क़वायद
सुबह के बमुश्किल सात बजे थे, जब दरवाज़े पर किसी ने घंटी बजायी. बालकनी से झाँक के देखा तो गेट के सामने एक सरकारी गाड़ी खड़ी और सादी वर्दी में उससे उतरे कुछ लोग खड़े थे. उनके चेहरे से रुआब टपका पड़ रहा था. मुझे लगा आज ईडी ने रेड डाल ही दी. ख़ुशी भी हुयी कि मोहल्ले वाले जो मुझे किसी लायक नहीं समझते थे, उन्हें जलाने के लिये इस रेड का पड़ना आवश्यक था. नीचे आते-आते मै ये ही सोचता रहा कि कहीं समाज कल्याण में काम करने वाले मेरे पडोसी की जगह गलती से मेरी घंटी तो नहीं बजा दी. मेरे घर क्या पूरे खानदान की रेड डाल दो तो भी क्या मिलेगा. गेट पर पहुँचा तो चपरासीनुमा अधिकारी ने कुछ धमकी भरे अन्दाज़ में कहा - गेट खोलो हमारे पास तुम्हारे घर का सर्च वारेन्ट. मैंने कहा - भाई साहब आपको ग़लतफ़हमी हुयी होगी मै तो अदना सा वैज्ञानिक टाइप का निरीह प्राणी हूँ. लेकिन उसके चेहरे पर व्याप्त भाव से ऐसा लग रहा था मानो किसी माफ़िया के घर रेड डालने आया है. उसने वारेंट का कागज़ दिखाया. नाम और पता मेरा और मेरे घर का ही था. उसने बताया हम कोडेक्स अल्मेंटेरियस से आये हैं. खबर मिली है कि आपके किचन में हाइजीन का बिल्कुल ख्याल नहीं रखा जाता. आपके यहाँ का खाना खाने से आपके बच्चे, रिश्तेदार और दोस्त बीमार पड़ सकते हैं. आपके ही किसी दोस्त ने शिकायत दर्ज़ करायी है कि आपने हफ़्ता पुरानी मिठाई फ़्रिज से निकाल उन्हें सर्व कर दी. एक हफ़्ते से दिन में दस बार उठने-बैठने के कारण पैरों की मसल्स रप्चर हो गयीं हैं. डीहाईड्रेशन की दिक्क़त और डॉक्टरी खर्च अलग से. जब से बीवी-बच्चे हेल्थ कॉन्शस हुये हैं, घर में मिठाई का उपभोग कम हो गया है. लेकिन घर में मिठाई सिर्फ इस उदेश्य से रखी जाती है कि कहीं कोई मेहमान आ गया तो क्या सोचेगा. कई बार तो महीनों तक मेहमान नहीं आते तो उस मिठाई को मुझे ही खा के ख़त्म करना पड़ता है. बीवी-बच्चों का क्या सब के सब लाट साहब बने घूम रहे हैं. मेरी भी कोशिश होती है कि फंगस लगने के पहले खा लिया जाये, उसके बाद खाने में मिठाई थोड़ी खट्टी हो जाती है. आख़िर इसमें मेरे गाढे खून-पसीने की कमाई लगी है. उसे कचरे के ग्रीन डिब्बे में फेंकने से अपने ही दिल में दर्द होता है.
सहअस्तित्व में विश्वास वाले देश में मेरे घर के किचन के हालात भी वैसे ही थे जैसे शहर के. जहाँ छुट्टा सांड और कुत्ते सड़क पर चलना मुहाल किये हुये हैं, वहीं हमारे किचन में कॉकरोच और चूहों का वास हुआ करता है. छिपकली और मकड़ी का गाहे-बगाहे दिख जाना हमारे लिये सामान्य सी बात है. ये ड्रम-कनस्तर में भले न घुस पाते हों लेकिन किचन का टांड और डाइनिंग टेबल इनकी पसंदीदा सैरगाह हुआ करती है. वैसे तो ये प्राणी इतने समझदार हैं कि जब हम लोग सोने चले जाते हैं, तभी ये आबो-हवा बदलने के उद्देश्य से बाहर निकलते हैं. लेकिन यदि दिन ख़राब हुआ तो कहीं ये टीम के सामने ही हुला-हूप की प्रैक्टिस न शुरू कर दें. मुझे लगा किसी भी तरह इस टीम को किचन तक पहुँचने से रोकना होगा, नहीं तो लम्बी पेनाल्टी लगेगी. मैंने बताया कि आप जिनकी बात कर रहे हैं उनका हाजमा हमेशा खराब रहता है. वही मिठाई मैंने भी तो खायी थी, उन्हीं के साथ. मुझे तो कुछ नहीं हुआ. उनसे मैंने कई बार कहा कि शंकर जमादार के यहाँ जा के नस बैठवा लो, तुम्हारा पेट उखड गया है लेकिन भलाई का तो ज़माना ही नहीं रह गया है. उसने मेरी ही कम्प्लेंट लिखा दी. कल ही ताज़ी मिठाई आई है आप लोग बैठिये चाय-पानी पीजिये. कोई सेवा हो तो बताइये. इस पर चपरासीनुमा अफ़सर का चेहरा और कड़क हो गया. पूरी टीम जबरदस्ती मेरे किचन में घुस गयी. एक-एक डिब्बा, एक-एक कनस्तर पलट डाला. सबसे बुरा मुझे तब लगा जब उन्होंने बेचारे कॉकरोचों और चूहों की अलसुबह की नींद ख़राब कर दी. टीम को कितनी बद्दुआयें मिली होंगी गिनना संभव नहीं था. उन्होंने एक लम्बी सी चार्ज शीट बीवी के हाथों में पकड़ा दी और मुझे हथकड़ी पहना कर मेरे लाख विरोध करने के बाद भी धक्का मारते हुये गाड़ी में बैठा लिया. भयानक सपने ऐसे ही टूटते हैं. आँख खुली तो बेतरतीब हुयी चादर मेरे स्ट्रगल को बयान कर रही थी.
मेरा डर लाज़मी था. कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली में एक अंतर्राष्ट्रीय और विश्वस्तरीय सम्मेलन में भाग लेने का मौका मिला. दुनिया भर के विकसित और विकासशील देशों के खाद्य और औषधि प्रशासकों का जमावड़ा था एक छत के नीचे. उनका उदेश्य बहुत ही साफ़ था कि हाइजेनिक खाद्य पदार्थ पर सबका हक़ है और उसे उपलब्ध कराना उनकी ज़िम्मेदारी. दुनिया एक ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गयी है इसलिये बड़े-बड़े विकसित देशों के लिये विकासशील देशों की आम और ख़ास जनता के स्वास्थ्य का ख्याल रखना ज़रूरी हो जाता है. विकसित देशों के लिये विकासशील देशों की खाद्य सामग्री का ध्यान रखना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि बहुत सा कच्चा माल तो इन्हीं देशों से जाता है. वो चाहते हैं कि यदि आप ठेकुआ-अनरसा-बेडही भी बनायें तो विश्वस्तरीय मानदंडों के अनुरूप. इसके लिये केवल घरेलू या भारतीय मानकों से काम नहीं चलने वाला. इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट आज की आवश्यकता बन चुके हैं इसलिये सभी देशों को एक मंच पर आना चाहिये और एक ऐसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिये कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन करके बीमार पड़ने का डर न लगे. लेकिन सिर्फ मानक बना देने से काम नहीं चलने वाला इसे इम्प्लीमेन्ट करवाना लोकल प्रशासन की जिम्मेदारी होगी. विकसित देशों का तो पता नहीं पर विकासशील देशों की आम जनता प्रशासन से उचित और सुरक्षित दूरी बना कर के रहने में ही अपनी भलाई समझती है. खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में कार्य करने के कारण मेरी दिलचस्पी पैकेट पर लिखी हर एक इबारत पर रहती है. इतना तो मै दावे के साथ कह सकता हूँ कि अपनी पैकेजिंग तो विश्वस्तरीय हो ही गयी है. अन्दर खाद्य पदार्थ की गारेंटी लेने के लिये कुछ एक्रेडिटेड लैब्स हैं, जिन्होंने यदि सर्टिफिकेट दे दिया तो आप उत्पाद पर आँख मूँद कर भरोसा कर सकते हैं. उसके बाद भी यदि आप बीमार पड़े तो ये आपके पाचन तन्त्र की गड़बड़ी मानी जायेगी. पहले मै लोगों को फ़ूड इंडस्ट्री लगाने की सलाह दिया करता था, अब सजेस्ट करता हूँ कि भाई जितने में इंडस्ट्री लगायेगा उससे कम पैसे में एक लैब स्थापित कर ले फिर उसका एक्रेडिशन करा ले. जैसे पैथोलॉजी लैब्स में भीड़ लगी रहती है, तेरे ग्राहक भी लाइन लगाये खड़े मिलेंगे. न कुछ बनाना, न बेचना, बस फ़ायदा ही फ़ायदा. बनाने के काम में दस लफड़े हैं.
मेरे सपने में शंकर जमादार का ज़िक्र सुधी पाठकों के ध्यान में अवश्य होगा. शंकर जमादार का घर शहर के बीचों बीच बसे एक गाँव में रहता था. उसे गाँव कहना तो सही नहीं था लेकिन किसी सरकारी विभाग के खेतों के बीच कुछ जमादार परिवार पुश्तों से रहते आये हैं. जब से शहर में सीवर व्यवस्था लागू हुयी, तब से घर वालों ने साफ़-सफ़ाई का जिम्मा खुद ही उठा लिया है. एक से एक डिज़ाइनर ब्रश और भाँति-भाँति के टॉयलेट क्लीनर्स बाथरूम की शोभा बढ़ाते देखे जा सकते हैं. पाल साहब जब शंकर के घर पहुँचे तो घर का दरवाज़ा खुला हुआ था. उन्होंने दो बार आवाज़ भी लगायी लेकिन अन्दर से कोई जवाब नहीं आया. सामने की पगडंडी से एक आदमी मटमैला सा धोती-कुर्ता पहने सायकिल से आता दिखायी दिया. पीछे जानवरों के चारे के लिये कटी हुयी घास का गट्ठर बंधा हुआ था. पाल साहब को लगा हो न हो ये ही शंकर है. वो मोटर सायकिल से उतर कर उसके आने का इंतज़ार करने लगे. पास आया तो देखा कि उसकी उम्र 30-35 के अल्ले-पल्ले रही होगी. बलिष्ठ कसा हुआ शरीर उसके मेहनतकश होने का सबूत दे रहा था. उसकी देहाती वेश-भूषा और कनपटी पर सफेद होते बालों को देख कर कोई उसे पचास के उपर भी समझ सकता था. सायकिल खड़ी कर वो सामने चबूतरे पर बैठ गया.
शंकर भैया से मिलने आये हो. वो अभी कहीं बाहर गये हैं. आने में देर लग सकती है. पेट की नस उखड़ गयी है क्या. बिना झिझक उसने पूछ लिया. अंजान आदमी के सामने पाल साहब खुलना नहीं चाह रहे थे लेकिन उसने उनकी दुखती हुयी नब्ज़ को पकड़ लिया. हाँ कहने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था. अपनी इस परेशानी के लिये वो पिछले तीन महीनों से बड़े-बड़े डॉक्टरों के चक्कर लगा कर थक चुके थे. मोटी-मोटी फ़ीस देने और एंडोस्कोपी-कोलोनोस्कोपी कराने के बाद भी समस्या का निदान नहीं हो पा रहा था. तब किसी ने शंकर से मिलने की सलाह दी.
शंकर भैया होते तो वो आपकी नाभि सेट कर देते. करना तो मै भी जानता हूँ लेकिन शंकर भैया इसके एक्सपर्ट हैं. आप चाहें तो बाद में आ जाइयेगा. आप एक काम करके देख लीजिये शायद आराम मिल जाये. दोनों पैरों को जोड़ कर उन्कडू बैठ जाइये. कोशिश कीजियेगा कि घुटना भी मिला रहे. अब धीरे-धीरे करके आप खड़े हो जाइये. पाल साहब को पेट में कुछ खिंचाव सा अनुभव हुआ. लगा मांसपेशियाँ जवाब दे जायेंगी. लेकिन जब खड़े हुये तो उनके पेट में जो हर समय गुड़गुड़ाहट बनी हुयी थी, बन्द हो गयी. उसने कहा - अब जाइये ऊपर वाले ने चाहा तो आपको दुबारा आना नहीं पड़ेगा. पाल साहब ने उस आदमी के हाथ में पचास रूपये का नोट रखने का प्रयास किया. बड़े-बड़े डॉक्टरों को सात सौ से हज़ार रूपये की फ़ीस दे चुके पाल साहब को लगा उस मैली धोती वाले के लिये पचास रुपये काफ़ी होंगे. लेकिन उसने लेने से मना कर दिया - आप ठीक हो जायें यही प्रार्थना है. जब शंकर भैया कोई पैसे नहीं लेते तो हम कैसे ले सकते हैं. खपरैल की झोपड़ी में इतनी दरियादिली देख कर पाल साहब को धन्यवाद जैसा शब्द बहुत छोटा लगने लगा. कृतज्ञ आँखों से उन्होंने उस व्यक्ति को प्रणाम किया और चल दिये. इस पूरे प्रकरण को विज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो टोने-टोटके से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा. लेकिन ये भी सच है कि पाल साहब को दुबारा उधर जाने की जरूरत नहीं पड़ी.
ऐसा ही तजुर्बा तब हुआ जब एक आईआईटी पास बाबा, जैसा मुझे बताया गया था, के यहाँ जाने का अवसर मिला. वो भी बीच शहर में एक गैरेज में बैठा करते थे. उनके आस-पास सीखने की इच्छा लिये कुछ चेले बैठे रहते थे. जगह बहुत गन्दी थी और हाईजीन का तो नामो-निशान तक न था. कोई सम्भ्रान्त व्यक्ति वहाँ न जाना चाहे न बैठना. लेकिन बाहर एसयूवीज़ खड़ी थीं, गाड़ियों की लाइनें लगी थीं. भेजने वाले ने पहले ही बता रखा था ज़्यादा ज्ञानी बनने की कोशिश नहीं करना वरना बाबा क्लास ले लेंगे. यथासम्भव हिन्दी बोलने के प्रयास के बाद भी कुछ अँग्रेजी शब्द आ ही गये. बाबा ने गियर शिफ़्ट किया और अँग्रेजी मोड में आ गये. उन्होंने अपनी चिकित्सा पद्यति के बारे में विस्तार से समझाया. यदि व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार भोजन करे तो बहुत सी बीमारियों से बच सकता है. वो सिर्फ़ नाड़ी देखते थे. और चन्द्र नाड़ी या सूर्य नाड़ी के अनुसार क्या खाना है और क्या नहीं इनकी पूरी लिस्ट छपवा रखी थी. कुछ सॉलिड और लिक्विड दवाइयाँ भी दीं, जिसे उन्होंने चूरन-चटनी की संज्ञा दे रखी थी. रिसाइकिल्ड प्लास्टिक की बोतलों में जो दवाइयाँ दीं. उनका सेवन हम जैसे आरओ का पानी पीने वाले शायद ही कर पायें. फ़ीस किसी भी मामले में एक एमडी डॉक्टर से कम न थी. लेकिन बाहर खड़ी लोगों की भीड़ बता रही थी कि लोगों को लाभ मिला होगा. ये भी समझ आया कि सिर्फ़ शुद्ध खाना ही काफ़ी नहीं है. जरूरी है ये जानना कि क्या खायें क्या नहीं. कभी न कभी सबने महसूस किया होगा कि स्वाद के चक्कर में सेहत ख़राब हो गयी. लेकिन ये बात शरीर को मोटरसाइकिल समझने वाले हाइली क्वालीफाइड लोगों के सेलिबस के बाहर है. और उनमें ये माद्दा है कि इस इलाज को झोला-छाप बता कर बाबा को अन्दर भी करवा दें.
कभी-कभी मुझे लगता है कि पूर्व जन्मों के कर्मों से हमें पढ़ाई का माहौल क्या मिल गया हम ने स्वयं अर्जित ज्ञान वालों को हल्के में ले लिया. आज जब कोई लंगोट पहने अपने पूर्वजों के ब्रम्हांडीय और चिकित्सकीय ज्ञान का ज़िक्र करता है तो अपनी छाती 56 इंच तक फूल जाती है. हजारों वर्षों के अपने ज्ञान-विज्ञान के इतिहास को नकार के जब हम अंग्रेजी में लिखे शब्द समूहों को ब्रम्ह्वाक्य मान लेते हैं तो भारतेंदु हरिश्चन्द्र की पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं - घर की तो बस मूँछे ही मूँछे हैं. हमको जो ज्ञान बाहर से ठूँस दिया गया उसी को हमने अपनी आधारशिला बना दिया. इसीलिये आज भी हम अपने शोध और शोधपत्रों पर बाहरी स्वीकृति खोजने में लगे हुये हैं. ज्ञान भले बाहर से आता हो लेकिन अन्तर्ज्ञान अन्दर से ही आता है. परन्तु उसके लिये मनन-चिन्तन का समय कहाँ है. पढाई का तो लक्ष्य एक अदद नौकरी से ज्यादा नहीं था. इतने स्पेशैलिटी एरियाज़ हैं. हर कोई अपने-अपने विषय में पारन्गत है किन्तु समग्रता का सर्वथा अभाव है. सब के सब अपनी आँखों पर ज्ञान की पट्टी बाँधे अपने-अपने ज्ञानानुसार हाथी को परिभाषित करने में लगे हैं. जिसके हिस्से जो लग गया उसी को समझ और समझा रहा है. जब अनपढ़ आदमी अपने तजुर्बे से पाल साहब को ठीक कर सकता है तो ये मानना पड़ेगा कि जीवन किताबी ज्ञान से पहले भी था और बाद भी रहेगा. अन्य सभी प्राणी सामान्य जीवन जीते हैं क्योंकि वहाँ न तो विशेषज्ञ होते हैं न इलाज. ज्ञानीजनों का काम है कि अपने-अपने क्षेत्र की महत्ता को बढ़-चढ़ के बताना-दिखाना. एक ज़माना था जब हम बेख़ौफ़ पानी पिया करते थे, आज अगर बिना ब्रैंड का पानी पीना पड़ जाये तो एक-दो दिन तक साँस अटकी रहती है. अब यही खतरा भोजन और खाद्य पदार्थों में भी दिखाई दे रहा है. इसका दायरा इतना बढ़ गया है कि साल में दो बार आपको अपने फ़ूड प्रोडक्ट की टेस्ट रिपोर्ट जमा करनी पड़ेगी नहीं तो लाइसेंस कैंसलेशन और पेनाल्टी के लिये तैयार रहिये.
विकसित देश, जिनकी महारत युद्ध पोत, विध्वंसक मिसाइल और युद्धक विमान बनाने में है, वो तो अवश्य चाहेंगे कि उनके भोजन की व्यवस्था उनकी ही शर्तों पर विकासशील देश करें. इसलिये ऐसी सभाओं में बहुत ही डरावने आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 200 प्रकार की खाद्यजनित बिमारियों के कारण हर साल लगभग 600 मिलियन लोग बीमार पड़ जाते हैं. लेकिन यदि डॉक्टर पीटर ग्लिडडेन के अमेरिकन मेडिकल जर्नल के आधार पर दिये गये बयान को सही माना जाये तो अमेरिका में मृत्यु का तीसरा बड़ा कारण डॉक्टर्स द्वारा किया इलाज है. इस समिट में चालीस देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था. सबने अपने-अपने तरीके से खाद्य सुरक्षा की अनिवार्यता और कार्यान्वयन पर बल दिया. जबसे प्रसंस्कृत खाद्य सामग्रियों का उपयोग बढ़ा है, लोगों की ये जानने में दिलचस्पी है कि वो क्या खा रहे हैं. पहले ये पता नहीं था कि वो क्या-क्या खा रहे हैं. कपड़ों और जूतों की तरह यहाँ भी बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों का बोल बाला है. ब्रैंड के नाम पर लोग कुछ भी खा सकते हैं और ब्रैंड के नाम पर मुँह-माँगे दाम भी देने को तैयार रहते हैं. हर आदमी चाहता है कि उसे पता हो वो क्या खा रहा है, उसकी शेल्फ़ लाइफ़ कितनी है, उसमें किसी प्रकार का नुकसानदेह पदार्थ तो उपस्थित नहीं है. यदि कोई कमी है तो माल को वापस लौटाने तक का प्रावधान है. इस काम के लिये दुनिया के सभी देशों को चाहिये अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का पालन करें और करायें ताकि किसी व्यक्ति कम से कम भोजन की वजह से बीमार पड़ने की नौबत न आये. प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में अप्राकृतिक रंग और संरक्षक रसायनों का उपयोग होना अवश्यम्भावी है. निश्चित रूप से फ्रेश भोजन की तुलना में प्रसंस्कृत उत्पाद स्वाद और पौष्टिकता में भले ही उन्नत हो लेकिन उसमें विषाक्तता का अंश अवश्य होगा, भले ही मानक सीमा के अन्दर हो. पूरी बात का सारांश ये है कि इतने नियम-कानून हैं कि उनका अक्षरशः पालन करना आसान तो नहीं होगा. खास तौर पर छोटे और मझोले खाद्य उद्यमियों के लिये.
खाद्य सुरक्षा से जुड़े हर विषय के विशेषज्ञों ने दो दिवसीय सम्मलेन में ज्ञान की अविरल गंगा बहा दी. चूँकि सम्मलेन की भाषा अंग्रेज़ी थी तो ऐसा लगना लाज़मी था कि ये जो हम लोग अनब्रान्डेड और अनलेबेल्ड खाद्य पदार्थों का सेवन कर रहे हैं, वो देश और समाज के प्रति किसी द्रोह से कम नहीं है. उस सम्मेलन के दौरान बहुत से ऐसे पल भी मिले जिनमें समाधिस्थ अवस्था में चिन्तन-मनन किया जा सके, विशेष रूप से भोजनावकाश के बाद वाले सेशन्स में. ऐसे ही क्षणों में ये विचार भी कहीं से कूदने लगा कि विशेषज्ञों का काम ही डराना बन गया है ताकि उनकी रोजी-रोटी चलती रहे. किसी को ग्लोबल वार्मिंग की चिन्ता है, तो किसी को क्लाइमेट चेन्ज की. लेकिन 2500 सीसी के इंजन वाली कार और ढाई टन का एसी चलाते हुये उनकी आत्मा अपराधबोध से मुक्त रहती है. रोज-रोज लीवर-किडनी-हार्ट के एक्सपर्ट्स सोशल मिडिया के माध्यम से ये बताने में लगे हैं कि किस-किस तरह से आप खतरे में हैं. ख़ास बात है कि हर छोटे-बड़े शहर में हर समस्या का समाधान करने के लिये डॉक्टर्स हैं, हालाँकि उनकी संख्या आवश्यक डॉक्टर्स की संख्या से बहुत कम है. इसीलिये कितने ही झोलाछाप चिकित्सकों के धंधे भी फल-फूल रहे हैं. डॉक्टर्स की फ़ीस इतनी ज्यादा हो गयी है कि लोग मेडिकल शॉप के केमिस्ट भैया को ही हाल बता कर दवाइयाँ लेने लग गये हैं. विशषज्ञों का काम है पहले तो हर आदमी के सबकॉन्शस माइंड में ये फीड कर देना कि इतना प्रदूषण है कि हवा, भोजन सब दूषित हो रखा है. तुम स्वस्थ रह ही नहीं सकते. फिर शुरू होता है जीवनपर्यन्त चलने वाले इलाज का सिलसिला. ऐसी मेडिकल व्यवस्था के बाद खाद्य सुरक्षा का ढिंढोरा सिर्फ ये एहसास दिलाता है कि पढ़े-लिखे लोग सिर्फ अपने द्वारा अर्जित ज्ञान का बखान करने के लिये ज़िन्दगी को कॉम्प्लीकेट करते जा रहे हैं. पहले पानी कहीं भी कैसा भी पी लेते थे अब ब्रैंडेड कम्पनी की बोतल में बंद न हो तो भरोसा नहीं होता.
फिर लगा शायद ये क़वायद सिर्फ इसलिए है कि विज्ञान अपने आप को सिद्ध करना चाहता है कि पढ़े-लिखे लोग अनपढ़ों से बेहतर हैं. और पढ़े-लिखे लोग ये एहसास दिलाना चाहते हैं कि हम तुम्हारा भला करना चाहते हैं. मेरी बात मानो, मेरे पीछे आओ. इसी में उनकी खुद की भलाई निहित है. पहले एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी अब अनेकों कम्पनियाँ ग्लोबलाइजेशन के नाम पर घुस आयी हैं. आप के उपर अपने मानक थोपने की तैयारी है. बहुत सी कम्पनी-संस्थान-विभाग एक अंतरराष्ट्रीय मानक संस्था का सर्टिफिकेट लिये हुये हैं, लेकिन क्या मजाल कि उनकी कार्यशैली में धेले भर का भी परिवर्तन आया हो. हाँ, वो संस्था सर्टिफ़िकेट देने के नाम पर एक अच्छी खासी राशि वसूलती है. यही हाल राष्ट्रीय स्तर पर लैब्स के मानकीकरण का भी हो गया है. ये बात अलग है कि इनका हाल फोरेंसिक लैब्स सा हो रखा है. ये भी कारतूस किसी और कट्टे से निकला बता सकते हैं. अब जब करोना ने ये सिद्ध कर दिया है कि जिनकी इम्युनिटी अच्छी होगी उन्हें चिकित्सकों की आवश्यकता कम पड़ेगी. गरीबों के बच्चों की तुलना में डब्बा बंद खाद्य सामग्री और दूध का सेवन करने वाले सम्पन्न बच्चों के बीमार पड़ने की सम्भावना अधिक होती है. यही हाल रहा तो हम भी हाईजीन के नाम पर डिब्बा बंद चीजों पर भरोसा करने को विवश होंगे. ये कोई नहीं बतायेगा कि ये सब मार्किट के चोचले हैं जिनका उद्देश्य बस मुनाफ़ा कमाना है. जब हमने केमिस्ट्री-माइक्रोबायोलॉजी-फ़ूड सेफ़्टी जैसे जटिल विषयों का अध्ययन कर लिया है तो उसे जस्टिफाई करना भी तो जरूरी है. लोगों को भले उसकी कम या ज़्यादा जरुरत हो लेकिन उसके बिना हमारा क्या होगा. इसलिये ये समझना जरूरी है कि इंसान तो वैसे भी जी लेगा लेकिन साइंस को अपने आप को सिद्ध करना है कि मेरे बिना दुनिया नहीं चलेगी. वो भी इसलिये कि उपर वाले ने हमें शिक्षा का अवसर दिया. इतना पढ़-लिख के हम सबके स्वास्थ्य और सुरक्षा की बात कर सकते हैं. लेकिन जीवन इन सब चकल्लसों से उलट है, और सारे जीवों पर बराबर से लागू होता है.
किसी भी गोष्ठी का सबसे बड़ा आकर्षण वहाँ का फ़ूड कोर्ट होता है. यदि डेलिगेट्स को लजीज़ भोजन मिलता रहे तो अपने-अपने मुद्दे उठाये ये सब साइंस के लिये लड़ मरें वर्ना बस बदइंतज़ाम को कोसते घूमें. यदि पार्टिसिपेंट्स ख़ुश हैं तो मीटिंग सफल. सम्मेलन के गहन विचार-विमर्श की गम्भीरता को देखते हुये खान-पान की समुचित व्यवस्था थी. आपको भूख न लगे इसका बहुत ही अच्छे से ध्यान रखा गया था. आजकल इन्टरमिटेंट फास्टिंग की वक़ालत करने वाले दौर में हर दो घन्टे पर आपके पेट और स्वाद का ध्यान रख पाना, किसी भी मीटिंग की सफलता का द्योतक है. सब एक सुर में इस नतीजे पर पहुँचे फ़ूड क्वालिटी स्टैंडर्ड्स से कोई भी खाद्य सामग्री छूटनी नहीं चाहिये. चाहे वो रेडी वाला हो, रेस्टोरेन्ट का मालिक हो या मिठाई की दूकान वाला सब इस कानून की जद में आने चाहिये. आख़िर जनता के स्वास्थ्य का मामला है. सावन के महीने में विदेशी मेहमानों की पसन्द का ख्याल रखते हुये मुर्गे-मीट-मछली की समुचित व्यवस्था थी. एक से एक हिन्दुस्तानी तहज़ीब के शाकाहारी और माँसाहारी लजीज़ व्यंजन देखने को मिले. खाने के लिये प्लेट और पेट में जगह कम पड़ जाती थी. स्वादिष्ट भोजन को देख कर जो सबसे अच्छी बात मुझे लगी वो ये थी कि प्लेट में भोजन लेने से पहले न तो किसी ने मुर्गे का जन्मदिन पता किया, न किसी ने मछली की जात पूछी, न शाही पनीर की कैलोरी. भोजन अगर सुस्वाद हो तो ये बातें गौण हो जाती हैं.
दो दिवसीय मीटिंग का निष्कर्ष ये निकला कि चाहे सड़क किनारे रेडी वाला हो या मल्टीनेशनल कम्पनी सभी से मानकों का पालन करना और करवाना अनिवार्य है. कानूनों का पालन कराने के लिये भी एक संस्था है और उसमें दरोगाओं की फ़ौज है. वो दिन दूर नहीं जब उसके घेरे में हमारे-आपके किचन भी होंगे. कोई दरोगा कभी भी आपके घर में मुँह उठाये घुस आयेगा और बतायेगा कि आपकी रसोईं अन्तर्राष्ट्रीय मानदंडों का पालन नहीं करती. इसलिए आपके किचन को बंद किया जाता है. मार्केट ब्रान्डेड प्रोडक्ट्स से भरा पड़ा है सुरक्षित भोजन हेतु अलां और फलां कम्पनी का डब्बा बन्द उत्पाद खाओ. डॉक्टर्स के पास जाना और इलाज़ कराना तो आपकी हॉबी है लेकिन हमारा प्रयास है कि कम से कम आप फ़ूड पॉइजनिंग से बीमार न हों. जब भारतीय संस्कृति स्वास्थ्य को आचार-विचार-व्यवहार से जोड़ के देखती है तो साइंस के लिये जरूरी हो जाता है कि वो अपने अस्तित्व को बचाये और बनाये रखने के लिये ऐसी क़वायद करती रहे.
-वाणभट्ट