सोमवार, 17 जून 2024

एआई

आजकल जिधर देखो एआई का जलवा है. एआई को पूर्ण रूप से आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स कहा जाता है. और हिन्दी में कृतिम बुद्धिमत्ता. कृतिमता के इस युग में जब सम्पूर्ण जीवन ही कृतिम साधनों-संसाधनों पर निर्भर है, अब बुद्धि का ही कृतिम होना बचा था. पहले की शिक्षा में शिक्षक और अभिभावक दोनों ही बच्चों को अंकगणित और व्यवहार गणित पर ध्यान देने को कहते थे. पहाड़े यदि फर्राटे से याद न हों तो लगता था बच्चे की गणित कमज़ोर है. लेकिन तब पढ़ाते कम थे, समझाते ज्यादा. ये बात अलग है कि समझाने के तरीके शिक्षकों के अनुसार बदलते रहते थे. अभिभावक भी उसी गणित के अध्यापक को सही समझते थे जो उनके बच्चों को ठोंकने-पीटने में कोई कसर न रखे. तब भला किसने सोचा था कि बीस रुपये के चार चिप्स खरीदने हों तो दुकानदार कैलकुलेटर पर हिसाब करेगा. पहले बिना मैप के दुनिया घूम आते थे. बस थोडा बहुत दिशा ज्ञान हो तो लोग-बाग़ समुन्दर में कूद जाते थे (नाव लेकर). नहीं तो अभी तक अमरीका लापता रहता. न वास्को डी गामा भारत का रास्ता खोजता, न भारत गुलाम होता. लेकिन एक कहावत है कि जो होता है अच्छा ही होता है. अगर अँग्रेज न आते तो यकीन मानिये भारत जैसी वाईब्रेंट डेमोक्रेसी देखने से विश्व महरूम रह जाता. जिन लोगों को ये नहीं पता कि कचरा कहाँ फेंकना है, वो नेता चुन रहे हैं. और नेतागण भी कीचड़ में कमल खिलाने की कवायद में लगे हैं. कीचड़ जब ज्यादा हो जाता है तो कभी-कभी कमल को निगल जाता है. व्यक्तिगत रूप से मै अपने लेखों के माध्यम से अंग्रेजों का शुक्रिया करता रहा हूँ कि वो न आते तो हम लोग अन्याय और अत्याचार को हरि इच्छा मान कर आल्हादित हो रहे होते.   

जैसा की हर पीढ़ी को लगता है, उसकी पीढ़ी सबसे परिवर्तनकारी पीढ़ी थी, हम को भी लगता है. हमारी पीढ़ी ने भारत की आम ज़िन्दगी स्वयं जी है और अब अमरुद जैसी ज़िन्दगी भी देख रहे हैं. एक समय था जब सायकिल दहेज़ में मिलती थी और एक ज़माना आज है जब एसयूवी से कम कोई सोचता ही नहीं. लोग स्वयं को देखने के बजाय दूसरों को दिखाने में लगे हैं. एक ऐसा भी समय था जब रूटीन ज़िन्दगी से लोग बोर नहीं होते थे क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं था कि दुनिया में कितने मज़े हैं. तभी यम-नियम सब निभ गये, आज कोई कर के दिखाये. समाज से बाहर का व्यक्ति मान लिया जायेगा. आज हर दिन अगर डीपी और स्टेटस न बदला तो लगता है लाइफ़ में मोनोटोनी आ गयी. ज्ञान इतना है कि जानने के लिये सात जन्म भी कम पड़ जायें. लेकिन सहजता से आपकी फिन्गरटिप पर उपलब्ध है. सब कुछ जानने और समझने की जरूरत नहीं है. स्कूल हैं फ़ीस वसूली के लिये और पढायी के लिये हैं कोचिंग्स, वो भी मोटी रकम दे कर. कोचिंग्स इसलिये भी फल-फूल रहीं हैं कि पेरेंट्स माया कमाने में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास समय नहीं है अपने ही बच्चों को देखने-पढ़ाने का. प्राइमरी स्कूल के होमवर्क कराने के लिये ट्यूशन चल रहे हैं. वाई-फाई के बिना बच्चा पढ़ नहीं सकता. ये बात अलग है कि इसी दौरान उसे भारतीय टीवी सीरियल्स से ज्यादा कोरियन सीरियल समझ आने लगते हैं. किशोर कुमार के ज़माने वाले बाप के घर में जब बीटीएस बजने लगे तो बाप के पास एक कार ही बचती है, जहाँ जब वो अकेला हो तो विविध भारती पर पुराने गाने सुन सके. 

आज हम सभी तकनीक पर इतना अधिक निर्भर हो गये हैं कि अपनी पढाई-लिखाई से भरोसा ही उठ जाता है. पहले अध्ययन-चिन्तन-मनन के माध्यम से पढाई होती थी, सिलेबस कम होता था और खेलने-कूदने के लिए था पर्याप्त समय. बल्कि ये कहें कि जिसे पढना होता था वो खेलने-कूदने के बाद पढाई के लिये समय निकाल लेता था. आज सिलेबस ज्यादा है. हर विषय की मेड इज़ी पुस्तकें आ गयीं हैं. कभी इन्हें कुन्जी कहा जाता था. और कुन्जी से पढ़ने वाले बच्चों को हेयदृष्टि से देखा जाता था. टेक्स्ट बुक से पढने का रिवाज़ अब लगभग ख़त्म है. टेक्स्ट बुक से पढ़ने वाले बच्चे कदाचित कम्पटीशंस में 100 प्रतिशत मार्क्स ला पायें. मैथ्स-फिसिक्स में डेरिवेशन से ज्यादा शॉर्टकट्स पर ध्यान दिया जाता है ताकि कम्पटीशन हॉल में सटीक उत्तर कैलकुलेट करने में समय व्यर्थ न हो. यूट्यूब पर लेक्चर्स उपलब्ध हैं. क्लास अटेंड करने की जरूरत नहीं है. चाहे कुण्डली जागरण हो या ग्रह-नक्षत्रों की चाल, आप घर बैठे इन्टरनेट के माध्यम से फटे पड़ रहे ज्ञान से लाभान्वित हो सकते हैं. बस ये निर्णय आपको लेना है कि कौन सा स्रोत विश्वसनीय है. 

परिवर्तन प्रकृति का नियम है. दुनिया निरन्तर आगे ही गयी है, तो ये मानना उचित भी है कि अगली पीढ़ी सही ही होगी. वो इतनी फ़ास्ट है कि हमारे जैसे पुराने लोगों को लगता है कि इतनी तेजी किसलिये. उनका कहना है ज़िन्दगी नहीं मिलने वाली दुबारा. सो जो कुछ भी करना है, इसी जीवन में करना है. एक जीवन में एफ्फेक्टिवली बीस साल ही मिलते हैं जीने को. पच्चीस-तीस साल तक तो स्थायी रूप से माया का जुगाड़ करने में बीत जाते हैं और पचास के बाद उम्र का तकाज़ा शुरू हो जाता है. आयु को कम दिखाने वाले मेकअप और फुर्तीलापन बनाये रखने को वैसे तो बहुत सी अंग्रेजी-यूनानी-आयुर्वेदिक औषधियाँ उपलब्ध हैं. लेकिन व्यवसायिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण स्लो होना ही पड़ता है. यदि एक ही जीवन में आप विश्वास करते हैं तो आपके पास वाकई समय नहीं है. इसलिये हर काम को शीघ्रता से करना इनकी आवश्यकता भी है और मज़बूरी भी. ये आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स भी इसी ईज़ाद का परिणाम है. कृतिम बुद्धिमत्ता आज का सबसे एडवांस विषय है. हर क्षेत्र में इसके उपयोग की अपार सम्भावनायें हैं. आज के व्यक्तिगत जीवन में इसका प्रभाव इतना बढ़ गया है कि इसकी सहायता के बिना अपने निर्णय लेने में कभी-कभी स्वयं को अक्षम पाते हैं. शॉपिंग से लेकर इन्वेस्टमेंट तक सबकी सलाह इसकी सहायता से मिल जाती है. यदि हम अंतरजाल पर कुछ खोजने जाते हैं तो एआई पहले ही एक्टिव हो जाता है और आपके सामने चार सम्भावित ऑप्शंस रख देता है. आदत यहाँ तक पड़ गयी है कि यदि चार ऑप्शंस न दिखाई दें तो व्यक्ति अपने इन्टरनेट की कनेक्टिविटी पर शक करने लग जाता है. और यदि आपने गलती से नेट पर किसी उत्पाद की जानकारी खोज ली, तो तैयार हो जाइये अगले दस दिनों तक हर प्लेटफार्म पर आपको उस उत्पाद का विज्ञापन देखने को मिल सकता है. कई बार उसी से प्रभावित हो के व्यक्ति निर्णय भी ले लेता है. उत्पाद के बारे में वास्तविक जानकारी तो उत्पाद आने के बाद ही मिलती है.

सबसे ज्यादा दिक्कत की बात ये है कि आप माँगों या ना माँगो ये एआई बाबा अपनी राय दिये बिना बाज नहीं आते. एक सीधा सा मेल भी लिखना हो तो ये खुद ही लिखना शुरू कर देते हैं. हम हिन्दुस्तानियों की अंग्रेजी उतनी ही अच्छी है जितनी अंग्रेजों की हिन्दी. कहाँ ए-एन-दी लगाना है, इसमें हमेशा कन्फ्यूजन हो जाता है. लेकिन एआई की सहायता जब सारे आर्टिकल्स सही जगह लग जाते हैं, तब लगता ही नहीं है कि ये हमारी अंग्रेजी है. आपको बस की-वर्ड्स बताने हैं, और ऐसे-ऐसे टूल्स आ गए हैं कि पूरा का पूरा लेख या कविता लिख दें. किसी ने माँ पर कविता लिखने को बोल दिया तो एआई ने अब तक माँ पर लिखी सारी कविताओं का लब्बो-लबाब निचोड़ कर एक कविता लिख डाली, जिसे पढ़ कर महान से महान शायर को भी लगे कि मैं ख्वामख्वाह एक-एक अशआर पर बेवजह घन्टों मेहनत करता रहा. अपनी ठेठ अंग्रेजी में एक लेख लिखने में मुझे चार-छ: दिन लग गये. को-ऑथर को चेक करने के लिये दिया तो भाई ने इतना तगड़ा करेक्शन किया कि मैं आश्चर्यचकित ही नहीं हुआ बल्कि आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लगा. मुझे लगा कि पेपर कहीं इसीलिये रिजेक्ट न हो जाये कि हिन्दुस्तानियों से इतनी अच्छी अंग्रेजी की उम्मीद नहीं की जाती. बाद में उस को-ऑथर ने रिफ्रेज़िंग सोफ्टवेयर के बारे में बताया. उसके बाद से जब किसी हिन्दुस्तानी के अंग्रेजी लेख पढता हूँ तो शुबहा बना रहता है कि जो बंदा हिन्दी सही ढंग से नहीं लिख पाता उसकी अंग्रेजी इतनी माशाअल्ला कैसे है. लेकिन अब ज़्यादातर लोग हम लोगों की तरह सरकारी हिन्दी मीडियम स्कूल वाले तो हैं नहीं. इंग्लिश मीडियम में पढ़ाने वाले माँ-बाप भी फ़क्र से कहते हैं, मेरे बच्चे की हिन्दी बहुत वीक है. एआई आज की वास्तविकता है और इसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प है भी नहीं. लेकिन ये भी साफ़ है कि एआई का जानकार आपके मानवीय निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. वो समय दूर नहीं जब आप अपने नहीं दूसरे के दिमाग से सोचने को विवश होंगे.   

एक बार मेरे मित्र का बेटा बीमार पड़ गया. इक्कीस दिन हो चले थे और बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था. कई डॉक्टर्स को दिखाने के बाद भी आराम नहीं मिला. सबके कहने पर लगभग तीन हज़ार के अनेकानेक टेस्ट करने के बाद भी डॉक्टर्स अँधेरे में ही तीर मार रहे थे. एक डॉक्टर ने तो टीबी तक की आशंका व्यक्त कर दी. किसी ने मेडिकल कॉलेज के एक पुराने हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट रहे बाल रोग विशेषज्ञ के बारे में बताया. मित्र और उनके पुत्र के साथ हम लोग उनके यहाँ पहुँच गये. डॉक्टर ने बच्चे की नब्ज़ और आले से जाँच शुरू कर दी. मित्र ने कुछ बोलने का प्रयास किया तो डॉक्टर ने चुप रहने का इशारा कर दिया. पिता जी बार बार रिपोर्ट आगे बढ़ायें और डॉक्टर साहब उसे कोई तवज्जोह नहीं देते हुये किनारे कर दें. मेरे मित्र ने ऐसा कई बार किया लेकिन डॉक्टर ने उन रिपोर्ट्स को पलट कर भी नहीं देखा. अपना एग्जामिनेशन करने के बाद वो मित्र की ओर मुखातिब हुये और बोले - मै बच्चों का डॉक्टर हूँ और मेरे पेशेंट्स बोलते नहीं हैं. डॉक्टर को देखना होता है कि समस्या कहाँ और क्या है. मै आपकी बात सुनता या रिपोर्ट्स देखता तो बायस हो जाता. तीन दिन की दवाई लिख रहा हूँ, उम्मीद है आपको दोबारा नहीं आना पड़ेगा. और ऐसा हुआ भी. 

ऐसे ही एक बार दिल में बहुत जोर का दर्द उठा. लगा हार्ट अटैक हो के ही मानेगा. पास-पड़ोस के मित्रों से बात की. उन स्वानुभूत डॉक्टर्स  ने कई टेस्ट बता दिये. ईसीजी-टीएमटी और कुछ ब्लड टेस्ट करा कर कानपुर के एक जाने-माने हार्ट स्पेशलिस्ट के यहाँ पहुँच गया. उनके यहाँ लगी भीड़ को देख कर आधा डर जाता रहा कि दुनिया में दिल के मरीज हम अकेले नहीं हैं. उन्होंने मेरा ब्लड प्रेशर नापा और बताया कि दर्द हार्ट से रिलेटेड नहीं है इसलिये कोई फ़ीस नहीं लेंगे. मेरी हज़ारों की रिपोर्ट को उन्होंने हाथ तक नहीं लगाया. जब मैंने उन्हें देखने के लिये कहा तो वो बिफर पड़े - मै आदमी का इलाज करता हूँ, रिपोर्ट का नहीं. रिपोर्ट पर निर्भर रहने वाले विशेषज्ञ कैसा इलाज करते होंगे ये उसकी बानगी भर है.     

आशा है सबको मालूम होगा कि यदि आप पैसा निकालने एटीएम में घुस रहे हैं तो टोपी और हेलमेट और चश्मा (धूप वाला)  निकाल के जाइये. मैंने स्कूटर खड़ी की. हेलमेट उतारा. स्कूटर की डिक्की में उसे रख कर ही एटीएम में प्रवेश किया. जैसे ही मै मशीन के सामने पहुँचा, महिला की आवाज में एक आकाशवाणी हुयी. 'कृपया कक्ष में हेलमेट या टोपी पहन के प्रवेश न करें'. ये घटना मेरे साथ पहली बार हुयी थी. उस एटीएम में मै अक्सर जाया करता था. पर ऐसा कभी नहीं हुआ था. मुझे लगा मेरे कान बज रहे हैं. मेरे कार्ड निकालने के दौरान देवी की आवाज़ पुन: गूंजी. अब मेरे पास कोई चारा नहीं था, इधर-उधर देखने के अलावा. एक नया कैमरा एक्स्ट्रा इंस्टाल हो गया था. देवी की आवाज उसी दिशा से आ रही थी. शायद उस कैमरे की लोकेशन ऐसी थी कि जहाँ से मेरी केशविहीन खल्वाट खोपड़ी ही दिख रही हो. मुझको समझते देर नहीं लगी कि यहाँ कैमरे के एआई ट्रेन्ड डाटा बेस में कुछ कमी है. मेरे गंजे सर को वो हेलमेट समझने की गुस्ताखी कर रहा है. मै कैमरे की ओर गया. उसे वेव किया. बत्तीसी दिखा कर मुस्कुराया. एआई का यही लाभ है. वो निरंतर आत्मसुधार के लिये कृतसंकल्प है. उसने अपने डाटा बेस को अपडेट किया तब जा कर देवी ने अपनी वाणी को विराम दिया. आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स का ये फीचर अच्छा लगा. आदमी तो बस दूसरों को सुधारना चाहता है, खुद सुधरने को तैयार नहीं है. टाइम लगता देख सेक्योरिटी गार्ड अन्दर आ गया. उसे पूरी कहानी बताई तो उसने कहा - उसके बोलने से क्या होता है. आप को रोक थोड़ी न रही थी. पता नहीं कितने लोग हेलमेट-टोपी-चश्मा लगाये घुसते रहते हैं. मुझे लगा ये आवाज़ भी अन्तरात्मा की आवाज़ की तरह है, सुनना हो तो सुनो, न सुनना हो तो न सुनो.  

मेडिकल लाइन में भी डॉक्टर्स की सहायता के लिये बहुत से ऐसे एआई टूल्स आ गये हैं जो लक्षणों के आधार पर बीमारी खोज कर दवाइयाँ संस्तुत कर सकते हैं. इन्टरनेट के माध्यम से आम आदमी तक भी उसकी पहुँच होती जा रही है. लेकिन मेरी राय है कि बिना किसी कुशल चिकित्सक को दिखाये अपना उपचार न करें. मानना न मानना आपकी मर्ज़ी पर छोड़ता हूँ. तकनीकी युग में तकनीकों का विकास समय के साथ बढ़ता रहेगा. लेकिन उस पर कितना भरोसा करना है ये मनुष्य के विवेक पर ही निर्भर करेगा.

-वाणभट्ट   

  

3 टिप्‍पणियां:

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