जंज़ीर-दीवार-शोले में अमिताभ के होने के अलावा और क्या समानता हो सकती है. शायद ही कोई इसे गेस न कर पाये. उस समय तक हमें अपनी मर्ज़ी से पिक्चर देखने की आज़ादी नहीं थी. पिक्चर तब देखते थे जब पिता जी परिवार को साथ लेकर पिक्चर देखने जायें. दोस्तों के साथ पिक्चर देखना और परिवार के साथ पिक्चर देखने में बड़ा अन्तर होता है. तब तक राजेश खन्ना का बोल-बाला था. अधिकतर पारिवारिक फिल्में ही बनती थीं, जिनसे बच्चे कुछ सही भले न सीखें किन्तु गलत बात सीखने की गुन्जाइश न के बराबर थी. इस चक्कर में एक बार 'सफ़र' पिक्चर में पिता जी ने हमें फँसा दिया. पूरी फिल्म हम ढिशुम-ढिशुम का इंतज़ार करते रहे और फिल्म ख़त्म हो गयी. उस फिल्म में गाये किशोर दा के गाने तो आज भी सुनता हूँ, लेकिन फिल्म के कुछ दर्द भरे दृश्यों की स्मृति के चलते उस फिल्म को दोबारा देखने की हिम्मत आज तक नहीं हुयी.
ऐसी स्थिति में विजय बाबू हम लोगों का एक मात्र सहारा थे. वो अपने पिता जी के गल्ले से व्यवस्था बना कर हर फिल्म का पहला दिन, पहला शो मैनेज कर लेते थे. उम्र हमारे बराबर, यही कोई आठ-दस साल. जब बच्चों के पर निकल रहे होते थे, उनके निकल चुके थे. अमिताभ के जबरदस्त फैन. जिस दिन वो फिल्म देख कर आते थे, उस दिन शाम को बच्चों की टोली क्रिकेट, सेवेन स्टोन, गेन्द-तड़ी, गुल्ली-डंडा या गोली नहीं खेलती थी. सब लोग मैदान के किनारे बने छोटे से टीले पर बैठ जाते थे. ऑफ़ कोर्स सब लोग नीचे और विजय बाबू टीले के टॉप पर. फिर शुरू होता था, जंज़ीर, दीवार और शोले जैसी अमिताभ की फिल्मों का सजीव प्रसारण. सीन दर सीन, पूरे एक्शन, एक-एक डायलॉग और बैकग्राउण्ड म्युज़िक के साथ. एक बार भाई बम्बई जाने के विचार से निकल भी गये थे लेकिन घर के पास प्रयाग स्टेशन पर बम्बई की ट्रेन का इंतज़ार करते बरामद हुये. पिता जी ने बल भर कूटा. एक प्रतिभा ने फूटने से पहले ही काल के गर्भ में दम तोड़ दिया. इस प्रकार देश एक और अमिताभ के मिलने से वन्चित रह गया. ये एक कोइन्सिडेन्स कि उसका नाम अमिताभ के परदे वाले नाम से मैच करता है. बाद में उन्होंने सेल्स और मार्केटिंग को अपना कैरियर बनाया. उनका अपना व्यवसाय है, जिसमें वो अत्यधिक सफल भी हैं. आज भी विजय भाई कोई बात कहते नहीं बल्कि डायलॉग डिलीवरी करते हैं. और आज भी उनके मेरे जैसे कई फैन्स हैं.
उस समय तक अपर-मिडिल क्लास ने स्कूटर लेनी शुरू की थी, मिडिल-मिडल क्लास में स्पोर्ट जैसी सायकिल का चलन बढ़ रहा था और लोवर-मिडिल क्लास के पास सायकिल हुआ करती थी. उसमें लगी घंटी ही उस सायकिल सवार का टशन होती थी. हम यानि एक मकानमालिक और पाँच किरायेदार, एक परिवार की तरह रहा करते थे. ये परिवार क्या था, पूरा सर्विलांस सिस्टम था. किसी बच्चे की क्या मजाल कि उनकी पैनी निगाहों से बच जाये. आपस में प्रेम इतना था कि अपने पराये का बिलकुल भी भेद नहीं. बच्चा किसी का हो, अगर कुछ गलत करता मिल गया तो निस्पृह भाव से मोहल्ले के चाचा-ताऊ-बाबा-नाना उसे सुधारने के लिये यथाशक्ति-यथासामर्थ्य बल प्रयोग करने से नहीं चूकते थे. उस पर तुर्रा ये कि घर में जा कर बताओ तो माता-पिता जी से और आशीर्वाद पाओ. लिहाज़ा आज तक हममें, अन्य लोगों की तुलना में कुछ ज्यादा, जो संस्कार नाम की चीज़ बची हुयी है, उसमें उस विस्तारित परिवार का बहुत बड़ा योगदान है. जीवन का परमानन्द या तो दीन दुनिया से विरक्त सन्तों को मिलता है, या समाज में बहुतायत से पाये जाने वाले सदाचार विहीन व्यक्तियों को. कभी-कभी लगता है कि दुनिया का मज़ा लूटने के लिये पाला बदल लिया जाये, लेकिन संस्कार की जडें इतनी गहरी हैं, जो लाख प्रयास और इच्छा के बाद भी एक स्तर से नीचे गिरने नहीं देतीं.
तब शहर भी ज्यादा बड़ा नहीं था, हाँ हम लोग छोटे ज़रूर थे. गाहे-बगाहे पिता जी की सायकिल मिल जाना बड़ी बात थी. पूरे शहर का दायरा दस किलोमीटर में सिमट जाता था. लेकिन वही हमारे लिये बहुत था. उसमें भी गुम हो जाने की पूरी सम्भावना रहती थी. यदि शहर घूमने का मन हो और सायकिल का जुगाड़ हो गया तो मै बुलाता था सुधीर को. उसके माता जी हम लोगों के घरों में काम करती थीं. जब तक उसकी माँ हम लोगों के घर काम करती थीं, वो घर के आस-पास अकेले ही कुछ न कुछ खेला करता था. उसकी फोटोग्राफिक मेमोरी थी. वो शहर के मोहल्ले ही नहीं वहाँ स्थित दुकानों-प्रतिष्ठानों को भी जानता था. उसके दिमाग़ में पूरे शहर का नक्शा था. चूँकि हमने नयी-नयी सायकिल चलानी सीखी थी, तो उसे बैठा कर शहर भर घुमाता था. हम लोगों ने सिविल लाइन, चौक, घंटाघर, लोकनाथ, अशोक नगर, तेलियरगंज, मुट्ठीगंज, कर्नलगंज, कटरा, ममफोर्डगंज, कैन्ट आदि इलाहाबाद के बहुत से हिस्से एक्सप्लोर किये. आज भी अगर हमें इलाहाबाद की गलियाँ यदि अपनी लगती हैं तो उसमें हम लोगों की घुमक्कड़ जिज्ञासा का बड़ा योगदान है. बिना मैप्स के दिशा ज्ञान और सडक पर चलने के मूलभूत सिद्धान्त इस कदर आत्मसात हो गये कि मेरी कार पर मेरी गलती के कारण पड़ने वाले स्क्रैच नगण्य हैं. बाकी मेरी कार पर जितने भी घाव हैं, वो बिना ट्राफिक सेन्स के कानपुर की कुञ्ज सड़कों-गलियों में लहराते हुये चलने वालों की देन हैं.
कुछ ब्रांड इतने बड़े हो जाते हैं कि उनके एल्फाबेट्स देखते ही उनका नाम याद आ जाता है. 'जीई' शीर्षक देख कर आप के जेहन में भी 'जनरल इलेक्ट्रिक' का नाम ज़रूर उभरा होगा. 'आर' देखते ही रिलायंस की याद आती है, और 'एक्स' देख कर ट्विटर की और 'यूसी' से अर्बन कम्पनी की. यदि आपका कृषि क्षेत्र से कोई वास्ता होता तो शायद आप इसको जी X ई (GxE) के रूप में देख पाते. ऊपर जो इतनी रामायण लिखी है वो सिर्फ़ इसलिये कि मै अपनी बात को उन लोगों को समझा पाऊँ जो जीन के पीछे लट्ठ लिये पड़े हैं, उन्हें लगता है कि जीन सुधार देंगे तो सब सुधर जायेगा. ऊपर जितने भी उद्धरण दिये हैं उनमें व्यक्तियों की मेधा-आईक्यू में कोई कमी नहीं थी. क्या पढ़ और क्या अनपढ़, क्या शहरी क्या ग्रामीण, सब जगह आपको बुद्धिमान लोग मिल जायेंगे. किन्तु ये वातावरण ही था, जिसमें उनकी प्रतिभा निखरी या बिखरी. भारत में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिसमें बहुत सी प्रतिभाओं ने पलायन इसलिये कर लिया कि जिस व्यवस्था को हमने बिना किसी प्रश्नचिन्ह के स्वीकार कर रखा है, उसने उन्हें रिजेक्ट कर दिया. और उन्हीं लोगों ने जब विदेश में रह कर अपने झंडे गाड़े तो हमें भी उनके भारतीय मूल की याद आयी. भ्रष्ट आचरण वाले विभागों में ईमानदार की सत्यनिष्ठा महाभ्रष्ट लिख रहा हो तो ये सिस्टम की असफलता है न कि व्यक्ति की. अभी पड़ोसी देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने को लेकर हिंसक विद्रोह हुआ है. लेकिन सरकार के कुछ नुमाइन्दों को छोड़ कर शायद ही कोई भ्रष्ट अधिकारी या कर्मचारी भीड़ के हत्थे चढ़ा. ये अवधारणा ही गलत है कि सरकार बदलने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा. जब आम नागरिक सही-गलत का भेद भूल कर आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा होगा, तो सरकार में बैठे लोग भी तो जनता में से ही आते हैं. ये वातावरण ही है, जो भ्रष्टों को पालता, पोसता और संरक्षित करता है. व्यक्तिगत रूप से कितने लोगों को सजा मिली या मिलती है. जब आम जनता ने भ्रष्टाचार को व्यवस्थित तरीके से स्वीकार कर लिया हो, जहाँ भ्रष्टाचार समाज का अपरिहार्य अंग बन चुका हो, वहाँ भ्रष्टाचार से निपटने की सारी व्यवस्था 'आई वाश' से अधिक कुछ नहीं है. सिंगापुर में ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट एक संज्ञेय अपराध है और सजा का निर्धारण दो से तीन दिन के बीच हो जाता है. अरब देशों में भी ऐसा प्रावधान है कि चोरी करने से पहले ही चोरों की रूह काँप जाती है. कलाम साहब ने एक बार कहा था कि यदि हम चाहते हैं कि हम आज ही सिंगापुर जैसे विकसित देश बन जायें तो हमें वैसा ही व्यवहार करना होगा जैसा हम सिंगापुर एयरपोर्ट पर उतरने के बाद करते हैं.
भारत में बहुत सी ऐसी कम्पनियाँ हैं, जो आम के पल्प और जूस पर आधारित पेय पदार्थ बेच रही हैं. ये सारी कम्पनियाँ विदेशों से आम के पल्प या कंसंट्रेट इम्पोर्ट करती हैं. जबकि भारत आम का मुख्य उत्पादक व निर्यातक देश है. जब उनसे पूछा गया कि आप लोग अपने देश के आम का प्रयोग क्यों नहीं करते तो उनका जवाब हैरान करने वाला था. उच्च गुणवत्ता का उत्पाद बनाने के लिये हमें कच्चा माल भी एकरूप चाहिये. ब्राजील से आने वाला कच्चा माल गुणवत्ता में समरूप होता है, इसलिये उसके प्रसंस्करण में हमें कोई विशेष प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ती. अभी हाल ही में एक डेलिगेशन ब्राजील हो के लौटा है. हजारों एकड़ में एक ही प्रजाति की फसल देख कर वे अचंभित रह गये. यहाँ तक खेत के सर्वेक्षण के लिये ड्रोन और हैलीकॉपर का उपयोग होता है. उन्नत कृषि यंत्रों का उपयोग, मशीनीकरण व सिंचाई विधियों के उच्च स्तर ने सभी को प्रभावित किया. डेरी में गाय भी थीं, तो एक ही प्रजाति की हज़ारों गाय. उन्होंने भारत की पारंपरिक देसी गिर और साहिवाल का संवर्धन करके उनकी उत्पादकता में वृद्धि की. मूल प्रजाति में कम से कम छेड़-छाड़ कर के उसके उत्पाद की मूल गुणवत्ता को भी बनाये रखा गया है.
मेडिकल साइंस में अभूतपूर्व विकास के बाद अब लोगों का सामना एलोपैथी के दुष्परिणामों से हो रहा है. हमारे पूर्वजों ने स्वानुभूति से, आधुनिक चिकित्सीय ज्ञान से पहले ही, चिकित्सा की पूरी एक विधा, आयुर्वेद विकसित कर रखी थी. विदेशी ग़ुलामी और अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में हम अपनी ही मूल चिकित्सा व्यवस्था से विरत हो गये. अंग्रेजी को विज्ञान मान लिया. हर अवयव (ऑर्गन) के विशिष्ट विशेषज्ञ चिकित्सक हैं. जो अनेकानेक टेस्ट-स्कैन-एमआरआई के बाद ही बीमारी का कारण खोज पाते हैं. और खास बात है कि भले बीमारी एक हो लेकिन कोई भी दो चिकित्सक एक दवाई नहीं लिखते. शहर में होटल कम अस्पताल ज़्यादा होते जा रहे हैं. कभी-कभी शक़ होता है कि आधुनिक चिकित्सा पद्यति कहीं बिज़नेस बन कर तो नहीं रह गयी है. हमारे पुराने वैद्य जी आज भी नब्ज़ टटोल कर बता देते हैं कि दिल की प्रॉब्लम है या दिमाग़ का वहम. बहुत सी बीमारियाँ आदमी के दिमाग़ के कारण है. जोसेफ़ मर्फ़ी की एक किताब - पावर ऑफ़ सबकांशस माइंड - मैंने बहुत से ऐसे लोगों को गिफ़्ट की है जो हर समय बीमारी की बात करते थे. ऐसा मैने अपने उपर अनुभव के बाद ही किया है. किसी बड़ी बीमारी से सामना न हो, प्रभु से ऐसी कामना है, लेकिन छोटी-मोटी बीमारी के लिये मै इलाज़ से बचने का प्रयास करता हूँ. अभी तक ज़ीरो मेडिकल क्लेम के लिये उपर वाले का शुक्रगुज़ार हूँ. च्यवनप्राश, अदरक, मुलेठी, आदि से काम चलता रहे, और उसके आगे बाबा के नुस्खों पर भरोसा मुझे बीमारी को बीमारी मानने नहीं देता.
मेरे एक मित्र जिन्होंने रिटायरमेंट से पहले कभी भी नियमित दिनचर्या का पालन नहीं किया. जर्मनी जाने पर उनके बेटे-बहू ने उन्हें दौड़ने के लिये प्रेरित किया. आज न वो सिर्फ़ अपनी फ़िज़िकल फिटनेस पर ध्यान दे रहे हैं, बल्कि मैराथन में भाग लेने यहाँ-वहाँ जाते रहते हैं. बहुत से भारतीय, जो यहाँ सिस्टम में फिट होने के लिये संघर्ष करते रहे, उन्होंने विदेशों में जा कर बहुत अच्छा परफॉर्म किया और उच्च पदों को शोभायमान किया. बहुत सी भारतीय विभूतियों को हम तब पहचान पाये जब उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गये. भ्रष्ट वातावरण में ईमानदार आदमी का सर्वाइवल कितना कठिन है, सब जानते हैं. भ्रष्ट विभाग में एक ईमानदार की सत्यनिष्ठा कोई महाभ्रष्ट लिखता है. देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को तो सब ख़त्म करना चाहते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिये भ्रष्टाचारी का महिमा मंडन भी करते रहते हैं. जिस सिस्टम को हमने अपरिवर्तनीय मान कर स्वीकार कर लिया है, उसमें सर्व-गुण-सम्पन्न लोग ही फल-फूल सकते हैं. वातावरण बदलिये और देखिये फ़र्क हर जगह दिखायी देगा.
जीवन के साठ वसंत देखने के बाद तथाकथित एक्सपर्टस् पर से मेरा विश्वास कम हुआ है. हर व्यक्ति अपने चश्मे अपने दृष्टिकोण से समस्या को देख रहा है. अंधों के हाथी की तरह हर कोई पैर को खम्भा बता रहा है, तो कोई कान को सूप. बात तब बनेगी जब हाथी को समग्रता से आँख से पट्टी उतार के देखा जायेगा. भारतीय कृषि एक ऐसा ही हाथी है. हर एक्सपर्ट अपने-अपने तरीके से समाधान खोज रहा है, लेकिन समग्रता से कोई नहीं. देर से ही सही मशीनीकरण, भण्डारण, प्रसंस्करण, जल व भूमि संरक्षण और कृषक आय सम्वर्धन की बात शुरू हुयी है. वृहद स्तर पर खेती को लाभप्रद बनाये बिना कृषि और कृषक का भविष्य आनिश्चित है. आवश्यकता है ये समझने की कि हमें शोध के लिये शोध करना है या समाधान के लिये. बात शुरू हुयी थी, G x E से. जीन और वातावरण. ये प्रबुद्ध पाठकों को निर्णय लेना है कि सारे रेसोर्सेस एक ही दिशा में झोंक देना किस हद तक सही है. आज सारी कहानी लाभ-हानि पर सिमट के रह गयी है. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ रहा है. सिंचाई की परियोजनाओं से सिंचित क्षेत्र बढे हैं. भण्डारण व प्रसंस्करण के माध्यम से ग्रामीण आय में वृद्धि हुयी है. हमारा काम है उचित वातावरण का निर्माण, बाकी प्रयास स्वतः ही अपना-अपना आकार ले लेंगे. व्यावसायिक विधि से खेती करने के लिये ब्राज़ील का मॉडल निश्चय ही अनुकरणीय है.
-वाणभट्ट
पुनश्च: निवेदन है कि इस लेख को पूर्व में लिखे लेख 'कृषि शोध - दशा और दिशा' की अगली कड़ी के रूप में देखा-पढ़ा जाये. जिसका लिंक है -
https://vaanbhatt.blogspot.com/2025/03/blog-post_31.html
संयोग: आज हिन्दी दिवस पर इस लेख का लिखा जाना एक सुखद संयोग है.
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