रविवार, 3 अक्टूबर 2010

ड्रा में मेरा नाम आया है

ड्रा में मेरा नाम आया है.

लौटरी खेलना मुझे नहीं भाता.
पर खेल खेल में,
अख़बारों की रेल-पेल में,
एक पत्र ने ड्रा का एक खेला खेल.
मै क्या जानूं ऊपर वाला खेल रहा है कोई खेल.

मैंने कभी न उस विज्ञापन पर ध्यान दिया.
न ही उसके कूपन काटे नहीं उसका फॉर्म भरा.

कूपन काटे पापा जी ने,
उनको चिपकाया बिटिया जी ने.
जब मै ब्लॉग पर अपनी भड़ास निकल रहा था.
बेटा मेरे पास आया,
पापा हौकर का नाम है क्या?
जा कुछ पढ़,
मै झल्लाया.

अगले दिन जब बच्चे चल दिए स्कूल.
पापा जी ने याद दिलाया,
आज आखरी दिन है फॉर्म जमा करने का.

पत्नी जी ने बच्चों की सारी अलमारी देखी
हर पुस्तक का पन्ना देखा.
पिता जी पड़े हुए थे उस फॉर्म के पीछे.
फिर वो फॉर्म मिला कहीं अख़बारों के नीचे.

अख़बारों संग चाय की चुस्की में,
मै डूबा था सबकी परेशानीओं से परे.
जब श्रीमती जी ने वो फॉर्म दिया मुझको
भरने.

फॉर्म भर के मै चला नहाने,
नाश्ता करके जब ऑफिस बैग उठाया,
पिता जी ने फिर याद दिलाया बेटा फॉर्म डालने की आज लास्ट डेट है.

पर फॉर्म नहीं था अपनी मेज पर
फिर क्या था सब मिल कर लगे खोजने,
पर फॉर्म को न मिलना था न मिला.
स्थिति कुछ ऐसी थी
कि
जमीन खा गयी या आसमान निगल गया
या
फॉर्म ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सर से सींग.

मुझे ऑफिस की देर हो रही थी.
मां बोली की क्या जी आप भी लौटरी के चक्कर में पड़े हुए हैं.
जाने दो इसको देर हो रही है.
मेरी जान में जान आई और इस तरह मैंने जान छुटाई.
कर्टसी वश बोला
गर मिल जाए तो फ़ोन कर देना,
मै लंच में आ कर ड्रॉप कर दूंगा.

फॉर्म मिल गया, पर लंच में कुछ व्यस्त रहा
कुछ आने की इच्छा भी न थी.
मन में शंका थी की इस काम से कोई लाभ नहीं.

फिर भी सबका दिल रखने को मैंने फ़ोन किया की अब आता हूँ
पत्नी बोली धुप बहुत है मत आना
मै बोला की आता हूँ
फिर माता जी ने फ़ोन किया की मत आना
धुप बहुत है और पापा की तो आदत है की एक बात के पीछे ही जाते हैं पड़.
मैंने राहत की सांस ली,
और भूल गया की समय है शाम ४ बजे तक.

उसी समय मेरे एक मित्र आये वो बोले मै उसी ओर जा रहा हूँ
घर से लेकर फॉर्म डाल दूंगा
मैंने कहा ये आपकी जर्रा नवाजी है, पिता जी खुश हो जायेंगे
और मेरा फॉर्म पहुँच गया ड्रॉप बॉक्स में.

अगले दिन मुझको अख़बार के ऑफिस से फ़ोन आया,
वर्माजी ड्रा में आपका नाम आया है.
कुछ आश्चर्य कुछ ख़ुशी से मैंने खबर सबको बताई
पर मेरे एक बात समझ आई
उस कागज के टुकड़े को सही जगह पहुंचना था
इस लिए वो मेरे न चाहते हुए भी अपने गंतव्य तक पहुँच गया

मेरे उस मित्र ने इसे और भी समझाया
कर्म पर अपना अधिकार है फल पर नहीं
बिना कर्म के भाग्य भी नहीं
फॉर्म पहुँचाने के कर्म के बाद ही भाग्य ने अपना काम किया

गीता का ज्ञान सहज ही मेरी समझ में आ गया.

- वाणभट्ट

2 टिप्‍पणियां:

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