प्रिंसिपल साहब जब भी उसके सामने पड़ जाते, उसकी आदत थी कि पूरी विनम्रता और आदर के साथ हाथ जोड़ कर अभिवादन करना. वैसे वो सत्ता और शक्ति से दूर रहना पसन्द करता था.
भाषा कोई भी हो, किस्सागोई का मज़ा जाता रहता, यदि कहानियों में विलेन न होते. किस्से-कहानियाँ हमेशा से मानव साहित्य का अभिन्न अंग रहे हैं. जब मनोरंजन के साधनों की कमी थी, तब भी कवियों-लेखकों का टोटा रहा हो, ऐसा नहीं लगता. लोगों में साहित्यिक सृजनशीलता और रचनात्मकता न होती तो, भारत में शायद वेद-पुराण-उपनिषद-धर्मग्रंथ न लिखे गये होते. अधिकतर भाष्य तो इसीलिये लिखे गये कि बड़े भाग्य से यदि मानव जीवन मिल ही गया है तो उसे जीना कैसे है. सही और सन्तुलित जीवनचर्या का पालन कर मानव स्वयं कैसे भगवानतुल्य जीवन जी सकता है. और विपरीत आचार-विचार पर चलने से वही मानव अमानुषिक व्यवहार कर दानव भी बन सकता है. किस्से-कहानियों में मानव और दानव के स्पष्ट अन्तर को दर्शाने के लिये, मानव को सद्गुणों, तो दानव को अवगुणों की प्रतिमूर्ति बना दिया जाता है. ताकि लोग बुराई के मार्ग पर चलने वाले का दुख:द अंत देख कर भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा लें. रामायण हो या महाभारत, एक तरफ़ महामानव था तो दूसरी तरफ़ महादानव. दोनों बराबर के शक्तिशाली, लेकिन एक सत्य और न्याय के पक्ष में तो दूसरा असत्य और अन्याय के. ये स्पष्ट विरोधाभास इसलिये भी किया जाता था कि लोग समझ सकें कि दुर्जन व्यक्ति दुर्जन ही रहता है और सज्जन अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करते. अंत में चाहे कुछ भी हो जाये, विजय सदा सत्य और न्याय की होती है.
जब से फिल्मों ने मानव जीवन में प्रवेश किया, किस्सा पढ़ने-सुनने-सुनाने वालों को एक नयी विधा मिल गयी. मुंशी प्रेमचन्द हों या शरत चन्द्र, उनके पात्रों को जीवन्त स्वरूप मिल गये. जिनके लिये पठन-पाठन थोडा दुष्कर कार्य था, उनके लिये 'बूढी काकी' को विज़ुअलाइज़ करना कठिन भी हुआ करता था. 'ईदगाह' पढ़ कर हामिद और उसकी दादी के दर्द का एहसास कराने के लिये चाहे लेखक ने कितना भी कलम तोड़ विस्तृत वर्णन किया हो, पाठक बिना कनेक्ट हुये उसका अनुभव नहीं कर सकता था. कहानी के मर्म को महसूस करने के लिये पात्रों की साइकोलॉजी में गहरे घुसना पड़ता था. तब जा कर कोई टैगोर-प्रेमचन्द-शरत-दोस्तवोस्की-टालस्टाय-गोर्की का मूल्याङ्कन कर पाता था. तब चलचित्र का प्रचलन कम था. किताबें ही आमोद-प्रमोद का साधन थीं. मूवी पिक्चर्स के आने के बाद पुस्तकों का उपयोग घटता गया. और आज ओटीटी और रील्स के आ जाने के बाद तो किताबों की ओर कोई देखना भी पसन्द नहीं कर रहा. लेकिन लिखने वाले हैं कि लिखने से बाज नहीं आ रहे. यदि कुछ नहीं बदला तो वो है, कहानियों के पात्रों का चरित्र. बिना हीरो, हिरोइन और विलेन के कहानी की कल्पना करना कठिन है. चाहे क्राइम थ्रिलर हो या लव स्टोरी, हीरो-हिरोइन के बाद सबसे मुख्य किरदार विलेन का ही होता है. बाकि सब को कैरेक्टर आर्टिस्ट और कॉमेडियन की श्रेणी में बाँट दिया जाता है. जो फिलर की तरह बीच बीच में अपना रोल निभाने आ जाते हैं. लेकिन वो मुख्य कहानी को प्रभावित नहीं करते.
किस्सों और कहानियों के विलेन घोषित दुष्ट होते थे. कंस-दुर्योधन-रावण, सबको पता था कि वो गलत हैं, लेकिन यदि लेखक उन्हें बीच स्टोरी आत्मज्ञान से रियलाइज़ करा देता और वो सुधर जाते, तो ग्रन्थ लिखने का कोई औचित्य न रह जाता. इसलिये ये ऐसे पात्र थे, जो हारी हुयी बाज़ी को अंत तक निभाते गये क्योंकि कहानी में उनका किरदार ही ऐसा था.
कमोबेश फिल्मों ने भी कहानियों के इस क्रम को बनाये रखा. प्राण-अजित-प्रेम चोपड़ा को फुल टाइम विलेन बना दिया गया. लोग हीरो-हिरोइन के नाम के साथ विलेन का नाम भी पता करके फिल्में देखने जाते. इन फिल्मों में सस्पेंस की कोई गुंजाइश न थी. कहानी भी दर्शकों को पहले से मालूम होती थी. जब सब कुछ सही चल रहा होगा, तभी विलेन की एंट्री होगी और वो सब कुछ तहस-नहस कर डालेगा, लेकिन कहानी का अन्त हीरो की विजय के साथ ही होगा. जब तक अंत सुखान्त न हो जाये, फ़िल्म ख़त्म नहीं होती थी. इसी चक्कर में कई बार फिल्में तीन घन्टे के ऊपर निकल जाया करती थीं. पब्लिक भी क्या करती, वास्तविक जीवन में सत्य, अहिन्सा और न्याय की विजय देख रही होती, तो निश्चय ही फिल्मों में अपना समय बर्बाद नहीं करती. उसकी कल्पनाओं को साकार कर-कर के देश में कितने स्टार-सुपरस्टार और मेगास्टार बन गये. अकेला आदमी जब दुष्टों के गिरोह को ख़त्म कर देता है, तो शोषित और असहाय लोगों को लगता है कि हीरो ने उनका बदला ले लिया. सीटी और तालियों से हॉल गूँज जाता. तीन घन्टे के लिये ही सही दर्शक अपने दुःख-दर्द भूल जाता. फ़िल्मों का एक निश्चित फॉर्मेट था. कुछ सीरियस, कुछ हास्य, कुछ करुणा, कुछ हिंसा के बीच आठ से दस गाने. उनमें वो अश्लील वाले गाने भी होते थे, जिन्हें कैबरे कहा जाता था. जिन फिल्मों में वैसे गाने नहीं होते थे, उन्हें पारिवारिक फिल्म बता कर प्रचार किया जाता था. जिस तरह वर्तमान में गानों का पिक्चराइज़ेशन होता है, उन्हें देख के लगता है कि अतीत के कैबरे भी बहुत शालीन हुआ करते थे.
मसाला फिल्में देखते-देखते भी आदमी जल्दी ही बोर हो गया. उसको लगने लगा कि ये यथार्थ से कोसों दूर हैं. दर्शकों के इस ज्ञान के बाद, एक-एक कर के सभी स्टार फ्लॉप होते चले गये. साथ ही फिल्मों के कथानक और कलाकार अधिक वास्तविक होने लगे. एक दौर ऐसा आया जब ऐसी फ़िल्मों को आर्ट फ़िल्म या पैरलल सिनेमा तक घोषित कर दिया. इस युग ने बॉलीवुड में ऐसे-ऐसे हीरो-हिरोइन दिये, जिन्हें देख के लगता था कि ये हमारे पास-पड़ोस के चरित्र हैं. सब आम आदमी. रोल की अधिकता के हिसाब से किसी को हीरो मान लिया जाये तो मान लिया जाये, वरना उनका प्रयास होता था कि आम आदमी की जद्दो-जहद को उभारा जाये. आदमी कभी एक्सट्रीम का जीवन नहीं जीता. उसमें हीरो भी होता है और विलेन भी. गुण और अवगुण से मिल के बना है, आम आदमी. जो पुण्य भी करता है और पाप भी कर सकता है. क्योंकि वो आदमी है, कोई अवतार नहीं. आर्ट फ़िल्में अधिक रियलिस्टिक थीं. जिस आदमी को आप देवता की तरह मानते थे, वो ही कुछ ऐसा कर देता है कि आपको विलेन लगने लगता है. जबकि वो विलेन नहीं है, बस उसने अपने उद्देश्य या दृष्टिकोण की पूर्ति के लिये जो किया, वो आपके लाभ और लक्ष्य के विरुद्ध था. सिर्फ़ इसलिये उसे विलेन मान लेना भी उचित नहीं है. दूसरे के जूते में पैर रख कर देखेंगे तो विलेन भी इंसान लगेगा, जिसका विशेष परिस्थितियों में आपके लाभ की ओर ध्यान नहीं गया.
इन फ़िल्मों के बदले भी बदले जैसे नहीं लगते थे. पुरानी फिल्में होतीं तो बन्दा जब तक विलेन को ठोंक-पीट के अपना प्रतिशोध पूरा न कर ले, दर्शकों को आनन्द नहीं आता था. अब के हीरो को मालूम है कि विलेन के पास पद है, शक्ति है, सत्ता है. जिसका दुरूपयोग करना उसका अधिकार इसलिये है कि वही उसका सत्य है. वो उसी सत्य को देख कर और उसी सत्य के लिये आगे बढ़ा है. सबके सच उसके अपने हैं. हमारा और दूसरे का दृष्टिकोण अलग इसलिये है कि हम एक ही तस्वीर को अलग-अलग कोण से देख रहे हैं. न कोई सही है, न गलत. सब सही हैं, अपनी-अपनी जगह. किसी के लिये हीरो, विलेन है तो किसी के लिये विलेन, हीरो. एक बॉस जब तक कुर्सी पर काबिज थे, रावण और दुर्योधन को जस्टिफ़ाई करते थे कि उसकी बहन और पिता के साथ अन्याय हुआ था. लेकिन जब कुर्सी से उतरे, तो रातों-रात गाँधी उनके आदर्श बन चुके थे. हमारा देश और धर्म, सभी को सुधरने के पर्याप्त मौके देता है. जब भी जग जाओ, आपका सवेरा आरम्भ. आपका दूसरे के जागने या सोने से कोई प्रयोजन नहीं है. सारा का सारा ज्ञान आपके स्वयं को जगाने के लिये है.
पद प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने में प्रधानाचार्य की विवशता ये थी कि उन्हें, उन्हें लाभान्वित करना होता था, जो निरन्तर उनकी सेवा-टहल में लगे रहते थे. उसने उस प्रोजेक्ट को बनाने में बहुत मेहनत की थी. लेकिन प्रोजेक्ट आने के बाद प्रधानाचार्य महोदय ने उसे अपने एक विश्वासपात्र को पकड़ाना उचित समझा. ईश्वरीय न्याय का उन्हें भय होता तो वे ऐसा कदापि न करते. उसे भी यदि ईश्वरीय न्याय पर भरोसा होता तो वो इस बात का बुरा न मानता. अब जब प्रधानाचार्य महोदय कभी सामने पड़ जाते तो वैसे ही हाथ जोड़ कर अभिवादन करता, बस उसमें विनम्रता और आदर का भाव नदारद होता.
आज की रियल लाइफ़ में विलेन और हीरो शायद ऐसे ही होते हैं.
-वाणभट्ट
पुनश्च: यदि मौका लगे तो नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 'आधारशिला' देखने का प्रयास कीजियेगा.
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