मैं कमीज़ पहनता हूं तो जैसे कवच पहनता हूं
घर से निकलता हूं तो किसी युद्ध के लिए - देवी प्रसाद मिश्र
एक जमाना जब पढ़े-लिखे लोग कम थे, लेकिन वे सिर्फ़ लगते नहीं थे, वे वाकई पढ़े-लिखे होते थे. घर में ही अपने बच्चों को पढ़ा लेते थे, होम वर्क करा लेते थे. आजकल के पढ़े-लिखे पेरेंट्स की तरह नर्सरी के स्टूडेंट को पढ़वाने के लिए ट्यूशन नहीं लगवाते थे. जब से सर्वशिक्षा की अलख जगाने का प्रयास शुरू हुआ, हर किसी को लगा पढ़ना जरूरी हो गया है. फिर क्या, गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले, गांव-गांव स्कूल खुलने लगे. पहल सरकार की ओर से की गई. लेकिन शनै-शनै बाकी क्षेत्रों की तरह, शिक्षा के क्षेत्र में भी प्राइवेट घुस गया. बल्कि ये कहना ज़्यादा सही होगा कि प्राइवेट ने शिक्षा को टेकओवर कर लिया. देश की जनता को अपने ऊपर जितना कॉन्फिडेंस है, उतना अपनी सरकारों पर दस साल पहले तक नहीं था. अब लोग कह सकते हैं कि हवा का रुख़ देख कर वाणभट्ट ये कहना चाह रहा है कि देश को आजादी दस साल पहले ही मिली है, तो बता देता हूं, आप सही समझ रहे हैं. जब बिस्कुट में काजू दिखना चाहिए तो लेखक भला अपना समर्थन क्यों छिपाए. लेकिन मेरा समर्थन उसी सरकार के साथ रहता है, जो सत्ता में हो. चुनाव के दौरान लिखे इस लेख से, यदि मेरे दो-चार फॉलोवर्स के वोट भी पोलराइज हो गए तो इसे राष्ट्र निर्माण में मेरा सहयोग माना जाए. अगर दूसरे पार्टी सत्ता में आ गई तो राष्ट्रहित में मेरा समर्थन उसी के साथ रहेगा.
पढ़ाई की बाढ़ आई तो, स्कूल दर स्कूल खुलते गए. टीचर दर टीचर बनते गए. बच्चे दर बच्चे पढ़ते गए. बच्चे क्या बच्चों के मां-बाप भी ग्रेजुएट नहीं तो साक्षर तो हो ही गए. जिसका हाईस्कूल शहर से न हो पाए वो रिमोट गांव के उस स्कूल से बोर्ड का फॉर्म भर देते, जो 100 प्रतिशत पास कराने की गारेंटी लेते थे. जब हाईस्कूल और इंटर बच्चा बिना पढ़े कर लेता है तो उसके पास ज्ञान का भले अकाल हो लेकिन कॉन्फिडेंस कूट-कूट कर भरा होता है. मोर स्टडी, मोर कन्फ्यूजन, नो स्टडी, नो कन्फ्यूजन. ये मुहावरा ऐसे ही लोगों के लिए गढ़ा गया होगा. हालत तो ऐसे हो गए हैं कि समझदार की मौत है जैसे मुहावरे भी प्रचलित हो गए. हद तो तब हो गई जब लोग कहने लग गए कि लगते तो समझदार हो. मतलब बन्दा ये एहसास दिला देता है कि लग तो रहे हो पर हो नहीं. कॉन्फिडेंस की वैसे ही देश में कोई कमी नहीं थी, उस पर मोटिवेशनल स्पीकर्स की भी बाढ़ आ गई. अपना डिप्रेशन दूर करने के चक्कर में इन्होंने ओशो से लेकर शिव खेड़ा तक सब साहित्य पढ़ डाला. जब आईएएस की कोचिंगों में पढ़-पढ़ कर के लोगों ने कोचिंग संस्थान स्थापित कर डाले, तो ये भी क्या अपने साहित्य का अंचार डालते. इन्होंने भी पीडी क्लासेस खोल डालीं. पीडी यानी पर्सनालिटी डेवेलपमेंट. हमारे इंजीनियरिंग कॉलेज के जो लड़के होम साइंस कॉलेज के इर्द-गिर्द नजर आया करते थे, उनकी पर्सनालिटी पढ़ाकू मग्घों से अलग होती थी. आज भी उन्होंने दुनिया हिला रखी है और वो रोज-रोज सफलता की नई-नई गाथाएं लिख रहे हैं (पे पैकेज के रूप में). बाकी मग्घू टाइप के लड़के कहीं कोने-अतरे में अध्यापन और शोध टाइप के कामों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
एक जमाने में बच्चों को डॉक्टर और स्कूल जाने से डर लगा करता था. डॉक्टर सूई लगाता था और टीचर पिटाई. डॉक्टर और टीचर दोनों ही बच्चों की भलाई ही चाहते थे. पढ़ाने के लिए मास्टर जी को पिता जी की तरफ से पूरी छूट थी, जैसे चाहे वैसे पढ़ाए. लेकिन पढ़ाने में किसी प्रकार की कमी नहीं होनी चाहिए. सो मास्टर जी भी कक्षा के बच्चों को अपना ही बच्चा मानते और उसी तरह ठोंकते जैसे घर पर पढ़ने के लिए पिता जी. टीचर लोग पूरे अभिवावक की तरह ख्याल रखते थे. बच्चा स्कूल में लफंगई भी करता तो जम के ख़बर ली जाती. बच्चा पिता जो को बता भी नहीं पाता कि मास्टर साहब ने क्यों पीटा. पढ़ने-पढ़ाने का ऐसा माहौल था कि शुरुआत में बच्चों को स्कूल जाना बहुत अखरता था. चीख-चीख के पास-पड़ोस सर पर उठा लेते थे. लेकिन घर वाले पढ़ाने पर आमादा रहते. पढ़ाने-पढ़ाने का इतना शौक लोगों में जगा कि देखते ही देखते देश में पढ़े-लिखों की बाढ़ आ गई. हाल तो ऐसा हो गया कि अनपढ़ और मजदूर टाइप के लोग भी अपने को इनसे ज्ञानी मानते. मौका देख के बोल ही देते कि शक्ल से तो पढ़े-लिखे लग रहे हो. लगने और होने में हमेशा अन्तर रहा है. गदहा, घोड़ा लगता है जबकि घोड़ा, घोड़ा होता है. पहले स्कूल सरकारी ही हुआ करते थे, लेकिन सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को अन्दर की बात मालूम होती है. इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को कॉन्वेंट और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना शुरू कर दिया. और प्राइवेट वाले तो पहले से ही पैकेज के रौब में थे. नतीजा आपके सामने है. प्राइवेट स्कूल, स्कूल न हो कर कॉरपोरेट इंडस्ट्री बन गए हैं. उनकी आलीशान बिल्डिंगों को देख कर लगता है कि कोई पांच सितारा होटल है. लगता है, लेकिन हैं ये स्कूल ही.
समय के साथ पीढियां बदल जाती हैं. इंडस्ट्रियल स्कूलों-कॉलेजों से थोक के भाव निकले पढ़े-लिखे, कॉन्फिडेंस से लबरेज लोग, आज आत्मकेंद्रित हो गए हैं. हड़बड़ी इतनी है कि उसे जीवन की हर रेस में सबसे आगे रहना है और सबसे तेज चलना है. नियम-कानून तो उनके लिए है, जिनमें कॉन्फिडेंस की कमी हो या जो स्मार्ट कम हों. एक जीवन में बहुत कुछ कर गुजरना है. समय बहुत कम है. बस एक जीवन. मार्केट घर में घुसा पड़ा है. एक लेटेस्ट मोबाइल खरीदते हैं तो अगले दिन कम्पनी उससे अच्छा मॉडल लॉन्च कर देती है. मामला स्टेट्स का होता है, भला मेरी कार तुम्हारी कार से छोटी क्यों. इतने गैजेट्स और अप्लायंसेज आ गए हैं कि दोनों काम करें तभी सब खरीद सकते हैं. खरीदते-खरीदते हाल ये हो जाता है कि घर छोटा पड़ जाता है. फिर और बड़ा मकान. सारी की सारी कहानी अर्थशास्त्र के चारों ओर घूमती रहती है. वन टू का फ़ोर करने में जब लोग लग जाते हैं तो क्या अपने, क्या पराए, हर जगह आपको अपने आस-पास के लोगों से आगे रहना है. जब तक साथ रहने-चलने की बातें थीं तो यारी-दोस्ती-रिश्तेदारी में गणित नहीं चलती थी. क्या घर- परिवार और क्या बाहर, अब तो हर समय एलर्ट मोड में रहना पड़ता है. हर समय लगता है कि कहीं न कहीं कोई न कोई अपने सेल्फ प्रमोशन के लिए साजिश कर रहा है. पढ़े लिखे लोग किसी से पीछे नहीं रह सकते, इसलिए येन-केन-प्रकारणेंन वो चाल भी चलेगा और दांव भी लगायेगा. घर हो या बाहर, हर किसी को लगता है कि वो बिग बॉस के घर में है, साथ में सब हैं भरोसे का कोई नहीं.
- वाणभट्ट
पुनाश्च: यूनिकोड टाइपिंग में आप चंद्र बिंदु नहीं लिख पाते. ये की जगह ए ने ले ली है. हिन्दी अख़बारों को पढ़ कर हिन्दी सुधारने से रही. ये यूनिकोड की हिन्दी सबकी हिन्दी खराब कर देगी.
सही कहा है आपने कि आज मार्केट घर में आ गया है। इतने गैजेट्स और अप्लायंसेज आ गए हैं कि कि घर छोटा पड़ जाता है. हमारे यहाँ भी यही हाल है। मोदी जी ने मेक इन इंडिया की धूम मचा दी है, एक से बढ़कर एक शुद्ध भारतीय नये गेम्स बन रहे हैं। बेटे जी को नये-नये बोर्ड गेम्स ख़रीदने का शौक़ है, खेलने के लिये समय चाहे न हो।
जवाब देंहटाएं"लगने और होने में हमेशा अन्तर रहा है. गदहा घोड़ा लगता है जबकि घोड़ा, घोड़ा होता है. " सारा सार इसमें अन्तर्निहित हो गया है | हा हा |
जवाब देंहटाएंलेख में तारतम्य की कमी महसूस हो रही है,न जाने क्यों?
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