समझता रहा कि कुम्भ मेले में हम बिछड़ न जायें इसलिये पापा अपनी, मेरे बड़े भाई और मेरी शर्ट एक ही थान से कटवाते हैं. पता तब चला जब भाई साहब ने विद्रोह कर दिया कि मै अपनी शर्ट का कपडा ख़ुद सेलेक्ट करूँगा.
ग़ालिब स्वान्तः सुखाय के लिये लिखा करते थे. उनके ज़माने में यदि डिबरी में मिटटी का तेल हो और वो रात में भी शायरी लिख सकें, यही लग्ज़री हुआ करती थी. यहीं से शायद मिडनाइट ऑयल जलाने वाला मुहावरा निकला हो. ग़ालिब साहब खुशकिस्मत थे कि उनके लेखन का अधिकतर समय स्वयं शेर-ओ-शायरी करने वाले बादशाह बहादुर शाह ज़फर के कार्यकाल में बीता. जिन्होंने उनके इल्म को निखारने के लिये अनेक प्रोत्साहन दिये. फ़ाकाकशी की नौबत आयी होती तो शायद उनको भी दर्द भरी शायरी से रूबरू होना पड़ता. उनकी रचनाओं में एक बेलौस सा अक्खड़पना झलकता है. हमें जो कहना है कहेंगे, तुमको सुनना हो तो सुनो. चूँकि उनके अधिकतर शेर और ग़ज़ल फ़ारसी ज़ुबान में हुआ करती थी, तो भला कौन हिमाकत करता कि बात में वज़न नहीं है. नहीं तो उसकी अपनी जाहिलियत प्रदर्शित हो जाती. बहुत से अच्छे-अच्छे शायरों की शायरी पर हमें भी वाह-वाह सिर्फ़ इसलिये करनी पड़ जाती है कि कोई मेरे मज़ाक-ए-शेरफ़हमी (शेर समझने की सलाहियत) का मज़ाक न उडाये. साथियों पर रौब गाँठने की गरज से दीवान-ए-ग़ालिब खरीद लाया था. उसमें से कुछ वही शेर पल्ले पड़े जो आसान थे और गुलज़ार-नसीरुद्दीन-जगजीत के ग़ालिब पर बेस्ड सीरियल में सुनने को मिले थे. तब समझ आया कि वाणभट्ट के उम्दा से उम्दा शेर को दाद क्यों नहीं मिलती. दरअसल वाणभट्ट की शायरी लोगों को समझ में आ जाती है इसलिये कोई दाद देने की जरूरत नहीं समझता.
एक नया ट्रेंड चल गया है. बहुत से नये-नये शायर ग़ालिब के नाम से अपने शेर सोशल मिडिया पर चेप रहे हैं. चूँकि दीवान मेरी नज़रों के सामने से गुजरा है, सो मै फट से बता सकता हूँ कि ये ग़ालिब का है या नहीं. अगर शेर समझ आ गया तो पक्का है कि ग़ालिब का तो हो ही नहीं सकता. ऐसे ही मै चचा ग़ालिब के भतीजे गुलज़ार साहब के शेर पकड़ने में माहिर हूँ. अगर शब्दों कोई मतलब निकल रहा है तो शर्तिया ये गीत या ग़ज़ल गुलज़ार साहब की नहीं हो सकती. चूँकि ग़ालिब साहब का भूख-दर्द-विरह टाइप के मानवीय मूल्यों से पाला नहीं पड़ा था, इसलिये उनकी लेखनी बिन्दास थी. जब बादशाह और उनके शहज़ादे ख़ुद फ़ारसी सीखने के चक्कर में ग़ालिब की शागिर्दी किया करते थे, तो भला उन्हें क्या गरज़ थी कि बादशाह सलामत की ख़ुशामद करें. कहने का अभिप्राय ये है कि ग़ालिब को पूरी छूट थी कि किसी को कुछ भी राय दे सकते थे - 'कि यूँ होता तो क्या होता-कैसा होता'. दरबार में उनका अलग मुक़ाम था. उनकी कौन सी नौकरी थी कि हाँ में हाँ मिलाने की मज़बूरी होती.
मेरे एक सीनियर ट्रैक्टर कम्पनी में मार्केटिंग का इंटरव्यू दे कर लौटे तो जूनियर्स उनसे ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा से उनके पास चले गये. उन्होंने बताया कि इंटरव्यू लेने वाले मैनेजर्स ने चार साल की पढ़ाई-लिखाई बारे में थोडा बहुत ही पूछा. फिर बोले कि भाई ट्रैक्टर तो बाद में बेचना, पहले ख़ुद को बेच कर दिखाओ. हम तुम्हें क्यों हायर करें. फिर क्या सीनियर ने अपनी शान के कसीदे काढ़ने में सारे घोड़े खोल दिये और नौकरी हासिल कर के ही लौटे. उस दिन एहसास हुआ कि कोई सामान बेचना आसान हो सकता है लेकिन ख़ुद को बेच पाना आसान न होगा. इस तरह मार्केटिंग में जॉब करने का मेरा इरादा खत्म सा हो गया. कुछ ग़ालिब टाइप की अपनी भी फ़ितरत हुआ करती थी. कभी-कभी तो लगता है कि आजादी के पहले पैदा हुये होते तो अपने ही भाई-बन्धुओं ने शहीद कर दिया होता. कौन सा अंग्रेजों को पता चलता था कि किसने क्रान्ति की मशाल जलायी है. ये तो अपने ही थे जो अपनों को निपटाने में लगे थे. ताकि उनको समय से पहले राय बहादुर की पदवी मिल जाये. सोचा अध्यापन और शोध में यूँ-क्यूँ करने की गुंजाइश हुआ करती है, इसलिये शोध के कम्पटीशन से पहले कहीं बायोडाटा नहीं भेजा.
जब आपका लक्ष्य क्लियर हो तो एग्जाम पास करना भी आसान हो जाता है. पहले प्रयास में जब शोध कार्य के लिये सेलेक्शन हो गया तो लगा सही जगह आ गये हैं. छिहत्तर लोगों के बैच की ट्रेनिंग में एक प्रोफ़ेसर ने पूछा कि आप में से कितने वैज्ञानिक बनना चाहते थे. तो तीन लोगों ने हाथ उठाया. उसमें एक हाथ मेरा भी था. बाद में पता चला कि अधिकांश ने आईएएस-पीसीएस बनने की प्रक्रिया में पीएचडी कर डाली. और उन्हें गिरती-पड़ती हालत में शोध से संतोष करना पड़ रहा है. उस समय हम भी युवा हुआ करते थे, सो नये-नये आइडियाज़ कुलाँचे मारते रहते थे. जब उन आइडियाज़ को लेकर बॉस के पास जाता तो वो बताते यदि ये हो सकता होता तो अमरीका-जापान वाले कर चुके होते. हाई-फ़ाई काम करने की तमन्ना लिये रोज-रोज नये-नये प्रोजेक्ट बनाता और बड़े भाई दो मिनट में उनको नेस्तनाबूद कर देते. बहुत दिनों टहलाने के बाद भाई साहब ने बताया कि आटा चक्की पर काम करो. तो पता चला शोध भी एक तरह की नौकरी है और इसमें यूँ और क्यूँ करने का स्कोप नहीं है. नौकरी है तो उसकी अपनी सीमायें भी होती हैं. लगभग तीस साल होने को आये इस नौकरी में. ग़ालिबी फ़ितरत का खामियाज़ा भुगतने के बाद भी फ़ितरत कम तो हुयी पर पूरी तरह गयी नहीं. लेकिन इस फ़ितरत ने हमेशा रैट रेस से दूर रखा. बहुत से नये-नये काम करा डाले लेकिन प्रमोशन के लिये आवश्यक हथकण्डों को अपनाने नहीं दिया. ज्ञान कहीं से भी मिले ले लेना चाहिये. एक दिन एक जूनियर से अन्न के भण्डारण पर बात हो रही थी कि फिल इट - शट इट - फॉरगेट इट टाइप की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये ताकि अनाज को बिना रख-रखाव के अधिक दिनों तक भण्डारित किया जा सके. जूनियर मुस्कुराया और बोला सर आप एक चीज़ भूल रहे हैं - फिल इट - शट इट - पब्लिश इट एंड देन फॉरगेट इट.
अब हमारा काम कोई चन्द्रयान या मंगलयान जैसा काम तो है नहीं कि बेसिक और अप्पलाइड शोध के सैकड़ों लोग एक साथ मिल कर काम करें. यहाँ तो हर किसी को अपना काम ख़ुद ही प्रमोट करना है और अपने काम को जस्टिफाई भी करना है. सिस्टम के बाकी लोगों का उससे कुछ लेना-देना नहीं है. सबको अपने-अपने लिये काम करना है और उसकी उपयोगिता सिद्ध करनी है. अब मार्केटिंग और शोध में ज्यादा अन्तर नहीं रह गया है. बनाने से ज़्यादा आपको बेचना आना चाहिये. अपनी शान में कसीदे काढिये और अपनी पीठ ख़ुद थपथपाईये. देर से ही सही, सीनियर की वो बात भी समझ आ रही है कि ट्रैक्टर तो कोई भी बेच लेगा, ख़ुद को कैसे बेचोगे, ये महत्वपूर्ण है.
पाठकों की सुविधा के लिये एक नॉन-ग़ालिब शेर पेश कर रहा हूँ-
ग़ालिब बुरा न मान जो कोई बुरा कहे
ऐसा भी कोई है जिसे सब भला कहे
-वाणभट्ट