काली भेंड़
तीसरा लगते-लगते इन्सान के अन्दर का आदमी बाहर झाँकने लगता है। जैसे रंगे सियार का रंग छूटता है। सुपीरिऑरिटी और अंग्रेज़ी दोनों सर चढ़ कर बोलने लगती है। शर्मा जी का तीसरा पैग ख़त्म होने की कगार पर था। आँखें शून्य की ओर लगभग स्थिर हो रही थी। आवाज़ लड़खड़ा ज़रूर रही थी लेकिन थी रौबीली और दमदार। क्लोज़ सर्किट की पार्टी थी। लेकिन किसी दारु पार्टी का असली मज़ा वही लोग लेते हैं जो इरशाद-इरशाद और मुकर्रर-मुकर्रर करके दूसरों को चढ़ाये रहें।
बोले " यू नो , फ्रॉम द वेरी बिगनिंग आई वाज़ वेरी हार्ड वर्किंग। इन फ़र्स्ट अटेम्प्ट आई क्वालिफाइड फॉर सिविल सर्विसेज़। माई इल्डर ब्रदर वाज़ ऑल्सो वेरी इंटेलिजेंट। ही जॉइन्ड फॉरेन सर्विसेज़। यंगर ब्रदर मैनेज्ड विथ स्टेट सर्विसेज। वी हैड वेरी लॉन्ग जर्नी। फ्रॉम स्माल हैमलेट टु बेस्ट सर्विसेज़। आल विथ आवर हार्ड वर्क एंड डेडिकेशन। वी आर नाव वेरी रेप्यूटेड एंड सक्सेसफुल फैमिली इन माई विलेज। फ़ादर वाज़ सिम्पल प्राइमरी स्कूल टीचर..."।
वर्मा को मालूम था अब कैसेट पूरा रिपीट हो कर ही रुकेगा। लेकिन वो ये भी जानता था कि कहानी कब और कैसे ख़त्म करनी है। तब तक इरशाद करने का फ़र्ज़ तो बनता ही था। पूरा २०-२५ मिनट के मोनोलॉग से सभी पूर्व परिचित थे।
"... वी ऑल आर वेल सैटल्ड। डूइंग वेल इन ऑफिस एंड फैमिली फ्रंट्स।"
कार्यक्रम का पटाक्षेप करने के उद्देश्य से वर्मा ने ठाकुर को आँख दबाते हुये पूछ ही लिया "सर आप लोग तो चार भाई हैं?" बस फिर क्या था सभा में एक सन्नाटा सा छा गया। पर मजबूरी थी। शर्मा को झाड़ से उतारने का ये आज़माया हुआ नुस्खा था। पलीता लगा कर वो चुप हो गया। चौथा पेग अन्दर जा चुका था। शर्मा कन्ट्रोल के बाहर होने को था। लेकिन वर्मा का प्रश्न सुन कर एक ठण्डी साँस लेते हुये हिंदी में बोला "एक और बनाओ यार। क्या बतायें वर्मा वही सबसे छोटा भाई इज़ ब्लैक शीप इन माई फैमिली...।" मोनोलॉग फिर शुरू हो गया। पर आवाज़ का वो वज़न ग़ायब था जो शुरुआत में था। पता नहीं लोग क्यों दूसरे की ख़ुशी से खुश नहीं हो पाते। वर्मा को कुछ आत्मग्लानि सी महसूस हुयी। लेकिन तीर चल चुका था।
ब्लैक शीप यानी काली भेंड़ को बचपन से मालूम था कि पढ़ाई -लिखाई उसके बस की बात नहीं है। बड़े भैया लोग शहर में रह कर पढ़ रहे हैं। वो बताते रहते हैं बड़ी मेहनत है पढ़ने में। उनका खर्चा मास्टर जी छोटी सी तनख्वाह और थोड़ी सी खेती से बड़ी मुश्किल से हो पाता था। मास्टर जी को भी लगता कि सब लायक निकल गए तो बुढ़ापे में उनकी सेवा-टहल कौन करेगा। पिता जी जब अपने सेमी-पक्के मकान के वरांडे में पड़े सोफे पर पैर चढ़ा कर यार-दोस्तों संग बैठते तो जोश में बेझिझक एक लड़का नालायक होने की महत्ता पर बल देते। उन सबको चाय-पानी कराते हुये काली भेंड़ को लगता पिता जी सही ही तो कह रहे हैं। उसके अलावा कौन है उनका ख्याल रखने वाला। बड़े भैया लोग गाँव में उनकी ज़रूरत का पूरा ख्याल जो रखते थे। नया सोफा लिया तो पुराना यहाँ छोड़ गये। नयी कार ली तो पुरानी बजाज की ताली मना करने के बाद भी थमा गये कि पिता जी को कहीं जाना हो तो दिक़्क़त न हो। फ्रिज़-टीवी सब तो हो गया है। धीरे-धीरे कच्चा मकान पक्का हो रहा है। छत पड़ गयी है और फर्श भी बन जायेगा। भाई लोग जब भी कोई ज़रूरत हो, धन का अभाव नहीं होने देते थे। बच्चों को बड़े भाइयों के बच्चों के कपड़े और किताबें सब मिल जाते। खेती में जो लागत लगती, उसका खर्च देते रहते। शहर वालों को शुद्ध खान-पान कहाँ मिलता है इस गरज़ से काली भेंड़ उनकी गाड़ियों में ताजे फल-सब्ज़ी रख देता। नौकरी कहीं भी हो पर घर के पास रहने के लिहाज़ से लखनऊ में सबने अपने-अपने मकान बनवा लिए थे। अब गोंडा के कस्बे में रहना उनके लिए मुश्किल था। सुबह आते और शाम तक निकल जाते। जाते-जाते उनका दिल भर जाता कहते पिता जी का ख्याल रखना। इससे ज़्यादा सुख की कल्पना कभी काली भेंड़ ने नहीं की थी।
"...वी आर रियली वरीड। व्हाट विल हैपन टु हिम व्हेन फ़ादर इज़ नॉट देयर।"
सुधी पाठकों से निवेदन है कि काली भेंड़ को ये बात कोई बताना मत।
- वाणभट्ट