बेचारा
जब से चारा चोरी का घोटाला सामने आया है यकीन मानिये दुनिया से यकीन उठ सा गया है। चारा चोर अब बेचारे से बने घूम रहे हैं। गोया घोटाले तो हर विभाग में वर्षों से होते रहे हैं और होते रहेंगे। इसके पहले तो किसी को सजा मिली नहीं। ये विपक्षी सरकार क्या बनी हमको टारगेट करके फँसा दिया गया। ये अन्याय की पराकाष्ठा है। अब तो तभी दोषमुक्ति मिलेगी जब कोई लंगड़ी-लूली सरकार सत्ता में आयेगी। प्रायश्चित करना तो अपनी फितरत में नहीं है। मुझे दण्डित करना है तो जाओ उन सबको पकड़ के लाओ जिन्होंने अब से पहले इस भ्रष्टाचार की परिपाटी को सिंचित और पोषित किया। यदि वो छुट्टे घूम रहे हैं या उहलोक गमन कर चुके हैं तो थोड़ा सब्र मेरे लिये भी रख सकते हैं।
जब चारे का ज़िक्र हो ही गया है तो ये बताना भी ज़रूरी है कि पूरे देश कि अर्थव्यवस्था तो बेचारे लोगों पर ही टिकी है। सरकारों को टैक्स चाहिये ताकि बेचारों को रोटी-कपडा-मकान मिल सके। ये बात अलग है कि देश के अन्तिम बेचारे की फ़िक्र में सरकारी महकमों के लोग दिन-दूनी रात चौगुनी तेज़ी से फल भी रहे हैं और फूल भी। ये फूल फ्लावर वाला फूल नहीं है। ये फूल वो फूल है जो बेल्ट के बाहर लटकते पेटों से झलकता है। कुछ लोग उसे तोंद कहने की गुस्ताख़ी भी कर देते हैं। दरअसल देश के बेचारों की सेवा में ये तन-मन से इस कदर लगे हुये हैं कि अपनी सुध-बुध ही नहीं रहती। धन तो बरसता ही रहता है। सेवा करोगे तो मेवा मिलेगा ये शाश्वत नियम है। जब देश सेवा का संकल्प ले लिया और उसके लिये एक ऑल इण्डिया इम्तहान पास कर कुर्सी पर कब्ज़ा कर लिया तो अब दस्तूर भी है उस पर बैठे रहने का। इस प्रॉसेस में अपने लिये समय कहाँ मिलता है वर्ना हम भी नब्बे साल के मिल्खा सिंह की तरह कुलाँचे मार रहे होते। इससे महान त्याग कोई हो सकता है भला।
जरा सा गौर कीजिये तो साफ दिखायी देता है कि देश में हर कोई शिक्षा सिर्फ इसलिये पाना चाहता है ताकि वो देश और देशवासियों की सेवा कर सके। कामों की कमी तो कहीं नहीं है लेकिन हमें नौकरी करनी है। वो भी सरकारी तभी हम जन-जन की सेवा कर पायेंगे अन्यथा कोई अम्बानी-अडानी हमारी योग्यता का नाज़ायज़ लाभ उठा के अमीर बन जायेगा। अब जिन्हें देश की चिंता नहीं हो, जिन्हें पैसे की ज़्यादा भूख हो वो टाटा-बिरला के लिये काम करे, हम तो इतना रगड़-घिस के जो डिग्री लिये हैं वो पैसा कमाने के लिये थोड़ी न है। हमें सेवा का अवसर देना सरकार का कर्तव्य है और हमारा अधिकार।
हमें सरकारी नौकरी मिले तभी हम अपने और देश के दरिद्दर दूर कर पायेंगे। यूंकि गौर करने वाली बात ये है कि जिन्हें दूसरों के दरिद्दर दूर करने हैं पहले वो अपने दरिद्दर दूर करने पर आमादा हैं। ये बात अलग है कि अपने दरिद्दर दूर करते-करते अपनी भावी सात पुश्तों की चिन्ता करना भी आवश्यक हो जाता है। अपने भाई-बन्धु का भला कर भी दिया तो वो इस जन्म उस एहसान को तो उतार नहीं सकते। तो फिर अपनी अगली पीढ़ी के बारे में कुछ करने में क्या बुराई है।
देश सेवा का ऐसा ज्वर हर दिशा में देखा जा सकता है। चाहे वो शिक्षा हो, अभियांत्रिकी हो, स्वास्थ्य हो, राजनीति हो या कृषि। चूँकि मै कृषि से जुड़ा हुआ हूँ तो मै देखता हूँ यहाँ समाज और देश सेवा की अपरिमित सम्भावनायें हैं। 60 प्रतिशत लोग मिल कर देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मात्र 15 प्रतिशत का योगदान कर पाते हैं। देश में स्माल और मार्जिनल (लघु और सीमान्त) किसानों की संख्या लगभग 85% है जिनके हिस्से खेती योग्य भूमि का मात्र 45% भाग ही आता है। स्थिति और चिंताजनक हो जाती है जब पता चलता है कि 85% कृषक परिवार कृषि आय का मात्र 9% ही अर्जित कर पाते हैं जबकि बाकी 15% के हिस्से 91% आय आती है। ऐसे में देश के लघु और सीमान्त किसानों की चिंता करना सभी समाज और देश प्रेमियों का परम कर्तव्य बन जाता है। चूँकि यही वो लोग हैं जिनकी चिन्ता नेता चुनाव आते ही और अफसर चुनाव जाते ही करनी शुरू कर देते हैं। विश्व में भी बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें सिर्फ़ अफ्रीका और एशिया के लघु सीमान्त किसानों की समस्याओं का निदान और उनकी आय में वृद्धि के लिये वर्षों से कृतसंकल्प हैं। इस पुनीत कार्य में उन्होंने देश-दुनिया के कितने ही कोने-अतरों में न जाने कितने सेमीनार-सिम्पोजिया कर डाले। ये बात उन बेचारे कृषकों को शायद ही पता चल सके। बेचारा शब्द किसी को कह दो तो उसे खुद अपने ऊपर दीनता की फिलिंग आने लगती है। लेकिन हर वह शख़्श बेचारा है जिसके चारे की चिन्ता दूसरे करने लगें। बेचारा इसलिये भी कि उन्हें नहीं मालूम कि उनके उत्थान की ख्वाहिश लिये कितने लोग दिल-औ -जान से वर्षों से लगे हुये अपनी-अपनी रोटियाँ (टू बी मोर करेक्ट, पकवान) तोड़ रहे हैं।
समस्या ये नहीं है कि लघु और सीमान्त किसानों की सेवा में समर्पित लोगों ने उनकी समस्याओं के समाधान हेतु प्रयासों में कोई कसर रख छोड़ी हो। समस्या ये है कि कोई पूरे परिदृश्य पर फोकस नहीं करता या करना चाहता। सब विषय वस्तु विशेषज्ञ (सब्जेक्ट मैटर स्पेशलिस्ट) अपने-अपने हिसाब से समाधान खोजने और उसे प्रचारित करने में लगे हैं। सक्सेस स्टोरीज़ (सफलता गाथाओं) की बाढ़ आ रखी है। उसकी आड़ में हर कोई अपनी सफलता की गाथा लिख रहा है। कोई ऐसा काम जो पेपर या पेटेंट में परिवर्तित न हो वो आपके किसी काम का नहीं। दूसरों के उत्थान का बीड़ा उठाने वाले यदि अपना ही उत्थान न कर पाये तो जीवन व्यर्थ गया समझो। और सबसे बड़ी बात ये है कि यह बीमारी सार्वभौमिक है। जो व्यक्ति या देश जितना अधिक संपन्न या विकसित है, उसे दुनिया के साधनविहीन और विपन्न लोगों की उतनी ही अधिक चिंता है। कोई उन सब्जेक्ट मैटर स्पेशलिस्ट्स को बताये कि दस लाख को सौ लाख बनाना आसान है लेकिन दस रुपये को सौ रुपया बनाना नामुमकिन। एक या दो हेक्टेयर से कम खेत से अनाज उगा कर के चार लोगों का परिवार वैसे ही पाला जा सकता है जैसे पल रहा है। एक तरफ तो बीज-खाद-कीटनाशक आदि कंपनियों ने किसान को उपभोक्ता बना के रख छोड़ा है तो दूसरी तरफ़ किसान प्रसंस्करण कंपनियों के लिये सस्ते उत्पाद का माध्यम बन गया है। ग़ौर करने वाली बात ये है कि सभी का फायदा किसान के किसान बने रहने में निहित है। यदि किसान वाकई सम्पन्न हो गये तो इन सबके मुनाफ़े का क्या होगा। इसलिये किसान का किसान बने रहना ज़रूरी है और उनकी चिन्ता का स्वांग भी उतना ही ज़रूरी है।
आजकल एक नया ट्रेन्ड प्रचलन में है समस्या को हाइलाइट करो और पैसा पाओ। बहुत सी देसी और अन्तर्देशी और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थायें हैं जो समस्या के समाधान पर पूँजी लगाने के लिये उद्धत हैं। समस्या जितनी व्यापक होगी उतना बड़ा नेटवर्क और उतना ही बड़ा निवेश। समाधान तो वहीं से निकलेगा जहाँ से समस्या। अब तक सारा फोकस उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने पर ही लगा हुआ था। लेकिन ये समझने में बहुत देर लग गयी कि उत्पादन दुगना कर दिया तो मुनाफ़ा आधा। पूंजीवादी व्यवस्था कमज़ोर के लिये नहीं होती। यदि किसान सिर्फ़ भण्डारण की क्षमता विकसित कर ले तो बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ उनके इशारे पर नाचती नज़र आयें। लेकिन लघु और सीमांत किसान के पास न तो इतना उत्पादन है न ही इतनी क्षमता। एक तरीक़ा ये भी है की कृषि कार्य में उतने ही लोग लगें जितना उनका सकल घरेलू उत्पाद में योगदान है। इस हिसाब से यदि सिर्फ 15% जनसँख्या यदि खेती करें तो खेती भी उद्योग बन सकता है। आज बीज से लेकर मशीन तक तकनीकों की कोई कमी नहीं है लेकिन किसानों के हित में सफलता गाथा लिखने के लिये छोटी-छोई सफलताओं को विस्तार देने की आवश्यकता है, जो शायद व्यावहारिक शोध और अभियांत्रिकी के सहयोग के बिना संभव नहीं है। लेकिन हमारी शोध की दिशा और उनकी फ़ंडिंग मौलिक शोध तक सीमित हो कर रह गयी है। इसरो की सतत सफलता ये दर्शाती है कि दुनिया लैब के बाहर है जो आप का इन्तज़ार कर रही है। जिसका लाभ समस्त देश और दुनिया को होना चाहिये।
देर से ही सही वैल्यू चेन की बात शुरू होना एक खुशखबरी से कम नहीं है। ग्रीन रिवोल्यूशन (हरित क्रांति) में उन्नत बीज की उपलब्धता के अलावा अनेक कारकों जैसे सिंचाई की सुविधा, खाद-कीटनाशक का प्रयोग, संपन्न किसान, सरकार द्वारा क्रय,भण्डारण और सार्वजानिक वितरण प्रणाली का भी अमूल्य योगदान था। जब उत्पादन थाली तक पहुँचा तब हरित क्रांति कम्प्लीट हुयी। लेकिन हम बीज पकड़ कर बैठ गये। दुग्ध क्रांति में भी पूरी वैल्यू चेन विकसित की गयी। कोई भैंस विकसित करने लग जाता तो शायद दुग्ध उत्पादन तो बढ़ जाता लेकिन क्रांति न हो पाती। शहर के हर गली-कोने पर अण्डों के ठेले एक अघोषित क्रांति की ओर इशारा कर रहे हैं। वैल्यू चेन एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोशिश होती है कि उत्पादक से उपभोक्ता तक की सभी कड़ियों के लिये विन-विन स्थिति हो। पूरी वैल्यू चेन में सबसे मजबूत कड़ी सबसे कमज़ोर कड़ी ही होती है। फ़ूड वैल्यू चेन में किसान ही सबसे कमज़ोर कड़ी बनता है। जबकि सारी चेन किसान के उत्पादन के बलबूते फलती-फूलती है। चेन की अन्य कड़ियों की ये नैतिक और आर्थिक मज़बूरी होनी चाहिये कि सबसे कमज़ोर कड़ी को मज़बूत करें। सब अपने-अपने चारे यानि मुनाफ़े का कुछ हिस्सा कमज़ोर कड़ी को मज़बूत करने में लगायें ताकि कोई भी किसान बेचारा न रह जाये। और उसका मूल्य बस एक वोट भर बन के न रह जाये।
- वाणभट्ट