यदि उनको आना होता तो उनके आने का समय नियत था. बस ये निश्चित नहीं था कि उनका पदार्पण किस दिन होगा. भले ही महीने में उनका आना एक या दो बार हो, लेकिन ये महज संयोग ही हो सकता है कि उनके आने का समय अक्सर मेरे लंच से कोइन्साइड करता था. दरअसल मुझे जानने वाले हर आदमी को पता है कि ऑफिस में लंच के समय मेरे कमरे में मिलने की सम्भावना प्रबल रहती है. क्योंकि उस समय मीटिंग्स नहीं होती. मेरे एक मित्र मीटिंग्स को इस तरह डीफ़ाईन करते थे - मीटिंग इज़ अ प्लेस वेयर मिनट्स आर केप्ट एंड आवर्स आर लॉस्ट. मीटिंग का ज़िक्र आया तो सोचा चटका दूँ.
जब से लोगों की आय में उनकी अपेक्षा से अधिक वृद्धि हुयी है, उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि इस बढे हुये पैसे का करें तो करें क्या. बड़ी सी कार/एसयूवी खरीद ली. इनकम टैक्स बचाने की गरज से एक एमआईजी या फ़्लैट भी लोन पर ले लिया. जब तक बच्चों के बस्ता नहीं टंगा था, दुनिया-जहान भी घूम डाला. हफ़्ते में चार दिन बाहर जा कर या बाहर का मंगा कर खाने के बाद जल्द ही ये आभास हो गया कि रोज-रोज बाहर का खाना, खाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो सकता है. प्रोस्परिटी भी शरीर के चारों ओर से छलकने लग पड़ी थी. बेल्ट की सहायता से किसी तरह इस बढ़ती हुयी प्रॉस्परिटी/प्रॉपर्टी को सम्हाल रहे हैं. सेविंग्स और बचत को परम सत्य मानने वाले देश में सरकार और प्राइवेट कम्पनियाँ चाहती हैं कि लोग पैसा मार्किट में लगायें ताकि देश की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ हो. सरकार ने लोगों का पैसा मार्केट में निकलवाने के लिये ऐसे ऐसे नियम बना दिये कि जीपीएफ़-पीपीएफ़ जैसे सुरक्षित बचत की विधियों में लोग सीमित धन ही डाल सकें. नयी टैक्स पॉलिसी भी ऐसी है जो बचत से ज्यादा खर्चा करने को प्रोत्साहित करती है. लोग खुल के कमायेंगे और दिल खोल के खर्च करेंगे तभी तो देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे पायेंगे.
नतीजा ये हुआ कि मेरे जैसे वित्तीय मामलों के लिख लोढ़ा-पढ़ पत्थर टाइप के व्यक्ति को भी समझ आ गया कि धन, मात्र अर्जन और व्यय के लिये नहीं है. इसके सम्वर्धन के लिये बड़े-बड़े लोग समुचित इन्वेस्टमेंट मैनेजमेन्ट कर रहे हैं. हम मिडल क्लास लोगों की ये मानसिकता होती है कि अपने से ऊपर वालों की नक़ल करें. बहुत ही व्यवस्थित तरीके से समझाया गया कि जिस दर से मुद्रास्फीति बढ़ रही है, उस दर से बचत खातों में आपकी आय नहीं बढ़ रही है. जब आप साठ साल के होंगे तब तक एक लाख का मूल्य मात्र साठ हज़ार रह जायेगा. इसलिये सुरक्षित आठ परसेंट का ब्याज आपके लिये नाकाफ़ी सिद्ध होगा. इन्फ्लेशन के साथ या उससे अधिक दर से अपनी सेविंग्स को बढाने के लिये आपको मैदान में आना होगा, वो भी वैधानिक चेतावनी के साथ कि - फंड्स आर सब्जेक्टेड टू मार्किट रिस्क. ताकि बाद में आप ये न कह सकें कि बताया नहीं था.
तब आज का सेंसेंक्स, जो पचहत्तर हज़ार पर नाच रहा है, पाँच हज़ार के अल्ले-पल्ले था. मुझे शेयर के बारे में तो हर्षद मेहता की दया से कुछ-कुछ पता चल गया था, और ये शपथ भी ले ली थी कि टैक्स फ्री इंटरेस्ट वाली बचत जीपीएफ़ के अलावा कहीं भी इधर-उधर इन्वेस्ट करना ही नहीं है. लेकिन जब से सरकार में वित्त के जानकर लोगों की दखलन्दाजी बढ़ी है, इन्होने मिडिल क्लास के अमीर बनने की राह में हर तरह के रोड़े अटकाने शुरू कर दिये हैं. लोगों के पास मार्केट में कूदने के अलावा बस छत से कूदने का ही विकल्प बचा है. फाइनेंशियल इन्वेस्टमेंट आजकल लोगों का सबसे पसंदीदा शगल बन गया है. अब चूँकि हर कोई इकोनोमिक टाइम्स तो न पढ़ सकता है, न समझ (ये बात अलग है कि बिल उसी का क्लेम करता है), इसलिये सेवा का एक ऐसा धंधा फल-फूल रहा है, जिसमें फाईनेन्शियल एडवाइज़र आपको ये बताते हैं कि कहाँ आप पैसा लगाइए और कैसे अपना पैसा बढाइये. सेवा से बड़ा कोई धंधा नहीं है, ये हमारे पुरखे भी जानते थे. सेवा करो सो मेवा खाओ. जिसकी सेवा करोगे उसको आपकी मेवा से कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिये. भले मेवा उसी की जेब से जा रही हो.
तो जब सेंसेक्स पाँच हज़ारी था तब मुझे म्युचुअल फन्ड्स के बारे में उन्हीं से पता चला जिनका मै ज़िक्र कर रहा था. तब ये 'सही है' बताने के लिये तेंदुलकर और धोनी नहीं थे. उन्होंने ही बताया किस तरह जीपीएफ़ में पैसा लगा कर हम अपना भविष्य ख़राब कर रहे हैं. वैसे भी जैसे-जैसे हमको समझ आता है कि पैसा बर्बाद करने के लिए नहीं है. और सारी लग्ज़री कहीं न कहीं हेल्दी लाइफ़ स्टाइल को प्रभावित कर रही है, इन्वेस्टमेंट पैसे के सदुपयोग का सबसे अच्छा माध्यम बचता है. पूरे देश में जिस कदर सर्विस सेक्टर का विकास हुआ है, उतनी प्रगति किसी और क्षेत्र में देखने को नहीं मिलती. हर्र भी आपकी, फिटकरी भी आपकी और रंग उनका चोखा. आपने इन्वेस्टमेंट की सोची नहीं कि इन्वेस्टमेंट कब-कहाँ और कैसे करना है ये बताने के लिये इन्वेस्टमेंट एडवाईज़र्स की पूरी एक फ़ौज खड़ी है. और इनकी संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी जारी है. आपको आपका पैसा कहाँ लगाना चाहिये, ये बताना इनका काम है. इनकी सदिच्छा ये है कि आपकी बचत का पैसा कहीं बैंक-जीपीएफ़ में सड़ता न पड़ा रहे. इसके लिये हमें इन्वेस्टमेंट के पुराने तरीकों से बाहर निकलना होगा. सेविंग, रेकरिंग, एफ़डी, जीपीएफ़, पीपीएफ़ आदि में इन्वेस्ट करने से आप को एक सुनिश्चित वृद्धि भले ही मिल जाती हो. लेकिन यदि आपको इन्फ्लेशन से जीतना है, तो मार्केट में आना ही पड़ेगा. किनारे बैठ कर दरिया की धार का पता नहीं चलता. अख़बार में सेंसेक्स को चढ़ता-गिरता देखने से काम नहीं बनने वाला. उसके रोमांच को महसूस करने के लिये आय का एक समुचित भाग शेयर बाज़ार में लगाना पड़ेगा. डायरेक्ट शेयर में घुसना, हम जैसे नौसिखियों के लिये घाटे का सौदा हो सकता है, इसलिये म्युचुअल फण्ड का माध्यम अधिक सुरक्षित है. इसमें बड़ी-बड़ी कंपनियों के बड़े-बड़े फण्ड मैनेजर्स बैठे हैं, जिनका काम ही है ये कि आपके पैसे को कहाँ इन्वेस्ट करें कि आपको अधिक से अधिक लाभ हो. इसके लिये आपको इकोनोमिक टाइम्स और सीएनबीसी आवाज़ पर मगज़मारी नहीं करनी पड़ेगी. जितने रिटर्न्स उस समय उन्होंने दिखाये मुझे बिना धोनी के समझ आ गया कि म्युचुअल फण्ड 'सही है'. तब से ये मेरे मित्र-कम-एडवाइजर बन गये. बाद में पता चला कमोबेश ये पूरे ऑफिस के मित्र-कम-एडवाइजर हो चुके हैं. अब चूँकि इन्हें मालूम है कि मै लंच कमरे में ही करता हूँ, इन्होने अपने आने का टाइम इसी हिसाब से सेट कर रखा है.
कोई भी आदमी दमड़ी तब निकालता है जब उसकी चमड़ी पर मामला आ जाये. बिना डराये न तो कोई लाइफ़ इन्श्योरेंस कराये, न मेडिकल इंश्योरेंस. इनकी यूएसपी थी कि आपका पैसा बैंक के पास सुरक्षित तो रह सकता है लेकिन इन्फ्लेशन को देखते हुये आपके बुढ़ापे की आवश्यकताओं के लिए शायद नाकाफ़ी हो. जिसने भी बुढ़ापे को करीब से देखा होगा, उसे पता है कि यदि कोई बुढ़ापे में बुढ़ापे का इलाज कराने में न लग जाये, तो बुढ़ापे में पैसे की उतनी ही आवश्यकता होती है, जितनी बचपन में थी. दूसरों पर निर्भर रहना है, वो जैसे रखना चाहें रखें. हाँ, यदि आपके खीस (खाते) में पैसा है तो सम्भव है रख-रखाव थोड़ा बेहतर हो जाये. वैसे भी यदि आप कुछ अच्छी जमा-पूँजी छोड़ के जायेंगे तो आपकी अगली पीढियाँ आपका नाम थोड़ी इज्जत से लेंगी. इसलिये मार्केट में इन्वेस्टमेंट जरूरी है. अब चूँकि आप को मार्केट का ए-बी-सी नहीं पता है, उसके लिये एडवाईज़र्स और उनकी सेवायें हैं. बड़ी-बड़ी फाइनेंस कम्पनियाँ सिर्फ़ इसलिये खुल रही हैं कि हमारा पैसा बैंक में न रहे और उनकी कम्पनी के साथ-साथ लगातार बढ़ता रहे. आप भले ही एक अमीर ज़िन्दगी न जी पाये हों, लेकिन इनके रहते यदि आप बिना अमीर हुये धरती से कूच कर गये, तो धरती पर आपका आना और इनका रहना व्यर्थ चला गया. बहुत से सीए-एमबीए-इकोनोमिस्ट सिर्फ़ आपके कल्याण के लिये फण्ड मैनेजर बने बैठे हैं ताकि आपके मुनाफ़े में किसी प्रकार की कोई कमी न रहे. मैंने भी उनके कहने पर एक छोटे अमाउंट की एसआईपी शुरू कर दी. लेकिन जब भी वो आते एक न एक नयी स्कीम के साथ आते. चूँकि सरकार ने भी जीपीएफ़ की सीमा निर्धारित कर दी थी, तो म्युचुअल फंड में निवेश बढ़ना ही था. मेरा भी बढ़ा. सेंसेक्स के पाँच से पचहत्तर हज़ार के सफ़र का मै थोड़ा डॉर्मेंट साक्षी भी रहा. निष्क्रिय इसलिये कि मिडल क्लास मानसिकता के चलते जो भी एसआईपी चल रही थीं, उनमें पैसा डालता ही रहा, घटने-बढ़ने पर ख़रीदा-बेचा नहीं.
लेकिन मेरे मन में हमेशा एक प्रश्न रहा. सुबह से शाम तक हम जिन भी वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं या तो वो मेड इन चाइना, कोरिया, अमेरिका, जर्मनी, फिनलैंड आदि हैं या मेक इन इण्डिया हैं. अधिकांशतः मल्टीनेशनल कम्पनियों के प्रोडक्ट्स जो वैश्विक मानदंडों पर खरे हैं, वो ही भारत के मार्केट में भी प्रचलित हैं. तब लगता है कि घर की तो बस मूँछें ही मुँछे हैं. अल्टीमेटली इनका ओवरऑल मुनाफ़ा तो किसी और देश में ही जाता होगा. पहले एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी थी, अब मल्टीनेशनल कंपनियों की बाढ़ है. इस दौरान पता नहीं कितनी बार सेंसेक्स में बुल और बिअर फेज़ आते रहे. अख़बार में कभी पढता कि निवेशकों को सेंसेक्स में उछाल से भारी फ़ायदा हुआ या गिरावट से भारी नुक्सान का सामना करना पड़ा. लेकिन मुझे इससे क्या. जिस दिन पैसा निकालना होगा उसी दिन पता चलेगा कि घाटा हुआ या मुनाफ़ा. चूँकि मै स्वयं को म्युचुअल फण्ड इन्वेस्टर की तरह देखता था, इसलिये सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव से बिना विचलित हुये एसआईपी चलाता रहा. इस अप-डाउन से किसे फ़ायदा हुआ, किसे नुक्सान इससे हमें क्या लेना-देना. हमें तो कहीं न कहीं इन्वेस्ट करना ही था. बाद में अंदाज़ लगा कि मार्केट में ही तो लगा है मेरा और हम जैसों सबका पैसा. सारी कबड्डी स्माल इन्वेस्टर्स की हड्डी पर ही तो खेली जा रही है. बड़े प्लेयर्स तो रोज ख़रीद-बेच रहे हैं. मार्केट के उतार-चढ़ाव का असली मज़ा एक्टिव इन्वेस्टर्स ले रहे हैं. हम-आप तो बस इन्वेस्ट कर रहे हैं. वो मार्केट के हिसाब से इन्वेस्ट और डिसइन्वेस्ट करते रहते हैं. उनका काम इन्वेस्टमेंट नहीं है, शेयर मार्केट से लाभ कमाना उनका फुल टाइम जॉब है. वारेन बफेट ने एक चिप्स नहीं बनायी, लेकिन दूसरों की कंपनियों में पैसा लगा-लगा के दुनिया के जाने-माने धनपशुओं में शुमार हैं. लेकिन चूँकि कुल मिला कर इस इन्वेस्टमेंट से मेरी पूँजी बढ़ी ही है, इसलिये ये कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि म्युचुअल फण्ड सही है.
वैसे भी आम आदमी भले ही चाय की दुकानों से लेकर ड्राइंग रूम तक दुनिया बदलने के लिये कितनी ही डिबेट कर ले. लेकिन होना-जाना कुछ नहीं है. देश कि अर्थव्यवस्था का सारा दारोमदार उसी पर है. उसी के ऊपर देश की इकोनॉमी टिकी हुयी है. जब विश्व के अधिकांश विकासशील देश, विकसित राष्ट्र बनने के लिये लालायित हैं, वहाँ हमारे देश का एक बड़ा तबका ये सिद्ध करने में लगे हैं कि हमसे ज्यादा जाहिल कोई नहीं है. हम बैकवर्ड थे, हैं और हमेशा बने रहेंगे. कहने को तो डिग्रीधारक पढ़े-लिखे लोगों की फ़ौज है लेकिन न देसी संस्कार बचे हैं, न अंग्रेजी. मैनर्स के लक्षण, सॉरी-थैंक्यू कहना इनकी शान के खिलाफ़ है. होड़ लगी है कि कौन कितना बदतमीज़ है, क्योंकि स्मार्टनेस की यही नयी परिभाषा है. हर व्यक्ति इतना चगड़ हो गया है कि अपने लाभ को सर्वोपरि रख कर ही काम करता है. जबकि सभी को पता है कि देश और समाज का उत्थान त्याग पर आधारित होता है, न की स्वार्थ पर. नियम-कानून को ताक़ पर रख कर चलने वाले स्वयं को चालाक और समझदार होने का वहम पाले घूम रहे हैं. जब बड़े-बड़े अपराधी जेल से चुनाव लड़ें और जीत जायें, तो लगता है दुनिया में गलत क्या है और सही क्या. जिन्हें कूड़ा फेंकने की तमीज़ नहीं है, वो नेता चुन रहे हैं. इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है. अतिवादी विचारधारा को मानने वाले अपने कुतर्क से पूरी दुनिया को गलत सिद्ध कर सकते हैं. नियम-क़ानून से वही डरे जो इन्हें जानता हो. जब हमें सही-गलत सिखाया ही नहीं, तो हमें क्या पता कि हेलमेट कम्पलसरी है या उल्टी दिशा में चलने से एक्सीडेंट की सम्भावना होती है. सीट बेल्ट का अनुपालन करवाना दरोगा का काम है. जिनके पास शिक्षा नहीं है, उनके पास एक्सक्यूज़ है कि हम नियम-क़ानून नहीं जानते. लेकिन जिनके पास शिक्षा और साथ में पैसा भी है, वो क़ानून अपनी जेब में रखते है. हत्या और रेप के आरोपी दसियों साल मुक़दमा लड़ रहे हैं. शक़ होता है वकील और मियाँ लार्ड न्याय के पक्ष में खड़े हैं या विपक्ष में. जो जितना गलत है, उतना ही मुखर है. इस माहौल में सही व्यक्ति स्वयं को समाज से अलग-थलग पाता है. उसे हमेशा गलतफ़हमी बनी रहती है कि कभी तो लोग मानेंगे कि बन्दा सही था. गौर कीजियेगा, है नहीं था. ऐसे में कभी-कभी असहाय सा सब कुछ होते हुये देखने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं होता. क्योंकि सही-गलत को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है. अब तो ये भी लगने लगा है कि जब सब सही हैं तो हम क्यों अपने को गलत मान लें. इसलिये दोस्तों में दोस्ती कम और दुश्मनी बढ़ती जा रही है. और ये बात सही है कि स्वार्थ परायणता के युग में ख़ुद को खुश रखना ज़्यादा महत्वपूर्ण बन गया है. इसलिये आते को रोको मत और जाते को टोको मत. दूसरे को भी खुश रहने का पूरा अधिकार है.
जब सब अपनी-अपनी जगह सही है तो लड़ाई सही और सही के बीच में है. ऐसी लड़ाई का अन्त युद्ध से ही होता रहा है और होता रहेगा. जैसा महाभारत में हुआ था और रूस और युक्रेन, इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच चल रहा है. यद्ध की विभीषिका में दोनों पक्ष अपने को सही सिद्ध करने में लगे हुये है. जबकि सबको मालूम है गलत क्या है और सही क्या. ऐसी स्थिति में जब कुछ नहीं कर सकते, तो ये मानना ज़रूरी हो जाता है कि जो भी हो रहा है और जो भी होगा, सब अच्छा है, सही है. ऐसा गीता में लिखा भी गया है. साठ साल में गीता पढने से कम, अनुभव से ज्यादा समझ आयी है. गलत कुछ नहीं है. सब सही है. सापेक्षता के सिद्धांत में व्यक्ति का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है. जो हर व्यक्ति के अनुसार बदल जाता है. ऊपर से अब तो ये ज्ञान भी हो चला है कि कर्ता हम या आप नहीं, कोई और है. ऊपर वाले पर विश्वास करने का सबसे बड़ा लाभ ये है कि हम किसी प्रकार के अपराधबोध से पूर्णतः मुक्त रहते हैं.
तेन्दुलकर और धोनी जब कह रहे है कि म्यूचुअल फण्ड सही है तो मान भी लीजिये. आपका निर्णय सही था या गलत ये तो तब पता चलेगा जब आपको पैसों कि आवश्यकता होगी. तब आपका ध्यान बारीकी से कही बात पर जायेगा - “Mutual Fund investments are subject to market risks, read all scheme related documents carefully”.
तब तक सब के लिये - म्यूचुअल फण्ड सही है, ये मानना ही श्रेयस्कर है.
-वाणभट्ट