शनिवार, 29 अप्रैल 2023

अंतिम संस्कार

अंतिम संस्कार 

वर्मा पीपल के एक पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर पहुँच के उल्टा लटक गया. कैम्पस में बहुत से पीपल के पेड़ बिना प्लानिंग के उग आये थे. चूँकि पीपल में देवी-देवताओं का वास होता है इसलिये श्रद्धा के कारण कोई उसे हटाने को तैयार न था. पाप का भागी कौन बने. सरकारी कैम्पस किसी की व्यक्तिगत प्रॉपर्टी तो होती नहीं. अपना घर-जमीन हो तो मट्ठा डाल-डाल के निकालें. अब आलम ये है कि-

उग रहा है दर-ओ-दीवार पर सब्जा 'ग़ालिब'

हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आयी है 

जुम्मा-जुम्मा आठ साल ही हुये थे, वर्मा को रिटायर हुये. घर-बार-परिवार आज जो कुछ भी उसके पास था, उसके पीछे एक अदद नौकरी का होना ही मुख्य कारण था. वरना दिल के अच्छे और सच्चे लोगों से की दुनिया में कोई कमी है क्या. लेकिन क्या मजाल कि कोई लड़की या लड़की का बाप ऐसे इंसान को अपना पति या दामाद, क्रमशः, बनाने को तैयार हो. नौकरी लगना अपने आप में एक लॉटरी है. जहाँ एक-एक, दो-दो नम्बर से सफलता चूक जाती हो, वहाँ सफलता का श्रेय अपनी कड़ी मेहनत को देना और असफलता का ठीकरा भगवान की मर्ज़ी पर फोड़ना ही नियत बन जाती है. और सबसे बड़ी बात ये थी कि माशाल्लाह वर्मा की शुद्ध सरकारी नौकरी थी. जब तक प्राइवेट में काम करता रहा, वर्मा को ख़ुद ही डाउट हुआ करता था कि शादी होगी भी या नहीं. लड़की वाले इंजीनियर समझ कर आते थे और प्राइवेट के नाम पर मुँह पर ही मुँह बिचका के चले जाते थे. बाद में कितने ही प्रपोजल सिर्फ़ इसलिये आये कि वर्मा के पीछे सरकार खड़ी थी. ये बात तब की है जब प्राइवेट कम्पनियों में पैकेज का दौर शुरू नहीं हुआ था. लड़कियाँ भी स्मार्ट से ज़्यादा लल्लू टाइप के भरोसेमन्द लड़कों को पसन्द करती थीं, जो उनके हिसाब से दिन को रात और रात को दिन बता सके. इस प्रकार उनके घर-बार की स्थापना हुयी. समय के साथ परिवार और समृद्धि में वृद्धि होनी ही थी और हुयी भी. अब उनको काफी हद तक सुखी कहा जा सकता था.  

चूँकि उनके सब कुछ का आधार नौकरी ही थी, इसलिये उन्होंने 'कर्म ही पूजा है' का स्लोगन अपने ऑफिस में अपनी कुर्सी के पीछे लगा रखा था. जिससे हर आने वाला उसे बिना मिस किये पढ़ सके. जिसका नज़रिया सरकारी नौकरी में भी ऐसा हो, वो व्यक्ति कितना महान होगा. वैसे वर्मा कर्मठ व्यक्ति था भी. लेकिन सिर्फ़ कर्मठ होने से काम नहीं चलता. अपने को कर्मठ सिद्ध करने के लिये हर समय मथे रहिये कि आप कर्मठ हैं (और बाक़ी सब निकम्मे). मार्केटिंग का जमाना कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. सेल्फ़ प्रमोशन के लिये जो भी करना हो, करना चाहिये. भविष्य के इतिहास के जिस हिस्से को हम जी रहे हैं, उसे देख कर सहज आभास हो जाता है, जब महान लोग जीवित रहे होंगे, तो उन्हें लोगों की कितनी आलोचना झेलनी पड़ती होगी. और लोग अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप उन्हें कितने हल्के शब्दों से नवाज़ते रहे होंगे. वो तो तब कैमरे और न्यूज़ चैनेल्स नहीं थे, बस प्रिन्ट मीडिया हुआ करता था और पढना सब जानते नहीं थे. आज के इतने खुले वातावरण में जब मीडिया को गोदी में बैठाया जा सकता है तो तब का इतिहास भी आकाओं के हिसाब से लिखवाया गया होगा. चूँकि वर्मा को उस जमाने में काफी रगड़-घिस के नौकरी मिली थी, तो वो उसके महात्म्य को भली-भाँती समझता था. जो भी जिम्मेदारी मिलती थी उसे यथायोग्यता अनुसार पूरी करने का प्रयास करता था. एक कहावत है 'जहाँ गधे पर नौ मन वहाँ एक मन और' भी डाल दो तो वो चीं नहीं करेगा. जिम्मेदारी निभाते-निभाते वर्मा का हाल वैसा ही हो गया था. सारे थैंकलेस टाइप के कामों के लिये वो हमेशा डिमाण्ड में रहता. ऑफिस के चक्कर में उसने घर को घर नहीं समझा. जाने का तो टाइम था लौटने का कोई पुरसा हाल नहीं. ज़िन्दगी ऐसे ही चलती रही और वर्मा को कभी कोई शिकायत रही हो, ऐसा भी न था. साठ साल की उम्र में जब वो रिटायरगति को प्राप्त हुआ तो उसके बॉसों ने उन पर कशीदों की झड़ी लगा दी. उनके बिना एक निर्वात खड़ा होने वाला था. उसकी पूर्ति कैसे होगी. एक बारगी तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि क्या वो वाकई इतना अच्छा आदमी था, जितना बताया जा रहा था.

लेकिन ये तो समय चक्र है जो नौकरी में आया है, वो साठ का होते ही जायेगा, चाहे वो कितना भी स्वस्थ और एक्टिव हो. कर्मयोगी लोग रिटायर्मेंट के बाद अक्सर इसीलिये बीमार हो जाते हैं कि पूरे दिन में इतना समय है, करें तो करें क्या. रिटायर्मेंट के एक दिन पहले तक इतने व्यस्त रहे कि पूजा-अर्चना-योग-ध्यान और शौक के लिये समय ही नहीं था. अब रोज उठते हैं तो देखते हैं पूरा दिन पहाड़ की तरह सामने खड़ा है. कितना टहलें, कितनी सब्जी लायें. बच्चे सब बंगलौर-पूना-कनाडा-अमरीका निकल लिये. जब तक बच्चों के बच्चों को बस्ते नहीं टंगे थे, दादी-बाबा को लगता था, मूल का सूद ही अब उनके जीवन का मकसद है. लेकिन बस्ता टंगते ही थ्री बीएचके फ्लैट्स में जगह की कमी हो जाना स्वाभाविक सी बात है. टिन्कू को एक अपना अलग स्पेस चाहिये और यदा-कदा आने वाले आगंतुकों के लिये गेस्ट रूम. पापा हर समय टिन्कू को टीवी में घुसाये रखते हैं और मम्मी के लाड ने तो टिन्कू को बिगाड़ रखा है. जब तक शरीर स्वस्थ था, तो वर्मा जी साल में चार बार बच्चों के यहाँ चक्कर काट आते थे. लेकिन पिछले विजिट में उन्हें ये आभास हो गया कि उनके रहने से टिन्कू की पढायी डिस्टर्ब होती है. वो अपने बनाये मकान और अपने कर्मक्षेत्र वाले शहर वापस आ गये. पुराने यार-दोस्तों के बीच कुछ समय सब ठीक चला. उसके बाद जो उन्हें हुआ उसे बीमारी नहीं कहा जा सकता. डिप्रेशन से बचने के लिये योग-प्राणायाम की जगह बच्चों के सजेशन पर डॉक्टरों की सलाह ले ली. लेकिन जैसे-जैसे दवा करते गये मर्ज बढ़ता ही गया. कुछ दिन आईसीयू में बीते.

आज वो बहुत हल्का महसूस कर रहे थे. 'गाईड' की वहीदा रहमान की तरह जीने की तमन्ना और मरने का इरादा साथ-साथ कुलाँचे मार रहा था. आईसीयू से उनके शरीर को बाहर कर दिया गया था. बच्चे आये. जल्दी में थे. तीन दिन में सभी संस्कारों को समाप्त करके सब निकल गये. पत्नी को भी साथ लेते गये कि मम्मी का मन बदल जाये. बच्चों का माता जी के प्रति प्रेम और सम्मान वर्मा को खुश कर गया. तेरह दिन तक तो आत्मा अपने घर में ही रहती है इसलिये वो वहाँ रहे.

वापस चलने ही वाले थे कि उन्हें ध्यान आया, सोने के समय को छोड़ दें तो जागते हुये समय का अधिकांश समय तो उसने ऑफिस में ही बिताया है. वही ऑफिस जिसके लिये उनका दिल-औ-जाँ समर्पित हुआ करती थी. वहाँ भी तो कोई संस्कार बाक़ी होगा. लोग बाग हैं कि बस फ़ेसबुक और वाट्सएप्प पर आरआईपी और ओम शांति से काम चलाना चाहते हैं. वो आ गये और तब से उल्टे लटके पड़े हैं, पीपल के पेड़ की सबसे ऊँची टहनी पर कि कन्डोलेंस हो जाये तो चलें.          

-वाणभट्ट 

2 टिप्‍पणियां:

  1. 👌👌👏👏 “…चूँकि वर्मा को उस जमाने में काफी रगड़-घिस के नौकरी मिली थी, तो वो उसके महात्म्य को भली-भाँती समझता था. जो भी जिम्मेदारी मिलती थी उसे यथायोग्यता अनुसार पूरी करने का प्रयास करता था. एक कहावत है 'जहाँ गधे पर नौ मन वहाँ एक मन और' भी डाल दो तो वो चीं नहीं करेगा. जिम्मेदारी निभाते-निभाते वर्मा का हाल वैसा ही हो गया था….” Enjoyed 😃 I didn’t know you are such a good writer. Pintoo told me about Vanbhatt 🙏🙏

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  2. पीपल के पेड़ का महत्व बहुत सुंदरता से वर्णित किया है। सुंदर लेख।

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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