हमेशा की तरह डॉ. सिंह के यहाँ भीड़ लगी हुयी थी. डॉक्टर तीन बजे से पहले नहीं आते थे, लेकिन पेशेंट्स एक - डेढ़ बजे से ही आ जाते थे. छोटा सा वेटिंग रूम तीन बजे तक ठसाठस भर जाता था. कारण ये था कि उनके आने के बाद किसी और का नाम नहीं लिखा जाता था. शर्त ये भी थी कि फोन पर नाम नहीं लिखा जायेगा. और यदि पेशेंट का नाम पुकारा गया और वो अनुपस्थित पाया गया तो उसका नाम लिस्ट में सबसे पीछे चला जायेगा.
डॉक्टर साहब की पर्सनालिटी किसी फौजी से कम नहीं थी. स्लिम-ट्रिम शरीर. चाल में कसावट. चेहरे पर रुआब. कड़क आवाज़. उनके आने से पहले वेटिंग रूम में भेंड़-बकरी की तरह अटे लोग फुसफुसा कर बात कर लेते थे. लेकिन उनके आने के बाद क्या मजाल कि कोई फुसफुसा भी ले. सबको मोबाइल वाइब्रेशन पर रखने की हिदायत अटेंडेंट्स लगातार देते रहते थे. कुछ बुजुर्गवार फोन के इस फीचर से वाकिफ़ नहीं होते थे. यदि वो पहली बार आये हों तो उनका फोन बज जाता था. लेकिन अगली बार जब वो आते तो किसी न किसी से बोल कर अपना फोन ही स्विच ऑफ़ करवा लेते.
शहर के बहुत ही प्रतिष्ठित डॉक्टर थे तो लोग उनकी सभी आज्ञा को सर-माथे पर लेते. उसूल के पक्के व्यक्ति यदि आपको पसन्द हों तो आप उनके मुरीद बने बिना नहीं रह सकते हैं. हर पेशेंट को स्वयं देखते, बिना किसी असिस्टेंट की सहायता के. अधिकतर प्रश्नों के जवाब पेशेंट को ही देने होते थे. साथ आने वाले अटेंडेंट को बिना इजाज़त बोलने की मनाही थी. दो-एक बार फटकार खाने के बाद हर पेशेंट और उसके अटेंडेंट को पता चल जाता था कि जब वो पूछें तभी बोलना है. अपने थोरो चेकअप के दौरान वो कुछ न बोलते. यदि पेशेंट की परेशानी उनकी स्पेशलाइजेशन की फील्ड से न होती तो पूरे चेकअप के बाद डॉक्टर साहब बुलन्द आवाज़ में अपने रिसेप्शनिस्ट को कहते - नो फ़ीस. ऐसा शायद ही कहीं और आपको देखने को मिले. डॉक्टर्स पहले ही फ़ीस रखवा लेते हैं. यदि उनके विषय की बीमारी न भी हो तो दो-चार टेस्ट और कुछ दवाईयां लिख कर पर्चा पकड़ा देते हैं. किसी भी हालत में फ़ीस वापसी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था.
जब पापा का इलाज इलाहाबाद से कानपुर शिफ्ट हुआ तो उनकी प्रतिदिन सुबह-दोपहर-रात मिला कर करीब 14 दवाइयाँ चल रही थीं. उन्हें भी दवाईयाँ खाने की आदत सी पड़ गयी थी. नियम-संयम के पक्के पिता जी, बिना नागा सब दवाईयाँ खाते रहते. हमारे पहले ही विजिट में सिंह साहब ने सारी दवाईयाँ बन्द करवा के मात्र दो दवाईयों पर सीमित कर दिया. उनका कहना था कि ब्लड प्रेशर और डायबिटीज की दवाइयों के अलावा सभी दवाईयाँ सिर्फ़ मल्टीविटामिन, डिप्रेशन और एंग्जाइटी की हैं. उसके बाद तो पिता जी-माता जी दोनों का इलाज उन्हीं का चलता रहा. मेरी ड्यूटी महीने-दो महीने पर उनके यहाँ ले जाने की रहती. फैमिली डॉक्टर की तरह अब हम उनके साथ कंफर्टेबल हो चले थे. पापा-मम्मी से कभी-कभी वो थोड़ा बहुत मज़ाक भी कर लेते.
अस्सी पार करने के बाद पापा का टहलना थोड़ा कम होता जा रहा था. अपने बचपन से हमने कभी उनको सुबह सोते हुये नहीं देखा था. वो टहल के लौटते थे, तब हम लोगों को जगाते थे. उनके लौटने के बाद कोई बिस्तर पर नहीं रह सकता था. बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं है, ये मुझे अपने पेरेंट्स के साथ रहते हुए समझ आ गया था. इलाज से बचना आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति में निहित है. जोसेफ़ मर्फी की पुस्तक 'पावर ऑफ़ सबकॉन्शस माइंड' ने मेरे इस विचार की पुष्टि ही की है कि बीमारी की शुरुआत मस्तिष्क से होती है. बाबा रामदेव को फॉलो करने से ये लाभ हुआ कि बड़ी-बड़ी बीमारी में भी देसी नुस्खे कारगर सिद्ध हो सकते हैं. एक ही बीमारी के लिये दो डॉक्टर यदि एक दवा नहीं लिखते तो उनके ज्ञान और कमीशन पर शक होना स्वाभाविक है. जैसे बड़ा वकील और बेंच बदलने से न्याय बदल जाये तो गरीब को न्याय कहाँ मिल सकता है. आजकल डॉक्टर्स व्यक्ति में यह एहसास दिलाने में व्यस्त हैं कि स्वस्थ जीवन दवाईयों के बिना असंभव है. इसीलिए आधुनिक चिकित्सा के सारे ज्ञानी-ध्यानी, बाबा के पीछे लट्ठ ले कर पड़े हैं. चालीस साल के आदमी ने यदि स्वयं को बीमार मान लिया तो समझिए कम से कम अगले तीस-चालीस साल के लिये डॉक्टर को एक नियमित ग्राहक मिल गया. पापा की टहलने के प्रति बढ़ती अनिच्छा मुझे चिंतित करने लगी थी.
उस दिन भी हम लोग नियत समय यानी दोपहर डेढ़ बजे तक क्लीनिक पहुँच चुके थे. पिता जी का चेकअप करके डॉक्टर पर्चे पर नियमित रूप चल रही दवाइयों को पुनः लिख रहे थे. मुझसे रहा नहीं गया - 'डॉक्टर साहब पापा को समझाइये, ये आजकल टहलना कम करते जा रहे हैं. जब भी मौका मिलता है बैठ जाते हैं या लेट जाते हैं'. नाक के अगले हिस्से पर रखे अपने रीडिंग ग्लास के ऊपर से उन्होंने आँखें तरेर कर मेरी ओर देखा. फिर अपनी चारित्रिक टेलीग्राफिक भाषा में बोले - 'बाप कौन है'? मुझे समझ आ गया आज क्लास लगनी तय है. लेकिन तीर निकल चुका था. पापा की ओर मुखातिब हो कर बोले - 'वर्मा साहब आप बाप हैं, ये मत भूलियेगा. जो मर्ज़ी आये वो करिये. चलने का मन हो तो चलिए और सोने का मन हो तो सोइये. बच्चों की बात बिल्कुल मत मानिये. और तुम भी अच्छे से समझ लो कि ये तुम्हारे बाप हैं. दोबारा इनके बाप बनने की कोशिश नहीं करना'. पिता जी और मेरे पास मुस्कुराने के अलावा कोई चारा न था.
उसके बाद से मैं भी अपने बच्चों को अक्सर याद दिलाने का प्रयास करता रहता हूं कि बाप कौन है. लेकिन आजकल के थेंथर टाइप के बच्चों पर इसका असर पड़ता होगा, ऐसी उम्मीद दिखती तो नहीं.
-वाणभट्ट
सही बात है, आजकल बच्चे भूल गए हैं बाप कौन है और इंसान भूल गया है भगवान कौन है
जवाब देंहटाएंअद्भुत टिप्पणी...सटीक मूल्यांकन...🙂
हटाएंसही बात, अपने अनुभव से प्रमाणित कर रहा हूँ ।
हटाएंबहुत खूब,
जवाब देंहटाएंBahut sahi aaj koi kisi ko baap manta nahi hai
जवाब देंहटाएं