शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

क्षणिकायें

१. परिणाम
आहत माँ
उफान कर बोली,
"उपजा बबूल,
बोया था आम.
चिरसिंचित अभिलाषाओं का,
उफ़!
ये परिणाम.

२. परदा
चाँद को घूरता पा कर.
धरती ने ओढ ली,
चांदनी कि झीनी चादर.
और,
उस चादर कि आड़ ले,
घूरे जा रही है चाँद को,
प्यार से.

- वाणभट्ट

1 टिप्पणी:

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

GE

जंज़ीर -दीवार-शोले में अमिताभ के होने के अलावा और क्या समानता हो सकती है. शायद ही कोई इसे गेस कर पाये. उस समय तक हमें अपनी मर्ज़ी से पिक्चर दे...