शनिवार, 31 जुलाई 2021

 फटा जूता

इस चित्र को देख कर कतिपय ये लगता है कि कलम का धुरन्धर पुरोधा अपने जीवन में कितना सीधा और सरल रहा होगा. प्रेमचन्द जी की इस दुर्लभ फोटो पर परसाई जी का एक लेख भी है 'प्रेमचन्द के फटे जूते'. जिसमें उन्होंने मुंशी जी की सादगी का भव्यता से वर्णन किया है. वो हर घन्टे सेल्फी खींचने का ज़माना तो था नहीं. एक्स-रे की तरह फोटो प्लेट्स लगा करती थीं. कैमरा ऐसा कि जिसमें फ़ोटोग्राफ़र का पूरा धड़ घुस जाता था. कैमरे से चिड़िया निकलती थी और गलती से आपने चिड़िया नहीं देखी तो तय था कि फ़ोटोग्राफ़र आपको खा जाने वाली निगाहों से घूरेगा. उसकी एक प्लेट जो ख़राब हो गयी. फ़ोटोग्राफ़र के यहाँ टाई-कोट-कंघी-पाउडर सब उपलब्ध रहता था. स्टूडियो में वातानुकूलन की व्यवस्था नहीं हुआ करती थी. यकीनन उस दौर में फ़ोटो खिंचाना एक बड़ा इवेन्ट हुआ करता था. आज भी लोग कैमरे के आगे अपना सबसे अच्छा स्वरुप दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं. जिसके जबड़ों में मुस्कुराने से मोच आ जाती हो, वो भी फेसबुक पर अपनी मनमोहिनी मुस्कान बिखेरने को आतुर दिखायी देता है. प्रेमचन्द जी की ये फ़ोटो निश्चित रूप से स्टूडियो की तो नहीं होगी. वर्ना बैकग्राउंड में ताजमहल बना होता. कोई फ़ोटोग्राफ़र मित्र जो इनकी लेखनी का फैन रहा  होगा, उसने इनसे बहुत मिन्नतें करके भाभी जी के साथ पहले और शायद आख़िरी इस चित्र के लिये राजी किया होगा. जैसे सब लोग सबसे अच्छी पोशाक विशेष अवसरों के लिये बचा के रखते हैं, उम्मीद है मुंशी जी ने भी अपने सबसे अच्छे कपड़ों को धारण किया हो. ये उनके सबसे पसन्दीदा जूते रहे होंगे, जो कभी नये होंगे लेकिन बाबू जी ने उन्हें पहन - पहन के घिस मारा होगा. उन्हें शायद ये आभास नहीं रहा होगा कि फोटो में लोगों का ध्यान उनके चेहरे से ज़्यादा जूते पर जायेगा. उन्हें उम्मीद रही होगी कि फ़ोटोग्राफ़र ने जिस तरह फोटोशॉप करके ब्लैक एन्ड वाईट फोटो को कुछ कलर कर दिया है, उनके जूतों पर भी कुछ मुलम्मा चढ़ा देगा. या उन्हें लगा होगा की फोटो तो सिर्फ़ ऊपर की ही ली जायेगी. लेकिन यदि ऐसा अंदेशा होता तो वो जूता पहनते ही क्यों. अतः ये निष्कर्ष निकालना ज़्यादा उचित है कि उनके पास इससे अच्छे जूते नहीं थे, जो कि किसी भी कवि या लेखक की लेखन से अर्जित आय का द्योतक है. बहरहाल परसाई जी ने इस फोटो के बारे में लिख कर अपनी रचना को अमरत्व प्रदान कर दिया. जूतों की कमी उस ख्यातिलब्ध लेखक को अपनी निश्छल मुस्कराहट बिखेरने से नहीं रोक पायी. 

चीफ़ साहब ऑफिस के लिये तैयार हो रहे थे. बहुत सोचते-समझते हुये उन्होंने अपनी पुरानी घिसी हुयी पैंट और शर्ट निकाल ली. फ़ील्ड में तो एक दिन में ही कपड़ों का कबाड़ा निकल जाता है. फिर बारी थी जूतों की. कभी-कभी उबड़-खाबड़ जगहों पर पूरा दिन टहलना पड़ जाता था. सो उन्होंने फटने की कगार तक पहुँच चुके जूतों को इस उम्मीद में उठा लिया कि ये फटे तो फिर नया जूता पहनना शुरू किया जाये. आज उन्हें साईट पर भी जाना था, इसलिये जितना सम्भव था उतनी सिम्पल वेशभूषा में रहना ही श्रेयस्कर. ऐसा नहीं था कि उनके वार्डरोब में नये कपड़ों-जूतों की कमी हो. लेकिन आदत से मजबूर उन्हें लगता था कि ऑफिस के लिये नये कपडे ख़राब करने का कोई मतलब नहीं है. पर्सनालिटी से सम्बंधित एक जर्नल के में छपे शोधपत्र के अनुसार जूतों का पहले इम्प्रेशन में अहम् रोल होता है. पता नहीं ऑथर्स क्या कहना चाहते हैं कि इन्सान चेहरे से पहले जूता देखना पसन्द करता है. शोधपत्र कोई वेद-पुराण तो हैं नहीं कि उनके औचित्य पर कोई प्रश्न कर सके. आज के विद्वान जो अंग्रेजी में बोल-लिख दें, वही ज्ञान है. ऐसा नहीं मानने पर आपका अज्ञान परिलक्षित होता है.

चीफ़ साहब उस ज़माने के इंजीनियर थे जब कम्प्यूटर साइंस और इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी जैसी कोई ब्रांच नहीं होती थी. जब टॉप रैन्कर्स द्वारा सिविल ख़त्म हो जाती थी, तब इलेक्ट्रिकल और मेकैनिकल का खाता खुलता था. इंजीनियरिंग में सेलेक्शन के साथ ही रोजगार की गारेंटी हो जाती थी और सिविल इंजीनियरिंग के साथ सात पुश्तों के भरण-पोषण की आस बंध जाती थी. 'नमक का दरोगा' में वंशीधर के पिता के माध्यम से मुंशी जी ने उपरी आय को बहता स्रोत बताने में उस समय गुरेज नहीं किया तो अधिकांश छात्रों के सिविल प्रेम को सिर्फ देश निर्माण से जोड़ कर देखना कहाँ तक उचित होगा, ये बात मै अपने प्रबुद्ध पाठकों पर छोड़ता हूँ. गजटेड क्लास वन से नौकरी शुरू करके चीफ़ के रुतबे तक पहुँचना कोई हँसी-खेल तो था नहीं. सिस्टम में सिस्टम के हिसाब से फिट होना पड़ता है तब जा कर आउटस्टैंडिंग माना जाता है. कुछ लोग तो वार्षिक मूल्याङ्कन में उत्कृष्ट ग्रेड के लिये बॉस के चेम्बर के बाहर ही खड़े रहते हैं. कम्पटीशन ये रहता है कि यदि बॉस ने घंटी मारी तो चपरासी से पहले कौन पहुँचता है. अंग्रेजों के द्वारा इसे ही आउटस्टैंडिंग की संज्ञा दी गयी होगी - द पर्सन हू इज़ स्टैंडिंग आउट (ऑफ़ द रूम). इसके लिये तब तक सुर मिलाना पड़ता था जब तक मेरा और तुम्हारा सुर हमारा न बन जाये.         

प्रेमचन्द के लिये मज़बूरी थी कि उनके पास जो कपड़े थे, उन्हीं में वो सहज महसूस करते थे. फ़ैमिली फ़ोटो उन्हीं के हाथ आती जो उनको भली-भाँती जानते होंगे. अब घर की और उनकी माली हालात अपनों से कहाँ छिपी होती. पूर्णमासी के चाँद पर निर्भर न करने वाले चीफ़ साहब के केस में ऐसा न था. उन्हें दिखाना था कि इतने वरिष्ठ पद पर पहुँचने के बाद भी वो जमीन से जुड़े सादगी पसन्द इंसान हैं. उनके पास नियमित आय का बहता झरना तो था लेकिन उन्हें ऐसा प्रयास करना पड़ता था कि इष्ट-मित्रों को उनकी माली हालात पर शक़ बना रहे. इसीलिये उन्होंने तनख्वाह बढ़ने के बाद भी पुरानी मारुती 800 का पिंड नहीं छोड़ा था. सरकारी काम के लिये सरकार प्रदत्त वाहन मिला ही हुआ था. धन-दौलत अलमारियों में भरी रहे तो कॉन्फिडेंस बना रहता है. हर शहर में एक-दो मकान या प्लाट इसलिये जरूरी होता है कि हारी-बिमारी में काम आयेगा. इसलिये उनका फटीचर अन्दाज़ वैसे ही था जैसे शायरों ने सादगी को क़यामत की अदा बता रखा है. घिसे कपड़े और फटे जूते उनका मेकअप था, जिससे लोग असलियत को न भाँप पायें और यदि वो कहें कि उन सा ईमानदार व्यक्ति न धरा पर हुआ न होगा, तो लोगों को संशय बना रहे. 

मौका-ए-वारदात अर्थात साइट पर ठेकेदार अपनी एसयूवी लेकर पहले से ही मौज़ूद हो गया था. पता नहीं उसे कैसे पहले से ही पता चल जाता है कि साहब की गाड़ी आज किस दिशा में जायेगी. लिंटर की शटरिंग को खोला गया तो हॉल की छत बीच में विनम्रता से कुछ झुक सी गयी. चीफ़ साहब को समझते देर नहीं लगी की स्ट्रक्चरल डिज़ाइन में कुछ ज़्यादा ही छेड़-छाड़ हो गयी है. थोड़ी बहुत गुंजाईश तो हमेशा रहती है, लेकिन इतनी बड़ी गलती उनको बर्दाश्त नहीं थी. वो ठेकेदार पर बरस पड़े. उनके अन्दर का नौकरी करने वाला कर्मठ और ईमानदार अधिकारी जाग गया था. उन्होंने खरी-खरी सुना डाली. लेकिन आवेश में वो कुछ ऐसा बोल गये जो ठेकेदार को बुरा लग गया. वो भी तैश में आ गया - आप तब से बोले जा रहे हो मै सुन रहा हूँ. मेरे सामने ज़्यादा ईमानदारी का राग मत अलापो. मेरा सारा पैसा वाईट है जो डिपार्टमेंट ने मेरे एकाउन्ट में डाला है. मै एसयूवी भी लूँगा और ठसक से मँहगे कपड़े भी पहनूँगा. तुम दिखाते रहो अपनी दरिद्रता फटे जूतों में. 

हर विभाग में कुछ आउटस्टैंडिंग लोग होते हैं जो स्थिति की नज़ाकत देखते हुये नरम-गरम हो लिया करते हैं. कुछ लोग ठेकेदार पर पिल पड़े. कुछ ठन्डे के इंतजाम में लग गये. हजारों सालों की ग़ुलामी करने के बाद भी जिस देश में समझदार लोग अभी भी बहुतायत में हों, वहाँ मामला रफ़ा-दफ़ा होते देर नहीं लगती. तय हुआ कि बीच में एक बीम दे दो और फाल्स रुफिंग से तो सब छिप ही जाना है. 

-वाणभट्ट 

5 टिप्‍पणियां:

  1. कोई फ़ोटोग्राफ़र मित्र जो इनकी लेखनी का फैन रहा होगा, उसने इनसे बहुत मिन्नतें करके भाभी जी के साथ पहले और शायद आख़िरी इस चित्र के लिये राजी किया होगा.
    अतः ये निष्कर्ष निकालना ज़्यादा उचित है कि उनके पास इससे अच्छे जूते नहीं थे, जो कि किसी भी कवि या लेखक की लेखन से अर्जित आय का द्योतक है.
    उन्होंने फटने की कगार तक पहुँच चुके जूतों को इस उम्मीद में उठा लिया कि ये फटे तो फिर नया जूता पहनना शुरू किया जाये.

    आज के विद्वान जो अंग्रेजी में बोल-लिख दें, वही ज्ञान है. ऐसा नहीं मानने पर आपका अज्ञान परिलक्षित होता है.
    आउटस्टैंडिंग की संज्ञा दी गयी होगी - द पर्सन हू इज़ स्टैंडिंग आउट (ऑफ़ द रूम).

    हजारों सालों की ग़ुलामी करने के बाद भी जिस देश में समझदार लोग अभी भी बहुतायत में हों, वहाँ मामला रफ़ा-दफ़ा होते देर नहीं लगती.


    Gazab Gazab ka lekhan - vaah!

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  2. सुंदर, सार्थक रचना !........
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  3. Very nice.loved it.congratulations.🙏🙏

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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