शनिवार, 27 अप्रैल 2024

बिग बॉस का घर

मैं कमीज़ पहनता हूं तो जैसे कवच पहनता हूं

घर से निकलता हूं तो किसी युद्ध के लिए - देवी प्रसाद मिश्र

एक जमाना जब पढ़े-लिखे लोग कम थे, लेकिन वे सिर्फ़ लगते नहीं थे, वे वाकई पढ़े-लिखे होते थे. घर में ही अपने बच्चों को पढ़ा लेते थे, होम वर्क करा लेते थे. आजकल के पढ़े-लिखे पेरेंट्स की तरह नर्सरी के स्टूडेंट को पढ़वाने के लिए ट्यूशन नहीं लगवाते थे. जब से सर्वशिक्षा की अलख जगाने का प्रयास शुरू हुआ, हर किसी को लगा पढ़ना जरूरी हो गया है. फिर क्या, गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले, गांव-गांव स्कूल खुलने लगे. पहल सरकार की ओर से की गई. लेकिन शनै-शनै बाकी क्षेत्रों की तरह, शिक्षा के क्षेत्र में भी प्राइवेट घुस गया. बल्कि ये कहना ज़्यादा सही होगा कि प्राइवेट ने शिक्षा को टेकओवर कर लिया. देश की जनता को अपने ऊपर जितना कॉन्फिडेंस है, उतना अपनी सरकारों पर दस साल पहले तक नहीं था. अब लोग कह सकते हैं कि हवा का रुख़ देख कर वाणभट्ट ये कहना चाह रहा है कि देश को आजादी दस साल पहले ही मिली है, तो बता देता हूं, आप सही समझ रहे हैं. जब बिस्कुट में काजू दिखना चाहिए तो लेखक भला अपना समर्थन क्यों छिपाए. लेकिन मेरा समर्थन उसी सरकार के साथ रहता है, जो सत्ता में हो. चुनाव के दौरान लिखे इस लेख से, यदि मेरे दो-चार फॉलोवर्स के वोट भी पोलराइज हो गए तो इसे राष्ट्र निर्माण में मेरा सहयोग माना जाए. अगर दूसरे पार्टी सत्ता में आ गई तो राष्ट्रहित में मेरा समर्थन उसी के साथ रहेगा. 

पढ़ाई की बाढ़ आई तो, स्कूल दर स्कूल खुलते गए. टीचर दर टीचर बनते गए. बच्चे दर बच्चे पढ़ते गए. बच्चे क्या बच्चों के मां-बाप भी ग्रेजुएट नहीं तो साक्षर तो हो ही गए. जिसका हाईस्कूल शहर से न हो पाए वो रिमोट गांव के उस स्कूल से बोर्ड का फॉर्म भर देते, जो 100 प्रतिशत पास कराने की गारेंटी लेते थे. जब हाईस्कूल और इंटर बच्चा बिना पढ़े कर लेता है तो उसके पास ज्ञान का भले अकाल हो लेकिन कॉन्फिडेंस कूट-कूट कर भरा होता है. मोर स्टडी, मोर कन्फ्यूजन, नो स्टडी, नो कन्फ्यूजन. ये मुहावरा ऐसे ही लोगों के लिए गढ़ा गया होगा. हालत तो ऐसे हो गए हैं कि समझदार की मौत है जैसे मुहावरे भी प्रचलित हो गए. हद तो तब हो गई जब लोग कहने लग गए कि लगते तो समझदार हो. मतलब बन्दा ये एहसास दिला देता है कि लग तो रहे हो पर हो नहीं. कॉन्फिडेंस की वैसे ही देश में कोई कमी नहीं थी, उस पर मोटिवेशनल स्पीकर्स की भी बाढ़ आ गई. अपना डिप्रेशन दूर करने के चक्कर में इन्होंने ओशो से लेकर शिव खेड़ा तक सब साहित्य पढ़ डाला. जब आईएएस की कोचिंगों में पढ़-पढ़ कर के लोगों ने कोचिंग संस्थान स्थापित कर डाले, तो ये भी क्या अपने साहित्य का अंचार डालते. इन्होंने भी पीडी क्लासेस खोल डालीं. पीडी यानी पर्सनालिटी डेवेलपमेंट. हमारे इंजीनियरिंग कॉलेज के जो लड़के होम साइंस कॉलेज के इर्द-गिर्द नजर आया करते थे, उनकी पर्सनालिटी पढ़ाकू मग्घों से अलग होती थी. आज भी उन्होंने दुनिया हिला रखी है और वो रोज-रोज सफलता की नई-नई गाथाएं लिख रहे हैं (पे पैकेज के रूप में). बाकी मग्घू टाइप के लड़के कहीं कोने-अतरे में अध्यापन और शोध टाइप के कामों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं. 

एक जमाने में बच्चों को डॉक्टर और स्कूल जाने से डर लगा करता था. डॉक्टर सूई लगाता था और टीचर पिटाई. डॉक्टर और टीचर दोनों ही बच्चों की भलाई ही चाहते थे. पढ़ाने के लिए मास्टर जी को पिता जी की तरफ से पूरी छूट थी, जैसे चाहे वैसे पढ़ाए. लेकिन पढ़ाने में किसी प्रकार की कमी नहीं होनी चाहिए. सो मास्टर जी भी कक्षा के बच्चों को अपना ही बच्चा मानते और उसी तरह ठोंकते जैसे घर पर पढ़ने के लिए पिता जी. टीचर लोग पूरे अभिवावक की तरह ख्याल रखते थे. बच्चा स्कूल में लफंगई  भी करता तो जम के ख़बर ली जाती. बच्चा पिता जो को बता भी नहीं पाता कि मास्टर साहब ने क्यों पीटा. पढ़ने-पढ़ाने का ऐसा माहौल था कि शुरुआत में बच्चों को स्कूल जाना बहुत अखरता था. चीख-चीख के पास-पड़ोस सर पर उठा लेते थे. लेकिन घर वाले पढ़ाने पर आमादा रहते. पढ़ाने-पढ़ाने का इतना शौक लोगों में जगा कि देखते ही देखते देश में पढ़े-लिखों की बाढ़ आ गई. हाल तो ऐसा हो गया कि अनपढ़ और मजदूर टाइप के लोग भी अपने को इनसे ज्ञानी मानते. मौका देख के बोल ही देते कि शक्ल से तो पढ़े-लिखे लग रहे हो. लगने और होने में हमेशा अन्तर रहा है. गदहा, घोड़ा लगता है जबकि घोड़ा, घोड़ा होता है. पहले स्कूल सरकारी ही हुआ करते थे, लेकिन सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को अन्दर की बात मालूम होती है. इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को कॉन्वेंट और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना शुरू कर दिया. और प्राइवेट वाले तो पहले से ही पैकेज के रौब में थे. नतीजा आपके सामने है. प्राइवेट स्कूल, स्कूल न हो कर कॉरपोरेट इंडस्ट्री बन गए हैं. उनकी आलीशान बिल्डिंगों को देख कर लगता है कि कोई पांच सितारा होटल है. लगता है, लेकिन हैं ये स्कूल ही. 

समय के साथ पीढियां बदल जाती हैं. इंडस्ट्रियल स्कूलों-कॉलेजों से थोक के भाव निकले पढ़े-लिखे, कॉन्फिडेंस से लबरेज लोग, आज आत्मकेंद्रित हो गए हैं. हड़बड़ी इतनी है कि उसे जीवन की हर रेस में सबसे आगे रहना है और सबसे तेज चलना है. नियम-कानून तो उनके लिए है, जिनमें कॉन्फिडेंस की कमी हो या जो स्मार्ट कम हों. एक जीवन में बहुत कुछ कर गुजरना है. समय बहुत कम है. बस एक जीवन. मार्केट घर में घुसा पड़ा है. एक लेटेस्ट मोबाइल खरीदते हैं तो अगले दिन कम्पनी उससे अच्छा मॉडल लॉन्च कर देती है. मामला स्टेट्स का होता है, भला मेरी कार तुम्हारी कार से छोटी क्यों. इतने गैजेट्स और अप्लायंसेज आ गए हैं कि दोनों काम करें तभी सब खरीद सकते हैं. खरीदते-खरीदते हाल ये हो जाता है कि घर छोटा पड़ जाता है. फिर और बड़ा मकान. सारी की सारी कहानी अर्थशास्त्र के चारों ओर घूमती रहती है. वन टू का फ़ोर करने में जब लोग लग जाते हैं तो क्या अपने, क्या पराए, हर जगह आपको अपने आस-पास के लोगों से आगे रहना है. जब तक साथ रहने-चलने की बातें थीं तो यारी-दोस्ती-रिश्तेदारी में गणित नहीं चलती थी. क्या घर- परिवार और क्या बाहर, अब तो हर समय एलर्ट मोड में रहना पड़ता है. हर समय लगता है कि कहीं न  कहीं कोई न कोई अपने सेल्फ प्रमोशन के लिए साजिश कर रहा है. पढ़े लिखे लोग किसी से पीछे नहीं रह सकते, इसलिए येन-केन-प्रकारणेंन वो चाल भी चलेगा और दांव भी लगायेगा. घर हो या बाहर, हर किसी को लगता है कि वो बिग बॉस के घर में है, साथ में सब हैं भरोसे का कोई नहीं.

- वाणभट्ट

पुनाश्च: यूनिकोड टाइपिंग में आप चंद्र बिंदु नहीं लिख पाते. ये की जगह ए ने ले ली है. हिन्दी अख़बारों को पढ़ कर हिन्दी सुधारने से रही. ये यूनिकोड की हिन्दी सबकी हिन्दी खराब कर देगी.

सोमवार, 15 अप्रैल 2024

घोषणापत्र

हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. छोटी-छोटी मोहल्ला स्तर की पार्टियां आज अपना-अपना घोषणापत्र ऐसे बांच रहे हैं मानो केन्द्र में सरकार इनकी ही बनने वाली है. अभिनेता और राजनेता में एक समानता रही है, इन दोनों का कॉन्फिडेंस लेवल बहुत हाई होता है. अगर मेरी शक्ल-सूरत नवाजुद्दीन भाई से मिलती होती, तो बहुत सम्भव है मैं डिप्रेशन में चला जाता. ये तो बन्दे का कॉन्फिडेंस ही है जो बन्दा आज बॉक्स ऑफिस पर एक से एक हिट फिल्में दे रहा है. महान अभिनेता बच्चन साहब को कितने रिजेक्शन झेलने को मिले लेकिन बन्दे में आज भी जो चीज कूट-कूट कर भरी है, वो है कॉन्फिडेंस. कुछ-कुछ यही हाल छुटभैया राजनेताओं का है. जब मंच पर माइक पकड़ कर खड़े होते हैं तो लगता है जैसे लाल किले की प्राचीर से पूरे देश को संबोधित कर रहे हैं. ये बात अलग है कि इनकी मोहल्ला गोष्ठी में गिने-चुने वो लोग ही शिरकत करते हैं, जिनकी एक दिन की दिहाड़ी पक्की होती है. उन्हें नेता जी के उद्बोधन से कुछ लेना-देना नहीं होता. 

लेकिन इसमें कोई गलत बात नहीं है. अभिनेता और नेता रगड़-घिस के ही बनते हैं. किरदार हो या मंच, चाहे छोटा हो या बड़ा, अपने रोल को जो बखूबी निभाता है, वो ही भविष्य में बाकी सबसे आगे निकल जाता है. महापुरुष लोग पहले ही फरमा चुके हैं - मोर स्टडी मोर कन्फ्यूजन, नो स्टडी नो कंफ्यूजन. तो देश का ये हाल है कि ज्ञानी जन संशय में हैं और अज्ञानी कॉन्फिडेंस के सागर में गोते मार रहे हैं. ये बात हर क्षेत्र में लागू होती है. जो अपनी फील्ड के पीरों (Peers) की दिखाई लीक पर चलते रहे, वो मंजिल से भी आगे निकल गए. समय से आगे चलने वाले लोगों को समाज ने निपटा दिया. दरबारी समझदार टाइप के लोगों को मालूम था कि अपने आकाओं की इच्छानुसार धरती चपटी बता कर दरबार में सिक्का जमाया जा सकता है. भू को गोल बताने वालों के नसीब में सूली नहीं आएगी तो क्या सोने के सिक्के आएंगे. जब कोई कहता है कि दुनिया बहुत तरक्की कर गई है तो, वाणभट्ट का व्यक्तिगत मानना है कि भले ही आदमी चांद पर पहुंच गया लेकिन उसकी बेसिक फितरत नहीं बदली. आज तक जितनी शेर-ओ-शायरी दुनिया जहान में हुई है, उसमें इश्क से ज्यादा इंसान के छल-फरेब का ज़िक्र है. इश्क की शायरी भी वही मकबूल हुईं जहां इश्क में धोखा मिला हो या वो परवान न चढ़ पाया हो. अब तो लोगों का मानना है कि मकबूल इश्क सब्जी के थैले पर ख़त्म होता है. सो व्यवसाय कुछ भी हो, इंक्लूडिंग प्रेम (कुछ लोगों के लिए ये भी एक धंधा है), यदि कोई सीधी-सरल राह पर चलेगा तो घाटे में ही रहेगा. तो नेता लोग इससे कैसे बच सकते थे. उनका तो फुल टाइम काम ही है जनसेवा, जिसमें कोई नियमित तनख्वाह नहीं होती. इसलिए उसकी मजबूरी बन जाती है कि बगुला भगत बन के रहें. जनता की गरीबी हटाते-हटाते, ये कब अमीर हो जाते हैं, स्वयं इनको और इनके चमचों को पता ही नहीं चलता. चमचों की योग्यता ही इतनी होती है कि ये पतीला नहीं बन सकते. शेर के साथ रहने पर सियार को शिकार की चिन्ता नहीं करनी पड़ती. उसी उद्देश्य से ये पूरी वफादारी के साथ नेता जी के साथ लगे रहते हैं. नेता अगर पार्टी बदल ले तो ये भी पाला बदलने में देर नहीं लगाते. सबसे खास बात है कि सब के सब सिद्धांत वाली राजनीति की दुहाई देते नहीं अघाते. 

आम चुनाव की घोषणा के साथ ही सभी नेताओं को जनता की याद आने लगी है. सबकी जनसेवा करने की अदम्य इच्छा इसी मौसम में जागृत होती है. हर नेता अगले चुनाव के बाद अपने क्षेत्र को स्वर्ग बना देने के लिए लालायित दिख रहा है. उसके लिए वो एक से एक लोक-लुभावन वायदे कर रहा है. उसे मालूम है कि लहर एकतरफा है लेकिन जब मंच और माइक मिल जाए तो उसे बस फ्री-फंड की जबान ही तो हिलानी है. टेंट-वेंट भी कौन सा इनकी जेब से आता है. कुछ सट्टे बाज टाइप के लोगों को रेस के घोड़े पर दांव लगाने के बजाय नेता पर दांव लगाने में मजा आता है. जिस तरह कुछ फ्लॉप फिल्में लोग इसीलिए बनाते हैं कि उनकी काली कमाई खप जाए, उसी तरह कुछ धन्ना सेठ (अपनी बिरादरी के) नेता पर इसीलिए पैसा फूंक देते हैं, ताकि ब्लैक मनी हिल्ले लगाई का सके. वर्ना कुछ नेताओं के चाल-चलन-वचन को देख-सुन के शक होता है कि भला कौन इनको प्रमोट कर रहा है. आपको भले शक हो जाए लेकिन नेता का अंदाज वही रहता है, कि अगर जीत गए तो दुनिया बदल देंगे. आप की नहीं, अपनी. और यहीं पर नेता का कॉन्फिडेंस काम आता है. यदि वही कॉन्फिडेंस लूज कर जायेगा तो कौन उस पर पैसा लगाएगा.

अलग-अलग पार्टियां अलग-अलग घोषणापत्र घोषित कर रही हैं. और उनके नेता पूरे दम-खम से अपने-अपने दावे कर रहे हैं. जब काम में दम न हो तो बात में वजन नहीं रहता. इस कमी को पूरा करने के लिए लोग आवाज़ में पूरा दम लगा देते हैं. साउंड सिस्टम पर इको लगा कर जब नेता जी को अपनी आवाज़ अपने ही कानों तक पहुंचती है, तो उनका जोश उफान मारने लगता है. इस चक्कर में दो-चार वादे एक्स्ट्रा अपनी तरफ से कर जाते हैं जिनका घोषणापत्र में जिक्र तक नहीं होता. कॉन्फिडेंस का आलम तो ये होता है कि नेता जी को मालूम है कि जब हर बार वो ख़ुद अपने वादे भूल जाते हैं तो जनता क्या ख़ाक उन्हें याद रखेगी. अलबत्ता किराये की जनता को जनता मानना भी सही नहीं है. आजकल तो अख़बार और न्यूज़ चैनल्स का ज़माना है. यदि नेता की पार्टी लोकल है, तो लोकल मीडिया पर तो उसकी धौंस होनी ही चाहिए. उनको बता दिया जाता है कि वो कैमरा नेता जी पर ही फोकस रखें, ताकि टीवी की ऑडियंस को पता न चले कि सुनने वालों में सिर्फ़ टेंट-कुर्सी वाले ही थे. 

यदि आप एकदम फुरसत में हैं, तो दो-चार पार्टी के घोषणापत्र उठा लीजिए और उन्हें पढ़ने-समझने का प्रयास कीजिए. यदि वो समझ आ गए तो आपको सबमें एक साम्य देखने को मिलेगा. सबके निशाने पर गरीब-मजदूर-किसान ही मिलेगा. जिसके उत्थान के लिए सभी दल-बल सन सैंतालीस से लगे हुए हैं. सभी पार्टियां देश को सुखी और समृद्ध करने पर आमादा लगती हैं. महिलाओं और वंचितों को न्याय दिलाना सबका उद्देश्य है. हर एक के घोषणापत्र में हर किसी के लिए कुछ न कुछ ज़रूर है. दावा तो ये भी है कि जुल्म-ओ-सितम की रात का अन्त हो जाएगा. सबके लिए छत होगी पक्की और भूख जैसी चीज विलुप्त हो जायेगी. सरकारी नौकरी के इंतजार में निरन्तर बढ़ती हुई बेरोजगारी और बेरोजगार सबके टारगेट पर हैं. सब के सब घोषणापत्र बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं. कुल मिला कर सबका घोषणापत्र देख के लगता है कि इन सबकी विचारधारा तो एक है. सभी देश का विकास चाहते हैं. सभी जनता की समृद्धि चाहते हैं. सभी के इरादे बहुत अच्छे हैं. लेकिन जब वे एक-दूसरे के विरुद्ध बोलते हैं तो कहते हैं कि ये दो विचारधाराओं की लड़ाई है. उन्हें कॉन्फिडेंस है कि काम दिखा कर वोट नहीं मांगा जा सकता तो जनता को बरगला कर कंफ्यूज कर दो. दो दिन की छुट्टी में सबके घोषणापत्र खंगालने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि देश के नेता देश का विकास करने को तत्पर हैं लेकिन देश की जनता ही अपना विकास नहीं चाहती इसलिए देश विरोधी सरकार को चुन लेती है. सभी इस बार गलती की पुनरावृत्ति रोकने के लिए जनता को जगाने में लगे हैं. सभी पार्टियों को लगता है कि जनता को जितने सब्जबाग (लॉलीपॉप) दिखाओगे, जीत की सम्भावना उतनी बढ़ती जायेगी. 

सभी मेनिफेस्टो का अध्ययन और मनन करने के बाद वाणभट्ट ने सोचा कि क्यों न एक सार्वभौमिक टाइप का मेनिफेस्टो बनाया जाए जिस पर देश और काल का प्रभाव न पड़े. चुनाव दर चुनाव आएं, लेकिन घोषणापत्र बदलना न पड़े. जब सभी, नेता और जनता, मुफ़्त का चन्दन घिसना चाह ही रहे हैं तो क्यों न उन्हीं के हिसाब से मेनिफेस्टो तैयार किया जाए. उसके सेलियंट बिन्दु नीचे लिखे हुए हैं. 

1. देश में पैदा होते ही हर व्यक्ति को पेंशन मिलेगी

2. पढ़ाई-लिखाई-भोजन-भवन सब फ्री

3. स्वास्थ्य सेवा सभी के लिए एकदम मुफ़्त 

4. हर हाथ को निश्चित काम

5. काम करने की आजादी, जो कर सकते हो वो करो

6. नहीं कर सकते तो मत करो, पेंशन तो है ही

7. जो करेगा उसे तनख्वाह मिलेगी पेंशन के अलावा

8. उद्यमियों को पूर्ण वित्तीय सहयोग और प्रोत्साहन

9. समस्त व्यय का वहन करदाताओं द्वारा

10. जाति-धर्म-भ्रष्टाचार समाप्त करके देश का विकास एक मात्र लक्ष्य

मेरे विचार से ये एक नवोन्मेषी, विकासशील और सर्वस्वीकार्य मेनिफेस्टो होना चाहिए. किसी को और कुछ फ्री में चाहिए तो सजेस्ट कर सकता है. इस मेनिफेस्टो के सभी कॉपीराइट, लेफ्ट है. जो चाहे, जहां चाहे इसे अपना सकता है. बल्कि मेरा मानना है कि सभी देशों को एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत इस एजेंडे को लागू करवाने का प्रयास करना चाहिए ताकि पृथ्वी पर किसी को गरीबी का सामना न करना पड़े. धर्म-जाति के नाम पर वैमनस्य का अन्त हो और भ्रष्ट आचरण की आवश्यकता ही न हो, आम आदमी को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए.

म्यूचुअल फंड की तरह, छोटे-छोटे शब्दों में एक वैधानिक चेतावनी भी देनी जरूरी है. इतनी सब पंजीरी लेने के बाद, किसी ने भी कोई भी ऐसा काम किया जो देश की अखंडता, अस्मिता और राष्ट्रीयता के विरुद्ध पाया गया, तो बेटा ऐसा तोड़ा जाएगा कि समझ नहीं आएगा कि खाएं कहां से और निकाले कहां से.

- वाणभट्ट

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

साइन्स

किसी भी विषय का व्यवस्थित ज्ञान ही विज्ञान है. चूंकि विज्ञान तार्किक होता है, तो हर कोई अपने विषय को वैज्ञानिक तरीके से व्यक्त करने में लगा है. हिस्ट्री तो हिस्ट्री, पॉलिटिक्स को भी विज्ञान सिद्ध करने के प्रयास किये जाते रहे हैं. संस्कृत जैसी भाषा गणित की तरह समृद्ध हैं, इसलिए भाषा को भी विज्ञान का दर्जा दिया गया है. हमारे देश में अंग्रेजों के आने के पहले तक विज्ञान हुआ करता था. लेकिन उनके आने के बाद चूंकि सारी शिक्षा व्यवस्था ही अंग्रेजी ओरियेंटेड हो गई तो विज्ञान को भी साइंस बनना ही था. इसके साइंस बनते ही देश का प्राचीन ज्ञान-विज्ञान विलुप्त प्राय हो गया. चार सौ साल की दासता में हमने ही जब अंग्रेजी को विद्वतजनों की भाषा मान लिया तो सारी की सारी पढायी अंग्रेजी पर शिफ्ट हो गई. सारा का सारा विज्ञान, साइंस बन के रह गया. जो कुछ भी अंग्रेजी में कहा या लिखा गया, उसे विश्वसनीय मान लिया गया. संभवतः किसी देश को गुलाम बनाने और बनाए रखने के लिए उसकी आत्मा को मारना जरूरी है, ये मुगलों और अंग्रेजों दोनो को पता था. तो एक ने फ़ारसी थोपी तो दूसरे ने अंग्रेजी. और भाषा किसी भी देश की आत्मा होती है. आज स्थिति ये है कि हमारे देश में हर विषय के ज्ञानी, अंग्रेज़ी में ही विमर्श करते हैं ताकि उनकी अंतरराष्ट्रीय साख बन सके. ऐसे में विज्ञान का साइंस हो जाना लाजमी भी था.

जब से बाबा जी ने कोर्ट में माफ़ी माँगी है कुछ लोगों की बाँछे खिली हुयी हैं. ये बात अलग है कि पूरी मेडिकल साइन्स एनाटॉमी के सम्पूर्ण ज्ञान के बाद भी आज तक ये नहीं खोज पायी कि बाँछें शरीर के किस भाग में पायी जाती है. लेकिन आश्चर्य की बात है की सबसे ज्यादा उसी प्रोफेशन के लोगों की खिली हैं. उन्हें बाबा पूरा का पूरा लाला लगता है. जब इतनी मेहनत, समय और पैसा खर्च करके किसी ने एलोपैथी में मेडिकल की डिग्री पायी हो तो उसका आयुर्वेद से वैमनस्य जायज़ भी है. बचपन से उसका और उसके परिवार का सपना था कि समाज सेवा के लिये मेडिकल जैसे नोबल प्रोफेशन को चुने. एण्ड यू नो, मेवा आलवेज़ फ़ॉल्लोज़ सेवा. तो सेवा के पीछे की मेवा आज के मेडिकल प्रोफेशन की सच्चाई बन चुकी है. मेवे के लिये आज सेवा करने को लोग उद्धत दिख रहे हैं. प्रेगनेंसी से लेकर मरने से पहले वेंटिलेटर तक की यात्रा कोई भी व्यक्ति बिना डॉक्टर के नहीं कर सकता. जब सिजेरियन बच्चा देश-काल के अनुसार कभी भी धरा पर अवतरित किया जा सकता है तो आपको बस पंडित जी से शुभ लग्न-मुहूर्त बिचरवाना है. वैसे भी नॉर्मल डिलीवरी पचास हज़ार तो सिजेरियन डेढ़ लाख दे कर जाती है. तो भला किसका मन सेवा करने को प्रेरित नहीं होगा. लिहाजा पूरे शहर में होटल कम और हॉस्पिटल ज्यादा हो गये हैं. और हॉस्पिटल्स में होटल्स वाली सभी सुविधायें उपलब्ध हैं. इसीलिए देश के स्वनाम धन्य महापुरुषों की ओर जब ईडी और सीबीआई नज़र फेरती है तो उनको मालूम होता है कि कौन सी बीमारी उन्हें अस्पताल ले जायेगी और कौन सी जेल. जिस भ्रष्टाचारी के हाथ रिश्वत लेते कभी नहीं काँपे उसको दिल का दौरा पड़ने लगता है. यहाँ साइंस एक विशेष रूप ले लेती है जो आदमी-आदमी में फ़र्क करना जानती है. ये नेता के प्रोफाइल पर निर्भर करता है (सत्ता पक्ष या विपक्ष) कि उसे बीमार माना जाये या बहानेबाज. सिद्ध करने के लिये हाइली क्वालिफाइड डॉक्टर्स का पूरा हुजूम होता है. जो अगर लिख दें कि आदमी मर गया है तो यमराज को धरती पर आना पड़ जाये. इसी साइन्स के आधार पर तो उन्होंने होम्योपैथी और आयुर्वेद को ब्लैक मैजिक या क्वैक या शुद्ध हिन्दी में झोलाछाप की श्रेणी में डाल रखा है. यहीं से मेरा साइंस को लेकर अन्तर्द्वंद आरम्भ होता है. 

विज्ञान आदमी के धरती पर आने से पहले भी था और बाद में भी रहेगा. आपके आसपास जो कुछ भी है या जो कुछ भी घटित हो रहा है उसको समझना-समझाना ही विज्ञान की सहज परिभाषा है. हर देश काल में लोगों ने प्रकृति के रहस्यों को अपने अपने ढंग से देखा-समझा. जैसे-जैसे आदमी का ज्ञान बढ़ता गया, उसकी जिज्ञासा भी बढती गयी. और विज्ञान भी विभिन्न आयामों में विस्तार लेता गया. कुछ पुरानी अभिव्यन्जनायें टूटी, कुछ नयी अवधारणायें बनी. इस तरह कड़ियों से कड़ियाँ जुड़ती गयीं और विज्ञान का चतुर्मुखी विकास होता गया. आज ब्रम्हाण्ड का कोई भी विषय मानव के आधुनिक विज्ञान से अछूता नहीं रह गया है. एक युग की खोज अगले युग का आधार बनती गयी. अपने पूर्वजों, विशेषकर भारतीय पूर्वजों का, वैज्ञानिक ज्ञान कभी-कभी हतप्रभ कर देता है कि बिना आधुनिक यन्त्रों, साधनों और मानकों के कैसे उन्होंने खगोलीय और भूमंडलीय गणनाओं का सटीक अध्ययन कर डाला. भोजन में क्या पथ्य है, क्या अपथ्य, बिना खाद्य प्रमाणीकरण संस्था के कैसे संभव हुआ होगा. भोजन के लिये उपयोगी खाद्य पदार्थों और वनस्पतियों/प्राणियों की एक लम्बी अन्तहीन सूची है. किस पथ्य से शरीर के किस भाग को क्या पोषण मिलेगा, इसका भी भान हमारे पूर्वजों को था. बिना इन्क्युबेटर शेकर, माइक्रोस्कोप, सेंट्रीफ्यूज, एचपीएलसी, स्पेक्ट्रो फोटोमीटर आदि यन्त्रों के विभिन्न वनस्पतियों के पौष्टिक, औषधीय और चिकित्सकीय गुणों का आँकलन, सिद्ध करता है कि विज्ञान ही नहीं, अपने मनीषियों का अन्तर्ज्ञान भी अपने चरम पर रहा होगा. लेकिन उनका ज्ञान सहज सभी को उपलब्ध था क्योंकि उसका उद्देश्य ही जन कल्याण था. यह ज्ञान अनुश्रुतियों और पांडुलिपियों के माध्यम से अगली पीढ़ी तक पहुँचता रहा. हर पीढ़ी इसे समृद्ध करते हुये अगली पीढ़ी को सौंपती गयी. यहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ का सर्वथा अभाव था. वसुधैव कुटुम्बकम का पालन करने वाले देश का इतिहास कभी भी विस्तारवादी नहीं रहा. समृद्धि और ख्याति दिग-दिगान्तर में ऐसी थी कि देश सोने की चिड़िया के नाम से प्रसिद्ध था. कबीलाई प्रकृति की विस्तारवादी साम्राज्यों ने लूटने के उद्देश्य से ही देश को दासता की बेड़ियों में जकड़ कर रख दिया. सहस्त्र वर्षों की दासता ने यदि सबसे अधिक हानि पहुँचायी है तो वो है मानवता को. 

गुलामों का न कोई इतिहास होता है, न भाषा, न विज्ञान. उस समय के वैज्ञानिकों (ऋषियों-मुनियों-गुनियों) के अन्वेषण और अनुसन्धान का उद्देश्य लोक कल्याण था इसलिये ज्ञान को लाभ के लिये छापने का विचार कदाचित किसी के हृदय में भी आया हो. विदेशों में तो परिकल्पनाओं के साथ वैज्ञानिकों के नाम जोड़ने की प्रथा बन गयी. जिसने उन्हें अमरत्व प्रदान कर दिया. आवोगाद्रो हों, ओम हों, न्यूटन हों या आर्केमीडीज़, अपनी खोज के साथ अपना नाम जोड़े बिना नहीं रह पाये. विज्ञान में स्वार्थ का आरम्भ भी सम्भवतः यहीं से हुआ हो. चूँकि लिपिबद्ध करने का कार्य हमारे पुरखों ने अगली पीढ़ी के लिये ज्ञान संरक्षण के लिये किया था, उसके किसी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा में छापने का तो प्रश्न ही नहीं होता. पश्चिमी देशों की इस बात की तो प्रशंसा करनी ही पड़ेगी कि शोध हो, इतिहास हो या विचार उसके प्रचार-प्रसार के लिये वो उसे न सिर्फ लिखते हैं बल्कि छापते भी हैं. अगर हमारे कुछ महापुरुष यदि विदेश न जाते तो, व्यक्तिवाद को न मानने वाले भारत वर्ष में शायद ही कोई उनको पहचान पाता. ये बात अलग है कि वो दुनिया के सामने वही तथ्य रखते हैं जिसे वो दिखाना चाहते हैं. इसमें इतिहास या विज्ञान को तोड़-मरोड़ के प्रस्तुत करना हो तो उन्हें कैसा गुरेज. वैसे भी शासक का विशेषाधिकार है कि वो सब कुछ अपने हिसाब से लिखता या लिखवाता रहे.   

देश को सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ है अंग्रेजी शिक्षा पद्यति के थोपे जाने से. अँग्रेज यहाँ शासन करने के उद्देश्य से आये थे, उनका यहाँ या किसी अन्य देश से भी वापस जाने का इरादा नहीं था. इसीलिए उन्होंने जहाँ भी राज किया वहाँ के इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया. शिक्षा भी वो ऐसी देना चाहते थे जो उनके अनुसार और उनके लिये उपयोगी हो. इसके लिये उन्होंने हमारी शिक्षा प्रणाली पर ही आघात किया. अधिक दिन पहले की बात नहीं है, लगभग चार दशक पहले तक, इंजीनियरिंग के सेलेक्शन में अंग्रेजी में क्वालीफाई करने के बाद ही गणित-भौतिकी-रसायन की कॉपी चेक होती थी. जाहिर है हिन्दी मीडियम के वो ही छात्र इंजीनियरिंग में प्रवेश पाते थे जो समृद्ध घरों से सम्बन्ध रखते थे. यही हाल मेडिकल में भी रहा होगा. उच्च शिक्षा की किताबें तो आज भी अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध हैं. जिस देश को अपनी भाषा पर गर्व न हो उस देश की अस्मिता को दूसरे देश भला क्यों मान्यता दे. आज़ादी के बाद देश की बागडोर समृद्ध घरों की अंग्रेजी में पढ़ी-बढ़ी पौध के हाथों में स्वतः आ गयी. ये पीढ़ी अंग्रेजों के मूलभूत सिद्धांतों और मान्यताओं पर ही चल निकली. विज्ञान भी वही मान लिया गया जो अंग्रेजी में उपलब्ध था बल्कि ये कहना उचित होगा कि अंग्रेजी को ही विज्ञान मान लिया गया. जो भी अंग्रेजी में छप गया वो ब्रह्मवाक्य हो गया. देश की पुरातन ज्ञान परम्परा को हमारे ही नव शिक्षित-दीक्षित लोगों ने ओब्सोलीट (अप्रचलित) मान लिया. 

बाबा जी को मैं लगभग 1996 से फ़ॉलो कर रहा हूँ. जब ये आस्था चैनेल पर दो घन्टे हायर करते थे. तब भी इनका प्रोग्राम सुबह पाँच से आरम्भ हो कर सात बजे तक चलता था. तब इनका मुख्य विमर्श योगासन-प्राणायाम और इनसे होने वाले स्वास्थ्य लाभ पर हुआ करता था. अलग-अलग शहरों में इनके शिविर लगा करते थे जिनका सीधा या रिकोर्ड किया हुआ प्रसारण बिना नागा 365 दिन आया करता था. बाद में अपने सहपाठी के साथ मिल कर इन्होने आयुर्वेद को प्रतिष्ठित करने का भी काम किया. धीरे-धीरे इनकी लोकप्रियता बढ़ती गयी. इन्होने न सिर्फ चैनेल ख़रीदा बल्कि आयुर्वेदिक दवाओं का काम भी आरम्भ कर दिया. इनका उद्देश्य आज भी अपनी दवाएं बेचने का नहीं होता. ये आज भी आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनाने की पूरी विधि बताते हैं. हाँ यदि आपको बनाने में झन्झट लगे तो इनकी फार्मेसी दवाइयाँ भी बनाती हैं. हर शहर में इनके स्टोर्स हैं जिनके माध्यम से ये दैनिक उपयोग की सभी वस्तुओं को उपलब्ध कराते हैं. बताने वाले तो ये भी बताते हैं कि इन्होने ऋषिकेश में गंगा के किनारे से 10-20 चेलों के साथ शुरुआत की थी. आज लोग इन्हें लाला बोलने से नहीं चूकते लेकिन इन्होने योग-प्राणायाम-आयुर्वेद को विश्व में अहम् स्थान दिलाने के लिये अथक संघर्ष किया है. पूरी दुनिया बाबा का लोहा मान रही है. अफ़सोस की बात तो ये है कि जो नहीं मान रहे हैं वे अपने ही लोग हैं, जिन्होंने अंग्रेजी में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पढ़ा है और अपनी पुरातन चिकित्सा पद्यति के बारे में जानने का प्रयास भी नहीं किया है. बाबा का संघर्ष कम हो सकता था यदि आधुनिक मेडिकल साइंस के जानने वाले आयुर्वेद से होने वाले चिकित्सकीय लाभ की पुष्टि करें और उसका समर्थन करें. ऐसे शोध पत्रों को विदेशी जर्नल्स में अंग्रेजी भाषा में छपवायें. निश्चय ही जनकल्याण के इस मिशन के लिये उन्हें व्यावसायिक लाभ के चक्रव्यूह से बचना पड़ेगा. 

मानव जीवन इलाज करने-करवाने के लिये नहीं मिला है. अन्य प्राणियों की तरह हमारा भी जीवन चक्र है. दवाइयों के सहारे सिर्फ जीवित रहना जीवन का उद्देश्य नहीं है. भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन, मन, शरीर और आत्मा से मिल कर बना है. अपने मन और शरीर को स्वस्थ रखना हर व्यक्ति की प्राथमिकता होनी चाहिये. नींद-भोजन-व्यायाम के बाद दवाइयों का नम्बर आता है. दवाई चाहे किसी भी पैथी की हों, उनका उपयोग आखिरी विकल्प होना चाहिए. यदि एलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेद तीनों चिकित्सा पद्यातियाँ मिल कर काम करें तो निसंदेह ही बहुत सी बीमारियों और उनके इलाज से बचा जा सकता है. कोरोना काल में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिसने काढ़ा न पिया हो चाहे वो कितना भी अंग्रेजी में पढ़ा-लिखा डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, वकील हो या न्यायाधीश. प्राणायाम-योग-ध्यान की महत्ता विश्व समझ रहा है. इतिहास बदला तो नहीं जा सकता लेकिन ठीक अवश्य किया जा सकता है. इसके लिये ये समझना आवश्यक है कि अंग्रेजी में लिखी सब बातें विज्ञान नहीं हैं और विज्ञान को इतना उदार बनना ही पड़ेगा कि नये और पुराने ज्ञान को आत्मसात कर सके.

-वाणभट्ट   

रविवार, 7 अप्रैल 2024

टाइम पास

कुछ लोग कर्मयोगी होते हैं. वो कर्म सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये करते हैं कि बिना कर्म किये उन्हें बहुत खालीपन महसूस होता है. अपने खालीपन को भरने के लिये कुछ न कुछ करते रहना जरूरी है. निस्वार्थ भाव से किया गया काम देश-समाज के लिये होता है. लेकिन ऐसे कर्मयोगी बहुतायत में पाये जाते हैं जिनके व्यक्तिगत स्वार्थ के आगे देश-समाज गौण हो जाते हैं. किन्तु  किसी भी काम को अंजाम देने के पहले पूँजी की आवश्यकता होती है. बहुत से कर्मयोगी धनाभाव के कारण ही समाजसेवी कार्य कर सकने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं. इसलिये हर शाश्वत कर्मयोगी की आवश्यकता होती है एक अदद सरकारी नौकरी की, ताकि उसे देश और समाज के उत्थान के लिए धन का टोटा न पड़े. चूँकि प्राइवेट कम्पनियां शुद्ध लाभ के लिये काम करती हैं, इसलिये उनके यहाँ नौकरी जॉब्स की श्रेणी में आती हैं. प्राइवेट लाला यदि एक पाई अगर खर्च करेगा तो चार पाई कमाने की उम्मीद पालेगा. उसके लिये चाहे आठ घण्टे हों या अट्ठारह, कर्मयोग करना पड़ सकता है. लाभ के अनुसार ही सैलरी में बढ़ोत्तरी या घटोत्तरी सम्भव है. इसीलिये देशप्रेमी भारतीय कर्मयोगी युवाओं में सरकारी नौकरी के माध्यम से देश सेवा करने की तमन्ना पहली पसन्द है. 

दरअसल नौकरी तो सरकारी ही होती है. पैसा देने वाला खर्च करने के लिये देता है और लेने वाले खर्च करने के लिये लेता है. किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं. किसी को कुछ बचाना या लौटाना नहीं है. अगर किसी ने वित्तीय कुशलता से कम बजट में काम कर दिया तो इसे अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है. अब चूँकि सरकार का काम ही है रोजगार देना, तो उसने करवाने और करने वालों के बीच एक निरन्तर श्रृंखला बना रखी है. जिसका काम सिर्फ ये देखना है कि काम हो रहा है या नहीं, काम हुआ या नहीं, और हुआ तो उसमें किसी प्रकार की अनियमितता  या गड़बड़ी तो नहीं हुई. किसी भी कार्य के निष्पादन के लिये प्रत्येक काम पूरी श्रृंखला से गुजरता है. समय के साथ इनकी ताकत इतनी बढ़ गई है कि ये अपनी इच्छा अनुसार काम को रोक दें, लटका दें या जांच ही बैठवा दें. कालांतर में इसी को लालफीताशाही की संज्ञा दे दी गयी. चूँकि इनका काम, काम करना नहीं है बल्कि काम पर नियंत्रण या निगरानी करना होता है, इसलिये इनकी न किसी प्रकार की जिम्मेदारी होती है, न जवाबदेही. किन्तु इन लोगों को प्रपोजल स्टेज से लेकर एक्जिक्यूशन तक बहुत ही सजग रहना पड़ता है. अपने साफ-सुथरे एयरकंडीशंड ऑफिस में बैठ कर निगरानी करना आसान काम नहीं है. धृतराष्ट्र के संजय की तरह दिव्य दृष्टि विकसित करना पड़ती है. इसका सबसे आसान तरीका है कि कर्मयोगी को टटोलो और बार-बार टटोलो. कुछ ऑब्जेक्शन लगाओ, थोड़ा डिटेल मांगो, परचेज रूल और ऑडिट का हवाला दो, अगर कुछ किया होगा तो कुछ दे कर ही जायेगा. बिना जोर दिये भला कोई किसी को क्यों समझेगा.

एक बार नौकरी मिल जाये तो कर्मयोगी भी बड़े-बड़े प्लान बना कर सामाजिक विकास और उत्थान में लग जाते हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि इसके पहले किसी ने कोई काम किया ही नहीं और किया भी तो बस बजट का 10 टका ही उपयोग में लाया गया. इनका प्रयास 10 टके को 25 टका तक पहुँचाने का होता है. ये जानते हैं कि धृतराष्टों और संजयों और उनके आकाओं के रहते, 100 टका जनता तक पहुँचा पाना असंभव है. क्योंकि इन सबको अपना-अपना हिस्सा चाहिये ही चाहिये. इसलिये कुछ टके अपने लिये बना भी लिये तो इसमें गलत क्या है. यही कुछ टके हर स्तर पर कर्मयोगियों के लिये एक महत्वपूर्ण प्रेरक शक्ति है. चूँकि श्रृंखला कड़ियों से मिल कर बनी होती है इसलिये श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी की अपनी भूमिका होती है. चेन की हर कड़ी को मालूम है कि उसकी क्या भूमिका है. उसे कितना और कहाँ तक सिस्टम को दुहना है कि चेन बनी रहे और चलायमान भी रहे. इस स्वस्फूर्त व स्वप्रेरित श्रृंखला की एक-एक कड़ी को सिस्टम में अपनी उपयोगिता का पूरी तरह ज्ञान होता है. जिस कड़ी में ग्रीस कम होती है, वो आवाज़ करने लगती है. यदि सिर्फ़ ग्रीस लगा देने से वो कड़ी चिंचियाना बंद कर दे तो ठीक, नहीं तो एक कड़ी के लिये पूरी चेन बदलना मँहगा सौदा है. ऐसी कड़ी को चेन से बाहर निकाल देना ही श्रेयस्कर है.

सिस्टम उन्हीं लोगों ने उन्हीं लोगों के लिए बनाया है जो सिस्टम में फिट हो सकें. जैसे शरीर में कोई भी अखाद्य पदार्थ किसी भी रूप में चला जाए तो शरीर उसका वमन कर देता है, वैसे ही चीं-चीं करती चेन की कड़ी जल्दी ही अलग से आइडेंटीफाई हो जाती है. उसको बाहर नहीं करेंगे तो चेन के टूटने का खतरा बना रहता है. मूल रूप से वो ग्रीस रहित कड़ी भी कर्म प्रधान ही थी, बस उसके उद्देश्य में स्वार्थ का पैमाना नहीं था. तभी उसने तमाम प्राइवेट पे पैकेज से ऊपर उठ कर सरकार के माध्यम से समाज सेवा के उत्तरदायित्व का चयन किया. कर्म के बिना उसका भी गुजारा नहीं चलना. कुछ तो वो करेगा ही. चिन्ता की बात ये है कि सिस्टम का अनफिट कर्मयोगी करेगा तो क्या करेगा. सिस्टम में हर व्यक्ति अपनी उपयोगिता बनाये रखने में व्यस्त रहता है. लेकिन समस्या ये है कि अनफिट व्यक्ति अपना समय काटेगा कैसे. सिस्टम में रह कर समय काटना अपेक्षाकृत आसान है.

प्राचीन काल से समय बिताने के लिये वाद-विवाद-अन्ताक्षरी जैसे खेल हुआ करते थे. अन्ताक्षरी भी हरि का नाम ले कर आरम्भ की जाती थी ताकि समय बर्बाद करने के तरीके से किसी प्रकार की गिल्ट फीलिंग न आये. इसलिये प्रभु को भी शामिल करना जरूरी हो जाता है. ये समय बिताने का एक टाइम टेस्टेड सुगम तरीका है लेकिन इसके लिये कम से कम दो लोग तो चाहिये ही. अकेले चने ने आजतक भाड़ नहीं फोड़ा तो अब क्या फोड़ेगा. लेकिन आजकल समय काटने के लिये भी अनेक साधन मौजूद हैं. फुरसतिया लोगों के लिये फेसबुक, वाट्सएप्प, इन्स्टाग्राम जैसे तमाम माध्यम मोबाईल पर ही उपलब्ध हैं. इन्तहा तो तब हो गयी जब एक दिन बंदा कस्टमर केयर के फोन का इंतज़ार करता पाया गया.

-वाणभट्ट 

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

बाप

हमेशा की तरह डॉ. सिंह के यहाँ भीड़ लगी हुयी थी. डॉक्टर तीन बजे से पहले नहीं आते थे, लेकिन पेशेंट्स एक - डेढ़ बजे से ही आ जाते थे. छोटा सा वेटिंग रूम तीन बजे तक ठसाठस भर जाता था. कारण ये था कि उनके आने के बाद किसी और का नाम नहीं लिखा जाता था. शर्त ये भी थी कि फोन पर नाम नहीं लिखा जायेगा. और यदि पेशेंट का नाम पुकारा गया और वो अनुपस्थित पाया गया तो उसका नाम लिस्ट में सबसे पीछे चला जायेगा. 

डॉक्टर साहब की पर्सनालिटी किसी फौजी से कम नहीं थी. स्लिम-ट्रिम शरीर. चाल में कसावट. चेहरे पर रुआब. कड़क आवाज़. उनके आने से पहले वेटिंग रूम में भेंड़-बकरी की तरह अटे लोग फुसफुसा कर बात कर लेते थे. लेकिन उनके आने के बाद क्या मजाल कि कोई फुसफुसा भी ले. सबको मोबाइल वाइब्रेशन पर रखने की हिदायत अटेंडेंट्स लगातार देते रहते थे. कुछ बुजुर्गवार फोन के इस फीचर से वाकिफ़ नहीं होते थे. यदि वो पहली बार आये हों तो उनका फोन बज जाता था. लेकिन अगली बार जब वो आते तो किसी न किसी से बोल कर अपना फोन ही स्विच ऑफ़ करवा लेते.

शहर के बहुत ही प्रतिष्ठित डॉक्टर थे तो लोग उनकी सभी आज्ञा को सर-माथे पर लेते. उसूल के पक्के व्यक्ति यदि आपको पसन्द हों तो आप उनके मुरीद बने बिना नहीं रह सकते हैं. हर पेशेंट को स्वयं देखते, बिना किसी असिस्टेंट की सहायता के. अधिकतर प्रश्नों के जवाब पेशेंट को ही देने होते थे. साथ आने वाले अटेंडेंट को बिना इजाज़त बोलने की मनाही थी. दो-एक बार फटकार खाने के बाद हर पेशेंट और उसके अटेंडेंट को पता चल जाता था कि जब वो पूछें तभी बोलना है. अपने थोरो चेकअप के दौरान वो कुछ न बोलते. यदि पेशेंट की परेशानी उनकी स्पेशलाइजेशन की फील्ड से न होती तो पूरे चेकअप के बाद डॉक्टर साहब बुलन्द आवाज़ में अपने रिसेप्शनिस्ट को कहते - नो फ़ीस. ऐसा शायद ही कहीं और आपको देखने को मिले. डॉक्टर्स पहले ही फ़ीस रखवा लेते हैं. यदि उनके विषय की बीमारी न भी हो तो दो-चार टेस्ट और कुछ दवाईयां लिख कर पर्चा पकड़ा देते हैं. किसी भी हालत में फ़ीस वापसी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था.

जब पापा का इलाज इलाहाबाद से कानपुर शिफ्ट हुआ तो उनकी प्रतिदिन सुबह-दोपहर-रात मिला कर करीब 14 दवाइयाँ चल रही थीं. उन्हें भी दवाईयाँ खाने की आदत सी पड़ गयी थी. नियम-संयम के पक्के पिता जी, बिना नागा सब दवाईयाँ खाते रहते. हमारे पहले ही विजिट में सिंह साहब ने सारी दवाईयाँ बन्द करवा के मात्र दो दवाईयों पर सीमित कर दिया. उनका कहना था कि ब्लड प्रेशर और डायबिटीज की दवाइयों के अलावा सभी दवाईयाँ सिर्फ़ मल्टीविटामिन, डिप्रेशन और एंग्जाइटी की हैं. उसके बाद तो पिता जी-माता जी दोनों का इलाज उन्हीं का चलता रहा. मेरी ड्यूटी महीने-दो महीने पर उनके यहाँ ले जाने की रहती. फैमिली डॉक्टर की तरह अब हम उनके साथ कंफर्टेबल हो चले थे. पापा-मम्मी से कभी-कभी वो थोड़ा बहुत मज़ाक भी कर लेते.

अस्सी पार करने के बाद पापा का टहलना थोड़ा कम होता जा रहा था. अपने बचपन से हमने कभी उनको सुबह सोते हुये नहीं देखा था. वो टहल के लौटते थे, तब हम लोगों को जगाते थे. उनके लौटने के बाद कोई बिस्तर पर नहीं रह सकता था. बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं है, ये मुझे अपने पेरेंट्स के साथ रहते हुए समझ आ गया था. इलाज से बचना आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति में निहित है. जोसेफ़ मर्फी की पुस्तक 'पावर ऑफ़ सबकॉन्शस माइंड' ने मेरे इस विचार की पुष्टि ही की है कि बीमारी की शुरुआत मस्तिष्क से होती है. बाबा रामदेव को फॉलो करने से ये लाभ हुआ कि बड़ी-बड़ी बीमारी में भी देसी नुस्खे कारगर सिद्ध हो सकते हैं. एक ही बीमारी के लिये दो डॉक्टर यदि एक दवा नहीं लिखते तो उनके ज्ञान और कमीशन पर शक होना स्वाभाविक है. जैसे बड़ा वकील और बेंच बदलने से न्याय बदल जाये तो गरीब को न्याय कहाँ मिल सकता है. आजकल डॉक्टर्स व्यक्ति में यह एहसास दिलाने में व्यस्त हैं कि स्वस्थ जीवन दवाईयों के बिना असंभव है. इसीलिए आधुनिक चिकित्सा के सारे ज्ञानी-ध्यानी, बाबा के पीछे लट्ठ ले कर पड़े हैं. चालीस साल के आदमी ने यदि स्वयं को बीमार मान लिया तो समझिए कम से कम अगले तीस-चालीस साल के लिये डॉक्टर को एक नियमित ग्राहक मिल गया. पापा की टहलने के प्रति बढ़ती अनिच्छा मुझे चिंतित करने लगी थी.

उस दिन भी हम लोग नियत समय यानी दोपहर डेढ़ बजे तक क्लीनिक पहुँच चुके थे. पिता जी का चेकअप करके डॉक्टर पर्चे पर नियमित रूप चल रही दवाइयों को पुनः लिख रहे थे. मुझसे रहा नहीं गया - 'डॉक्टर साहब पापा को समझाइये, ये आजकल टहलना कम करते जा रहे हैं. जब भी मौका मिलता है बैठ जाते हैं या लेट जाते हैं'. नाक के अगले हिस्से पर रखे अपने रीडिंग ग्लास के ऊपर से उन्होंने आँखें तरेर कर मेरी ओर देखा. फिर अपनी चारित्रिक टेलीग्राफिक भाषा में बोले - 'बाप कौन है'? मुझे समझ आ गया आज क्लास लगनी तय है. लेकिन तीर निकल चुका था. पापा की ओर मुखातिब हो कर बोले - 'वर्मा साहब आप बाप हैं, ये मत भूलियेगा. जो मर्ज़ी आये वो करिये. चलने का मन हो तो चलिए और सोने का मन हो तो सोइये. बच्चों की बात बिल्कुल मत मानिये. और तुम भी अच्छे से समझ लो कि ये तुम्हारे बाप हैं. दोबारा इनके बाप बनने की कोशिश नहीं करना'. पिता जी और मेरे पास मुस्कुराने के अलावा कोई चारा न था.

उसके बाद से मैं भी अपने बच्चों को अक्सर याद दिलाने का प्रयास करता रहता हूं कि बाप कौन है. लेकिन आजकल के थेंथर टाइप के बच्चों पर इसका असर पड़ता होगा, ऐसी उम्मीद दिखती तो नहीं.

-वाणभट्ट 

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...