हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. छोटी-छोटी मोहल्ला स्तर की पार्टियां आज अपना-अपना घोषणापत्र ऐसे बांच रहे हैं मानो केन्द्र में सरकार इनकी ही बनने वाली है. अभिनेता और राजनेता में एक समानता रही है, इन दोनों का कॉन्फिडेंस लेवल बहुत हाई होता है. अगर मेरी शक्ल-सूरत नवाजुद्दीन भाई से मिलती होती, तो बहुत सम्भव है मैं डिप्रेशन में चला जाता. ये तो बन्दे का कॉन्फिडेंस ही है जो बन्दा आज बॉक्स ऑफिस पर एक से एक हिट फिल्में दे रहा है. महान अभिनेता बच्चन साहब को कितने रिजेक्शन झेलने को मिले लेकिन बन्दे में आज भी जो चीज कूट-कूट कर भरी है, वो है कॉन्फिडेंस. कुछ-कुछ यही हाल छुटभैया राजनेताओं का है. जब मंच पर माइक पकड़ कर खड़े होते हैं तो लगता है जैसे लाल किले की प्राचीर से पूरे देश को संबोधित कर रहे हैं. ये बात अलग है कि इनकी मोहल्ला गोष्ठी में गिने-चुने वो लोग ही शिरकत करते हैं, जिनकी एक दिन की दिहाड़ी पक्की होती है. उन्हें नेता जी के उद्बोधन से कुछ लेना-देना नहीं होता.
लेकिन इसमें कोई गलत बात नहीं है. अभिनेता और नेता रगड़-घिस के ही बनते हैं. किरदार हो या मंच, चाहे छोटा हो या बड़ा, अपने रोल को जो बखूबी निभाता है, वो ही भविष्य में बाकी सबसे आगे निकल जाता है. महापुरुष लोग पहले ही फरमा चुके हैं - मोर स्टडी मोर कन्फ्यूजन, नो स्टडी नो कंफ्यूजन. तो देश का ये हाल है कि ज्ञानी जन संशय में हैं और अज्ञानी कॉन्फिडेंस के सागर में गोते मार रहे हैं. ये बात हर क्षेत्र में लागू होती है. जो अपनी फील्ड के पीरों (Peers) की दिखाई लीक पर चलते रहे, वो मंजिल से भी आगे निकल गए. समय से आगे चलने वाले लोगों को समाज ने निपटा दिया. दरबारी समझदार टाइप के लोगों को मालूम था कि अपने आकाओं की इच्छानुसार धरती चपटी बता कर दरबार में सिक्का जमाया जा सकता है. भू को गोल बताने वालों के नसीब में सूली नहीं आएगी तो क्या सोने के सिक्के आएंगे. जब कोई कहता है कि दुनिया बहुत तरक्की कर गई है तो, वाणभट्ट का व्यक्तिगत मानना है कि भले ही आदमी चांद पर पहुंच गया लेकिन उसकी बेसिक फितरत नहीं बदली. आज तक जितनी शेर-ओ-शायरी दुनिया जहान में हुई है, उसमें इश्क से ज्यादा इंसान के छल-फरेब का ज़िक्र है. इश्क की शायरी भी वही मकबूल हुईं जहां इश्क में धोखा मिला हो या वो परवान न चढ़ पाया हो. अब तो लोगों का मानना है कि मकबूल इश्क सब्जी के थैले पर ख़त्म होता है. सो व्यवसाय कुछ भी हो, इंक्लूडिंग प्रेम (कुछ लोगों के लिए ये भी एक धंधा है), यदि कोई सीधी-सरल राह पर चलेगा तो घाटे में ही रहेगा. तो नेता लोग इससे कैसे बच सकते थे. उनका तो फुल टाइम काम ही है जनसेवा, जिसमें कोई नियमित तनख्वाह नहीं होती. इसलिए उसकी मजबूरी बन जाती है कि बगुला भगत बन के रहें. जनता की गरीबी हटाते-हटाते, ये कब अमीर हो जाते हैं, स्वयं इनको और इनके चमचों को पता ही नहीं चलता. चमचों की योग्यता ही इतनी होती है कि ये पतीला नहीं बन सकते. शेर के साथ रहने पर सियार को शिकार की चिन्ता नहीं करनी पड़ती. उसी उद्देश्य से ये पूरी वफादारी के साथ नेता जी के साथ लगे रहते हैं. नेता अगर पार्टी बदल ले तो ये भी पाला बदलने में देर नहीं लगाते. सबसे खास बात है कि सब के सब सिद्धांत वाली राजनीति की दुहाई देते नहीं अघाते.
आम चुनाव की घोषणा के साथ ही सभी नेताओं को जनता की याद आने लगी है. सबकी जनसेवा करने की अदम्य इच्छा इसी मौसम में जागृत होती है. हर नेता अगले चुनाव के बाद अपने क्षेत्र को स्वर्ग बना देने के लिए लालायित दिख रहा है. उसके लिए वो एक से एक लोक-लुभावन वायदे कर रहा है. उसे मालूम है कि लहर एकतरफा है लेकिन जब मंच और माइक मिल जाए तो उसे बस फ्री-फंड की जबान ही तो हिलानी है. टेंट-वेंट भी कौन सा इनकी जेब से आता है. कुछ सट्टे बाज टाइप के लोगों को रेस के घोड़े पर दांव लगाने के बजाय नेता पर दांव लगाने में मजा आता है. जिस तरह कुछ फ्लॉप फिल्में लोग इसीलिए बनाते हैं कि उनकी काली कमाई खप जाए, उसी तरह कुछ धन्ना सेठ (अपनी बिरादरी के) नेता पर इसीलिए पैसा फूंक देते हैं, ताकि ब्लैक मनी हिल्ले लगाई का सके. वर्ना कुछ नेताओं के चाल-चलन-वचन को देख-सुन के शक होता है कि भला कौन इनको प्रमोट कर रहा है. आपको भले शक हो जाए लेकिन नेता का अंदाज वही रहता है, कि अगर जीत गए तो दुनिया बदल देंगे. आप की नहीं, अपनी. और यहीं पर नेता का कॉन्फिडेंस काम आता है. यदि वही कॉन्फिडेंस लूज कर जायेगा तो कौन उस पर पैसा लगाएगा.
अलग-अलग पार्टियां अलग-अलग घोषणापत्र घोषित कर रही हैं. और उनके नेता पूरे दम-खम से अपने-अपने दावे कर रहे हैं. जब काम में दम न हो तो बात में वजन नहीं रहता. इस कमी को पूरा करने के लिए लोग आवाज़ में पूरा दम लगा देते हैं. साउंड सिस्टम पर इको लगा कर जब नेता जी को अपनी आवाज़ अपने ही कानों तक पहुंचती है, तो उनका जोश उफान मारने लगता है. इस चक्कर में दो-चार वादे एक्स्ट्रा अपनी तरफ से कर जाते हैं जिनका घोषणापत्र में जिक्र तक नहीं होता. कॉन्फिडेंस का आलम तो ये होता है कि नेता जी को मालूम है कि जब हर बार वो ख़ुद अपने वादे भूल जाते हैं तो जनता क्या ख़ाक उन्हें याद रखेगी. अलबत्ता किराये की जनता को जनता मानना भी सही नहीं है. आजकल तो अख़बार और न्यूज़ चैनल्स का ज़माना है. यदि नेता की पार्टी लोकल है, तो लोकल मीडिया पर तो उसकी धौंस होनी ही चाहिए. उनको बता दिया जाता है कि वो कैमरा नेता जी पर ही फोकस रखें, ताकि टीवी की ऑडियंस को पता न चले कि सुनने वालों में सिर्फ़ टेंट-कुर्सी वाले ही थे.
यदि आप एकदम फुरसत में हैं, तो दो-चार पार्टी के घोषणापत्र उठा लीजिए और उन्हें पढ़ने-समझने का प्रयास कीजिए. यदि वो समझ आ गए तो आपको सबमें एक साम्य देखने को मिलेगा. सबके निशाने पर गरीब-मजदूर-किसान ही मिलेगा. जिसके उत्थान के लिए सभी दल-बल सन सैंतालीस से लगे हुए हैं. सभी पार्टियां देश को सुखी और समृद्ध करने पर आमादा लगती हैं. महिलाओं और वंचितों को न्याय दिलाना सबका उद्देश्य है. हर एक के घोषणापत्र में हर किसी के लिए कुछ न कुछ ज़रूर है. दावा तो ये भी है कि जुल्म-ओ-सितम की रात का अन्त हो जाएगा. सबके लिए छत होगी पक्की और भूख जैसी चीज विलुप्त हो जायेगी. सरकारी नौकरी के इंतजार में निरन्तर बढ़ती हुई बेरोजगारी और बेरोजगार सबके टारगेट पर हैं. सब के सब घोषणापत्र बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं. कुल मिला कर सबका घोषणापत्र देख के लगता है कि इन सबकी विचारधारा तो एक है. सभी देश का विकास चाहते हैं. सभी जनता की समृद्धि चाहते हैं. सभी के इरादे बहुत अच्छे हैं. लेकिन जब वे एक-दूसरे के विरुद्ध बोलते हैं तो कहते हैं कि ये दो विचारधाराओं की लड़ाई है. उन्हें कॉन्फिडेंस है कि काम दिखा कर वोट नहीं मांगा जा सकता तो जनता को बरगला कर कंफ्यूज कर दो. दो दिन की छुट्टी में सबके घोषणापत्र खंगालने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि देश के नेता देश का विकास करने को तत्पर हैं लेकिन देश की जनता ही अपना विकास नहीं चाहती इसलिए देश विरोधी सरकार को चुन लेती है. सभी इस बार गलती की पुनरावृत्ति रोकने के लिए जनता को जगाने में लगे हैं. सभी पार्टियों को लगता है कि जनता को जितने सब्जबाग (लॉलीपॉप) दिखाओगे, जीत की सम्भावना उतनी बढ़ती जायेगी.
सभी मेनिफेस्टो का अध्ययन और मनन करने के बाद वाणभट्ट ने सोचा कि क्यों न एक सार्वभौमिक टाइप का मेनिफेस्टो बनाया जाए जिस पर देश और काल का प्रभाव न पड़े. चुनाव दर चुनाव आएं, लेकिन घोषणापत्र बदलना न पड़े. जब सभी, नेता और जनता, मुफ़्त का चन्दन घिसना चाह ही रहे हैं तो क्यों न उन्हीं के हिसाब से मेनिफेस्टो तैयार किया जाए. उसके सेलियंट बिन्दु नीचे लिखे हुए हैं.
1. देश में पैदा होते ही हर व्यक्ति को पेंशन मिलेगी
2. पढ़ाई-लिखाई-भोजन-भवन सब फ्री
3. स्वास्थ्य सेवा सभी के लिए एकदम मुफ़्त
4. हर हाथ को निश्चित काम
5. काम करने की आजादी, जो कर सकते हो वो करो
6. नहीं कर सकते तो मत करो, पेंशन तो है ही
7. जो करेगा उसे तनख्वाह मिलेगी पेंशन के अलावा
8. उद्यमियों को पूर्ण वित्तीय सहयोग और प्रोत्साहन
9. समस्त व्यय का वहन करदाताओं द्वारा
10. जाति-धर्म-भ्रष्टाचार समाप्त करके देश का विकास एक मात्र लक्ष्य
मेरे विचार से ये एक नवोन्मेषी, विकासशील और सर्वस्वीकार्य मेनिफेस्टो होना चाहिए. किसी को और कुछ फ्री में चाहिए तो सजेस्ट कर सकता है. इस मेनिफेस्टो के सभी कॉपीराइट, लेफ्ट है. जो चाहे, जहां चाहे इसे अपना सकता है. बल्कि मेरा मानना है कि सभी देशों को एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत इस एजेंडे को लागू करवाने का प्रयास करना चाहिए ताकि पृथ्वी पर किसी को गरीबी का सामना न करना पड़े. धर्म-जाति के नाम पर वैमनस्य का अन्त हो और भ्रष्ट आचरण की आवश्यकता ही न हो, आम आदमी को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए.
म्यूचुअल फंड की तरह, छोटे-छोटे शब्दों में एक वैधानिक चेतावनी भी देनी जरूरी है. इतनी सब पंजीरी लेने के बाद, किसी ने भी कोई भी ऐसा काम किया जो देश की अखंडता, अस्मिता और राष्ट्रीयता के विरुद्ध पाया गया, तो बेटा ऐसा तोड़ा जाएगा कि समझ नहीं आएगा कि खाएं कहां से और निकाले कहां से.
- वाणभट्ट
हर पांच साल में नेता जी के लिए एक नयी पेंशन और संपत्ती में हजार गुना बढ़ोत्तरी | आखिर काम करने का ईनाम भी जनता को थोड़ी ना दिया जाना चाहिए |
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया |
To win delete no9🙃👌
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