शनिवार, 11 जनवरी 2020

गड्ढे

गड्ढे

इन दिनों सड़कों पर बहुत गड्ढे हो गये हैं। कुछ गड्ढे तो इतने बड़े और गहरे हो गयें हैं कि उन्हें खाई की संज्ञा भी दी जा सकती है। भारत की सहिष्णु जनता को दिक्कतों की आदत इस कदर पड़ चुकी है कि वो गड्ढों के बीच सड़क खोज कर निकल जाती है। मोटरसाइकिल और कार वाले भी तभी ऊपर वाले या सरकार को कोसते हैं जब सर्विस सेंटर वाले नये शॉकर की कीमत बताते हैं। एक अदद ज़िन्दगी में बवाल ही बवाल हैं। किसी ने तो गाना ही बना डाला - ज़िन्दगी हर कदम इक नई जंग है, जैसे कि बन्दा ज़िन्दगी जीने के लिये नहीं लड़ने के लिये धरा पर उतरा है। लेकिन किसी से हाल-चाल पूछ लो तो आजकल फेसबुकिया पॉज़िटिव एटीट्यूड के प्रवचनों के कारण मज़ाल है कोई ख़राब बता दे। यदि मूड सही हुआ तो बन्दा मौसम के ख़ुशगवार होने की बात करेगा। यदि अपना मूड सही नहीं है तो यक़ीन मानिये सारा दोष मौसम के सर मढ़ देगा।

गड्ढों की प्रवृत्ति पर गौर किया जाये तो लगता है ये गड्ढे हमारे देश-प्रदेश की सरकारों की देन हैं। सरकारों का हाल किसी से छुपा तो है नहीं। यदि सरकार को अगली बार न आने का डर हो तो सब के सब कमाने में जुट जाते हैं, पता नहीं फिर मौका मिले या ना मिले। और यदि सरकार को अपनी स्थिरता का विश्वास हो तो उन्हें लगता है - हमार कोई का करिबै। इसलिये गड्ढे निरन्तर बढ़ते जाते हैं। और जनता मोबाईल कंपनियों के दिये फ़्री डाटा को साधने के उद्देश्य से फेसबुक और व्हाटएप्प पर अपना ज्ञान लेने -देने में लग जाती है। जब से अड़ोस-पड़ोस की दीवारें ऊँची हो गयी हैं और घर-परिवार में हर इन्सान अपनी ज़िन्दगी में हद से ज़्यादा बिज़ी हो गया है, यदि ये फ्री डाटा न मिले तो मोबाईल से अपना नहीं तो अपने पड़ोसी का सर तो अवश्य फोड़ दे। पिछले कुछ दिनों इंटरनेट परिचलन के बंद होने के बाद कमोबेश ये स्थिति हर उस बन्दे की थी जिसके लिये सोशल मीडिया से बढ़िया टाइम पास कुछ और नहीं हो।   

वो बात आज भी अच्छी तरह से याद है जब पिता जी ने पहली बार चौबीस इंच वाली सायकिल सीख लेने के लिये ऑफर की थी। शादी में मिली रेले सायकिल को शायद ही उन्होंने किसी को हाथ लगाने दिया हो। पाँचवीं या छठवीं कक्षा में रहा होऊँगा। बेसिक ट्रेनिंग के बाद उन्होंने बताया बेटा पैर चलाने के साथ-साथ हैंडल को भी साधना पड़ता है। बस सडकों के इन गड्ढों से बच कर चलने की कोशिश करो, धीरे-धीरे हैंडल सध जायेगा। बाद में पता लगा ये बात जीवन के हर पहलू पर लागू होती है। अपने अन्दर भी और अपने बाहर भी। जिसने छोटे-छोटे गड्ढों से बचना सीख लिया उसे जीवन का मूल मन्त्र मिल गया। दिक्कत तब शुरू होती है जब हम गड्ढों को नज़रन्दाज़ करना शुरू कर देते हैं। धीरे-धीरे हमें गड्ढों की आदत पड़ जाती है और कुछ समय बाद गड्ढों में आनंद भी आने लगता है। ये गड्ढे जब गहरे हो जाते हैं कि उनसे निकलना असाध्य लगने लगता है। छोटा सा घाव कब नासूर बन जाता है पता ही नहीं चलता। पिता जी की वो टिप आज और आज के परिवेश में उतनी ही सार्थक लगती है। अब लगता है यदि हैंडल साधना है तो गड्ढों से बचना ही काफी नहीं है, गड्ढों को भरते भी जाना चाहिये। 

पूरा हुजूम मानों गेट-वे ऑफ़ इण्डिया पर उमड़ आया था। आतंकवादी हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। कैंडल ले कर सब लोग ग़म और शोक में डूबे चले जा रहे थे। जो घर से नहीं निकले थे, उनका दुःख भी कम न था। नम आँखों से टीवी पर देश का विरोध प्रदर्शन देख रहे थे। कैंडल कल्चर की शायद वहीं से शुरुआत हुयी हो। उसके बाद तो कैंडल कल्चर ने जोर पकड़ लिया। जब भी कोई भयावह घटना घट जाती है लोग अपने रोष या दुःख का प्रदर्शन करने सडकों पर उतर आते हैं कैंडल ले ले कर। आतंकियों द्वारा पोषित अघोषित युद्ध में सेना के वीर नवजवानों की शहादत हो या महिलाओं के प्रति बढ़ते जघन्य अपराध हों, कैंडल मार्च विरोध प्रदर्शन का पर्याय बन चुका है। देश के लाखों-करोड़ों लोगों की मुखर आवाज़ बन चुके हैं, ये मार्च। कुछ ऐसे भयावह काण्ड इधर घटित हुये हैं जिनके ज़िक्र मात्र से मानवता शर्मसार होने लगती है। ज़ख्मों को कुरेदने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन ज़ख्म को भुला देना भी कहाँ तक सही है। लोग निकलते हैं रोष सडकों-चौराहों-मीडिया पर व्यक्त करने के बाद फिर सो जाते हैं लम्बी नींद में तब तक के लिये जब तक एक और कांड न हो जाये। फिर कुछ दिनों की अफ़रातफ़री फिर गहरा सन्नाटा। 

हैदराबाद की हैवानियत के बाद एक बार फिर गुस्सा उबाल पर था। सभी चैनल अटे पड़े थे न्यूज़ से। जगह-जगह धरने प्रदर्शन चल रहे थे। कुछ सारा ठीकरा व्यवस्था पर फोड़ने में लगे थे कुछ सामाजिक परिवेश पर। सबकी उँगलियाँ दूसरे की ओर इशारा कर रहीं थीं। कोई अपने गिरेबान में झाँकने को राजी नहीं दिखा। भीड़ क्रान्तिकारी हुयी जा रही थी। मानों न्याय को अपने हाथों में लेने पर आमादा हो। मुझे पिता जी की बात याद आ रही थी। हमने छोटे-छोटे गड्ढों से बचने के बजाय उन्हें नज़रअंदाज़ में लग गये। जब भी मौका मिला थोड़ा बहुत पैचवर्क (पैबंद) से काम चला लिया। मुझे लग रहा था जिस देश में इतने देशभक्त हों वो देश कैसे ग़ुलाम हो गया और वहाँ ग़ुलामी इतने वर्षों कैसे टिक गयी। क्या ये वही लोग हैं जो घूस लेने-देने से मना कर देते हैं। अपने स्वार्थ से ऊपर कर्तव्य को रखते हैं। गुटका खा कर पुड़िया जेब में रख लेते हैं और पीक थूकते हैं अपने घर के पीकदान में। सारा ट्रैफ़िक अपनी लेन का पालन करता है और क्या मजाल कि कोई बेवज़ह हॉर्न बजा दे या स्पीड लिमिट क्रॉस कर जाये। अपने घर में कच्ची ज़मीन पर किचन गार्डन बनाते हैं न कि फुटपाथ पर। अपना रैम्प पडोसी से नीचे रखते हैं ताकि उनके नित्य-प्रति कार धोने में व्यर्थ हुआ पानी पडोसी के घर में न जाये। फ़र्ज़ी बही-खाता और फ़र्ज़ी रसीद से इनका कोई सरोकार नहीं है। टैक्स ये बिना माँगे पूरी ईमानदारी से सरकारी कोष में जमा करा देते हैं ताकि देश की विश्वव्यापी समस्याओं गरीबी-भुखमरी-बेरोज़गारी-शिक्षा से बेहतर ढंग से लड़ सके। विद्यालयों में छात्र अध्ययन और शिक्षक शिक्षण में ही लगे हों राजनीति में नहीं। नेताओं-पुलिस-अधिकारियों से जिन समाजसेवा की अपेक्षा की जाती है उसका पालन वो जनता भी करती है जो दूसरे की मानसिक विकृतियों को ठीक करने के लिये मृत्यदण्ड की अनुशंसा कर रही है। मज़हबी और सामाजिक ताना-बाना इस क़दर मज़बूत है कि देश के लिये सब मर-मिटने के लिये तैयार हैं और पूजा-इबादत करना उनका व्यक्तिगत मामला है। 

अश्रुपूरित नेत्रों से मै लगातार चैनल पर चैनल बदलता जा रहा हूँ। कहीं आक्रोश फूटा पड़ रहा है। कहीं डिबेट में सरकार की कामी-नाकामी को लेकर प्रवक्ता लड़े जा रहे हैं। पल-पल ब्रेकिंग न्यूज़ में ख़ुलासे किये जा रहे हैं। लगता है सब देशप्रेमी न्याय करा कर ही मानेंगे। इसमें कोई शक नहीं की टीवी न्यूज़ चैनेल्स की वज़ह से अधिकाधिक घटनायें प्रकाश में आ रही हैं, अन्यथा सब ओर अमन-चैन ही नज़र आता। दो-चार दिन बाद जब सब शांत हो जायेगा, उसी केस में पीड़ित को न्याय दिलाने में आठ-दस साल लग जायेगा। कुछ को न्याय मिल भी जाता हो, अधिकांश तो न्याय की आस में वैसी ज़िन्दगी जीने को विवश होते हैं जिसे ज़िन्दगी कहना भी गुस्ताख़ी होगी।  

सडकों पर गहराते गड्ढों की तरह देश के कई घाव नासूर बन गये हैं। जब मेजर सर्जरी होती है तो पूरा देश बिलबिलाता है। लेकिन सबका ध्यान बड़े-बड़े गड्ढों पर टिका हुआ है। छोटे गड्ढों को अभी भी नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। यदि छोटे क्राइम को समाज ने सहना सीख लिया तो कभी भी बड़े गड्ढों से निजात नहीं मिलने वाली। शुरुआत ढाई साल के बच्चों से ही होगी यदि दस साल बाद हम भारत को वैसा देखना है जैसी कि हम सब बातें करते हैं। नागरिक के अधिकारों की बातें बहुत हो चुकीं अब अच्छे नागरिक के कर्तव्यों की बात होनी चाहिये। गलत काम या व्यवहार की सजा अपराध के परिमाण अनुसार अवश्य मिलनी चाहिये। बढ़ते अपराध और अपराधियों के की रोकथाम का ये सहज उपाय है - निप ऐट द बड। जड़ें जब गहरी हो जातीं हैं तो प्रूनिंग से काम नहीं चलता, पूरा पेड़ उखड़ना पड़ता है। 

यदि गड्ढा रहित सड़क चाहिये तो छोटे-छोटे गड्ढों को भरना शुरू कीजिये। प्रगति की रफ़्तार में लगायी जाने वाली ऊर्जा सिर्फ़ हैंडल सम्हालने में ख़र्च करना कहाँ की समझदारी है।             

-वाणभट्ट 

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...