एक प्रश्न
गर्द और गुबार में
दबे बसे शहर,
चंद खुली हवा को
दिन-रात तरसते हैं.
सांस-दर-सांस,
हर सांस पर किसी मिल, किसी फैक्ट्री,
किसी ट्रक, कार या टेम्पो का नाम.
गिनती की सांसें,
या
साँसों की गिनतियाँ.
एक, दो, तीन ...
और किसी भी पल
बदल जाएगी ये हवा.
तब
हमें शायद हो
हमें शायद हो
समंदर में प्यास
का
एहसास.
बदल तो गया है रंग
आसमान का भी.
रंग गया है वो धुंधलके से
किसी शाम गौर से देखो डूबते सूरज को,
जो दिन से ही डूबा-डूबा सा रहता है.
महसूस करो उसके गिर्द फैली धुंध को.
महसूस करो उसकी कसमसाहट
उसकी घुटन को.
खेती-बाड़ी वाले हैं हम.
धुंआ छोड़ने वाली मिलें हमारी नहीं.
हमारी मिलों से निकलता है अनाज.
पर्यावरण बनता है बिगड़ता नहीं.
जब हर एक के हिस्से में है
बराबर की हवा
और
बराबर का आसमान.
तो क्यों छोड़ दे
चंद लोगों की अनाधिकार चेष्टा से
कोई अपना हिस्सा.
मानवीय असमानताओं का,
यहाँ भी है किस्सा.
आप ही बताएं आप कैसी तरक्की चाहते हैं
दवाइयों पर रेंगती जिंदगी
या
लहलहाती फसलों सी ख़ुशी.
दफ़न करना चाहते हैं
चिमनियों का सीना,
या
नाक पर फिल्टर
लगा के जीना?
- वाणभट्ट