मुस्कुराइये आप लखनऊ में हैं
उस दिन एबिडेमी का चेहरा कुछ मायूस सा लग रहा था. रात तो अच्छा भला छोड़ के गया था. उसका मूड सातवें आसमान पर था. गेस्ट हाउस की सब्जी-रोटी-दाल की जगह मुर्ग-मुसल्लम का डिनर, वो भी कॉकटेल के साथ. उसकी कई दिनों की पेंडिंग मुराद पूरी जो हो गयी थी. कुछ दिन पहले ही उसका भारत आना हुआ था. नॉलेज एक्सचेंज प्रोग्राम की तहत, नाइजेरिया से. इस एक्सचेंज प्रोग्राम के साथ-साथ उसे उम्मीद थी कि कुछ भारत देखने को भी मिलेगा. अकेले आया था. नया देश, नये लोग और नया खान-पान. उसके आने से पहले ट्रेनिंग कोऑर्डिनेटर ने एक नॉलिजियेबल प्रोग्राम बना दिया था. बहुत ही टाइट शेड्यूल था कि बन्दा लौटे तो ज्ञान का कोई कोना छूट न जाये. हफ़्ते भर क्लास-प्रैक्टिकल-इंडस्ट्री विज़िट और सन्डे-सन्डे उसके इंटरटेन्मेंट के नाम पर आस-पास के टूरिस्ट प्लेसेज़ का भ्रमण. ये बात अलग है कि हमारे यहाँ देशाटन से ज़्यादा तीर्थाटन की सम्भावना है. बेचारा मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च में माथा टेक-टेक के हैरान हो गया. बा-मुश्किल 25 साल के युवा ने ऐसी भयंकर ट्रेनिंग की कल्पना भी नहीं होगी.
उसके साथ मुझ जैसे खड़ूस आदमी को अटैच कर दिया गया. जो न खाये, ना खिलाये. जो न पिये, ना पिलाये. उस समय तक मुस्कुराने की आदत भी कम थी. हाँ, दिल का तब भी बहुत अच्छा था, जैसे कि हम सभी हिन्दुस्तानी होते हैं, दिल के अच्छे-सच्चे-साफ़. क्योंकि राज कपूर साहब बरसों पहले फरमा गये थे कि इस देश के लोग इसलिये सच्चे और साफ़ हैं क्योंकि सिर्फ़ इसी देश में गंगा बहती है. और गंगा जी हैं तो सारे पाप धोने का प्रावधान भी है. लेकिन ये बातें अगर आचार-व्यवहार और चेहरे से न झलके तो किसी को कैसे पता चले. अच्छे दिल वाली बात सिर्फ़ मुझे ही पता थी. दूसरे पता नहीं क्या सोचते हों मेरे बारे में. शायद घमण्डी-धूर्त-चालाक-मतलबी, नहीं पता. अन्फ्रेंडली टाइप के लोगों के विषय में शायद मेरे विचार भी कुछ ऐसे ही होते. एबिडेमी की ये ट्रेनिंग सरकार की ओर से प्रायोजित थी. जिसके लिये एक बजट निर्धारित था. ये भी हो सकता है कि हमारे विश्विद्यालय ने इस ट्रेनिंग के लिये फीस निर्धारण किया हो. उसमें अपने यहाँ उपलब्ध सुविधाओं के हिसाब से ट्रेनिंग ख़र्च का आँकलन लगाया गया हो. आते ही उसे आम स्टूडेंट समझ के विश्वविद्यालय के गेस्ट हॉउस में रख दिया गया. सात फुट के करीब लम्बाई वाले व्यक्ति का भारतीय एवरेज लम्बाई के बेड पर अटक पाना कठिन था. अगले ही दिन जब मैं उससे मिलने गया तो देखा गद्दा जमीन पर आ चुका था.
हफ़्ते भर तक गेस्ट हॉउस का शुद्ध शाकाहारी भोजन कर-कर के एबिडेमी की हालत बिगड़ चुकी थी. मेरा अन्फ्रेंडली, बिना मुस्कुराहट वाला चेहरा देख के उसकी कुछ कहने या डिमाण्ड करने की इच्छा भी नहीं हुयी होगी. दूसरा शनिवार आते-आते उसका सब्र टूट सा गया. उसने धीरे से कहा 'डू यू पीपल ऑलवेज़ ईट वेजेटेरियन फूड्स'. सद्भावना के तौर पर मुझे बताना पड़ा कि नहीं ऐसा नहीं है. 'वी हैव वेरी वाइड रेंज ऑफ़ नॉन-वेज डिशेज़. बट इन द गेस्ट हाउस एंड द पैकेज फ़ॉर योर ट्रेनिंग, देयर इज़ प्रोविज़न फ़ॉर वेजिटेरियन मील्स ओनली'. उसके चेहरे के हाव-भाव से लग रहा था कि बहुत बड़ी गलती कर दी यहाँ आ कर. पता नहीं कहाँ फँस गया. मेरा गुडनेस ऑफ़ हार्ट जागने लगा था. पहले थोड़ा सा मुस्कुराया, फिर खुल के मुस्कुराया. वो भी मुस्कुराने लगा. मैंने उससे कहा - भाई पहले बताना था. उसने छूटते ही कहा कि भाई तुम्हें पहले मुस्कुराना था. आइस ब्रेक होने की शुरुआत हो चली थी.
यहाँ एक से एक नॉनवेज रेस्टोरेंट्स हैं. मैं इतना कर सकता हूँ कि लंच तो नहीं पर डिनर में बाकी बचे दिनों के लिये तुम्हें लखनऊवा हॉस्पिटैलिटी का आनन्द दिलाता हूँ. वापस जा के ये मत कहना कि कोई हिन्दुस्तान मत जाना नहीं तो लौकी-तरोई-टिंडे से तुम्हारा स्वागत होगा. यहाँ के व्यंजन खा कर तुम ख़ुद बार-बार लखनऊ आना चाहोगे. फिर क्या था. रोज शाम को पूरे के पूरे दस दिन तक लखनऊ के लज़ीज़ नॉनवेज का उसे आनन्द दिलाने में मुझे भी बहुत आनन्द आया. टुंडे कबाबी, दस्तरख़्वान, फ़लक़नुमा, करीम्स आदि का जो चस्का एबिडेमी को लगा तो वो इंडियन स्पाइसी फूड्स का दीवाना हो गया. उसके जाने में अभी चार दिन बाकी थे, जब उसने कुछ संकोच करते हुये बार के बारे में पूछा. मुझे ये तो मालूम था कि ढंग के बार-रेस्टोरेंट्स में पैग बहुत मँहगे पड़ते हैं. बाहर एक पेग की कॉस्ट में पूरा क्वार्टर आ जाता है. और ये भी पता था कि गेस्ट हॉउस की दीवारों पर लाल अक्षरों में बड़ा-बड़ा धूम्र और मदिरा पान निषेध लिखा हुआ था. ये भी अजीब विधान है कि यदि ग़लत काम छुप के किया जाये वो अपराध और खुले-आम डंके की चोट पर किया जाये तो आन्दोलन बन जाता है. अंग्रेजों की सरकार होती तो ये आन्दोलन भी मै कर गुजरता विदेशी मेहमान के लिये. लेकिन यहाँ अपने बाबा की सरकार रोकती-टोकती तो नहीं पर पकड़े जाने पर तोडती बहुत है. इस कर के उसकी या मेरी आन्दोलन करने कि हिम्मत नहीं हुयी. तय हुआ कि अपराध ही कर के देख लिया जाये. दिक्क़त ये थी कि दुकान से ख़रीदे कौन. पीता मै था नहीं. शहर में जानने वालों के बीच मेरी टी-टोटलर की इमेज को धक्का लगने की सम्भावना थी. यदि किसी ने देख लिया तो बची-खुची भी गयी. और ये भी पक्का था कि यदि एबिडेमी लेने गया तो दुकानदार अनाप-शनाप पैसे माँग सकता है. केयर टेकर लोग इस मामले में सहायक सिद्ध होते हैं, यदि उनका ख्याल कर लिया जाये तो. जो इन परिस्थितियों में गलत भी नहीं था. अपराध-भाव कुछ कम हो गया जब उसने बताया कि यहाँ आये नेशनल और इन्टरनेशनल अधिकांश लोगों को इस सुविधा की दरकार होती है. लोगों के घर से टूर पर निकलने का ये भी एक मुख्य कारण हुआ करता है. उनका इंतजाम उसे ही देखना पड़ता था. टुंडे के कबाब और रुमाली रोटी, और करीम के मुर्ग-मुसल्लम के साथ स्कॉच और रम के कॉकटेल के साथ एबिडेमी ने अपना यादगार डिनर किया. गेस्ट हॉउस अटेंडेंटस को भी उस रात अंग्रेजी से काम चलाना पड़ा.
जब एबिडेमी से पूछा कि - भाई आज क्यों बड़े मायूस से दिख रहे हो. तो उसने बताया कि सुबह जल्दी नींद खुल गयी तो मॉर्निंग वाक पर निकल गया. हर आदमी ऐसे देख रहा था, जैसे कि चिड़ियाघर से कोई जानवर निकल भागा हो. मैंने वेव किया, गुड मॉर्निंग की, स्माइल दी, लेकिन सब के सब घूरते हुये निकलते जाते थे.
देश की इज्जत का सवाल था. मैंने समझाने का प्रयास किया - इसमें कोई बड़ी बात नहीं है. तुम हो भी तो सबसे अलग. इतने लम्बे हो कि देखने वाले के सर की टोपी गिर जाये. हम लोग थोड़े रिज़र्व टाइप के लोग होते हैं. हम आर्टिफिशियल तरीके से मुस्कुराना नहीं जानते. हमें इस बारे में न बताया जाता है ना सिखाया. पहले तुम भी मेरे बारे में पता नहीं क्या सोचते थे. एबिडेमी ने बताया कि हम लोग भी किसी अनजान को देख कर नहीं मुस्कुराते लेकिन जब आँखों से आँखें मिल ही जायें तो हेलो-हाय-गुड मॉर्निंग/इवनिंग कह के मुस्कुरा देने में कोई बुराई तो नहीं. लेकिन यहाँ लोग देख तो रहे थे पर रिस्पोंस बिल्कुल नहीं दे रहे थे. मुझे बड़ा अजीब लगा. उसे समझाने के लिये बताना पड़ा कि ये चिन्तकों-मनीषियों का देश है. यहाँ लोग देखते कहीं हैं और सोचते कुछ और हैं. लेकिन सब दिल के अच्छे हैं, बस प्रकट करना नहीं जानते.
उसे क्या बताता कि आजकल यहाँ यही लेटेस्ट ट्रेन्ड चल रहा है. बचपन में नमस्ते करना सिखाया जाता था. लेकिन उसमें इतना आदर-भाव निहित होता था, जितने आदर के लायक हर व्यक्ति नहीं होता. शनै-शनै लोगों ने नमस्कार अपना लिया क्योंकि इसके माध्यम से आप थोडा तिरस्कार प्रदर्शित कर सकते हैं. लेकिन उसमें भी कम्पटीशन है कि पहले कौन करे. यहाँ बाद में करने वाला ख़ुद को विजेता महसूस करता है. हम मुस्कुराते ही तब हैं जब हमारा किसी से कोई काम पड़ने वाला हो. अगला भी तभी मुस्कुरायेगा जब अगले को मालूम हो कि उसे आप से भी कोई काम पड़ सकता है. यदि ये मालूम हो कि आप से कोई काम नहीं पड़ना, तो खामख्वाह मुस्कराहट क्यों वेस्ट करनी. और कभी जब काम पड़ ही गया, तब मुस्कुरा भी लिया जायेगा. मुस्कराहट की डेप्थ से आप नाप सकते हैं कि किसका किससे काम पड़ने वाला है. जिसके चेहरे पर बत्तीसी दिखाऊ टूथपेस्ट के विज्ञापन वाली स्माइल हो, उसका काम पड़ने वाला है. और फीकी स्माइल वाला जानता है कि जरा सा ज़्यादा मुस्कुरा दिये तो ये अभी ही काम बता देगा. अगर कोई बिना कारण मुस्कुरा रहा है, तो समझ लो कुछ गड़बड़ है. कोई काम पड़ने वाला है. अनजान लोगों से तो कोई काम पड़ना नहीं, तो मुस्कुराना कैसा. सामने से निकलने वाले हर स्त्री-पुरुष को घूरते हुये चलना तो हमारी राष्ट्रीय बीमारी है. लेकिन क्या मजाल कि कोई मुस्कुरा दे या विश कर दे. मेरे एक पड़ोसी और उनकी पत्नी को नाती होने के उपलक्ष्य में बेटी-दामाद ने अमरीका का टिकट भिजवा दिया. न्यूक्लियर फ़ैमिली में, बच्चा जब तक सम्हल न जाये, दादी-बाबा-नानी-नाना की अहमियत बनी रहती है. उनके दो दिन वहाँ रहने के बाद ही एक शाम दामाद जी दो काले चश्मे लेकर ऑफिस से लौटे. बेटी ने धीरे से बताया कि जब आप लोग शोना को घुमाने ले जाते हैं तो ये चश्मे लगा के जाया कीजिये. जाने-अनजाने आप लोग जिसे देखते हैं, देखते ही रह जाते हैं. इसे यहाँ लोग बुरा समझते हैं. पड़ोसी का बच्चा हो या कुत्ता किसी को भी घूरने की जरूरत नहीं है. आप लोग इतनी जल्दी आदत तो बदल नहीं सकते इसलिये चश्मा लगा के निकला कीजिये.
कुछ आत्मनिर्भर टाइप के लोग भी होते हैं. जो लोग चाहते हैं कि ना वो किसी से काम लें और ना किसी के काम आयें, वो अन्तर्मुखी हो जाते हैं. न किसी की ओर देखते हैं, न मुस्कुराते हैं. सम्भवतः वे ही श्रेष्ठ प्राणी हैं.
-वाणभट्ट
रोचक
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