एक नाम से ज्यादा कुछ भी नहीं...पहचान का प्रतीक...सादे पन्नों पर लिख कर नाम...स्वीकारता हूँ अपने अस्तित्व को...सच के साथ हूँ...ईमानदार आवाज़ हूँ...बुराई के खिलाफ हूँ...अदना इंसान हूँ...जो सिर्फ इंसानों से मिलता है...और...सिर्फ और सिर्फ इंसानियत पर मिटता है...
रविवार, 23 अक्तूबर 2022
बुधवार, 5 अक्तूबर 2022
सनातन
धर्म के नाम पर बहुत कन्फ्यूजन फैला हुआ है. मजहब-सम्प्रदाय को लोग धर्म से कन्फ्यूज कर गये हैं. जिस तरह धर्म शाश्वत है, उसी तरह अधर्म भी अपरिवर्तनीय है. धर्म की सीधी-सपाट परिभाषा जो मेरी समझ में आती है वो ये है - "धर्म के अतिरिक्त सब अधर्म है". धर्म देश-काल-स्थान में भी बदलता नहीं है. इसका अनुसरण करना भी बहुत आसान है. बस अन्तरात्मा की बात माननी है. ये वो देव-वाणी है जिसे अधर्म करते हुये चुप कराना पड़ता है. लेकिन इसकी अग्नि कहीं न कहीं आत्मग्लानी या पश्च्याताप के रूप में अंतर्मन में सुलगती रहती है. राम-रावण-हनुमान-दसहरा आदि प्रतीकों के माध्यम से धर्म का साक्षात् स्वरुप को मानव मात्र के सामने प्रस्तुत किया जाता है. श्रीमद भगवत गीता में भी व्यक्ति के अन्तर्द्वंद को महाभारत के रूप में दिखलाया गया है. पाँच अच्छाइयों पर सौ बुराइयाँ हावी हैं. हमारी स्थिति भीष्म की है. जो चाहता है बुराई और अच्छाई दोनों साथ रहें. जीवन का असली आनन्द तो बुराइयों में निहित है. संत ही बनना था, तो दुनिया में आने और रहने की जरूरत क्या है. कमंडल लो और निकल लो. द्वैत हर युग में रहा है, और अधर्म के बिना धर्म की स्थापना की कल्पना भी संभव नहीं है. इसी धर्म ध्वजा का निरन्तर वहन ही सनातन है. जिसका न कभी आदि था न कभी अन्त होगा.
दसहरा शायद इसीलिये मनाया जाता है कि कम से कम साल में एक बार अच्छाई और बुराई पर मंथन कर लिया जाये. ये उपदेश किसी और के लिये नहीं हैं. ये सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिये हैं. कोई भी व्यक्ति अपने धर्म से भले वाकिफ़ न हो लेकिन अधर्म को सीने में छुपाये घूमता रहता है. एक भजन में इसका ज़िक्र भी आता है "जग से चाहे भाग ले प्राणी, मन से भाग ना पाये". इसीलिये वानप्रस्थ आते-आते ईश्वर के प्रति उसकी आस्था बलवती होने लगती है. दीन-दुनिया के सफलतम लोग भी भगवान को क्या जवाब देंगे का ध्यान करके स्पीरिचुअल होने के प्रयास में लग जाता है. छत्तीस चूहे खा कर पुण्य कमाने का प्रावधान सभी सम्प्रदायों में है.
गर्ग साहब रिटायर्मेंट की कगार पर पहुँच चुके हैं. हिन्दुओं में जितनी जातियाँ हैं, उतने ही उपनाम भी हैं. जो पुछल्ले की तरह नाम से चिपक जाते हैं. जातक जब जन्म लेता है तो उसे इस बात का भान तक नहीं होता कि उसने कितने उच्च कुल में जन्म लिया है. इस टाइटिल के उच्चारण मात्र से समाज को पता चल जाता है कि बन्दा ज्ञानी है, बलशाली है, व्यापारी है या इनमें से कुछ भी नहीं है. ये जो कुछ भी नहीं हैं, वही बहुतायत में पाये जाते हैं. जब हम घर-परिवार-समाज पर एक सरसरी नजर डालते हैं, तो स्पष्ट दिखता है कि बनाने वाले ने सबको बराबर नहीं बनाया है. एक ही परिवार में एक सक्षम भाई दूसरे अक्षम भाई को उसी दृष्टि से देखता है जैसे समाज की विभिन्न जातियाँ एक दूसरे को. किसी संगठन में भी देखेंगे तो उच्च पदों की संख्या सीमित हैं जबकि रोजमर्रा के कामों के लिये जितने व्यक्ति मिल जायें उतने कम हैं. भारत वर्ष को पुरातन परिपेक्ष्य में देखें तो जातियाँ किसी के साथ चिपकी नहीं थीं. लेकिन समय के साथ अपनी सुविधा के लिये लोगों ने उसे चिपकाना उचित समझा, ताकि लोगों को परिवार का इतिहास बताना न पड़े. शिवा जी और राणा प्रताप का शौर्य उनकी तलवारें बोलती थीं. लेकिन वहाँ जोख़िम ज्यादा था. नाम में टाइटिल लगाने से ही जब भौकाल टाइट हो जाये तो तलवार उठाने की क्या जरूरत है. मुगलों के समय में भी जाति व्यवस्था चिपकाने का प्रचलन रहा हो, ऐसा कम ही दिखता है. बहुत संभव है कि अंग्रेजों को अपनी योग्यता जाहिर करने के उद्देश्य से ये आज की प्रचलित वर्ण व्यवस्था ने जन्म लिया हो. जैसे आज हम अपने अंग्रेजी स्कूल में पढ़े होने पर गर्व महसूस करते हैं, वैसे ही हर किसी का प्रयास होता है कि उसके पास गर्व करने के लिये कुछ ना कुछ तो होना चाहिये.
नौकरी लगने के बाद एक चीज़ का एहसास जो सबसे पहले हुआ वो ये था कि पिता जी लोगों ने नाहक ही नामकरण की जहमत उठायी. एक संस्थान में एक ही उपनाम के ज़्यादा लोग तो होते नहीं. सो लोग बाग़ वर्मा-शर्मा-मिश्रा-ठाकुर आदि से ही काम चला लेते हैं. लेकिन यहाँ भी एक लोचा है. कुछ उपनामों के साथ ही साहब लग सकता है. जैसे गर्ग, सिंह, पाल आदि के साथ साहब फिट बैठता है. और बाक़ी वर्मा-शर्मा-मिश्रा आदि को जी से ही काम चलाना पड़ता है. कभी-कभी पोस्ट (पद) को देखते हुये, कुछ लोग वर्मा या शर्मा या मिश्रा के साथ साहब लगाने का अनुचित प्रयास करते हैं. लेकिन ये सहज समझ आ जाता है कि बन्दा पोस्ट को साहब लगा रहा है, व्यक्ति के उपनाम को नहीं.
तो गर्ग साहब को जब मालूम हो गया कि अब रिटायर हुये बिना कोई चारा नहीं है, तो उन्होंने मनन किया कि अब क्या करना है. जीवन के तजुर्बों ने इतना तो बतला ही दिया था कि जैसे वो अपने माँ-बाप की सेवा उनकी वृद्धावस्था में कर सके, बहुत संभव है कि उनके बच्चों को अपनी महत्वाकांक्षाओं और आजीविका के चलते ये अवसर न मिल पाये. तो उन्हें इस लायक तो होना ही चाहिये कि अपनी देख-भाल ख़ुद कर सकें. इसके लिये पहली प्रीरिक्विज़िट थी - स्वस्थ शरीर. इस उद्देश्य से उन्होंने अपनी दिनचर्या को बहुत ही संतुलित और संयमित कर लिया. उचित आहार-विहार और खान-पान में संयम भले ही देखने में छोटी बातें लगतीं हों लेकिन उनका पालन करने के लिये बहुत प्रयास करने पड़ते हैं. बहरहाल धुन के पक्के गर्ग साहब ने चीनी-नमक-जंक फूड्स से तौबा कर ली. और प्रातःकालीन वाक को अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया. ये बात अधिकांश लोगों को पता होती हैं, लेकिन पता नहीं क्यों वो इसके लिये रिटायर होने का इंतज़ार करते हैं. इस बात को जिसने जितनी जल्दी समझ लिया उसका पोस्ट रिटायर्मेंट जीवन उतना ही स्वस्थ होता है.
उनके टहल-मार्ग में एक पीपल का पेड़ भी पड़ता था. हिन्दू मान्यताओं के अनुसार पीपल के वृक्ष में देवताओं का वास होता है. हिन्दू लोगों की मान्यता ये भी है कि भगवान सब जगह है और सब कुछ देख रहा है. इसलिये धर्म चाहे-अनचाहे इनके जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है. अधर्म करने के बाद भी इन्हें ज्ञात रहता है कि कहाँ-कहाँ गलत किया है. उससे मानसिक मुक्ति के लिये ना-ना प्रकार के प्रावधान भी हैं. गंगा स्नान-तीर्थयात्रा-भजन-पूजन जो आपको सूट करे कीजिये. और सबसे आसान है इस बात का बोध कि कर्ता तो वो ही है, हम तो साधन हैं, निमित्त मात्र हैं. इसलिये मेरा क्या दोष. "तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा".
पिछली दीपावली की लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ कहीं कूड़े या सड़क पर तो फेकीं नहीं जा सकतीं. घर पर नयी लक्ष्मी जी को आना है, सो इनका निस्तारण कैसे हो. धर्म के नाम पर इतनी शर्म बची हुयी है कि रात के अँधेरे में ये मूर्तियाँ घर से निकाल कर किसी छोटे मन्दिर या पीपल के पेंड के नीचे बा-इज्ज़त रख दी जाती हैं. जाड़ा-गर्मी-बरसात के भरोसे. कि ऊपर वाला अपने विधान से उन मूर्तियों को डिस्पोज करेगा. एक साल की मूर्तियाँ डिस्पोज़ होने नहीं पातीं थीं कि दिवाली फिर आ जाती थी. उस पीपल के पेड़ के नीचे मूर्तियों का अम्बार लग गया था. कण-कण में भगवान् देखने वाले उस पीपल के पेड़ पर भी शीश झुका देते. गर्ग साहब की दिनचर्या में ये काम भी शामिल हो गया था.
बरसात की उस सुबह कुछ बूँदा-बांदी हो रही थी. एक मन किया कि चलो आज नहीं जाते. लेकिन बारिश कुछ कम थी, इसलिये छाता लेकर टहला जा सकता है. ऐसा सोच कर गर्ग साहब घर से निकल लिये. यथावत पीपल के पेड़ पर पहुँच कर तमाम देवी-देवताओं को नमन करने के लिये शीश झुकाया तो देखा किसी ने प्लास्टिक की पारदर्शी पन्नी में हार्ड कवर में श्रीरामचरितमानस हिन्दी टीका के साथ (वृहदाकार) रख छोड़ी है. उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि क्या लोगों के घरों में इतनी जगह नहीं बची है कि धर्मग्रंथों को भी रखा जा सके. उस लिफ़ाफ़े में १०८ मनकों की रुद्राक्ष की जप-माला भी रखी हुयी थी. गर्ग साहब को लगा ये शायद ऊपर वाले का इशारा है. स्वास्थ्य के साथ-साथ आध्यात्मिकता का समय भी आरम्भ होने वाला है. उन्होंने पुस्तक को उठा के माथे से लगा लिया.
- वाणभट्ट
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