कुछ लोग कर्मयोगी होते हैं. वो कर्म सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये करते हैं कि बिना कर्म किये उन्हें बहुत खालीपन महसूस होता है. अपने खालीपन को भरने के लिये कुछ न कुछ करते रहना जरूरी है. निस्वार्थ भाव से किया गया काम देश-समाज के लिये होता है. लेकिन ऐसे कर्मयोगी बहुतायत में पाये जाते हैं जिनके व्यक्तिगत स्वार्थ के आगे देश-समाज गौण हो जाते हैं. किन्तु किसी भी काम को अंजाम देने के पहले पूँजी की आवश्यकता होती है. बहुत से कर्मयोगी धनाभाव के कारण ही समाजसेवी कार्य कर सकने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं. इसलिये हर शाश्वत कर्मयोगी की आवश्यकता होती है एक अदद सरकारी नौकरी की, ताकि उसे देश और समाज के उत्थान के लिए धन का टोटा न पड़े. चूँकि प्राइवेट कम्पनियां शुद्ध लाभ के लिये काम करती हैं, इसलिये उनके यहाँ नौकरी जॉब्स की श्रेणी में आती हैं. प्राइवेट लाला यदि एक पाई अगर खर्च करेगा तो चार पाई कमाने की उम्मीद पालेगा. उसके लिये चाहे आठ घण्टे हों या अट्ठारह, कर्मयोग करना पड़ सकता है. लाभ के अनुसार ही सैलरी में बढ़ोत्तरी या घटोत्तरी सम्भव है. इसीलिये देशप्रेमी भारतीय कर्मयोगी युवाओं में सरकारी नौकरी के माध्यम से देश सेवा करने की तमन्ना पहली पसन्द है.
दरअसल नौकरी तो सरकारी ही होती है. पैसा देने वाला खर्च करने के लिये देता है और लेने वाले खर्च करने के लिये लेता है. किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं. किसी को कुछ बचाना या लौटाना नहीं है. अगर किसी ने वित्तीय कुशलता से कम बजट में काम कर दिया तो इसे अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है. अब चूँकि सरकार का काम ही है रोजगार देना, तो उसने करवाने और करने वालों के बीच एक निरन्तर श्रृंखला बना रखी है. जिसका काम सिर्फ ये देखना है कि काम हो रहा है या नहीं, काम हुआ या नहीं, और हुआ तो उसमें किसी प्रकार की अनियमितता या गड़बड़ी तो नहीं हुई. किसी भी कार्य के निष्पादन के लिये प्रत्येक काम पूरी श्रृंखला से गुजरता है. समय के साथ इनकी ताकत इतनी बढ़ गई है कि ये अपनी इच्छा अनुसार काम को रोक दें, लटका दें या जांच ही बैठवा दें. कालांतर में इसी को लालफीताशाही की संज्ञा दे दी गयी. चूँकि इनका काम, काम करना नहीं है बल्कि काम पर नियंत्रण या निगरानी करना होता है, इसलिये इनकी न किसी प्रकार की जिम्मेदारी होती है, न जवाबदेही. किन्तु इन लोगों को प्रपोजल स्टेज से लेकर एक्जिक्यूशन तक बहुत ही सजग रहना पड़ता है. अपने साफ-सुथरे एयरकंडीशंड ऑफिस में बैठ कर निगरानी करना आसान काम नहीं है. धृतराष्ट्र के संजय की तरह दिव्य दृष्टि विकसित करना पड़ती है. इसका सबसे आसान तरीका है कि कर्मयोगी को टटोलो और बार-बार टटोलो. कुछ ऑब्जेक्शन लगाओ, थोड़ा डिटेल मांगो, परचेज रूल और ऑडिट का हवाला दो, अगर कुछ किया होगा तो कुछ दे कर ही जायेगा. बिना जोर दिये भला कोई किसी को क्यों समझेगा.
एक बार नौकरी मिल जाये तो कर्मयोगी भी बड़े-बड़े प्लान बना कर सामाजिक विकास और उत्थान में लग जाते हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि इसके पहले किसी ने कोई काम किया ही नहीं और किया भी तो बस बजट का 10 टका ही उपयोग में लाया गया. इनका प्रयास 10 टके को 25 टका तक पहुँचाने का होता है. ये जानते हैं कि धृतराष्टों और संजयों और उनके आकाओं के रहते, 100 टका जनता तक पहुँचा पाना असंभव है. क्योंकि इन सबको अपना-अपना हिस्सा चाहिये ही चाहिये. इसलिये कुछ टके अपने लिये बना भी लिये तो इसमें गलत क्या है. यही कुछ टके हर स्तर पर कर्मयोगियों के लिये एक महत्वपूर्ण प्रेरक शक्ति है. चूँकि श्रृंखला कड़ियों से मिल कर बनी होती है इसलिये श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी की अपनी भूमिका होती है. चेन की हर कड़ी को मालूम है कि उसकी क्या भूमिका है. उसे कितना और कहाँ तक सिस्टम को दुहना है कि चेन बनी रहे और चलायमान भी रहे. इस स्वस्फूर्त व स्वप्रेरित श्रृंखला की एक-एक कड़ी को सिस्टम में अपनी उपयोगिता का पूरी तरह ज्ञान होता है. जिस कड़ी में ग्रीस कम होती है, वो आवाज़ करने लगती है. यदि सिर्फ़ ग्रीस लगा देने से वो कड़ी चिंचियाना बंद कर दे तो ठीक, नहीं तो एक कड़ी के लिये पूरी चेन बदलना मँहगा सौदा है. ऐसी कड़ी को चेन से बाहर निकाल देना ही श्रेयस्कर है.
सिस्टम उन्हीं लोगों ने उन्हीं लोगों के लिए बनाया है जो सिस्टम में फिट हो सकें. जैसे शरीर में कोई भी अखाद्य पदार्थ किसी भी रूप में चला जाए तो शरीर उसका वमन कर देता है, वैसे ही चीं-चीं करती चेन की कड़ी जल्दी ही अलग से आइडेंटीफाई हो जाती है. उसको बाहर नहीं करेंगे तो चेन के टूटने का खतरा बना रहता है. मूल रूप से वो ग्रीस रहित कड़ी भी कर्म प्रधान ही थी, बस उसके उद्देश्य में स्वार्थ का पैमाना नहीं था. तभी उसने तमाम प्राइवेट पे पैकेज से ऊपर उठ कर सरकार के माध्यम से समाज सेवा के उत्तरदायित्व का चयन किया. कर्म के बिना उसका भी गुजारा नहीं चलना. कुछ तो वो करेगा ही. चिन्ता की बात ये है कि सिस्टम का अनफिट कर्मयोगी करेगा तो क्या करेगा. सिस्टम में हर व्यक्ति अपनी उपयोगिता बनाये रखने में व्यस्त रहता है. लेकिन समस्या ये है कि अनफिट व्यक्ति अपना समय काटेगा कैसे. सिस्टम में रह कर समय काटना अपेक्षाकृत आसान है.
प्राचीन काल से समय बिताने के लिये वाद-विवाद-अन्ताक्षरी जैसे खेल हुआ करते थे. अन्ताक्षरी भी हरि का नाम ले कर आरम्भ की जाती थी ताकि समय बर्बाद करने के तरीके से किसी प्रकार की गिल्ट फीलिंग न आये. इसलिये प्रभु को भी शामिल करना जरूरी हो जाता है. ये समय बिताने का एक टाइम टेस्टेड सुगम तरीका है लेकिन इसके लिये कम से कम दो लोग तो चाहिये ही. अकेले चने ने आजतक भाड़ नहीं फोड़ा तो अब क्या फोड़ेगा. लेकिन आजकल समय काटने के लिये भी अनेक साधन मौजूद हैं. फुरसतिया लोगों के लिये फेसबुक, वाट्सएप्प, इन्स्टाग्राम जैसे तमाम माध्यम मोबाईल पर ही उपलब्ध हैं. इन्तहा तो तब हो गयी जब एक दिन बंदा कस्टमर केयर के फोन का इंतज़ार करता पाया गया.
-वाणभट्ट
Very practical and interesting article .
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंअकेले चने ने आजतक भाड़ नहीं फोड़ा तो अब क्या फोड़ेगा
जवाब देंहटाएंबल्कि खुद उछल-उछल कर फूट जाएगा
अति सुन्दर लेख
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