रविवार, 25 जुलाई 2021

 जब मै जीता हूँ तो कहते हैं कि मरता ही नहीं, जब मै मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा 


प्रबुद्ध पाठकों, आप को लग रहा होगा कि किसी लेख का शीर्षक इतना बड़ा हो सकता है क्या. तो वाणभट्ट का कहना है कि - क्यों नहीं. जब एक से एक वाहियात विज्ञापन पेश हो सकते हैं, तो ऐसा वाहियात शीर्षक क्यों नहीं. आज रविवार का 'हिन्दुस्तान' सुबह हाथ में आया ही था कि पूरे फ्रन्ट पेज पर छपा विज्ञापन आँखों के सामने छा गया- 

आरक्षण नहीं तो गठबंधन नहीं

गौर करने की बात ये है कि 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' जो साथ ही आया था, उसमें ऐसा कोई इश्तेहार नहीं था. चुनाव की आहटें सुनाई देने लगीं हैं. जो लोग अब तक सत्ता के साथ बंधे हुये थे, उनके लिये भी अपनी रोटी सेंकने मुफ़ीद समय है. हल्ला मचाते रहो नहीं तो अपना ही वोट बैन्क सरक जायेगा. क्योंकि सारा का सारा चुनावी गणित जात-पात-सम्प्रदाय पर केन्द्रित है. जातिवादी नेताओं की विशेषता है कि उन्हें कम से कम अपनी बिरादरी के वोटों का ध्रुवीकरण करके रखना है. जब समाज संगठित होगा तभी बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ इन नेताओं को कुछ तवज्जोह देंगी. तो ये भैया लोग अपने वर्ग में ये सन्देश देने में लगे रहते हैं कि आपकी आवाज उठाने वाला सिर्फ़ मै ही हूँ. कहीं इधर-उधर दिमाग लगाया तो जैसे आज तक पिछड़े बने रहे, वैसे ही बने रहोगे. अमूमन व्यक्ति को अपने लिये ज़्यादा कुछ नहीं चाहिये होता. उसकी तो जैसे-तैसे कट गयी. लेकिन अपनी संतानों के लिये उसे संघर्ष करने में कोई गुरेज भला क्यों हो सकता है. अपने बेटे और बेटों के बेटे लाट-गवर्नर बन के घूमें इस स्वप्न को देखने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन इक्कीसवीं सदी में इस सपने की पूर्ति के लिये बीसवीं सदी का सस्ता-सुन्दर-टिकाऊ और टाइम टेस्टेड तरीका कहाँ तक उचित है, ये सोचनीय है और शौचनीय भी. 

हिन्दुस्तान के महापुरुषों ने सत्ता में बने रहने के लिये जातिगत व्यवस्था को हथकण्डे के रूप में अपनाया. भुनाया कहना, शायद ज़्यादा उपयुक्त हो. ये ऐसा चेक था और है जिसके बाउंस होने की सम्भावना न के बराबर है. प्रत्याशियों के चयन में प्रत्येक क्षेत्र में जाति-सम्प्रदाय की बहुलता को विशेष तरजीह दी जाती है. और स्वतन्त्र भारत की परतन्त्र मानसिकता वाली जनसंख्या ने ऐसे प्रत्याशियों को कदाचित ही अस्वीकार किया हो. ऐसा आज भी हो रहा है. सत्ताधारी पार्टियाँ ये दावा करती हैं कि उन्होंने देश-प्रदेश में ज्ञान की गंगा बहाने के लिये अनेकानेक विद्यालय-विश्वविद्यालय खोल डाले. शिक्षा का स्तर कितना बढ़ा या घटा ये कवेश्च्नेबल है. प्राइवेट कम्पनीज़ में अनाप-शनाप तनख्वाह के बावज़ूद सरकारी और स्थायी नौकरियों के प्रति युवाओं का आकर्षण आज भी बना हुआ है. प्राइवेट की देखा-देखी सरकार को भी वेतनमान में निरन्तर इज़ाफा करते रहना पड़ता है.

हिन्दू होने के कारण जातिगत आरक्षण का लाभ जिन हिन्दुओं को मिल रहा है, वही लोग उस हिन्दू धर्म को सुबह-शाम, सोते-जागते बल भर के कोसते रहते हैं. यदि हिन्दू धर्म के मूल में जायें तो यहाँ कर्म की प्रधानता रही है. अगला जन्म इस जन्म के कर्मों का अर्जन है. इसलिये ऊपर वाले ने जिस जगह जहाँ प्लेस किया है, उसके अनुसार कर्म कीजिये, ऊपर वाला हिसाब रखेगा और अगले जन्म में कर्मानुसार प्लेस कर देगा. बहुत ही सीधी, सरल और सच्ची संकल्पना है. मुझे तो नहीं याद की मैंने ईश्वर से इसी धर्म-कुल-जाति में जन्म लेने की अभिलाषा व्यक्त की हो. जिसको जहाँ पैदा होना था, वहीं पैदा हुआ. इसमें किसी और का दोष नहीं है. जन्म में किसी का किसी प्रकार से कोई दोष नहीं हो सकता है. जाति-सम्प्रदाय की बात क्या करनी, अपना लिंग तक कोई चयन नहीं कर सकता. इंसानी फ़ितरत है अन्तर क्रियेट करने की. जाति-सम्प्रदाय न होते तो भी स्त्री-पुरुष का विभेद कर देता. और यहाँ भी अन्याय की गाथाएं लिख मारता. आत्मा में इस तरह का कोई विभाजन नहीं है. पैदा होने से पहले आत्मा की कोई जाति या सम्प्रदाय नहीं होता. हिन्दू को वैसे भी धर्म से ज़्यादा जीवन पद्यति मानना अधिक उचित है. एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में जन्मे सभी लोग हिन्दुस्तानी या हिन्दू हो सकते हैं. इसी कारण सम्प्रदाय बदलने के बाद बावज़ूद पूजा पद्यति भले बदल गयी हो लेकिन जातियाँ नहीं बदल पायीं. आत्मा के हाथ में जाति या सम्प्रदाय चुनने का कोई प्रावधान हो ऐसा किसी वेद वेत्ता या धर्म के ज्ञाता ने कदापि न कहा होगा. 

यदि अनादी काल से ये वर्ण व्यवस्था थी तो फिर बड़े-बड़े पीर-फ़क़ीर, जिनसे भारत माता का इतिहास भरा पड़ा है, वो भी अपनी जाति पर हुये अन्याय का  बखान अपने दोहों-चौपाइयों में कर रहे होते. साहित्य में सदैव समाज परिलक्षित होता रहा है. हिन्दू धर्म, जिसे सनातन कहना अधिक उचित है, में पण्डितों की भूमिका को बहुत ही नकारात्मक तरीक़े से दिखाया जाता है. जबकि पण्डित जी भरण-पोषण के लिये , दान-दक्षिणा पर ही निर्भर रहते थे. यानि समाज में उससे अधिक धनवान और समृद्ध लोग अवश्य रहे होंगे. राजा-महाराजा काल में हो सकता है किसी-किसी पंडित को उनके धर्म-ज्ञान से प्रभावित हो कर राज-पुरोहित की पदवी मिल जाती हो लेकिन सभी पण्डित समृद्ध रहे हों ऐसा नहीं होगा. हाँ ऐसा ज़रूर हुआ होगा कि जब सरकारी नौकरियों का प्रावधान किया गया हो तो उस समय के पढ़े-लिखे लोगों को प्राथमिकता मिल गयी हो. हजारों सालों के समृद्ध भारत के इतिहास में जाति-व्यवस्था की चर्चा कम ही देखने-सुनने-पढ़ने को मिलती है. जबकि समस्त विश्व का इतिहास सक्षम लोगों द्वारा अक्षम लोगों पर अन्याय से भरा हुआ है. सक्षम लोग पद-धन-बल-बुद्धि का उपयोग इस धरा का भोग करने में लगाते रहे हैं. आज भी लगा रहे हैं. लोग कानून और न्याय की दुहाई देते रहते हैं और ताकतवर लोगों के हाथ से अन्याय हो जाने को लोग सहजता से स्वीकार कर लेते हैं. जान है तभी तो जहान है. 'वीर भोग्या वसुन्धरा' के द्वारा कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि दक्षता, निपुणता और शक्ति के माध्यम से समृद्ध लोग ही धरती का भोग करते हैं. ये बात आज भी सब ओर दिखायी देती है. जिनके पास भी कोई दक्षता या निपुणता है, उनके गुण ग्राहकों की संख्या कभी कम नहीं रहती. दक्षता बिना पुरुषार्थ के, न द्वापर युग में संभव थी, न आज. एक ही परिवार में पैदा हुये दो भाइयों में एक अधिक समृद्ध सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये है कि उसने दूसरे से ज़्यादा मिड-नाईट ऑयल जलाया है. माता-पिता के लिये दोनों बच्चे बराबर हैं, शिक्षा-दीक्षा भी बराबर दी है, लेकिन अन्तर सिर्फ़ पुरुषार्थ का है. 

मेरा बस चलता तो मै किसी धन्नासेठ के घर पैदा होता लेकिन कर्म फल के अनुसार जन्म मुझे माध्यम वर्ग के एक परिवार में मिला. लेकिन परिवार ऐसा जिसकी नींव सत्य और इमानदारी पर टिकी थी. मुझे नहीं ज्ञात कि मेरे माता-पिता ने किसी बात के लिये झूठ बोलने के लिये प्रेरित किया हो. इसलिये सच बोलने में मुझे कभी किसी प्रकार की दिक्क़त नहीं हुयी. बदलते परिवेश में कभी-कभी सच बोलने से अच्छा चुप रह जाना लगता है लेकिन उसका असर भी स्वास्थ्य पर रिफ्लेक्ट होता है. एक बात तो बताना मै भूल ही गया, सन पैंसठ में मेरा जन्म इलाहाबाद, जो अब प्रयागराज है, में हुआ था, जिसे हर मामले में एक शहर की संज्ञा दी जा सकती है. बाबा की असमय मृत्यु के कारण पिता जी को अपनी पढ़ाई की फ़ीस ट्यूशन करके निकालनी पड़ती थी. नौकरी लगने के बाद उन्होंने अपने अन्य भाइयों के साथ मेरी माता जी को भी पढने-पढ़ाने और अपने पैरों पर खड़े होने में सहयोग किया. आज  जब कोई मुझसे पूछता है कि कौन से वर्मा हो तो लगता है इसकी शिक्षा व्यर्थ चली गयी.

शहर में रहने के कारण मुझे नहीं ध्यान कि कभी मेरे घर या स्कूल में जात-पात की बात हुयी हो. राजकीय विद्यालय में एक कक्षा में सौ-सवा सौ बच्चों के 6-8 सेक्शन हुआ करते थे. वहाँ भी कभी इन बातों का ज़िक्र होता हो, ऐसा नहीं था. जब बोर्ड का फॉर्म भर रहे थे, तब मुझे पता चला कि सिख, बौद्ध और जैन, हिन्दू से अलग सम्प्रदाय हैं. ऐसा नहीं है कि हिन्दू और मुसलमान का फ़र्क हमें न मालूम रहा हो. दंगे हमेशा नखास कोना से शुरू होते थे और जब तक मिलिट्री नहीं लग जाती थी, शांत नहीं होते थे. हिन्दुओं में इतने वैरायटी के हिन्दू होते हैं, ये तो तब पता चला जब इंजीनियरिंग के एंट्रेंस में बैठने का मौका लगा. साथ में पले-बढे-खेले मित्र अचानक शोषित और पीड़ित हो गये. जिन मित्रों के बैट-बॉल के कारण उन्हें तीन बार आउट करना पड़ता था. जिनसे इन्द्रजाल कॉमिक्स माँग कर हम लोग गर्मी की छुट्टियाँ काटा करते थे. जिन्होंने हाईस्कूल और इन्टर में मेरिट में स्थान बनाया. जिस ऑफिस में मेरे पिता जी क्लर्क और उनके पिता जी गज़टेड ऑफिसर हुआ करते थे, सब वंचितों में शामिल हो गये. तब हमें शायद आरक्षण व्यवस्था का एहसास हुआ लेकिन हम लोगों की मित्रता यथावत कायम रही और कायम है आज भी. जाति हमारे बीच कभी दीवार नहीं बन सकी. शिक्षा का उद्देश्य ही मानवीय प्रवृत्तियों से मुक्ति में निहित है. इतनी सब बातों का लब्बोलाबाब ये है कि शिक्षित और शहरी होने के नाते मुझे जाति व्यवस्था का वो विद्रूप रूप नहीं देखने को मिला जिसके कारण आरक्षण को जस्टिफाई किया जाता रहा है. 

आज यदि जातिगत सामाजिक खाई स्पष्ट रूप से दिखाई देती है तो उसका दोष शिक्षा और रोजगार में आरक्षण को दिया जा सकता है. समाज कभी बराबर नहीं होता, न होगा. समृद्ध और सम्पन्न लोग हमेशा रहेंगे. कोई देश या काल वर्ग विसंगतियों से अछूता नहीं रहा है. अमीर-गरीब, सबल-निर्बल उसी तरह होते हैं जैसे सुख और दुःख. दोनों साथ रहेंगे और एक दूसरे के पूरक बन कर. विपन्न लोगों को भरण-पोषण के लिये उन पर आश्रित रहना होगा. आर्थिक-शारीरिक-सामाजिक रूप से सम्पन्न लोगों ने ही समाज के उत्थान में योगदान किया है. ये लोग सभी जाति-धर्म के थे लेकिन जाति-धर्म से दायरे में कभी नहीं बँधे. बिजनेस हो या नौकरी. टॉप पर जगह कम होती है. जो वहाँ पहुँचा है, वो हमसे अधिक पुरुषार्थी रहा है, ऐसा हमेशा होता आया है. इस जाति व्यवस्था के राजनीतिकरण के पीछे एक अदद नौकरी की इच्छा से ज़्यादा कुछ नहीं है, जो पुश्त-दर-पुश्त बरकरार रहे. विशेष बात ये है कि जो नेता इन मुद्दों को उछालते हैं, उन्हें न तो पढ़ना है न नौकरी करनी. बस बिरादरी में हनक बनी रहनी चाहिये. मुगलों और अंग्रेजों के ज़माने में आरक्षण कभी मुद्दा नहीं बन पाया, शायद तब शाही और सरकारी नौकरियों में गुणवत्ता पर जोर रहा होगा. आज़ादी के बाद का सारा इक्वेशन वोट साधने और सरकार बनाने में लग गया. हिन्दुओं का विभाजन और आरक्षण शायद इसी की पैदाइश है. मौलवी और पादरी हर घर में घुस गये, और हिन्दुओं ने जाति और वर्ण व्यवस्था के नाम पर पण्डितों के साथ-साथ धर्म को भी घर के बाहर कर दिया. इसी का नतीजा है कि हर कोई सनातन धर्म पर अपने विचार रखने को स्वतन्त्र है. इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिये कि वंचितों को बराबर का अधिकार और सम्मान मिलना चाहिये लेकिन समाज में ऐसे पुरुषार्थियों की कमी नहीं है जिन्होंने विपन्नताओं के बावज़ूद इतिहास बनाया है. एक ही समाज में इतना विद्वेष तब देखने को मिल रहा है जब आधे से अधिक जीवन व्यतीत हो चुका है. कितने ही अक्षम, सक्षम बन चुके हैं.  

आज के विज्ञापन में मेरे विचारों को झकझोर दिया. हम आगे जा रहे हैं या आज भी अपने अतीत का सलीब को ढोने के लिये प्रयत्नशील हैं. ये ऐसा मुद्दा है जिस पर डिबेट होनी चाहिये और चलती रहनी चाहिये. यहाँ सहमति और असहमति का प्रश्न नहीं है. जिस तरह सक्षम लोगों ने स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ दी, वैसे ही लोगों को इस विषय पर भी विचार करना चाहिये ताकि उन्हीं के वर्ग के अन्य लोगों को आरक्षण का लाभ मिल सके. जिन जख्मों को वक्त भर रहा था, उसे कुरेद-कुरेद कर हरा रखना आज की राजनैतिक आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ये देशहित में भी हो, ज़रूरी नहीं. इसीलिये मै ये कहने को विवश हूँ कि: जब मै (जातिगत व्यवस्था) जीता हूँ तो कहते हैं कि मरता ही नहीं, जब मै मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा. 

-वाणभट्ट 

5 टिप्‍पणियां:

  1. आरक्षण पर बेबाक टिप्पणी।कर्म का आरक्षण हो,जन्म का नहीं तभी हम सुजलाम,सुफलाम मलयज शीतलाम जन्मभूमि का कर्मभूमि के रूप में वरण कर पाएंगे।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सही लिखा डॉक्टर साहब । पढ़ कर अच्छा लगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. Fark aur visangati hamesha rahegi. Paancho anguliyan bhi barabar nahin hoti.

    जवाब देंहटाएं
  4. Debate on this topic is infinite on today's political scenario. Now the new elite class/caste has already come up from the reserved category, which is going to take benefit generation after generation, and the true weaker and backward among them remained same as earlier.

    जवाब देंहटाएं
  5. वर्तमान समय की सच्चाई को बहुत ही बेवाकी से लिखा है। भविष्य के लिए भी रास्ता दिखाया है।

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...