किसी भी विषय का व्यवस्थित ज्ञान ही विज्ञान है. चूंकि विज्ञान तार्किक होता है, तो हर कोई अपने विषय को वैज्ञानिक तरीके से व्यक्त करने में लगा है. हिस्ट्री तो हिस्ट्री, पॉलिटिक्स को भी विज्ञान सिद्ध करने के प्रयास किये जाते रहे हैं. संस्कृत जैसी भाषा गणित की तरह समृद्ध हैं, इसलिए भाषा को भी विज्ञान का दर्जा दिया गया है. हमारे देश में अंग्रेजों के आने के पहले तक विज्ञान हुआ करता था. लेकिन उनके आने के बाद चूंकि सारी शिक्षा व्यवस्था ही अंग्रेजी ओरियेंटेड हो गई तो विज्ञान को भी साइंस बनना ही था. इसके साइंस बनते ही देश का प्राचीन ज्ञान-विज्ञान विलुप्त प्राय हो गया. चार सौ साल की दासता में हमने ही जब अंग्रेजी को विद्वतजनों की भाषा मान लिया तो सारी की सारी पढायी अंग्रेजी पर शिफ्ट हो गई. सारा का सारा विज्ञान, साइंस बन के रह गया. जो कुछ भी अंग्रेजी में कहा या लिखा गया, उसे विश्वसनीय मान लिया गया. संभवतः किसी देश को गुलाम बनाने और बनाए रखने के लिए उसकी आत्मा को मारना जरूरी है, ये मुगलों और अंग्रेजों दोनो को पता था. तो एक ने फ़ारसी थोपी तो दूसरे ने अंग्रेजी. और भाषा किसी भी देश की आत्मा होती है. आज स्थिति ये है कि हमारे देश में हर विषय के ज्ञानी, अंग्रेज़ी में ही विमर्श करते हैं ताकि उनकी अंतरराष्ट्रीय साख बन सके. ऐसे में विज्ञान का साइंस हो जाना लाजमी भी था.
जब से बाबा जी ने कोर्ट में माफ़ी माँगी है कुछ लोगों की बाँछे खिली हुयी हैं. ये बात अलग है कि पूरी मेडिकल साइन्स एनाटॉमी के सम्पूर्ण ज्ञान के बाद भी आज तक ये नहीं खोज पायी कि बाँछें शरीर के किस भाग में पायी जाती है. लेकिन आश्चर्य की बात है की सबसे ज्यादा उसी प्रोफेशन के लोगों की खिली हैं. उन्हें बाबा पूरा का पूरा लाला लगता है. जब इतनी मेहनत, समय और पैसा खर्च करके किसी ने एलोपैथी में मेडिकल की डिग्री पायी हो तो उसका आयुर्वेद से वैमनस्य जायज़ भी है. बचपन से उसका और उसके परिवार का सपना था कि समाज सेवा के लिये मेडिकल जैसे नोबल प्रोफेशन को चुने. एण्ड यू नो, मेवा आलवेज़ फ़ॉल्लोज़ सेवा. तो सेवा के पीछे की मेवा आज के मेडिकल प्रोफेशन की सच्चाई बन चुकी है. मेवे के लिये आज सेवा करने को लोग उद्धत दिख रहे हैं. प्रेगनेंसी से लेकर मरने से पहले वेंटिलेटर तक की यात्रा कोई भी व्यक्ति बिना डॉक्टर के नहीं कर सकता. जब सिजेरियन बच्चा देश-काल के अनुसार कभी भी धरा पर अवतरित किया जा सकता है तो आपको बस पंडित जी से शुभ लग्न-मुहूर्त बिचरवाना है. वैसे भी नॉर्मल डिलीवरी पचास हज़ार तो सिजेरियन डेढ़ लाख दे कर जाती है. तो भला किसका मन सेवा करने को प्रेरित नहीं होगा. लिहाजा पूरे शहर में होटल कम और हॉस्पिटल ज्यादा हो गये हैं. और हॉस्पिटल्स में होटल्स वाली सभी सुविधायें उपलब्ध हैं. इसीलिए देश के स्वनाम धन्य महापुरुषों की ओर जब ईडी और सीबीआई नज़र फेरती है तो उनको मालूम होता है कि कौन सी बीमारी उन्हें अस्पताल ले जायेगी और कौन सी जेल. जिस भ्रष्टाचारी के हाथ रिश्वत लेते कभी नहीं काँपे उसको दिल का दौरा पड़ने लगता है. यहाँ साइंस एक विशेष रूप ले लेती है जो आदमी-आदमी में फ़र्क करना जानती है. ये नेता के प्रोफाइल पर निर्भर करता है (सत्ता पक्ष या विपक्ष) कि उसे बीमार माना जाये या बहानेबाज. सिद्ध करने के लिये हाइली क्वालिफाइड डॉक्टर्स का पूरा हुजूम होता है. जो अगर लिख दें कि आदमी मर गया है तो यमराज को धरती पर आना पड़ जाये. इसी साइन्स के आधार पर तो उन्होंने होम्योपैथी और आयुर्वेद को ब्लैक मैजिक या क्वैक या शुद्ध हिन्दी में झोलाछाप की श्रेणी में डाल रखा है. यहीं से मेरा साइंस को लेकर अन्तर्द्वंद आरम्भ होता है.
विज्ञान आदमी के धरती पर आने से पहले भी था और बाद में भी रहेगा. आपके आसपास जो कुछ भी है या जो कुछ भी घटित हो रहा है उसको समझना-समझाना ही विज्ञान की सहज परिभाषा है. हर देश काल में लोगों ने प्रकृति के रहस्यों को अपने अपने ढंग से देखा-समझा. जैसे-जैसे आदमी का ज्ञान बढ़ता गया, उसकी जिज्ञासा भी बढती गयी. और विज्ञान भी विभिन्न आयामों में विस्तार लेता गया. कुछ पुरानी अभिव्यन्जनायें टूटी, कुछ नयी अवधारणायें बनी. इस तरह कड़ियों से कड़ियाँ जुड़ती गयीं और विज्ञान का चतुर्मुखी विकास होता गया. आज ब्रम्हाण्ड का कोई भी विषय मानव के आधुनिक विज्ञान से अछूता नहीं रह गया है. एक युग की खोज अगले युग का आधार बनती गयी. अपने पूर्वजों, विशेषकर भारतीय पूर्वजों का, वैज्ञानिक ज्ञान कभी-कभी हतप्रभ कर देता है कि बिना आधुनिक यन्त्रों, साधनों और मानकों के कैसे उन्होंने खगोलीय और भूमंडलीय गणनाओं का सटीक अध्ययन कर डाला. भोजन में क्या पथ्य है, क्या अपथ्य, बिना खाद्य प्रमाणीकरण संस्था के कैसे संभव हुआ होगा. भोजन के लिये उपयोगी खाद्य पदार्थों और वनस्पतियों/प्राणियों की एक लम्बी अन्तहीन सूची है. किस पथ्य से शरीर के किस भाग को क्या पोषण मिलेगा, इसका भी भान हमारे पूर्वजों को था. बिना इन्क्युबेटर शेकर, माइक्रोस्कोप, सेंट्रीफ्यूज, एचपीएलसी, स्पेक्ट्रो फोटोमीटर आदि यन्त्रों के विभिन्न वनस्पतियों के पौष्टिक, औषधीय और चिकित्सकीय गुणों का आँकलन, सिद्ध करता है कि विज्ञान ही नहीं, अपने मनीषियों का अन्तर्ज्ञान भी अपने चरम पर रहा होगा. लेकिन उनका ज्ञान सहज सभी को उपलब्ध था क्योंकि उसका उद्देश्य ही जन कल्याण था. यह ज्ञान अनुश्रुतियों और पांडुलिपियों के माध्यम से अगली पीढ़ी तक पहुँचता रहा. हर पीढ़ी इसे समृद्ध करते हुये अगली पीढ़ी को सौंपती गयी. यहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ का सर्वथा अभाव था. वसुधैव कुटुम्बकम का पालन करने वाले देश का इतिहास कभी भी विस्तारवादी नहीं रहा. समृद्धि और ख्याति दिग-दिगान्तर में ऐसी थी कि देश सोने की चिड़िया के नाम से प्रसिद्ध था. कबीलाई प्रकृति की विस्तारवादी साम्राज्यों ने लूटने के उद्देश्य से ही देश को दासता की बेड़ियों में जकड़ कर रख दिया. सहस्त्र वर्षों की दासता ने यदि सबसे अधिक हानि पहुँचायी है तो वो है मानवता को.
गुलामों का न कोई इतिहास होता है, न भाषा, न विज्ञान. उस समय के वैज्ञानिकों (ऋषियों-मुनियों-गुनियों) के अन्वेषण और अनुसन्धान का उद्देश्य लोक कल्याण था इसलिये ज्ञान को लाभ के लिये छापने का विचार कदाचित किसी के हृदय में भी आया हो. विदेशों में तो परिकल्पनाओं के साथ वैज्ञानिकों के नाम जोड़ने की प्रथा बन गयी. जिसने उन्हें अमरत्व प्रदान कर दिया. आवोगाद्रो हों, ओम हों, न्यूटन हों या आर्केमीडीज़, अपनी खोज के साथ अपना नाम जोड़े बिना नहीं रह पाये. विज्ञान में स्वार्थ का आरम्भ भी सम्भवतः यहीं से हुआ हो. चूँकि लिपिबद्ध करने का कार्य हमारे पुरखों ने अगली पीढ़ी के लिये ज्ञान संरक्षण के लिये किया था, उसके किसी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा में छापने का तो प्रश्न ही नहीं होता. पश्चिमी देशों की इस बात की तो प्रशंसा करनी ही पड़ेगी कि शोध हो, इतिहास हो या विचार उसके प्रचार-प्रसार के लिये वो उसे न सिर्फ लिखते हैं बल्कि छापते भी हैं. अगर हमारे कुछ महापुरुष यदि विदेश न जाते तो, व्यक्तिवाद को न मानने वाले भारत वर्ष में शायद ही कोई उनको पहचान पाता. ये बात अलग है कि वो दुनिया के सामने वही तथ्य रखते हैं जिसे वो दिखाना चाहते हैं. इसमें इतिहास या विज्ञान को तोड़-मरोड़ के प्रस्तुत करना हो तो उन्हें कैसा गुरेज. वैसे भी शासक का विशेषाधिकार है कि वो सब कुछ अपने हिसाब से लिखता या लिखवाता रहे.
देश को सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ है अंग्रेजी शिक्षा पद्यति के थोपे जाने से. अँग्रेज यहाँ शासन करने के उद्देश्य से आये थे, उनका यहाँ या किसी अन्य देश से भी वापस जाने का इरादा नहीं था. इसीलिए उन्होंने जहाँ भी राज किया वहाँ के इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया. शिक्षा भी वो ऐसी देना चाहते थे जो उनके अनुसार और उनके लिये उपयोगी हो. इसके लिये उन्होंने हमारी शिक्षा प्रणाली पर ही आघात किया. अधिक दिन पहले की बात नहीं है, लगभग चार दशक पहले तक, इंजीनियरिंग के सेलेक्शन में अंग्रेजी में क्वालीफाई करने के बाद ही गणित-भौतिकी-रसायन की कॉपी चेक होती थी. जाहिर है हिन्दी मीडियम के वो ही छात्र इंजीनियरिंग में प्रवेश पाते थे जो समृद्ध घरों से सम्बन्ध रखते थे. यही हाल मेडिकल में भी रहा होगा. उच्च शिक्षा की किताबें तो आज भी अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध हैं. जिस देश को अपनी भाषा पर गर्व न हो उस देश की अस्मिता को दूसरे देश भला क्यों मान्यता दे. आज़ादी के बाद देश की बागडोर समृद्ध घरों की अंग्रेजी में पढ़ी-बढ़ी पौध के हाथों में स्वतः आ गयी. ये पीढ़ी अंग्रेजों के मूलभूत सिद्धांतों और मान्यताओं पर ही चल निकली. विज्ञान भी वही मान लिया गया जो अंग्रेजी में उपलब्ध था बल्कि ये कहना उचित होगा कि अंग्रेजी को ही विज्ञान मान लिया गया. जो भी अंग्रेजी में छप गया वो ब्रह्मवाक्य हो गया. देश की पुरातन ज्ञान परम्परा को हमारे ही नव शिक्षित-दीक्षित लोगों ने ओब्सोलीट (अप्रचलित) मान लिया.
बाबा जी को मैं लगभग 1996 से फ़ॉलो कर रहा हूँ. जब ये आस्था चैनेल पर दो घन्टे हायर करते थे. तब भी इनका प्रोग्राम सुबह पाँच से आरम्भ हो कर सात बजे तक चलता था. तब इनका मुख्य विमर्श योगासन-प्राणायाम और इनसे होने वाले स्वास्थ्य लाभ पर हुआ करता था. अलग-अलग शहरों में इनके शिविर लगा करते थे जिनका सीधा या रिकोर्ड किया हुआ प्रसारण बिना नागा 365 दिन आया करता था. बाद में अपने सहपाठी के साथ मिल कर इन्होने आयुर्वेद को प्रतिष्ठित करने का भी काम किया. धीरे-धीरे इनकी लोकप्रियता बढ़ती गयी. इन्होने न सिर्फ चैनेल ख़रीदा बल्कि आयुर्वेदिक दवाओं का काम भी आरम्भ कर दिया. इनका उद्देश्य आज भी अपनी दवाएं बेचने का नहीं होता. ये आज भी आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनाने की पूरी विधि बताते हैं. हाँ यदि आपको बनाने में झन्झट लगे तो इनकी फार्मेसी दवाइयाँ भी बनाती हैं. हर शहर में इनके स्टोर्स हैं जिनके माध्यम से ये दैनिक उपयोग की सभी वस्तुओं को उपलब्ध कराते हैं. बताने वाले तो ये भी बताते हैं कि इन्होने ऋषिकेश में गंगा के किनारे से 10-20 चेलों के साथ शुरुआत की थी. आज लोग इन्हें लाला बोलने से नहीं चूकते लेकिन इन्होने योग-प्राणायाम-आयुर्वेद को विश्व में अहम् स्थान दिलाने के लिये अथक संघर्ष किया है. पूरी दुनिया बाबा का लोहा मान रही है. अफ़सोस की बात तो ये है कि जो नहीं मान रहे हैं वे अपने ही लोग हैं, जिन्होंने अंग्रेजी में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पढ़ा है और अपनी पुरातन चिकित्सा पद्यति के बारे में जानने का प्रयास भी नहीं किया है. बाबा का संघर्ष कम हो सकता था यदि आधुनिक मेडिकल साइंस के जानने वाले आयुर्वेद से होने वाले चिकित्सकीय लाभ की पुष्टि करें और उसका समर्थन करें. ऐसे शोध पत्रों को विदेशी जर्नल्स में अंग्रेजी भाषा में छपवायें. निश्चय ही जनकल्याण के इस मिशन के लिये उन्हें व्यावसायिक लाभ के चक्रव्यूह से बचना पड़ेगा.
मानव जीवन इलाज करने-करवाने के लिये नहीं मिला है. अन्य प्राणियों की तरह हमारा भी जीवन चक्र है. दवाइयों के सहारे सिर्फ जीवित रहना जीवन का उद्देश्य नहीं है. भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन, मन, शरीर और आत्मा से मिल कर बना है. अपने मन और शरीर को स्वस्थ रखना हर व्यक्ति की प्राथमिकता होनी चाहिये. नींद-भोजन-व्यायाम के बाद दवाइयों का नम्बर आता है. दवाई चाहे किसी भी पैथी की हों, उनका उपयोग आखिरी विकल्प होना चाहिए. यदि एलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेद तीनों चिकित्सा पद्यातियाँ मिल कर काम करें तो निसंदेह ही बहुत सी बीमारियों और उनके इलाज से बचा जा सकता है. कोरोना काल में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिसने काढ़ा न पिया हो चाहे वो कितना भी अंग्रेजी में पढ़ा-लिखा डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, वकील हो या न्यायाधीश. प्राणायाम-योग-ध्यान की महत्ता विश्व समझ रहा है. इतिहास बदला तो नहीं जा सकता लेकिन ठीक अवश्य किया जा सकता है. इसके लिये ये समझना आवश्यक है कि अंग्रेजी में लिखी सब बातें विज्ञान नहीं हैं और विज्ञान को इतना उदार बनना ही पड़ेगा कि नये और पुराने ज्ञान को आत्मसात कर सके.
-वाणभट्ट
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