रविवार, 9 जून 2024

पुराने कपड़े

पार्किंग में कार खड़ी करने के बाद रिमोट की का बटन दबाते हुये वैसी ही फीलिंग आती है जैसे अमिताभ अपनी एक फ़िल्म में डायनामाईट से पहाड़ उड़ाता था. पलट के देखने की ज़रूरत नहीं. बस बम फटने और पहाड़ के गिरने की आवाज़ से अंदाज लग जाता था कि काम हो गया. कार से भी ऐसी ही एक बीप की आवाज़ ये कन्फर्म कर देती कि कार लॉक हो गयी. वैसे ही वार्डरोब से कपड़ा निकालने के बाद जब बिना पीछे देखे अलमारी बन्द की तो मैग्नेटिक लॉक की खट की आवाज जो हमेशा आती थी, नहीं आयी. तो पलट के देखना पड़ गया. हैंगर पर टंगी एक शर्ट की बाँह का कफ़ अलमारी के दरवाज़े से बाहर झाँक रहा था. 

दोबारा दरवाज़ा खोल के पुनः बन्द करने का प्रयास मँहगा पड़ गया. अन्दर भरे पड़े कपड़े भड़भड़ा के नीचे आ गये. एक तो ऑफिस के लिये देर हो रही थी, उस पर ये बवाल. कपड़े दिन पर दिन बढ़ते जाते हैं और रखने की जगह कम होती जाती है. ऑफिस क्या पहन के जायें ये रोज-रोज की जद्दोजहद बन गयी है. ऑफिस का एक यूनिफार्म हो तो कितना अच्छा हो. क्या पहने इस विषय में सोचना नहीं पड़ता. इतने कपड़े इकठ्ठा हो गये हैं, इसी चक्कर में कि रोज कपडे बदल के जाना चाहिये. नये कपड़े विशेष उपलक्ष्यओं के लिये छोड़ दिये जाते हैं. जो अक्सर रखे-रखे ही पुराने हो जाते हैं. ऑफिस के लिये थोड़े पुराने और टहलने के लिये सबसे पुराने. रोज नये और पुराने कपड़ों के बीच से पहनने लायक कपड़े खोजना भी एक काम बन गया है. 

श्रीमती जी टिफिन और नाश्ता बनाने में व्यस्त थीं, इसलिये अपना रायता ख़ुद ही समेटना पड़ा. जब कपड़ों को तहा कर रखने लगा, तो लगा इसमें से कितने ही कपड़े तो काफ़ी दिनों से पहने ही नहीं. खामख्वाह अलमारी में जगह घेरे पड़े हैं. जबसे लोगों ने पड़ोस में जाना छोड़ कर मॉल जाना शुरू किया है. जाने-अनजाने खरीदने की बीमारी बढ़ने लगी है. ज्ञानी जन बताते हैं कि आज कल हर आदमी अवसाद से ग्रसित है क्योंकि उसे कोई सुनने वाला नहीं मिल रहा. गलती से कोई मिल भी गया तो वो आपकी सुनने से ज़्यादा अपनी सुनाने में लग जाता है. इसीलिये बाबाओं और पूजा स्थलों में भीड़ बढ़ती जा रही है. कोई और सुने ना सुने ऊपर वाला तो सबकी सुनता है. लेकिन दिन भर तो न अपने पास समय है, न उसके पास, कि सुनता-सुनाता रहे. मज़बूरी ये भी है कि समाज में रहना भी ज़रूरी है. उस समाज में जहाँ लोग सहायता कम करते और मज़े ज़्यादा लेते हों, वहाँ शॉपिंग मॉल एक सुखद संदेश ले कर आये है. गली-मोहल्लों में नित नये-नये मॉल खुल रहे हैं. लोगों को भी लगता है कि दूसरे की सुनने से अच्छा है, शाम एयर कंडिशंड मॉल में गुजारो. लेकिन जब यूपीआई और क्रेडिट कार्ड, मोबाईल और जेब में भनभना रहे हों, तो बेवजह शॉपिंग हो जाना बड़ी बात नहीं है. सेल से शॉपिंग और रेस्टोरेंट में खाने से मस्तिष्क में एड्रेलिन का स्राव बढ़ जाता है और कुछ देर के लिये ही सही व्यक्ति को परमानन्द की प्राप्ति होती है. घर के सभी प्राणियों का यही हाल है. वक्त बेवक्त ऑनलाइन शॉपिंग वाले घरों में घंटी बजाते घूम रहे हैं. घर में सामान जिस रेट से आ रहा है उस रेट से निकल नहीं रहा है. इसलिये घर, घर कम लगते हैं, गोदाम ज़्यादा. पैसा तो निरीह बाप का ही लगता है. बाप बेचारा क्या बोले किसे बोले. न्यूक्लियस परिवारों में हर चीज़ का ठीकरा पति या पिता पर ही फूटता है. बेचारा पिता कहाँ फोड़े अपना ठीकरा, इसकी किसे फ़िक्र है. 

आज कपड़े ना गिरते तो ये एहसास भी न होता कि कपड़े बहुत ज़्यादा हो गये हैं. और इनमें से पहनने वाले कम और न पहनने वाले अधिक. पुराने ज़माने में मुझे अच्छे से याद है कि पिता जी हम दोनों भाइयों के कपड़े एक ही थान से कटवाते थे. जब हम दोनों साथ निकलते थे, तो कुम्भ के मेले में भी हमारे बिछड़ने की सम्भावना कम होती थी. बड़े भाई साहब की शर्ट जब छोटी हो जाती तो मुझे मिल जाती. उनकी किताबें तक सम्हाल के रखी जातीं कि छोटे के लिये नयी न खरीदनी पड़े. छोटा भाई तो घेलुए में पल जाता था. बड़े के लिये नया ले लो. पहले वो पहने फिर छोटा. और बच्चे तो जल्दी-जल्दी बड़े हो जाते हैं, इसलिये कपडे ख़राब भी नहीं होते. तब हाथ कि धुलाई थी. कपड़े ज़्यादा चलते थे. मेरे बाद मेरे चाचा के बच्चे भी बिना किसी संकोच के उन कपड़ों का उपयोग करते. इस प्रकार दादा (बड़े भाई) कि एक शर्ट और पैंट चार बच्चे पहनते. ये उस समय के लोगों का बड़प्पन ही था कि छोटी से छोटी चीज़ों को भी सहज साझा कर लेते थे. आज स्थितियाँ अलग हैं. कोई किसी का उतरा नहीं पहनता. चाहे घर-परिवार का ही मामला हो. पैसे से कोई किसी से कम नहीं है. और शौक भी बढ़ गये हैं. पहले घर में काम करने वाली/वाले पुराना कपड़ा लेने में संकोच नहीं करते थे, लेकिन शहरों में फुटपाथ से लेकर छोटे-बड़े मॉल्स और शोरूम्स के आ जाने के बाद उन्होने भी पुराने कपड़ों को उतरे कपड़े बोलना शुरू कर दिया.  

अगली संडे अलमारी खाली करने का संकल्प ले कर ऑफिस के लिये निकल गया. चूँकि मेरी अलमारी, मेरी जिम्मेदारी है तो मुझे ही उस समस्या का  निराकरण करना था. नये कपडे छाँटते-छाँटते पुराने कपड़ों का अम्बार लग गया. अलमारी खाली करने की गरज जो थी. टहलने के लिए चार सेट अलग से निकालने के बाद भी अच्छे-खासे पुराने कपडे निकल आये. जितने कपड़े काफ़ी दिनों से नहीं पहने थे, सब बाहर कर दिये. कपड़ों का एक पहाड़ सा बन गया. अब समस्या थी, कहाँ दिया जाये. कानपुर में ऐसी कोई संस्था नहीं है, जहाँ पुराने कपड़े दिये जा सकें. कोई हो भी तो वो पूरे शहर से निकलने वाले इतने कपड़े ले नहीं सकती. क्योंकि एक मेरे घर का ही नहीं सभी घरों का यही हाल है. कपड़े भरे पड़े हैं. कौन किसे दे. किसी ने नेकी की दीवार के बारे में बताया था. वहाँ लोग कपडे दीवार पर टांग जाते हैं. सोचा एक बार वहाँ का हाल भी देख लिया जाये. वहाँ पहुँचा तो वहाँ का हाल भी बेहाल था. कपडे कूड़े की तरह पड़े थे. यद्यपि की आसपास वहाँ झोपड़-पट्टी भी थी लेकिन उन लोगों के यहाँ भी कपडे रखने की कितनी जगह होगी. ऐसी दीवार शहर के हर हिस्से में हो तो कुछ बात बने.  

ऐसे में याद आयी घसीटे की. जो महीने दो महीने में एक आध बार अवतरित होता था. कुछ पेड़-पौधों की देखभाल के लिये. उसने कभी पुराने कपड़े लेने से मना किया हो ऐसा मुझे ध्यान नहीं. उसको फोन करके बुला लिया गया. पत्नी और बच्चों ने भी अपने-अपने एक्स्ट्रा कपडे निकाल दिये. मुझे उम्मीद थी कि आज तो घसीटे भी हाथ खड़े कर देगा. थोडा बहुत पेड़ों की प्रूनिंग के बाद उससे असली मुद्दे की बात की. उसके सामने कपड़ों से भरे दो बड़े-बड़े झोले रख दिये. उसके चेहरे पर मेरी उम्मीद के विपरीत प्रसन्नता का भाव तैर गया. उसने सहज रूप से इतना ही कहा - दो चक्कर करने पड़ेंगे. उसका घर दूर था सो मैंने कहा पहले छाँट तो लो. जो कपडे काम के हों उन्हें ही ले जाओ. बाकी छोड़ दो. वो मुस्कुराया - साहब आपके कपड़ों की बात ही क्या. बहुत अच्छे होते हैं. धो के अच्छे से प्रेस कर दो तो नये से लगते हैं. आप लोगों के कपडे तो पुराने होने ही नहीं पाते कि आप लोग नये ले आते हैं. परेड पर जो फुटपाथ पर कपडे मिलते हैं, उनसे कहीं अच्छे और आरामदायक होते हैं. गाँव में मेरा और मेरी ससुराल का घर-परिवार बड़ा है. सभी उम्र के बच्चे और बड़े हैं. सब खप जाता है. अभी एक झोला ले जाता हूँ. शाम को बेटे के साथ मोटरसायकिल पर आ कर दूसरा ले जाउँगा. वो खुश था.

मेरी अलमारी खाली हो गयी थी. मै भी खुश था.

-वाणभट्ट

3 टिप्‍पणियां:

  1. आज की ज्वलंत समस्या और वर्तमान जीवन शैली

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  2. मेरी अलमारी खाली हो गयी थी. मै भी खुश था.
    सुंदर संकलन कपड़ों का
    कपड़ों की इज्जत बढ़ाई
    सादर वंदन

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