रविवार, 30 जून 2024

सही है

यदि उनको आना होता तो उनके आने का समय नियत था. बस ये निश्चित नहीं था कि उनका पदार्पण किस दिन होगा. भले ही महीने में उनका आना एक या दो बार हो, लेकिन ये महज संयोग ही हो सकता है कि उनके आने का समय अक्सर मेरे लंच से कोइन्साइड करता था. दरअसल मुझे जानने वाले हर आदमी को पता है कि ऑफिस में लंच के समय मेरे कमरे में मिलने की सम्भावना प्रबल रहती है. क्योंकि उस समय मीटिंग्स नहीं होती. मेरे एक मित्र मीटिंग्स को इस तरह डीफ़ाईन करते थे - मीटिंग इज़ अ प्लेस वेयर मिनट्स आर केप्ट एंड आवर्स आर लॉस्ट. मीटिंग का ज़िक्र आया तो सोचा चटका दूँ. 

जब से लोगों की आय में उनकी अपेक्षा से अधिक वृद्धि हुयी है, उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि इस बढे हुये पैसे का करें तो करें क्या. बड़ी सी कार/एसयूवी खरीद ली. इनकम टैक्स बचाने की गरज से एक एमआईजी या फ़्लैट भी लोन पर ले लिया. जब तक बच्चों के बस्ता नहीं टंगा था, दुनिया-जहान भी घूम डाला. हफ़्ते में चार दिन बाहर जा कर या बाहर का मंगा कर खाने के बाद जल्द ही ये आभास हो गया कि रोज-रोज बाहर का खाना, खाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो सकता है. प्रोस्परिटी भी शरीर के चारों ओर से छलकने लग पड़ी थी. बेल्ट की सहायता से किसी तरह इस बढ़ती हुयी प्रॉस्परिटी/प्रॉपर्टी को सम्हाल रहे हैं. सेविंग्स और बचत को परम सत्य मानने वाले देश में सरकार और प्राइवेट कम्पनियाँ चाहती हैं कि लोग पैसा मार्किट में लगायें ताकि देश की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ हो. सरकार ने लोगों का पैसा मार्केट में निकलवाने के लिये ऐसे ऐसे नियम बना दिये कि जीपीएफ़-पीपीएफ़ जैसे सुरक्षित बचत की विधियों में लोग सीमित धन ही डाल सकें. नयी टैक्स पॉलिसी भी ऐसी है जो बचत से ज्यादा खर्चा करने को प्रोत्साहित करती है. लोग खुल के कमायेंगे और दिल खोल के खर्च करेंगे तभी तो देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे पायेंगे.

नतीजा ये हुआ कि मेरे जैसे वित्तीय मामलों के लिख लोढ़ा-पढ़ पत्थर टाइप के व्यक्ति को भी समझ आ गया कि धन, मात्र अर्जन और व्यय के लिये नहीं है. इसके सम्वर्धन के लिये बड़े-बड़े लोग समुचित इन्वेस्टमेंट मैनेजमेन्ट कर रहे हैं. हम मिडल क्लास लोगों की ये मानसिकता होती है कि अपने से ऊपर वालों की नक़ल करें. बहुत ही व्यवस्थित तरीके से समझाया गया कि जिस दर से मुद्रास्फीति बढ़ रही है, उस दर से बचत खातों में आपकी आय नहीं बढ़ रही है. जब आप साठ साल के होंगे तब तक एक लाख का मूल्य मात्र साठ हज़ार रह जायेगा. इसलिये सुरक्षित आठ परसेंट का ब्याज आपके लिये नाकाफ़ी सिद्ध होगा. इन्फ्लेशन के साथ या उससे अधिक दर से अपनी सेविंग्स को बढाने के लिये आपको मैदान में आना होगा, वो भी वैधानिक चेतावनी के साथ कि - फंड्स आर सब्जेक्टेड टू मार्किट रिस्क. ताकि बाद में आप ये न कह सकें कि बताया नहीं था. 

तब आज का सेंसेंक्स, जो पचहत्तर हज़ार पर नाच रहा है, पाँच हज़ार के अल्ले-पल्ले था. मुझे शेयर के बारे में तो हर्षद मेहता की दया से कुछ-कुछ पता चल गया था, और ये शपथ भी ले ली थी कि टैक्स फ्री इंटरेस्ट वाली बचत जीपीएफ़ के अलावा कहीं भी इधर-उधर इन्वेस्ट करना ही नहीं है. लेकिन जब से सरकार में वित्त के जानकर लोगों की दखलन्दाजी बढ़ी है, इन्होने मिडिल क्लास के अमीर बनने की राह में हर तरह के रोड़े अटकाने शुरू कर दिये हैं. लोगों के पास मार्केट में कूदने के अलावा बस छत से कूदने का ही विकल्प बचा है. फाइनेंशियल इन्वेस्टमेंट आजकल लोगों का सबसे पसंदीदा शगल बन गया है. अब चूँकि हर कोई इकोनोमिक टाइम्स तो न पढ़ सकता है, न समझ (ये बात अलग है कि बिल उसी का क्लेम करता है), इसलिये सेवा का एक ऐसा धंधा फल-फूल रहा है, जिसमें फाईनेन्शियल एडवाइज़र आपको ये बताते हैं कि कहाँ आप पैसा लगाइए और कैसे अपना पैसा बढाइये. सेवा से बड़ा कोई धंधा नहीं है, ये हमारे पुरखे भी जानते थे. सेवा करो सो मेवा खाओ. जिसकी सेवा करोगे उसको आपकी मेवा से कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिये. भले मेवा उसी की जेब से जा रही हो. 

तो जब सेंसेक्स पाँच हज़ारी था तब मुझे म्युचुअल फन्ड्स के बारे में उन्हीं से पता चला जिनका मै ज़िक्र कर रहा था. तब ये 'सही है' बताने के लिये तेंदुलकर और धोनी नहीं थे. उन्होंने ही बताया किस तरह जीपीएफ़ में पैसा लगा कर हम अपना भविष्य ख़राब कर रहे हैं. वैसे भी जैसे-जैसे हमको समझ आता है कि पैसा बर्बाद करने के लिए नहीं है. और सारी लग्ज़री कहीं न कहीं हेल्दी लाइफ़ स्टाइल को प्रभावित कर रही है, इन्वेस्टमेंट पैसे के सदुपयोग का सबसे अच्छा माध्यम बचता है. पूरे देश में जिस कदर सर्विस सेक्टर का विकास हुआ है, उतनी प्रगति किसी और क्षेत्र में देखने को नहीं मिलती. हर्र भी आपकी, फिटकरी भी आपकी और रंग उनका चोखा. आपने इन्वेस्टमेंट की सोची नहीं कि इन्वेस्टमेंट कब-कहाँ और कैसे करना है ये बताने के लिये इन्वेस्टमेंट एडवाईज़र्स की पूरी एक फ़ौज खड़ी है. और इनकी संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी जारी है. आपको आपका पैसा कहाँ लगाना चाहिये, ये बताना इनका काम है. इनकी सदिच्छा ये है कि आपकी बचत का पैसा कहीं बैंक-जीपीएफ़ में सड़ता न पड़ा रहे. इसके लिये हमें इन्वेस्टमेंट के पुराने तरीकों से बाहर निकलना होगा. सेविंग, रेकरिंग, एफ़डी, जीपीएफ़, पीपीएफ़ आदि में इन्वेस्ट करने से आप को एक सुनिश्चित वृद्धि भले ही मिल जाती हो. लेकिन यदि आपको इन्फ्लेशन से जीतना है, तो मार्केट में आना ही पड़ेगा. किनारे बैठ कर दरिया की धार का पता नहीं चलता. अख़बार में सेंसेक्स को चढ़ता-गिरता देखने से काम नहीं बनने वाला. उसके रोमांच को महसूस करने के लिये आय का एक समुचित भाग शेयर बाज़ार में लगाना पड़ेगा. डायरेक्ट शेयर में घुसना, हम जैसे नौसिखियों के लिये घाटे का सौदा हो सकता है, इसलिये म्युचुअल फण्ड का माध्यम अधिक सुरक्षित है. इसमें बड़ी-बड़ी कंपनियों के बड़े-बड़े फण्ड मैनेजर्स बैठे हैं, जिनका काम ही है ये कि आपके पैसे को कहाँ इन्वेस्ट करें कि आपको अधिक से अधिक लाभ हो. इसके लिये आपको इकोनोमिक टाइम्स और सीएनबीसी आवाज़ पर मगज़मारी नहीं करनी पड़ेगी. जितने रिटर्न्स उस समय उन्होंने दिखाये मुझे बिना धोनी के समझ आ गया कि म्युचुअल फण्ड 'सही है'. तब से ये मेरे मित्र-कम-एडवाइजर बन गये. बाद में पता चला कमोबेश ये पूरे ऑफिस के मित्र-कम-एडवाइजर हो चुके हैं. अब चूँकि इन्हें मालूम है कि मै लंच कमरे में ही करता हूँ, इन्होने अपने आने का टाइम इसी हिसाब से सेट कर रखा है. 

कोई भी आदमी दमड़ी तब निकालता है जब उसकी चमड़ी पर मामला आ जाये. बिना डराये न तो कोई लाइफ़ इन्श्योरेंस कराये, न मेडिकल इंश्योरेंस. इनकी यूएसपी थी कि आपका पैसा बैंक के पास सुरक्षित तो रह सकता है लेकिन इन्फ्लेशन को देखते हुये आपके बुढ़ापे की आवश्यकताओं के लिए शायद नाकाफ़ी हो. जिसने भी बुढ़ापे को करीब से देखा होगा, उसे पता है कि यदि कोई बुढ़ापे में बुढ़ापे का इलाज कराने में न लग जाये, तो बुढ़ापे में पैसे की उतनी ही आवश्यकता होती है, जितनी बचपन में थी. दूसरों पर निर्भर रहना है, वो जैसे रखना चाहें रखें. हाँ, यदि आपके खीस (खाते) में पैसा है तो सम्भव है रख-रखाव थोड़ा बेहतर हो जाये. वैसे भी यदि आप कुछ अच्छी जमा-पूँजी छोड़ के जायेंगे तो आपकी अगली पीढियाँ आपका नाम थोड़ी इज्जत से लेंगी. इसलिये मार्केट में इन्वेस्टमेंट जरूरी है. अब चूँकि आप को मार्केट का ए-बी-सी नहीं पता है, उसके लिये  एडवाईज़र्स और उनकी सेवायें हैं. बड़ी-बड़ी फाइनेंस कम्पनियाँ सिर्फ़ इसलिये खुल रही हैं कि हमारा पैसा बैंक में न रहे और उनकी कम्पनी के साथ-साथ लगातार बढ़ता रहे. आप भले ही एक अमीर ज़िन्दगी न जी पाये हों, लेकिन इनके रहते यदि आप बिना अमीर हुये धरती से कूच कर गये, तो धरती पर आपका आना और इनका रहना व्यर्थ चला गया. बहुत से सीए-एमबीए-इकोनोमिस्ट सिर्फ़ आपके कल्याण के लिये फण्ड मैनेजर बने बैठे हैं ताकि आपके मुनाफ़े में किसी प्रकार की कोई कमी न रहे. मैंने भी उनके कहने पर एक छोटे अमाउंट की एसआईपी शुरू कर दी. लेकिन जब भी वो आते एक न एक नयी स्कीम के साथ आते. चूँकि सरकार ने भी जीपीएफ़ की सीमा निर्धारित कर दी थी, तो म्युचुअल फंड में निवेश बढ़ना ही था. मेरा भी बढ़ा. सेंसेक्स के पाँच से पचहत्तर हज़ार के सफ़र का मै थोड़ा डॉर्मेंट साक्षी भी रहा. निष्क्रिय इसलिये कि मिडल क्लास मानसिकता के चलते जो भी एसआईपी चल रही थीं, उनमें पैसा डालता ही रहा, घटने-बढ़ने पर ख़रीदा-बेचा नहीं. 

लेकिन मेरे मन में हमेशा एक प्रश्न रहा. सुबह से शाम तक हम जिन भी वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं या तो वो मेड इन चाइना, कोरिया, अमेरिका, जर्मनी, फिनलैंड आदि हैं या मेक इन इण्डिया हैं. अधिकांशतः मल्टीनेशनल कम्पनियों के प्रोडक्ट्स जो वैश्विक मानदंडों पर खरे हैं, वो ही भारत के मार्केट में भी प्रचलित हैं. तब लगता है कि घर की तो बस मूँछें ही मुँछे हैं. अल्टीमेटली इनका ओवरऑल मुनाफ़ा तो किसी और देश में ही जाता होगा. पहले एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी थी, अब मल्टीनेशनल कंपनियों की बाढ़ है. इस दौरान पता नहीं कितनी बार सेंसेक्स में बुल और बिअर फेज़ आते रहे. अख़बार में कभी पढता कि निवेशकों को सेंसेक्स में उछाल से भारी फ़ायदा हुआ या गिरावट से भारी नुक्सान का सामना करना पड़ा. लेकिन मुझे इससे क्या. जिस दिन पैसा निकालना होगा उसी दिन पता चलेगा कि घाटा हुआ या मुनाफ़ा. चूँकि मै स्वयं को म्युचुअल फण्ड इन्वेस्टर की तरह देखता था, इसलिये सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव से बिना विचलित हुये एसआईपी चलाता रहा. इस अप-डाउन से किसे फ़ायदा हुआ, किसे नुक्सान इससे हमें क्या लेना-देना. हमें तो कहीं न कहीं इन्वेस्ट करना ही था. बाद में अंदाज़ लगा कि मार्केट में ही तो लगा है मेरा और हम जैसों सबका पैसा. सारी कबड्डी स्माल इन्वेस्टर्स की हड्डी पर ही तो खेली जा रही है. बड़े प्लेयर्स तो रोज ख़रीद-बेच रहे हैं. मार्केट के उतार-चढ़ाव का असली मज़ा एक्टिव इन्वेस्टर्स ले रहे हैं. हम-आप तो बस इन्वेस्ट कर रहे हैं. वो मार्केट के हिसाब से इन्वेस्ट और डिसइन्वेस्ट करते रहते हैं. उनका काम इन्वेस्टमेंट नहीं है, शेयर मार्केट से लाभ कमाना उनका फुल टाइम जॉब है. वारेन बफेट ने एक चिप्स नहीं बनायी, लेकिन दूसरों की कंपनियों में पैसा लगा-लगा के दुनिया के जाने-माने धनपशुओं में शुमार हैं. लेकिन चूँकि कुल मिला कर इस इन्वेस्टमेंट से मेरी पूँजी बढ़ी ही है, इसलिये ये कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि म्युचुअल फण्ड सही है. 

वैसे भी आम आदमी भले ही चाय की दुकानों से लेकर ड्राइंग रूम तक दुनिया बदलने के लिये कितनी ही डिबेट कर ले. लेकिन होना-जाना कुछ नहीं है. देश कि अर्थव्यवस्था का सारा दारोमदार उसी पर है. उसी के ऊपर देश की इकोनॉमी टिकी हुयी है. जब विश्व के अधिकांश विकासशील देश, विकसित राष्ट्र बनने के लिये लालायित हैं, वहाँ हमारे देश का एक बड़ा तबका ये सिद्ध करने में लगे हैं कि हमसे ज्यादा जाहिल कोई नहीं है. हम बैकवर्ड थे, हैं और हमेशा बने रहेंगे. कहने को तो डिग्रीधारक पढ़े-लिखे लोगों की फ़ौज है लेकिन न देसी संस्कार बचे हैं, न अंग्रेजी. मैनर्स के लक्षण, सॉरी-थैंक्यू कहना इनकी शान के खिलाफ़ है. होड़ लगी है कि कौन कितना बदतमीज़ है, क्योंकि स्मार्टनेस की यही नयी परिभाषा है. हर व्यक्ति इतना चगड़ हो गया है कि अपने लाभ को सर्वोपरि रख कर ही काम करता है. जबकि सभी को पता है कि देश और समाज का उत्थान त्याग पर आधारित होता है, न की स्वार्थ पर. नियम-कानून को ताक़ पर रख कर चलने वाले स्वयं को चालाक और समझदार होने का वहम पाले घूम रहे हैं. जब बड़े-बड़े अपराधी जेल से चुनाव लड़ें और जीत जायें, तो लगता है दुनिया में गलत क्या है और सही क्या. जिन्हें कूड़ा फेंकने की तमीज़ नहीं है, वो नेता चुन रहे हैं. इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है. अतिवादी विचारधारा को मानने वाले अपने कुतर्क से पूरी दुनिया को गलत सिद्ध कर सकते हैं. नियम-क़ानून से वही डरे जो इन्हें जानता हो. जब हमें सही-गलत सिखाया ही नहीं, तो हमें क्या पता कि हेलमेट कम्पलसरी है या उल्टी दिशा में चलने से एक्सीडेंट की सम्भावना होती है. सीट बेल्ट का अनुपालन करवाना दरोगा का काम है. जिनके पास शिक्षा नहीं है, उनके पास एक्सक्यूज़ है कि हम नियम-क़ानून नहीं जानते. लेकिन जिनके पास शिक्षा और साथ में पैसा भी है, वो क़ानून अपनी जेब में रखते है. हत्या और रेप के आरोपी दसियों साल मुक़दमा लड़ रहे हैं. शक़ होता है वकील और मियाँ लार्ड न्याय के पक्ष में खड़े हैं या विपक्ष में. जो जितना गलत है, उतना ही मुखर है. इस माहौल में सही व्यक्ति स्वयं को समाज से अलग-थलग पाता है. उसे हमेशा गलतफ़हमी बनी रहती है कि कभी तो लोग मानेंगे कि बन्दा सही था. गौर कीजियेगा, है नहीं था. ऐसे में कभी-कभी असहाय सा सब कुछ होते हुये देखने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं होता. क्योंकि सही-गलत को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है. अब तो ये भी लगने लगा है कि जब सब सही हैं तो हम क्यों अपने को गलत मान लें. इसलिये दोस्तों में दोस्ती कम और दुश्मनी बढ़ती जा रही है. और ये बात सही है कि स्वार्थ परायणता के युग में ख़ुद को खुश रखना ज़्यादा महत्वपूर्ण बन गया है. इसलिये आते को रोको मत और जाते को टोको मत. दूसरे को भी खुश रहने का पूरा अधिकार है.

जब सब अपनी-अपनी जगह सही है तो लड़ाई सही और सही के बीच में है. ऐसी लड़ाई का अन्त युद्ध से ही होता रहा है और होता रहेगा. जैसा महाभारत में हुआ था और रूस और युक्रेन, इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच चल रहा है. यद्ध की विभीषिका में दोनों पक्ष अपने को सही सिद्ध करने में लगे हुये है. जबकि सबको मालूम है गलत क्या है और सही क्या. ऐसी स्थिति में जब कुछ नहीं कर सकते, तो ये मानना ज़रूरी हो जाता है कि जो भी हो रहा है और जो भी होगा, सब अच्छा है, सही है. ऐसा गीता में लिखा भी गया है. साठ साल में गीता पढने से कम, अनुभव से ज्यादा समझ आयी है. गलत कुछ नहीं है. सब सही है. सापेक्षता के सिद्धांत में व्यक्ति का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है. जो हर व्यक्ति के अनुसार बदल जाता है. ऊपर से अब तो ये ज्ञान भी हो चला है कि कर्ता हम या आप नहीं, कोई और है. ऊपर वाले पर विश्वास करने का सबसे बड़ा लाभ ये है कि हम किसी प्रकार के अपराधबोध से पूर्णतः मुक्त रहते हैं.

तेन्दुलकर और धोनी जब कह रहे है कि म्यूचुअल फण्ड सही है तो मान भी लीजिये. आपका निर्णय सही था या गलत ये तो तब पता चलेगा जब आपको पैसों कि आवश्यकता होगी. तब आपका ध्यान बारीकी से कही बात पर जायेगा - “Mutual Fund investments are subject to market risks, read all scheme related documents carefully”.

तब तक सब के लिये - म्यूचुअल फण्ड सही है, ये मानना ही श्रेयस्कर है.

-वाणभट्ट 

सोमवार, 17 जून 2024

एआई

आजकल जिधर देखो एआई का जलवा है. एआई को पूर्ण रूप से आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स कहा जाता है. और हिन्दी में कृतिम बुद्धिमत्ता. कृतिमता के इस युग में जब सम्पूर्ण जीवन ही कृतिम साधनों-संसाधनों पर निर्भर है, अब बुद्धि का ही कृतिम होना बचा था. पहले की शिक्षा में शिक्षक और अभिभावक दोनों ही बच्चों को अंकगणित और व्यवहार गणित पर ध्यान देने को कहते थे. पहाड़े यदि फर्राटे से याद न हों तो लगता था बच्चे की गणित कमज़ोर है. लेकिन तब पढ़ाते कम थे, समझाते ज्यादा. ये बात अलग है कि समझाने के तरीके शिक्षकों के अनुसार बदलते रहते थे. अभिभावक भी उसी गणित के अध्यापक को सही समझते थे जो उनके बच्चों को ठोंकने-पीटने में कोई कसर न रखे. तब भला किसने सोचा था कि बीस रुपये के चार चिप्स खरीदने हों तो दुकानदार कैलकुलेटर पर हिसाब करेगा. पहले बिना मैप के दुनिया घूम आते थे. बस थोडा बहुत दिशा ज्ञान हो तो लोग-बाग़ समुन्दर में कूद जाते थे (नाव लेकर). नहीं तो अभी तक अमरीका लापता रहता. न वास्को डी गामा भारत का रास्ता खोजता, न भारत गुलाम होता. लेकिन एक कहावत है कि जो होता है अच्छा ही होता है. अगर अँग्रेज न आते तो यकीन मानिये भारत जैसी वाईब्रेंट डेमोक्रेसी देखने से विश्व महरूम रह जाता. जिन लोगों को ये नहीं पता कि कचरा कहाँ फेंकना है, वो नेता चुन रहे हैं. और नेतागण भी कीचड़ में कमल खिलाने की कवायद में लगे हैं. कीचड़ जब ज्यादा हो जाता है तो कभी-कभी कमल को निगल जाता है. व्यक्तिगत रूप से मै अपने लेखों के माध्यम से अंग्रेजों का शुक्रिया करता रहा हूँ कि वो न आते तो हम लोग अन्याय और अत्याचार को हरि इच्छा मान कर आल्हादित हो रहे होते.   

जैसा की हर पीढ़ी को लगता है, उसकी पीढ़ी सबसे परिवर्तनकारी पीढ़ी थी, हम को भी लगता है. हमारी पीढ़ी ने भारत की आम ज़िन्दगी स्वयं जी है और अब अमरुद जैसी ज़िन्दगी भी देख रहे हैं. एक समय था जब सायकिल दहेज़ में मिलती थी और एक ज़माना आज है जब एसयूवी से कम कोई सोचता ही नहीं. लोग स्वयं को देखने के बजाय दूसरों को दिखाने में लगे हैं. एक ऐसा भी समय था जब रूटीन ज़िन्दगी से लोग बोर नहीं होते थे क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं था कि दुनिया में कितने मज़े हैं. तभी यम-नियम सब निभ गये, आज कोई कर के दिखाये. समाज से बाहर का व्यक्ति मान लिया जायेगा. आज हर दिन अगर डीपी और स्टेटस न बदला तो लगता है लाइफ़ में मोनोटोनी आ गयी. ज्ञान इतना है कि जानने के लिये सात जन्म भी कम पड़ जायें. लेकिन सहजता से आपकी फिन्गरटिप पर उपलब्ध है. सब कुछ जानने और समझने की जरूरत नहीं है. स्कूल हैं फ़ीस वसूली के लिये और पढायी के लिये हैं कोचिंग्स, वो भी मोटी रकम दे कर. कोचिंग्स इसलिये भी फल-फूल रहीं हैं कि पेरेंट्स माया कमाने में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास समय नहीं है अपने ही बच्चों को देखने-पढ़ाने का. प्राइमरी स्कूल के होमवर्क कराने के लिये ट्यूशन चल रहे हैं. वाई-फाई के बिना बच्चा पढ़ नहीं सकता. ये बात अलग है कि इसी दौरान उसे भारतीय टीवी सीरियल्स से ज्यादा कोरियन सीरियल समझ आने लगते हैं. किशोर कुमार के ज़माने वाले बाप के घर में जब बीटीएस बजने लगे तो बाप के पास एक कार ही बचती है, जहाँ जब वो अकेला हो तो विविध भारती पर पुराने गाने सुन सके. 

आज हम सभी तकनीक पर इतना अधिक निर्भर हो गये हैं कि अपनी पढाई-लिखाई से भरोसा ही उठ जाता है. पहले अध्ययन-चिन्तन-मनन के माध्यम से पढाई होती थी, सिलेबस कम होता था और खेलने-कूदने के लिए था पर्याप्त समय. बल्कि ये कहें कि जिसे पढना होता था वो खेलने-कूदने के बाद पढाई के लिये समय निकाल लेता था. आज सिलेबस ज्यादा है. हर विषय की मेड इज़ी पुस्तकें आ गयीं हैं. कभी इन्हें कुन्जी कहा जाता था. और कुन्जी से पढ़ने वाले बच्चों को हेयदृष्टि से देखा जाता था. टेक्स्ट बुक से पढने का रिवाज़ अब लगभग ख़त्म है. टेक्स्ट बुक से पढ़ने वाले बच्चे कदाचित कम्पटीशंस में 100 प्रतिशत मार्क्स ला पायें. मैथ्स-फिसिक्स में डेरिवेशन से ज्यादा शॉर्टकट्स पर ध्यान दिया जाता है ताकि कम्पटीशन हॉल में सटीक उत्तर कैलकुलेट करने में समय व्यर्थ न हो. यूट्यूब पर लेक्चर्स उपलब्ध हैं. क्लास अटेंड करने की जरूरत नहीं है. चाहे कुण्डली जागरण हो या ग्रह-नक्षत्रों की चाल, आप घर बैठे इन्टरनेट के माध्यम से फटे पड़ रहे ज्ञान से लाभान्वित हो सकते हैं. बस ये निर्णय आपको लेना है कि कौन सा स्रोत विश्वसनीय है. 

परिवर्तन प्रकृति का नियम है. दुनिया निरन्तर आगे ही गयी है, तो ये मानना उचित भी है कि अगली पीढ़ी सही ही होगी. वो इतनी फ़ास्ट है कि हमारे जैसे पुराने लोगों को लगता है कि इतनी तेजी किसलिये. उनका कहना है ज़िन्दगी नहीं मिलने वाली दुबारा. सो जो कुछ भी करना है, इसी जीवन में करना है. एक जीवन में एफ्फेक्टिवली बीस साल ही मिलते हैं जीने को. पच्चीस-तीस साल तक तो स्थायी रूप से माया का जुगाड़ करने में बीत जाते हैं और पचास के बाद उम्र का तकाज़ा शुरू हो जाता है. आयु को कम दिखाने वाले मेकअप और फुर्तीलापन बनाये रखने को वैसे तो बहुत सी अंग्रेजी-यूनानी-आयुर्वेदिक औषधियाँ उपलब्ध हैं. लेकिन व्यवसायिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण स्लो होना ही पड़ता है. यदि एक ही जीवन में आप विश्वास करते हैं तो आपके पास वाकई समय नहीं है. इसलिये हर काम को शीघ्रता से करना इनकी आवश्यकता भी है और मज़बूरी भी. ये आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स भी इसी ईज़ाद का परिणाम है. कृतिम बुद्धिमत्ता आज का सबसे एडवांस विषय है. हर क्षेत्र में इसके उपयोग की अपार सम्भावनायें हैं. आज के व्यक्तिगत जीवन में इसका प्रभाव इतना बढ़ गया है कि इसकी सहायता के बिना अपने निर्णय लेने में कभी-कभी स्वयं को अक्षम पाते हैं. शॉपिंग से लेकर इन्वेस्टमेंट तक सबकी सलाह इसकी सहायता से मिल जाती है. यदि हम अंतरजाल पर कुछ खोजने जाते हैं तो एआई पहले ही एक्टिव हो जाता है और आपके सामने चार सम्भावित ऑप्शंस रख देता है. आदत यहाँ तक पड़ गयी है कि यदि चार ऑप्शंस न दिखाई दें तो व्यक्ति अपने इन्टरनेट की कनेक्टिविटी पर शक करने लग जाता है. और यदि आपने गलती से नेट पर किसी उत्पाद की जानकारी खोज ली, तो तैयार हो जाइये अगले दस दिनों तक हर प्लेटफार्म पर आपको उस उत्पाद का विज्ञापन देखने को मिल सकता है. कई बार उसी से प्रभावित हो के व्यक्ति निर्णय भी ले लेता है. उत्पाद के बारे में वास्तविक जानकारी तो उत्पाद आने के बाद ही मिलती है.

सबसे ज्यादा दिक्कत की बात ये है कि आप माँगों या ना माँगो ये एआई बाबा अपनी राय दिये बिना बाज नहीं आते. एक सीधा सा मेल भी लिखना हो तो ये खुद ही लिखना शुरू कर देते हैं. हम हिन्दुस्तानियों की अंग्रेजी उतनी ही अच्छी है जितनी अंग्रेजों की हिन्दी. कहाँ ए-एन-दी लगाना है, इसमें हमेशा कन्फ्यूजन हो जाता है. लेकिन एआई की सहायता जब सारे आर्टिकल्स सही जगह लग जाते हैं, तब लगता ही नहीं है कि ये हमारी अंग्रेजी है. आपको बस की-वर्ड्स बताने हैं, और ऐसे-ऐसे टूल्स आ गए हैं कि पूरा का पूरा लेख या कविता लिख दें. किसी ने माँ पर कविता लिखने को बोल दिया तो एआई ने अब तक माँ पर लिखी सारी कविताओं का लब्बो-लबाब निचोड़ कर एक कविता लिख डाली, जिसे पढ़ कर महान से महान शायर को भी लगे कि मैं ख्वामख्वाह एक-एक अशआर पर बेवजह घन्टों मेहनत करता रहा. अपनी ठेठ अंग्रेजी में एक लेख लिखने में मुझे चार-छ: दिन लग गये. को-ऑथर को चेक करने के लिये दिया तो भाई ने इतना तगड़ा करेक्शन किया कि मैं आश्चर्यचकित ही नहीं हुआ बल्कि आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लगा. मुझे लगा कि पेपर कहीं इसीलिये रिजेक्ट न हो जाये कि हिन्दुस्तानियों से इतनी अच्छी अंग्रेजी की उम्मीद नहीं की जाती. बाद में उस को-ऑथर ने रिफ्रेज़िंग सोफ्टवेयर के बारे में बताया. उसके बाद से जब किसी हिन्दुस्तानी के अंग्रेजी लेख पढता हूँ तो शुबहा बना रहता है कि जो बंदा हिन्दी सही ढंग से नहीं लिख पाता उसकी अंग्रेजी इतनी माशाअल्ला कैसे है. लेकिन अब ज़्यादातर लोग हम लोगों की तरह सरकारी हिन्दी मीडियम स्कूल वाले तो हैं नहीं. इंग्लिश मीडियम में पढ़ाने वाले माँ-बाप भी फ़क्र से कहते हैं, मेरे बच्चे की हिन्दी बहुत वीक है. एआई आज की वास्तविकता है और इसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प है भी नहीं. लेकिन ये भी साफ़ है कि एआई का जानकार आपके मानवीय निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. वो समय दूर नहीं जब आप अपने नहीं दूसरे के दिमाग से सोचने को विवश होंगे.   

एक बार मेरे मित्र का बेटा बीमार पड़ गया. इक्कीस दिन हो चले थे और बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था. कई डॉक्टर्स को दिखाने के बाद भी आराम नहीं मिला. सबके कहने पर लगभग तीन हज़ार के अनेकानेक टेस्ट करने के बाद भी डॉक्टर्स अँधेरे में ही तीर मार रहे थे. एक डॉक्टर ने तो टीबी तक की आशंका व्यक्त कर दी. किसी ने मेडिकल कॉलेज के एक पुराने हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट रहे बाल रोग विशेषज्ञ के बारे में बताया. मित्र और उनके पुत्र के साथ हम लोग उनके यहाँ पहुँच गये. डॉक्टर ने बच्चे की नब्ज़ और आले से जाँच शुरू कर दी. मित्र ने कुछ बोलने का प्रयास किया तो डॉक्टर ने चुप रहने का इशारा कर दिया. पिता जी बार बार रिपोर्ट आगे बढ़ायें और डॉक्टर साहब उसे कोई तवज्जोह नहीं देते हुये किनारे कर दें. मेरे मित्र ने ऐसा कई बार किया लेकिन डॉक्टर ने उन रिपोर्ट्स को पलट कर भी नहीं देखा. अपना एग्जामिनेशन करने के बाद वो मित्र की ओर मुखातिब हुये और बोले - मै बच्चों का डॉक्टर हूँ और मेरे पेशेंट्स बोलते नहीं हैं. डॉक्टर को देखना होता है कि समस्या कहाँ और क्या है. मै आपकी बात सुनता या रिपोर्ट्स देखता तो बायस हो जाता. तीन दिन की दवाई लिख रहा हूँ, उम्मीद है आपको दोबारा नहीं आना पड़ेगा. और ऐसा हुआ भी. 

ऐसे ही एक बार दिल में बहुत जोर का दर्द उठा. लगा हार्ट अटैक हो के ही मानेगा. पास-पड़ोस के मित्रों से बात की. उन स्वानुभूत डॉक्टर्स  ने कई टेस्ट बता दिये. ईसीजी-टीएमटी और कुछ ब्लड टेस्ट करा कर कानपुर के एक जाने-माने हार्ट स्पेशलिस्ट के यहाँ पहुँच गया. उनके यहाँ लगी भीड़ को देख कर आधा डर जाता रहा कि दुनिया में दिल के मरीज हम अकेले नहीं हैं. उन्होंने मेरा ब्लड प्रेशर नापा और बताया कि दर्द हार्ट से रिलेटेड नहीं है इसलिये कोई फ़ीस नहीं लेंगे. मेरी हज़ारों की रिपोर्ट को उन्होंने हाथ तक नहीं लगाया. जब मैंने उन्हें देखने के लिये कहा तो वो बिफर पड़े - मै आदमी का इलाज करता हूँ, रिपोर्ट का नहीं. रिपोर्ट पर निर्भर रहने वाले विशेषज्ञ कैसा इलाज करते होंगे ये उसकी बानगी भर है.     

आशा है सबको मालूम होगा कि यदि आप पैसा निकालने एटीएम में घुस रहे हैं तो टोपी और हेलमेट और चश्मा (धूप वाला)  निकाल के जाइये. मैंने स्कूटर खड़ी की. हेलमेट उतारा. स्कूटर की डिक्की में उसे रख कर ही एटीएम में प्रवेश किया. जैसे ही मै मशीन के सामने पहुँचा, महिला की आवाज में एक आकाशवाणी हुयी. 'कृपया कक्ष में हेलमेट या टोपी पहन के प्रवेश न करें'. ये घटना मेरे साथ पहली बार हुयी थी. उस एटीएम में मै अक्सर जाया करता था. पर ऐसा कभी नहीं हुआ था. मुझे लगा मेरे कान बज रहे हैं. मेरे कार्ड निकालने के दौरान देवी की आवाज़ पुन: गूंजी. अब मेरे पास कोई चारा नहीं था, इधर-उधर देखने के अलावा. एक नया कैमरा एक्स्ट्रा इंस्टाल हो गया था. देवी की आवाज उसी दिशा से आ रही थी. शायद उस कैमरे की लोकेशन ऐसी थी कि जहाँ से मेरी केशविहीन खल्वाट खोपड़ी ही दिख रही हो. मुझको समझते देर नहीं लगी कि यहाँ कैमरे के एआई ट्रेन्ड डाटा बेस में कुछ कमी है. मेरे गंजे सर को वो हेलमेट समझने की गुस्ताखी कर रहा है. मै कैमरे की ओर गया. उसे वेव किया. बत्तीसी दिखा कर मुस्कुराया. एआई का यही लाभ है. वो निरंतर आत्मसुधार के लिये कृतसंकल्प है. उसने अपने डाटा बेस को अपडेट किया तब जा कर देवी ने अपनी वाणी को विराम दिया. आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स का ये फीचर अच्छा लगा. आदमी तो बस दूसरों को सुधारना चाहता है, खुद सुधरने को तैयार नहीं है. टाइम लगता देख सेक्योरिटी गार्ड अन्दर आ गया. उसे पूरी कहानी बताई तो उसने कहा - उसके बोलने से क्या होता है. आप को रोक थोड़ी न रही थी. पता नहीं कितने लोग हेलमेट-टोपी-चश्मा लगाये घुसते रहते हैं. मुझे लगा ये आवाज़ भी अन्तरात्मा की आवाज़ की तरह है, सुनना हो तो सुनो, न सुनना हो तो न सुनो.  

मेडिकल लाइन में भी डॉक्टर्स की सहायता के लिये बहुत से ऐसे एआई टूल्स आ गये हैं जो लक्षणों के आधार पर बीमारी खोज कर दवाइयाँ संस्तुत कर सकते हैं. इन्टरनेट के माध्यम से आम आदमी तक भी उसकी पहुँच होती जा रही है. लेकिन मेरी राय है कि बिना किसी कुशल चिकित्सक को दिखाये अपना उपचार न करें. मानना न मानना आपकी मर्ज़ी पर छोड़ता हूँ. तकनीकी युग में तकनीकों का विकास समय के साथ बढ़ता रहेगा. लेकिन उस पर कितना भरोसा करना है ये मनुष्य के विवेक पर ही निर्भर करेगा.

-वाणभट्ट   

  

रविवार, 9 जून 2024

पुराने कपड़े

पार्किंग में कार खड़ी करने के बाद रिमोट की का बटन दबाते हुये वैसी ही फीलिंग आती है जैसे अमिताभ अपनी एक फ़िल्म में डायनामाईट से पहाड़ उड़ाता था. पलट के देखने की ज़रूरत नहीं. बस बम फटने और पहाड़ के गिरने की आवाज़ से अंदाज लग जाता था कि काम हो गया. कार से भी ऐसी ही एक बीप की आवाज़ ये कन्फर्म कर देती कि कार लॉक हो गयी. वैसे ही वार्डरोब से कपड़ा निकालने के बाद जब बिना पीछे देखे अलमारी बन्द की तो मैग्नेटिक लॉक की खट की आवाज जो हमेशा आती थी, नहीं आयी. तो पलट के देखना पड़ गया. हैंगर पर टंगी एक शर्ट की बाँह का कफ़ अलमारी के दरवाज़े से बाहर झाँक रहा था. 

दोबारा दरवाज़ा खोल के पुनः बन्द करने का प्रयास मँहगा पड़ गया. अन्दर भरे पड़े कपड़े भड़भड़ा के नीचे आ गये. एक तो ऑफिस के लिये देर हो रही थी, उस पर ये बवाल. कपड़े दिन पर दिन बढ़ते जाते हैं और रखने की जगह कम होती जाती है. ऑफिस क्या पहन के जायें ये रोज-रोज की जद्दोजहद बन गयी है. ऑफिस का एक यूनिफार्म हो तो कितना अच्छा हो. क्या पहने इस विषय में सोचना नहीं पड़ता. इतने कपड़े इकठ्ठा हो गये हैं, इसी चक्कर में कि रोज कपडे बदल के जाना चाहिये. नये कपड़े विशेष उपलक्ष्यओं के लिये छोड़ दिये जाते हैं. जो अक्सर रखे-रखे ही पुराने हो जाते हैं. ऑफिस के लिये थोड़े पुराने और टहलने के लिये सबसे पुराने. रोज नये और पुराने कपड़ों के बीच से पहनने लायक कपड़े खोजना भी एक काम बन गया है. 

श्रीमती जी टिफिन और नाश्ता बनाने में व्यस्त थीं, इसलिये अपना रायता ख़ुद ही समेटना पड़ा. जब कपड़ों को तहा कर रखने लगा, तो लगा इसमें से कितने ही कपड़े तो काफ़ी दिनों से पहने ही नहीं. खामख्वाह अलमारी में जगह घेरे पड़े हैं. जबसे लोगों ने पड़ोस में जाना छोड़ कर मॉल जाना शुरू किया है. जाने-अनजाने खरीदने की बीमारी बढ़ने लगी है. ज्ञानी जन बताते हैं कि आज कल हर आदमी अवसाद से ग्रसित है क्योंकि उसे कोई सुनने वाला नहीं मिल रहा. गलती से कोई मिल भी गया तो वो आपकी सुनने से ज़्यादा अपनी सुनाने में लग जाता है. इसीलिये बाबाओं और पूजा स्थलों में भीड़ बढ़ती जा रही है. कोई और सुने ना सुने ऊपर वाला तो सबकी सुनता है. लेकिन दिन भर तो न अपने पास समय है, न उसके पास, कि सुनता-सुनाता रहे. मज़बूरी ये भी है कि समाज में रहना भी ज़रूरी है. उस समाज में जहाँ लोग सहायता कम करते और मज़े ज़्यादा लेते हों, वहाँ शॉपिंग मॉल एक सुखद संदेश ले कर आये है. गली-मोहल्लों में नित नये-नये मॉल खुल रहे हैं. लोगों को भी लगता है कि दूसरे की सुनने से अच्छा है, शाम एयर कंडिशंड मॉल में गुजारो. लेकिन जब यूपीआई और क्रेडिट कार्ड, मोबाईल और जेब में भनभना रहे हों, तो बेवजह शॉपिंग हो जाना बड़ी बात नहीं है. सेल से शॉपिंग और रेस्टोरेंट में खाने से मस्तिष्क में एड्रेलिन का स्राव बढ़ जाता है और कुछ देर के लिये ही सही व्यक्ति को परमानन्द की प्राप्ति होती है. घर के सभी प्राणियों का यही हाल है. वक्त बेवक्त ऑनलाइन शॉपिंग वाले घरों में घंटी बजाते घूम रहे हैं. घर में सामान जिस रेट से आ रहा है उस रेट से निकल नहीं रहा है. इसलिये घर, घर कम लगते हैं, गोदाम ज़्यादा. पैसा तो निरीह बाप का ही लगता है. बाप बेचारा क्या बोले किसे बोले. न्यूक्लियस परिवारों में हर चीज़ का ठीकरा पति या पिता पर ही फूटता है. बेचारा पिता कहाँ फोड़े अपना ठीकरा, इसकी किसे फ़िक्र है. 

आज कपड़े ना गिरते तो ये एहसास भी न होता कि कपड़े बहुत ज़्यादा हो गये हैं. और इनमें से पहनने वाले कम और न पहनने वाले अधिक. पुराने ज़माने में मुझे अच्छे से याद है कि पिता जी हम दोनों भाइयों के कपड़े एक ही थान से कटवाते थे. जब हम दोनों साथ निकलते थे, तो कुम्भ के मेले में भी हमारे बिछड़ने की सम्भावना कम होती थी. बड़े भाई साहब की शर्ट जब छोटी हो जाती तो मुझे मिल जाती. उनकी किताबें तक सम्हाल के रखी जातीं कि छोटे के लिये नयी न खरीदनी पड़े. छोटा भाई तो घेलुए में पल जाता था. बड़े के लिये नया ले लो. पहले वो पहने फिर छोटा. और बच्चे तो जल्दी-जल्दी बड़े हो जाते हैं, इसलिये कपडे ख़राब भी नहीं होते. तब हाथ कि धुलाई थी. कपड़े ज़्यादा चलते थे. मेरे बाद मेरे चाचा के बच्चे भी बिना किसी संकोच के उन कपड़ों का उपयोग करते. इस प्रकार दादा (बड़े भाई) कि एक शर्ट और पैंट चार बच्चे पहनते. ये उस समय के लोगों का बड़प्पन ही था कि छोटी से छोटी चीज़ों को भी सहज साझा कर लेते थे. आज स्थितियाँ अलग हैं. कोई किसी का उतरा नहीं पहनता. चाहे घर-परिवार का ही मामला हो. पैसे से कोई किसी से कम नहीं है. और शौक भी बढ़ गये हैं. पहले घर में काम करने वाली/वाले पुराना कपड़ा लेने में संकोच नहीं करते थे, लेकिन शहरों में फुटपाथ से लेकर छोटे-बड़े मॉल्स और शोरूम्स के आ जाने के बाद उन्होने भी पुराने कपड़ों को उतरे कपड़े बोलना शुरू कर दिया.  

अगली संडे अलमारी खाली करने का संकल्प ले कर ऑफिस के लिये निकल गया. चूँकि मेरी अलमारी, मेरी जिम्मेदारी है तो मुझे ही उस समस्या का  निराकरण करना था. नये कपडे छाँटते-छाँटते पुराने कपड़ों का अम्बार लग गया. अलमारी खाली करने की गरज जो थी. टहलने के लिए चार सेट अलग से निकालने के बाद भी अच्छे-खासे पुराने कपडे निकल आये. जितने कपड़े काफ़ी दिनों से नहीं पहने थे, सब बाहर कर दिये. कपड़ों का एक पहाड़ सा बन गया. अब समस्या थी, कहाँ दिया जाये. कानपुर में ऐसी कोई संस्था नहीं है, जहाँ पुराने कपड़े दिये जा सकें. कोई हो भी तो वो पूरे शहर से निकलने वाले इतने कपड़े ले नहीं सकती. क्योंकि एक मेरे घर का ही नहीं सभी घरों का यही हाल है. कपड़े भरे पड़े हैं. कौन किसे दे. किसी ने नेकी की दीवार के बारे में बताया था. वहाँ लोग कपडे दीवार पर टांग जाते हैं. सोचा एक बार वहाँ का हाल भी देख लिया जाये. वहाँ पहुँचा तो वहाँ का हाल भी बेहाल था. कपडे कूड़े की तरह पड़े थे. यद्यपि की आसपास वहाँ झोपड़-पट्टी भी थी लेकिन उन लोगों के यहाँ भी कपडे रखने की कितनी जगह होगी. ऐसी दीवार शहर के हर हिस्से में हो तो कुछ बात बने.  

ऐसे में याद आयी घसीटे की. जो महीने दो महीने में एक आध बार अवतरित होता था. कुछ पेड़-पौधों की देखभाल के लिये. उसने कभी पुराने कपड़े लेने से मना किया हो ऐसा मुझे ध्यान नहीं. उसको फोन करके बुला लिया गया. पत्नी और बच्चों ने भी अपने-अपने एक्स्ट्रा कपडे निकाल दिये. मुझे उम्मीद थी कि आज तो घसीटे भी हाथ खड़े कर देगा. थोडा बहुत पेड़ों की प्रूनिंग के बाद उससे असली मुद्दे की बात की. उसके सामने कपड़ों से भरे दो बड़े-बड़े झोले रख दिये. उसके चेहरे पर मेरी उम्मीद के विपरीत प्रसन्नता का भाव तैर गया. उसने सहज रूप से इतना ही कहा - दो चक्कर करने पड़ेंगे. उसका घर दूर था सो मैंने कहा पहले छाँट तो लो. जो कपडे काम के हों उन्हें ही ले जाओ. बाकी छोड़ दो. वो मुस्कुराया - साहब आपके कपड़ों की बात ही क्या. बहुत अच्छे होते हैं. धो के अच्छे से प्रेस कर दो तो नये से लगते हैं. आप लोगों के कपडे तो पुराने होने ही नहीं पाते कि आप लोग नये ले आते हैं. परेड पर जो फुटपाथ पर कपडे मिलते हैं, उनसे कहीं अच्छे और आरामदायक होते हैं. गाँव में मेरा और मेरी ससुराल का घर-परिवार बड़ा है. सभी उम्र के बच्चे और बड़े हैं. सब खप जाता है. अभी एक झोला ले जाता हूँ. शाम को बेटे के साथ मोटरसायकिल पर आ कर दूसरा ले जाउँगा. वो खुश था.

मेरी अलमारी खाली हो गयी थी. मै भी खुश था.

-वाणभट्ट

शुक्रवार, 7 जून 2024

हाइकु कहानियाँ

स्क्रीनिंग 

भ्रष्ट वातावरण से त्रस्त, सत्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति टें बोल गया. समय के साथ बदल नहीं पाया. डार्विन के सिद्धांतानुसार अयोग्य सिद्ध हो गया. साथ ही हो गया मानव मूल्यों का अंत भी. गुणों की परख स्वस्थ वातावरण में होनी चाहिये. चाहे आदमी हो या फसल.

सुधार 

घास खाने वाला शेर विकसित हो जाये तो अन्य वन्य जीवों का स्वतः संरक्षण हो जाये. नहीं, उसमें रिस्क है. गधे और घोड़े का सुधार करो. सुधार की सम्भावना दुर्बल में होती है. शेर का तो संरक्षण होता है.

ब्रह्मा

ब्रह्मा जी की साकार कल्पना है ये ब्रह्माण्ड. ब्रह्मा ने कुछ ब्रह्मा धरती पर भेज दिये. ताकि कोई उनकी भूल को सुधारता रहे. इनोवेशन और प्रमोशन के चक्कर में ये ब्रह्मा, ब्रह्मा से आगे निकल गये.

प्रजाति

गर्मी वैश्विक स्तर पर छायी हुयी है. प्रत्येक प्राणी छाया में सिकुड़ने को विवश है. लम्बे समय तक दिन भर धूप झेलने से अच्छा फसल ने स्वयं को समेट लिया. अगली पीढ़ी चलती रहे सो 50 दिन में ही तैयार हो गयी. घोषणा कर दी गयी, नयी प्रजाति के विकास की.

ब्रह्मज्ञान 

एक ऐसा पैकेजिंग सिस्टम बनाया जाये जिसमें अनाज रख दो तो कभी ख़राब न हो. फिल इट-शट इट-फॉरगेट इट. नये वैज्ञानिक के सामने विचार रखा. ब्रह्म रूपी जूनियर ने ज्ञान दिया - सर आप कुछ भूल रहे हैं. फिल इट-शट इट-पब्लिश इट एंड देन फॉरगेट इट.

मशीनी कटाई 

पुदीने में बहुत औषधीय गुण हैं. इसकी हार्वेस्टर से कटाई के लिये फसल की ऊँचाई बढ़ा दी है. अब ये कम्बाइन से कट सकता है. ट्रैक्टर से बोआई में पंक्तियों कि दूरी 45 से 50 सेमी रखनी होगी. अरे नहीं भाई, तब पौधों की संख्या कम हो जायेगी. कोई बात नहीं, बोआई और निराई मजदूरों से करवा लेंगे.

तत्व

गेहूँ में आयरन और ज़िंक. चावल और दाल में भी. आरोग्यकारी स्वस्थ जीवन के लिये आवश्यक हैं ये तत्व. पता नहीं था, पुरखों को. वो पूरी थाली खाते थे. दाल-भात-रोटी-सब्जी-सलाद-अँचार-दही-पापड़. कभी-कभी कुछ गिज़ा. और वे थे स्वस्थ भी. 

समस्या

समस्या को खोज के लाना और उसका विस्तारण आवश्यक है. ताकि समाधान के लिये फण्ड मिलता रहे. फण्ड लगातार मिलता रहे इसलिये समस्या का बने रहना भी उतना ही आवश्यक है.

समाधान

समाधान प्रायः सरल और सस्ते होते है. किन्तु विश्व के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क बिना चुनौती वाला सरल काम नहीं करते. इसलिये आम समस्या को पहले चुनौती बनाओ. फिर आरम्भ करो समाधान के लिये फण्ड की तलाश. फण्ड न मिला तो समस्या समाप्त.

सबका साथ

सभी समस्याओं का एक ही विधि और विधा से समाधान. इसलिये कि लकीर पीटना है सहज और आसान. कुछ ओवरहाइप्ड़ लगता है न. सस्ते, शीघ्र और टिकाऊ समाधान के लिये आवश्यक है - सबका साथ और सबका विकास. और ये जुमला नहीं है.

कैंसर 

हवा और पानी से भी फैलता है. टिंडा, लौकी और तरोई से भी बच नहीं सकते. ये कैंसर है. नयी-नयी दवायें खोज रहे हैं, धरती के भगवान. ताकि इलाज में कोई कमी न रहे.

फूलो फलो

कीट-पतंगों, खर-पतवारों को समाप्त करने के लिये नये-नये अणुओं की खोज जारी है. लेकिन जिनका कोई नहीं उनका होता है ख़ुदा. हर अणु की तोड़ में होता गया उनका क्रमिक विकास. स्ट्रॉन्ग, एक्स्ट्रा स्ट्रॉन्ग और एक्स्ट्रा-एक्स्ट्रा स्ट्रॉन्ग अणुओं की खोज से कम्पनियाँ फूल भी रही हैं और फल भी.

प्रकृति 

माँ से अधिक बच्चों को कौन समझता है. माँ को पता था कि उसके बच्चे लाभ के लिये न जंगल रहने देंगे न पेड़. पर्यावरण संरक्षण के लिये खर-पतवार बनाना प्रकृति की विवशता है. उसका छोटा किन्तु अथक प्रयास है वातावरण बचाने को.

ग्लोबल वार्मिंग 

बेमौसम की बारिश और मौसम की अतिरंजना से सब व्यथित हैं. पशु, पक्षी, प्राणी और वनस्पति भी. समस्या के आसान से समाधान हैं. किन्तु जमीन पर उतरना पड़ेगा. वातानुकूलित कमरे के बाहर. आभासी दुनिया से निकल कर. यथार्थ में. वो भी हर एक को. कुछ करने का समय है, आपदा में अवसर तलाशने का नहीं.

-वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...