शनिवार, 25 जून 2011

एक प्रश्न

एक प्रश्न

गर्द और गुबार में

दबे बसे शहर,


चंद खुली हवा को

दिन-रात तरसते हैं.

सांस-दर-सांस,


हर सांस पर किसी मिल, किसी फैक्ट्री,


किसी ट्रक, कार या टेम्पो का नाम.



गिनती की सांसें,


या


साँसों की गिनतियाँ.




एक, दो, तीन ...


और किसी भी पल


बदल जाएगी ये हवा.


तब

हमें शायद हो


समंदर में प्यास


का


एहसास.



बदल तो गया है रंग


आसमान का भी.


रंग गया है वो धुंधलके से


किसी शाम गौर से देखो डूबते सूरज को,


जो दिन से ही डूबा-डूबा सा रहता है.


महसूस करो उसके गिर्द फैली धुंध को.


महसूस करो उसकी कसमसाहट


उसकी घुटन को.



खेती-बाड़ी वाले हैं हम.


धुंआ छोड़ने वाली मिलें हमारी नहीं.


हमारी मिलों से निकलता है अनाज.


पर्यावरण बनता है बिगड़ता नहीं.



जब हर एक के हिस्से में है


बराबर की हवा


और


बराबर का आसमान.


तो क्यों छोड़ दे


चंद लोगों की अनाधिकार चेष्टा से


कोई अपना हिस्सा.

मानवीय असमानताओं का,

यहाँ भी है किस्सा.





आप ही बताएं आप कैसी तरक्की चाहते हैं


दवाइयों पर रेंगती जिंदगी


या


लहलहाती फसलों सी ख़ुशी.


दफ़न करना चाहते हैं


चिमनियों का सीना,


या


नाक पर फिल्टर


लगा के जीना?



- वाणभट्ट

शनिवार, 18 जून 2011

मेरा भारत महान

मेरा भारत महान

हम होंगे कामयाब?
कब होंगे कामयाब???

पुरखे हमारे थे महान,
देश की हमारे थे शान,
हम उनकी संतान,
बिना हर्र-फिटकरी के,
बन गए महान.

कर्म भला हम क्या करते,
सब उन लोगों ने कर डाला मरते-मरते,
हम भी महान बन जाते,
गर अंग्रेज अब भारत आते,
महाभारत आज होती,
रावण आज होते,
तो क्या हममें से कुछ गाँधी, कृष्ण या राम न होते.

पर सच तो ये है,
अंग्रेज अभी भी बसे हैं जेहन में,
महभारत मचा है जगहों-जगहों पे,
सीतायें कैसे निपटें रावणों से.

परिस्थितियां वहीँ हैं 
अंतर सिर्फ इतना है
गाँधी ने लंगोट आँखों पे कस लिया है 
कृष्ण का चक्र हांथों से छूट गया है
और राम का नाता हनुमान से टूट गया है.

कहने का मतलब है सिर्फ इतना 
महान बनने का स्कोप अब भी है उतना
तो मेरे भाई 
वाई डोंट यू ट्राय!
(माइंड ईट  यू ट्राय) !!!

- वाणभट्ट 

रविवार, 12 जून 2011

बुरा किया!

बुरा किया!

बुरा किया उसने
जो अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर
ज़मीर बेच दिया.

इस तरह बोझ से मुक्त हो
वो
उठता गया ऊपर और ऊपर.

इतना ऊपर की उसे आदमी चींटी लगते
कभी-कभी उनका पैरों के नीचे आ जाना
उसे उनकी नियति लगता

कभी-कभार उनकी बाँबियों पर
कुछ आटा बिखेर वो कुछ पुण्य भी कमा लेता
और अपनी नज़र में कुछ और ऊपर उठ जाता

दो जून की रोटी के लिए
दिन-रात लड़ना 
और
अपने हक के लिए
हर रोज़ मरना
उसे न था गवारा

ज़मीर न बेचता तो क्या करता

क्या बुरा किया, उसने.

- वाणभट्ट

शनिवार, 11 जून 2011

ग़ज़ल : अगर इस कह सकते हैं तो...

ग़ज़ल : अगर इस कह सकते हैं तो...

सोते हुए शहर को जगाने की चाह है
सोते शहर में जागना भी इक गुनाह है

पत्तों भी दरख्तों का साथ छोड़ जायेंगे 
कुचले हुए चमन के फूलों की आह है

पसरा पड़ा है घटाटोप अँधेरा हर कहीं
चिरागों को शहीद बनाने की राह है

कीचड़ निगल रहा कमल को सरेआम
सूरज पे भी दाग लगाने की चाह है

अपनों ने ही लगाई है दामन की ये आग
समझे जिसे बैठे थे कि ये ही पनाह है

अंधों को बेच आईने तू क्या करे 'प्रसून'
वो देख क्या सकेंगे जब फ़िज़ा ही स्याह है

वाह-वाह, 
(स्वनामधन्य पत्रकारिता के युग में अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना ज़रूरी है...पता नहीं कोई और तारीफ़ करे...न करे...)  

- वाणभट्ट 

रविवार, 5 जून 2011

आज लिखना ज़रूरी है...

आज लिखना ज़रूरी है...

अब न लिखोगे 
तो लिखोगे कब
देश को बेच के नेता
जब निकल लेंगे? तब.

सत्ता के नेता जब बकते हैं 
कितने थेंथर से दिखते हैं
शर्म बेच के खा गए जैसे
अपनी अम्मा के दलालों जैसे
कहते हैं बाबा तुम अपना काम करो
हमें अपना काम करने दो

तुम योग सिखाओ
हम भोग करें
तुम रोग भगाओ
हम रोग करें

मोटी चमकती चमड़ी में
ए सी से चमकते चेहरों में 
झक्क सफ़ेद खादी के कपड़ों में  
भी 
ये बीमार लगते हैं
दिमागी असुंतलन का 
शिकार लगते हैं

इन्हीं की सत्ता का ही तो 
अब तक बोलबाला था
मिली भगत से ही तो 
बाहर गया धन काला था
अब जब बाबा ने घुड़की लगाई है 
पूरे देश में अलख जगाई है
तो इनकी करतूतें सामने आई हैं

सत्याग्रह के विरुद्ध 
जो दमन की नीति अपनाई है
ये सत्ता परिवर्तन की
अंगडाई है

माँ भारती के सपूतों अब क्या डरना  
वतन के लिए कुछ तो करना 
आज़ादी के बाद ये 
भ्रष्टाचार से 
आज़ादी की जंग है
सियासतदानों पे चढ़ा
सत्ता का रंग है
गर्व और घमंड से ये चूर हैं
गाँधी की खादी पहन के भी
ये हो गए मगरूर हैं

इस कुशाशन को पलटना जरुरी है
इनके अमरत्व-बोध को तोडना ज़रूरी है
वर्ना ये ऐसे ही देश बेचते रहेंगे 
और इमानदारों की आन से खेलते रहेंगे  

जात-पात-मज़हब से ऊपर उठ के
सोचो किसके साथ हो तुम
गद्दारों की फ़ौज में कहीं
शामिल तो नहीं तुम

साठ सालों का कुशाशन
या उम्मीद की इक किरण
भारतवासियों!
जगाओ भारत स्वाभिमान अपने दिलों में
वर्ना जिक्र भी न होगा तुम्हारा 
दुनिया की दास्तानों में 

- वाणभट्ट 







पंख

एक्सलरेटर को हल्का सा ऐंठा ही था कि स्कूटर हवा से बातें करने लगा. फोर स्ट्रोक वाली हीरो-होण्डा चलाने वाले को पिकअप से संतोष करना ही पड़ता है...