शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

 पिलर 


आपने लोगों को बूढा होते ज़रूर देखा होगा लेकिन मैंने देखा है, एक पूरे के पूरे मोहल्ले को बूढा होते. सन चौहत्तर की ही तो बात है, कोई सदी नहीं गुजरी है, जब पापा ने इलाहाबाद विकास प्राधिकरण से 99 वर्षों की लीज़ पर जमीन खरीदी थी. विकास के नाम पर सड़क जैसे कुछ रस्ते से बना दिये गये थे. बिजली के पोल के गड्ढे हमें उतनी ख़ुशी दे कर जाते थे, जितनी आज 24x7 आती हुयी लाईट. सामने एक पार्क हुआ करता था, जिसमें पार्क जैसा कुछ नहीं था. फ्री होल्ड जमीन वाले निकटवर्ती लोग उसकी मिट्टी का उपयोग गारे के रूप में कर लेते थे. नतीज़ा गहरे-गहरे गड्डों का साम्राज्य हुआ करता था. जहाँ दिन में शहर भर के चरवाहे अपनी भैंस हाँक के लाते थे. हिन्दू बाहुल्य अल्लापुर इलाके का एक ही एन्ट्री पॉइंट था. जहाँ भैंसों और ऑफिस जाने वालों का टाइम मैच करता था - सवा नौ से साढ़े नौ. बस दिशायें अलग हुआ करतीं थीं. समय के पाबंद लोग नौ बजे के पहले ही निकल लेना उचित समझते थे. ऐसा ही सीन शाम को पाँच बजे के आस-पास भी होता था. जब सबको घर पहुँचने की जल्दी होती थी, तो कीचड़ से आच्छादित भैसों के लिये भी गोधूली की बेला होती थी. अल्लहड़ मस्ती क्या होती है, ये हम लोगों को बचपन में ही पार्क में भरे बरसाती पानी के गड्ढों में भैंसों की अटखेलियों से भली भाँती ज्ञात हो चुका था. एक हुनर में और हम लोग माहिर हो गये थे - कीचड़ से सनी भैंस की दुम से कितनी दूरी से बच के चलना है कि मम्मी से सनलाइट की बट्टी हमारे स्कूल यूनीफॉर्म्स को साफ़ करने में व्यर्थ न हो जाये. उन्हीं गड्ढों की वजह से हम दादुर-मोर-पपीहे की आवाज़ का अन्तर बन्द आँखों से बता सकते थे. उस ज़माने में दसवीं कक्षा में भाई साहब को बायोलॉजी में मेढक का डिसेक्शन करना होता था. पहली बारिश के मोह में जो राना टिग्रिना ख़ुशी-ख़ुशी टरटरा रहा होता, वही हमारा टारगेट बन जाता. जीव प्रेमी दादी और माता जी के चक्कर में भरी दुपहरी में छत पर मेंढक का ऑपरेशन वैसे ही होता जैसे आजकल ओ.टी. में इंसानों का होता है. बस फ़र्क इतना था कि हम पर उसे सिल के दोबारा खड़े करने की ज़िम्मेदारी नहीं होती थी.

पिता जी से जब कोई पूछता कि आपने लीज़ की जमीन क्यों ली, तो उनका टका सा जवाब होता - 99 साल में हम और हमारे बच्चों का काम तो हो जायेगा. उनके बच्चों के बच्चों की चिन्ता हम क्यों करें. जब हम जौनपुर से निकलने के बाद वापस नहीं जा पाये तो क्या बच्चे इलाहाबाद से निकलने के बाद वापस आ पायेंगे. उनकी दूरदर्शिता आम व्यक्ति को समझ न आती. एक नये मोहल्ले को पूरी तरह विकसित होने में 20 साल तो लग ही जाते हैं. तब तक बच्चे अपनी उड़ान भरने के लिये तैयार हो जाते हैं. सबने एक साथ मकान बनवाये, सबके बच्चे एक साथ बड़े हुये, सब एक साथ उड़े, सब लगभग एक साथ रिटायर हुये. हर घर में बचे तो बस मियाँ-बीवी. जो सिर्फ़ अपने बच्चों की उड़ान और उनके सपनों को ही जीने में लगे थे. आख़िर उनका यही तो इन्वेस्टमेंट था. बच्चे पढें-लिखें-बढें. बच्चों के सपने उनकी जमा-पूँजी थे. 

वो जमाना और था. तब सिविल इंजीनियरिंग इतनी विकसित नहीं थी. नींव में इंटों की चुनाई होती थी. मिट्टी के ढोले पर सरिया और ब्रिक्स की सहायता से छत ढाली जाती थी. सीमेंट कोटे से मिलती थी. ये बात अलग है कि तब सस्ते का ज़माना था लेकिन लोन की सुविधा कम होने के कारण लोग फुटकर में मकान बनवाते थे. चार कमरे का मकान एक-एक कमरे करके बनता था. कमोबेश मोहल्ले के हर व्यक्ति का यही हाल था. लोग दिखावे के लिये नहीं जरूरत के हिसाब से मकान में पैसा लगाते थे. पोर्च में लागत ज़्यादा आती थी इसलिये हम लोगों को ये भी आसानी से पता चल जाता था कि किसकी माली हालत कैसी है. लेकिन पूरा मोहल्ला एडीए के मानकों के अनुसार ही निर्माण करता था. सामने दस फिट और बगल में पाँच फिट छोड़ना अनिवार्य था. पीछे आँगन भी इस प्रकार आते थे कि चार आँगन आपस में मिल जाते ताकि सबको उनके हिस्से की हवा-पानी-धूप मिल सके. पिता जी ने दूरदर्शिता दिखाते हुये गेट पाँच फिट का बनवाया कि घर में कभी स्कूटर आये तो गेट बदलवाना न पड़े. शायद उस ज़माने में पैंतालिस-पचास हज़ार में घर बन गया था. लेकिन लोन उतारने के लिये घर में लौकी-सेम-करेला-तरोई-साग आदि आँगन में उगा लिया जाता था ताकि सब्जी का खर्च कम हो सके. पिता जी जो दो टाइम एक सब्जी नहीं खाते थे, महीनों लौकी और सेम पर काट दिया करते थे. लालटेन का शीशा कैसे साफ़ करना है और पढने के लिये केरोसिन लैम्प ज़्यादा उचित होता है. मिट्टी का तेल राशन कार्ड पर लाइन लगा के मिलता था. जब बिजली के पोल के लिये गड्ढे ख़ुद रहे थे, तो हम बच्चे खेल छोड़ कर वहीं खड़े रहते थे इस बात की तस्कीद करते कि कब तक ये काम हो जायेगा. उन्हीं गड्ढों में आइस-पाइस (बाद में पता चला उसे आई-स्पाई कहा जाता है) और चोर-सिपाही खेला जाता. ये बातें हमारे बच्चों को शायद ही पता चले.

सन 2003 में जब आवास विकास में सेमी-फिनिश्ड एमआईजी लिया तो वही स्थिति थी. एरिया डेवेलप हो रहा था. सड़क पर एक स्कूटर निकलती थी तो एक किलो धूल घर के अन्दर आ जाती थी. बिजली-पानी-सीवर सब था शायद पच्चीस सालों में कोलोनी को विकसित करके देने का रिवाज़ बन गया हो. पिता जी ने प्लाट ख़रीदा था और हमने अधबना मकान. किसी ने राय दी मकान जिंदगी में एक बार बनता है, किसी आर्किटेक्ट की मदद ले लीजिये. ये सब कुछ ऐसे तजुर्बे हैं जिन्हें करना जरूरी है, सो मैने भी एक आर्किटेक्ट महोदय से संपर्क किया. उन्होंने आते ही पिलर, सरिया और टाई बीम की बात शुरू कर दी. आजकल आरसीसी के बिना बिल्डिंग नहीं बनती. मकान लोहा-लाट होना चाहिये. उन्होंने स्ट्रक्चरल डिज़ाइन करवाने की सलाह दी. पूरा मकान पिलर और बीम पर बनेगा तो सैकड़ों साल तक चलता रहेगा. दादा कमाये पोता - बरते वाले अंदाज़ में. मैंने पूछा कि भाई बिल कौन देगा. मेरे खर्चे पर तो तुम ताजमहल बना दोगे. मेरे पास 6 लाख रुपया है और उसी में मुझे गृह प्रवेश भी करना है. उसने बताया स्टेट गवर्नमेंट का मकान है, सब प्लास्टर - व्लास्टर निकलवाना पड़ेगा नहीं तो जब आप रहना शुरू करेंगे, ये गिरना शुरू करेगा. मुझे अंदाज़ था कि यदि मै तोड़-फोड़ में लग गया तो शायद मेरी पूँजी कम पड़ जाये. मुझे पिता जी की नसीहत याद आयी. सौ साल मेरे और मेरे बच्चों के लिये काफी हैं. भाई तू नींव पर मकान बना सकता है, मुझे सरिया नहीं पिलानी. उसने कहा मेरा काम तो राय देना है, मानना न मानना आपके हाथ में है. वैसे आजकल कोई भी बिना पिलर और बीम के मकान नहीं बनवाता. ये बात मेरी समझ से परे है कि मकानों के निर्माण की कीमत सिर्फ़ इसलिये बढ़ जाये कि तकनीक उन्नत हो गयी है. आज आवश्यकता है कम लागत के मकानों की ताकि अधिक से अधिक लोगों को छत मिल सके. बहरहाल उसके सजेशन्स को नज़रंदाज़ करते हुये मै नियत पूँजी में अपने घर में प्रवेश कर चुका था. इंजीनियरिंग ड्राइंग मेरा पंसदीदा विषय था इसलिये मैंने अपने वास्तुकार महोदय के साथ एलिवेशन पर काम किया. मुझे भान था कि झोंपड़ी को भी ढंग से रंग और लीप-पोत दिया जाये तो वो सुन्दर लगने लगती है. पूरे मोहल्ले ने मकान को तोडा और फिर बनवाया. जब पैसा होता है तो फड़फड़ाता भी है. बीम और पिलर पर खड़े उनके मकान निश्चय ही मेरे मकान से कहीं ज़्यादा मजबूत होंगे. मजबूती के हिसाब से उन्होंने तीन-चार मंजिलें भी खींच डालीं. किराये की आय के उद्देश्य से. लेकिन एमआईजी मकानों में इतनी जगह कहाँ होती कि तीन कार और तीन स्कूटर खड़ी कर सकें. 

कुछ दिन पहले इलाहाबाद जाना हुआ. कोरोना के कारण लगभग दो वर्षों के बाद. पूरा मोहल्ला बूढा सा लगा. बहुत से मकान बिक चुके हैं. बहुत से मकान की स्थितियाँ ऐसी हैं मानो इश्तहार लगा है - ये मकान बिकाऊ है. जो मकान बिक चुके हैं, उनका नया मालिक पहले पुराने मकान को धराशायी करता है फिर पिलर और बीम पर लोहा-लाट मकान बनाने में जुट जाता है. इस उम्मीद में की शायद सात पुश्तें उस मकान का लुफ़्त उठायेंगी. तकनीक नयी आ गयी है तो जेब की परवाह किसे है. मकान मजबूत होना चाहिये अम्बुजा सीमेंट की तरह. पापा के मकान की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी. उस मकान और सामने के पार्क से कितनी ही यादें जुडी हुयी हैं. अब सामने का पार्क विकसित हो गया है. संघ की शाखा आज भी बदस्तूर ज़ारी है. जोगर्स ट्रैक बन गया है. ओपन जिम और झूले लग गये हैं. लेकिन दिन भर खेलने वाले वो जुनूनी बच्चे अब नहीं दिखते जो अपने हाथों से पिच और बैडमिन्टन कोर्ट बना डालते थे.  

जो भी मिला, यही पूछता - बेचने आये हो. तब महसूस हुआ माँ-बाप की तरह मकान भी बूढ़े हो जाते हैं. वो भी बच्चों के आने की बाट जोहते हैं. बिना पिलर का पापा का मकान अभी भी पूरी मजबूती से खड़ा है. पास ही एक मकान को गिरा कर एक मजबूत ईमारत का निर्माण प्रगति पर था. मित्र से एक ठेकेदार का इंतजाम करने को कहा. उसे घर की मरम्मत और रंगाई का काम करने को बोल कर मै यार-दोस्तों से मिलने निकल गया. किसी ने सही कहा है - इलाहाबाद छूटता नहीं है और छूट भी जाये तो छोड़ता नहीं है.

- वाणभट्ट 

3 टिप्‍पणियां:

  1. लेख अच्छा है,भाषा सहजता से परिपूर्ण है। विचारों में वास्तविकता एवं स्वाभाविकता का प्रवाह है। परन्तु भैसों और आफिस जाने वाले कर्मचारियों के अतिरिक्त अल्लापुर में बहुतायत से पाए जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के शाम और रात के जमघट का उल्लेख किये बिना लेख अधूरा सा लगा।
    Regards
    Satnam Singh

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    1. बात सन चौहत्तर की है...जब मटियारा रोड पर गिनती की दुकानें थीं...तब शाम से सन्नाटा हो जाता था...छात्र कम हुआ करते थे...😊

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  2. पापा का मकान भी तो छूटता नहीं है और छूट भी जाये तो छोड़ता नहीं है, बहुत सुंदर, बहुत मार्मिक

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