शनिवार, 29 सितंबर 2018

प्रायश्चित

प्रायश्चित 

करिया भैया जब पैदा हुए तो झक सफ़ेद थे। दादी ने "आ गए करियउ" कहते हुये बच्चे का स्वागत किया और माथे पर काला टीका लगा दिया। बच्चे के माँ और बाप दोनों ही साफ़ रंग के थे इसलिये बच्चे के काला होने की गुंजाइश न के बराबर थी। लेकिन दादी को मालूम था कि कितनी मन्नतों और चार लड़कियों के बाद ईश्वर ने उनकी सुनी। गोदी में पोता लिया तो जैसे इस जन्म के सारे बन्धन कट गये। आठ पाउण्ड के सुन्दर-स्वस्थ बच्चे को हर बुरी नज़र से बचाना ज़रूरी था। इसलिये उन्होंने पहले से ही नाम सोच रखा था - काली प्रसाद मिश्र। उन दिनों 40 -50 साल के होने को आये बेटा-बहू की क्या मज़ाल कि अपने माँ -बाप की आज्ञा की अवहेलना कर सकें। इस प्रकार काली प्रसाद मिश्र जी का अवतरण भवानी प्रसाद मिश्र जी के आँगन में हो गया। स्कूल के नाम से अलग नाम की व्यवस्था सम्भवतः इसलिये की गयी ताकि घर-पास-पड़ोस का हर प्राणी अपने-अपने प्रेम को अपने-अपने हिसाब से व्यक्त कर सके। फलस्वरूप काली के जितने अपभ्रन्श सम्भव थे उन सभी नामों से उस खूबसूरत-हँसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते बच्चे को नवाज़ा गया। कलुवा, करियवा, कालिया, कल्लू और करिया आदि-आदि। आखिर के दो नाम बच्चे के साथ ऐसे चिपके कि लाख चाहने के बाद भी वो किसी के लिये कल्लू था तो किसी के लिये करिया। 

मेधावी काली प्रसाद मिश्र ने उच्च शिक्षा प्राप्त करके एक शालीन सरकारी नौकरी का जुगाड़ कर लिया था। भवानी प्रसाद ने पूरी ज़िन्दगी सरकारी क्लर्की में निकाल दी थी। बेटा जब सरकारी अफसर बन गया तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। सरकारी आवास मिला। सरकारी गाड़ी मिली। गज़टेड क्लास वन बताते-बताते भवानी इतने भाव-विह्वल हो जाते कि लगता इसके पहले या बाद में कोई और इस पद की शोभा नहीं बढ़ा पायेगा। अब उनकी तमन्ना थी जल्दी से जल्दी अवकाश प्राप्त करके बेटे के साथ रहने की और उसकी अफसरी का लुफ़्त उठाने की। रिटायरमेन्ट के बाद स्कूल में शौकिया पढ़ाने वाली बहू ने बहुत समझाने की कोशिश की कि पिता जी आप अपने शहर और अपने मकान में ही रहिये हम लोग आते-जाते रहेंगे और आपका ख्याल रखेंगे। लेकिन भवानी बाबू के अपने तर्क थे। पत्नी के देहावसान और बेटियों के विवाह के बाद अब बस बेटा-बहू-पोते के साथ ही रहने की इच्छा है। और फिर पाँच कमरों के सरकारी बंगले में तुम ढाई प्राणी क्या करोगे। मैं साथ रहूँगा तो पोते को कहीं क्रेच में नहीं डालना पड़ेगा। "देखो कल्लू अब मैं अकेले यहाँ नहीं रहने वाला"। भवानी बाबू ने अपना निर्णय सुना दिया था। 

सरकारी मकान में आ कर और पोते को गोद में लेकर दिन भर भवानी बाबू कालोनी में घूमा करते। काली प्रसाद को जिस बात का अन्देशा था वो होना ही था और हुआ भी। पूरे मोहल्ले को जल्द ही मालूम हो गया कि केपी साहब के घर का नाम कल्लू है। उन्होंने ड्राइंग रूम के दीवान पर अपना कब्जा जमा लिया। चूँकि टीवी भी वहीँ लगा था इसलिये यदि क्रिकेट या फुटबॉल मैच न आ रहा हो तो अपने पोते लालता प्रसाद मिश्र, जिसे प्रेम से वो लल्लू, लालू, ललुआ बुलाते, के साथ पोगो देखने में उन्हें बहुत आनंद आता। बेटे-बहू ने पिता जी के चक्कर में टीवी देखना छोड़ दिया। उन्हीं के चक्कर में केपी की मित्र मण्डली और बहू की सहेलियों ने आना-जाना कम कर दिया। निष्कपट भवानी बाबू का ध्यान इस ओर कभी गया ही नहीं। इन सब प्रपंचों से मुक्त उन्होंने अपना सर्वस्व लल्लू की सेवा में झोंक रखा था। उनके हिसाब से उन्हें इस जिन्दगी इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी। 

सब कुछ ठीक चलता रहता यदि लल्लू का प्ले ग्रुप में दाख़िला ना होता। भवानी बाबू को क्या पता कि अफसर बनाना अब उतना आसान नहीं रहा। प्लेग्रुप से जब बच्चा मेहनत करेगा तभी तो इंजिनियर या डॉक्टर बनेगा। उनका ज़माना तो रहा नहीं कि डिग्री लो और नौकरी पा जाओ। बेटे-बहू को अब पोते के भविष्य की चिन्ता होने लगी थी। "देखो ये पिता जी के साथ रहेगा तो यही सब करेगा। टीवी में कितना मन लगता है इसका। ऐसा करो पिता जी को पीछे कमरे में शिफ्ट कर देते हैं। एक टीवी और लगवा दो। उन्हें क्या, बस दिन भर टीवी ही तो देखना है।" पति-पत्नी ने मशविरा किया और अगले दिन इस योजना को क्रियान्वित भी कर दिया। पढ़ाई बढ़ने के साथ-साथ लल्लू भी व्यस्त होता चला गया। कभी ट्यूशन्स तो कभी कोचिंग। उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते बिना जले ही रस्सी के सारे बल ढीले पड़ जाते हैं। मूल और सूद के दम पर अपना घर छोड़ आये थे। अब तो जिस विधि राखे राम उसी विधि रहिये वाली स्थिति थी। शरीर भी कम साथ देने लगा था इसलिये बाहर निकलना दिनोंदिन कम होता जा रहा था। शाम होते-होते पीछे कमरे में उनका मन हुड़कने लगता। पता भी नहीं चलता कल्लू ऑफिस से आये की नहीं।

साढ़े-चार बजते न बजते वो साइड के गलियारे से निकल कर गेट तक आ जाते। और गेट पर लटक कर कल्लू के लौटने का इन्तज़ार करते। हर आने-जाने वाले से अपनी फ़िक्र का ज़िक्र ज़रूर करते। "का बतायीं अबहिन तक कल्लू नहीं आये।" अन्दर से बहू चिल्लाती "बाबू जी अन्दर आ जाइये जब आना होगा आ जायेंगे। आपके गेट पर खड़े होने से वो जल्दी नहीं आ जायेंगे।" धीरे-धीरे ये रोज का नियम बन गया था। अब तो अडोसी-पडोसी भी चुटकी लेते। पूछ लेते "बाबू जी कल्लू अभी आये नहीं क्या।" भवानी बाबू निशंक भाव से बताते कि "आज बड़ी देर हो गयी। कल्लू को पता नहीं ऑफिस में कौन सा काम आ गया। पता नहीं कहाँ लेट हो गये।" गेट पर ऑफिस की दिशा में टकटकी लगाये खड़े बाबू जी को देख कर सरकारी गाड़ी से उतरते हुये श्रीमान केपी  मिश्र  उर्फ़ कल्लू का रोम-रोम सुलग उठता। उन्हें पता था कि साढ़े-चार बजे से गेट पर लोग कल्लू-कल्लू नाटक का रसास्वादन कर रहे होंगे। वो आपे से बाहर हो उठता। उन्हें लगभग डाँटते हुये अन्दर चलने को कहता। भवानी बाबू शायद इसी में खुश हो जाते कि बेटा सकुशल वापस आ गया और उसने उनसे बात की।

जगह बदलती है, समय बदलता है, नहीं बदलता है समय का लेख। कल ही किसी ने सूचना दी कि करिया भैया बेटे लल्लू के साथ लखनऊ में रह रहे हैं। आजकल केपी बाबू हर शाम बालकनी में आधे लटके हुये टकटकी बाँधे लल्लू के ऑफिस से लौटने का इंतज़ार करते हैं। और लल्लू ऑफिस से लौटते ही जब तक उन्हें दो-चार खरी-खरी न सुना दे, वो अन्दर नहीं जाते। उन्हें उसकी बातों का बिल्कुल बुरा भी नहीं लगता। ये सिलसिला हर रोज घटित होता है। जाने अन्जाने शायद यही उनका प्रायश्चित है।         

-वाणभट्ट 

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

मॉब लिंचिंग

मॉब लिंचिंग

लम्बी सी मेज पर ऑटोकैड से बनाये ढेर सारे चित्र क्रमवार तरतीब से सजा कर रखे हुये थे। उनके निरीक्षण में किसी प्रकार की दिक्कत न हो, इसलिये देखने वाला और दिखाने वाला दोनों ही पेपर्स के पास जाते और डिस्कस करते। करीब सत्ताईस बोन कॉम्पोनेंट्स के फ्रंट-साइड-टॉप व्यूज़ और उनकी असेम्बली ड्रॉइंग्स रखी थीं। दिखाने वाले ने कहा - "सर जैसा आपने कहा था कि ये उत्पत्ति अल्टीमेट होनी चाहिये। मैंने भी पूरा प्रयास किया है। एक-एक पार्ट के माइन्यूट से माइन्यूट पॉइंट का डिटेल है। सब मिल कर अपने आप में सम्पूर्ण और अद्वितीय है। पूरी एक टीबी की हार्डडिस्क भर गयी। इससे बढ़िया रचना न कभी हुयी है न आगे कभी होगी। जब ज्ञान और बुद्धि को आत्मसात करने वाला मस्तिष्क बना दिया है तो ये नित्य कुछ न कुछ नया करने का प्रयास अवश्य करेगा। हो सकता है भविष्य में हमें भी रिप्लेस कर दे। वैसे तो इसका हर कॉम्पोनेन्ट आवश्यक और अपरिहार्य है। लेकिन मशीन को पूर्णतः आत्मनिर्भर और रचनात्मकता को यथार्थ में परिवर्तित करने के लिये ये असेम्बली ही मानव को अन्य प्राणियों से अलग करेगी। मैंने बहुत सी संरचनायें निर्मित की किन्तु मेरे विचार से इससे उत्कृष्ट व्यवहारिक संरचना मेरी कल्पना से परे है। अब मै अपने कम्प्यूटर को फॉर्मैट करना चाहता हूँ ताकि कोई नयी चीज़ सोच-बना सकूँ।"

गहन चिंतन में डूबे संरचना की असेम्बली ड्रॉइंग को देखते हुये उनके माथे पर चिन्ता की कुछ लकीरें उभर आयीं । "सिर्फ़ हाथों की कमी थी। आपने तो धरती के इस प्राणी को तो पूरी तरह भगवान का ही रूप दे दिया। लेकिन जिस सन्यम और विवेक के साथ हम अपनी बुद्धि का उपयोग सृष्टि निर्माण में करते हैं शायद मनुष्य अपने हाथों का उतना विवेकशील उपयोग न कर सके। शक्ति के सदुपयोग से ज़्यादा उसके दुरूपयोग की सम्भावना होती है, वत्स विश्वकर्मा।" उलझी हुयी दाढ़ी को अपने हाथों से सुलझाने के प्रयास में लगे हुये ब्रम्हा जी ने उवाचा।

विश्वकर्मा जी ने विनम्रतापूर्वक कहा "प्रभु रोज-रोज ना-ना प्रकार के एक से एक विचित्र प्राणी बनाते-बनाते मै थक गया हूँ और अघा भी। इसलिए आपसे अनुनय है कि मुझे अपने जैसे प्राणी का निर्माण करने की अनुमति दी जाये। ऐसा प्राणी जो मेरे काम में कुछ सहयोग कर सके। ये पृथ्वी का सबसे उन्नत जीव होगा। सम्भवतः इसके बाद मुझे किसी और जीव को बनाने की आवश्यकता भी न पड़े। ये खुद ही विज्ञान के माध्यम से नए-नए जीव विकसित करने में सक्षम होगा। इसको मैंने देवताओं की सारी शक्तियों से लैस कर दिया है।" विश्वकर्मा जी के ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि का वर्क लोड़ था। 24  x 7  घंटे,  365  दिन। न कोई ईएल न कोई सीएल। और ब्रम्हा जी इस बात से भली-भाँति वाक़िफ़ भी थे। फिर भी उन्होंने कहा "भाई सोच लो ये हाथ दे दिया तो मनुष्य और देवताओं-भगवानों क्या अन्तर रह जायेगा। हो सकता है इसको प्रदान करने के बाद हमारा और तुम्हारा काम ही ख़त्म हो जाये। अभी तो मानव कभी-कभार भगवानों को याद भी कर लेता है। हाथ मिलने के बाद जो कर्ता भाव आयेगा, मुझे डर है कहीं इन्सान खुद को ख़ुदा न समझ बैठे।" लेकिन विश्वकर्मा जी उस समय उसी तरह रिलक्टेंट थे जैसे आज सरकारी दफ्तर के इनडिस्पेंसिबल अधिकारी। जो कह दिया सो कह दिया बॉस भले आप हों लेकिन चलेगी उनकी ही।

डार्विन साहब की इवोल्यूशन की थ्योरी उन लोगों के लिये है जो अँग्रेजी में लिखी हर बात को ज़रूरत से ज़्यादा तरज़ीह देते हैं। लेकिन उस देश में जहाँ हर तीसरा व्यक्ति अपने फंडे प्रतिपादित करता घूम रिया है, वहाँ कुछ लोग सिर्फ फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के कारण एंटीगुआ में शरण नहीं माँग रहे हैं। चाहे सरकार को गरियाओ चाहे भगवान को, कउनो रोके वाला नहीं ना। चार पिछलग्गू मिल गए तो एक नयी पार्टी बना लो और बीस मिल जायें तो बाबा बन के नया सम्प्रदाय। पूरी आज़ादी है। चचा गुलज़ार पहले ही फ़रमा चुके हैं - थोड़ी बेकारी है वर्ना यहाँ बाकी हाल-चाल-वाल ठीक-ठाक है। 

जो भगवान इतनी वैराइटी के प्राणी बना सकते हैं, वो बन्दर के इंसान बनने का वेट भला क्यों करेंगे। हज़ारों साल के मानव इतिहास में जब किसी ने टिड्डे को चिड़िया में बदलते नहीं देखा तो ये मानना आवश्यक है कि भगवान ने चिम्पैंजी और आदमी अलग अलग बनाये होंगे। हाँ आदमी बनाने की प्रक्रिया में कुछ बन्दर-लंगूर-आरंगुटान-चिम्पैंजी ज़रूर बन गए होंगे। गौर करिये तो शायद हाथों के फ़र्क ने इंसान को अन्य प्राणियों से अलग कर दिया। आयतन (वॉल्यूम) के हिसाब से बहुत से प्राणियों का मस्तिष्क मानव मस्तिष्क से कई गुना बड़ा होगा लेकिन वो वन-टू का फ़ोर नहीं कर पाये।और आदमी है कि हर समय हर जगह उसी के चक्कर है। इसमें किसी को कोई शक़ नहीं होना  चाहिये कि मानव से ज़्यादा विकसित मस्तिष्क किसी अन्य प्राणी का नहीं है। हाथ ने उसे ये रचनात्मक आज़ादी दी कि जिस चीज़ के बारे में वो सोच सकता है उसका निर्माण भी कर सकता है। मानव साक्षात् विश्वकर्मा का रूप है लेकिन तभी तक जब तक कि उसकी बुद्धि और विवेक में सामंजस्य बना हुआ है। रचनात्मकता है तो सृजनशीलता किसी न किसी रूप में परिलक्षित अवश्य होगी। ये जो अपने चारों ओर हैलीकॉप्टर से लेकर टूथब्रश तक जो भी दिखायी दे रहा है, मानव में निहित विश्वकर्मा का ही प्रतिफल है। कुछ ज़्यादा फेंक दिया हो तो लपेटते चलिये फिर लपेटने का मौका मिले न मिले।  

आदमी को अपना ही समकक्ष बना कर विश्वकर्मा जी को लगा अकेले वो जितना काम नहीं कर पा रहे थे उनके बनाये मानव अपनी सृजनशीलता से धरती को स्वर्ग से भी ऊपर ले जाने में सक्षम होंगे। वो ऊपर बैठे-बैठे बस आइडिया देते और आदमी उसे क्रियान्वित करता रहता। लेकिन आदमी तो आदमी है देवता बनने का ठेका तो ले नहीं रखा है इसलिये कभी-कभी बुद्धि-विवेक का सामन्जस्य गड़बड़ाता रहता है। नतीजन उन्हीं हाथों से वो ऐसे-ऐसे विध्वन्सक कृत्य कर बैठता कि विश्वकर्मा जी को अपने निर्णय पर अफ़सोस होता - कि हाथ दे कर कुछ गलत तो नहीं कर दिया, - कि काश उस समय ब्रह्मा जी की बात मान ली होती।

कुछ देशों ने छोटे-मोटे अपराधों के लिये कॉर्पोरल पनिशमेंट यानि ठुकाई का प्रावधान रखा है। हेलमेट-रॉन्ग साइड-सीट बेल्ट-रैश ड्राइविंग-कूड़ा फेंकना-फब्तियाँ कसना आदि-इत्यादि के लिये यदि गाहे-बगाहे ठुकाई होती रहे तो आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि शौकिया कानून तोड़ने वाले अप्रत्याशित रूप से कम हो जायेंगे। और उस ठुकाई के सजीव प्रसारण के लिये एक चैनल भी डेडिकेट किया जा सकता है। दूसरे के फ़टे में आनन्द खोजने वाले देश में न्यूज़ चैनल से ज़्यादा टीआरपी ऐसे चैनल को मिलनी सुनिश्चित है। कुछ आदिम सभ्यता का पालन करने वाले देशों में तो चोरी-चाकरी जैसे कृत्यों के लिये हाथ के विभिन्न हिस्सों को कम करने का भी प्रावधान है। उंगली काटनी है कि अँगूठा या पूरा हाथ ये चोर की नियत और चोरी के मैग्नीट्यूड पर निर्भर करता है। वो भी 24 से 48 घण्टे के भीतर, बिना किसी लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के। वहाँ सड़क पर पर्स फेंक आइये तो भी किसी की क्या मजाल जो उठा ले। यहाँ बैग में बम रख आइये तो भी कबाड़ी चेक करके पुलिस को सूचित करेगा कि सर फलां जगह बम पड़ा मिला है, कहो तो डिफ्यूज करके घर ले जायें। चूँकि पुराने ज़माने के बच्चों की टीचरों और पड़ोसियों द्वारा इतनी ठुकाई हो चुकी होती थी कि बच्चे ज़रूरत से ज़्यादा सुधर जाते थे। इतने सुधर जाते थे कि बड़े होने पर उन्हें घटिया और दुष्ट लोगों की संगत करनी पड़ती थी ताकि वो सिस्टम में फिट हो सकें। यदि देश में छोटे-छोटे अपराधों के लिए वीडिओ रिकॉर्डिंग के साथ यदि ठुकाई की सजा मिलने लगे तो पूरी उम्मीद है बड़े-बड़े न्यायलय और कारागार कबूतरों की क़ब्रगाह बन के रह जायेंगे। सुना है एक देश में तो शिक्षा और कर्तव्य का पाठ पढ़ कर लोगों ने इस कदर अपराध करना छोड़ दिया कि कारागार बंद करने तक की नौबत आ गयी।

अब दिमाग है और हाथ है तो हर आदमी कुछ न कुछ तो करेगा ही। हर आदमी सृजनात्मक रूप से क्रिएटिव हो ऐसा सम्भव भी नहीं है। ऐसे लोगों से ही हाथ के दुरूपयोग की सम्भावना है। वो कान में उँगली करेगा या नाक में। अपने तक सीमित रहे तो गनीमत है। जब अपने नाक-कान साफ़ हो गये तो वो खाली बैठने से तो रहा। अपने नहीं तो दूसरों के ऊँगली करेगा। यहीं से सारी गड़बड़ की शुरुआत होती है। चाहे तो वो हाथ पे हाथ धर के भी बैठ सकता है। लेकिन उसके ज़िन्दा रहने पर लोग प्रश्न खड़े करने लगेंगे। इसलिये ज़रूरी है कि कुछ न कुछ हाथों का उपयोग करता रहे। 

ब्रह्मा जी ने विश्वकर्मा जी से अपनी व्यथा बतायी कि "इन्हें ऐसे छोड़ दिया तो प्रलय से बहुत पहले ही प्रलय लानी पड़ेगी। कुछ करते क्यों नहीं।" टेक्नीकल लोगों की एक खासियत तो है ही कि वो हर समस्या का अप्प्लाईड समाधान निकाल लेते हैं। स्वान्तः सुखाय टाइप के मौलिक शोध में सन्साधन और समय वो व्यर्थ करें जिन्हें कभी नोबेल मिलने की उम्मीद हो। मुस्कुराते हुये विश्वकर्मा जी ने कहा "बस इत्ती से बात"। उन्होंने आनन्-फानन में स्मार्टफ़ोन की परिकल्पना पृथ्वीवासियों के हाथों में थमा दी।

इसका मिलना था कि एक क्रांति आ गयी। कम्प्यूटर की शक्ति वाले इस यन्त्र में असीमित क्षमतायें उफान मारने लगीं। जिन लोगों से ए जी - ओ  जी नहीं सम्भल  रहा था वो  देखते ही देखते 3 जी - 4 जी की बातें करने लगे। हाथ बिज़ी हो गये। लोग अपने आँख-नाक-कान तक भूल गये। अब देश और दुनिया उनके फिंगर टिप पर थी। जो चाहे देखो जो चाहे सुनो। एक बच्चे ने तो हिस्ट्री-जॉग्रेफी विषयों के कोर्स में रखे जाने के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया। कहा रटने-रटाने के दिन लद गये। जब गूगल है तो ख़ामख़्वाह अपनी हार्डडिस्क पर क्यों फालतू लोड डालना। हर चीज़ का क्रैश कोर्स है। जब चाहेंगे पढ़ लेंगे, सीख लेंगे। अभी तो बस दिमाग़ को खुलने दीजिये। पैराशूट और दिमाग़ तभी काम करते हैं जब खुले हों। हमारा ज़माना होता तो सरऊ को दुइ कन्टाप मारते। लेकिन अब ज़माना बदल गया है।

ज़माना कितना भी बदल जाये लेकिन आदमी और आदमी की फ़ितरत तो बदलने से रही। विशेष रूप से उस देश में जहाँ नियम-कानून को मानव विकास की सबसे बड़ी बाधा मान कर हर कोई तोड़ने के लिए उत्साहित रहता हो। पहले तो लोग उंगली करके सन्तुष्ट हो लेते थे, स्मार्ट फोन आने के बाद से अँगूठा करने से बाज नहीं आ रहे। दिन भर चैटिंग। पता नहीं कितनी साइट्स और सोशल साइट्स खुल गयी हैं हाथों को व्यस्त रखने के लिये। इस फ़िराक़ में जेसचर-पॉशचर सब बदल गया है। दिमाग और अँगूठे का सामंजस्य बिठाने के चक्कर में बुद्धि और विवेक का तारतम्य टूटता चला गया। शक्ति का उपयोग तभी तक अच्छा है जब तक वो मानव कल्याण में लगे। अब हर कोई अपने-अपने ज्ञान और अनुभव के हिसाब से सामाजिक परिदृश्य की विवेचना कर रहा है। सूचना विस्फोट ने तो आदमी को कन्फ्यूज़ कर ही रखा था उस पर पे कमीशनों ने सोने पे सुहागे काम किया। ज्ञान के साथ इंसान विनम्र होता चला जाता है लेकिन धन के साथ अकड़ता। उसका स्मार्टफोन मेरे स्मार्टफोन से महँगा कैसे। बदल डालो। आदमी इतना बिज़ी है, इतना बिज़ी है कि किताबें पढ़ने का समय नहीं मिलता। तो चिन्ता की क्या बात है। वाट्सएप्प और फेसबुक और इंस्टाग्राम तो है। यहाँ ज्ञान फटा पड़ रहा है। जितना चाहे बाँटो जितना चाहे बटोरो। 

ज्ञान बटोरने तक तो फिर भी ठीक है लेकिन बाँचने से पहले आप ट्रैफिक सिगनल वाला रूल अपनाइये। रुकिए-देखिये-जाइये। ध्यान से पढ़िये - गौर से सोचिये किसे भेजना है - फिर फॉरवर्ड कीजिये। अब होता क्या है कि इतनी इन्फॉर्मेशन जब हर तरफ से दिन भर लगातार आ रही हो तो कई बार बुद्धि-विवेक किनारे रह जाते हैं। जैसे फ़ास्ट बाउन्सर के आगे खड़े हो कर विराट को बल्ला लगाने या छोड़ने का निर्णय फ्रैक्शन ऑफ़ सेकेंड्स में लेना होता है। मैसेज आया और फॉरवर्ड किया में भी स्थिति कुछ ऐसी ही होती है। कई बार तो यकीन मानिये पढ़ने का भी समय नहीं होता आदमी बस बिज़ी रहने के लिये फॉरवर्ड कर देता है। लेकिन समय से बड़ा कोई गुरु नहीं होता। स्वयं गलती करके सीखने के लिये ये जीवन कम है इसलिए जो दूसरों की गलती से सबक ले ले उसे वाकई बुद्धिमान समझा जाना चाहिये। 

एक बार उसकी गलती से मिस्टेक हो गयी। कोई मैसेज आया। पढ़ने से पहले अँगूठे ने अपना काम कर दिया। बाद में जब लोगों के सद्भावना सन्देश आने लगे तो उसने ठीक से पढ़ा तब मिस्टेक का पता चला। जो ज्ञान शेयर किया था वो ज्ञान उस ग्रुप वालों को नहीं चाहिए था। फिर क्या था साहब पूरा का पूरा ग्रुप तीन दिन तक उसके उस ज्ञान पर अपना अज्ञान बघारता रहा। वो तो भला हो विश्वकर्मा जी का जो फोन से निकल कर आदमी सामने खड़ा हो जाए ऐसा आइडिया अभी नहीं दिया है। नहीं तो मॉब लिंचिंग के शिकार में एक नाम और शुमार हो जाता। फिर उसकी धर्म-जाति-बिरादरी देख कर कुछ लोग अवार्ड वापस कर रहे होते और कुछ भारत माता पर गर्व।

- वाणभट्ट 

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

बिरादर

बिरादर 

चीफ साहब ने अपने रिटायरमेंट की फेयरवेल पार्टी थ्री-स्टार होटल में रखी थी। वो कभी साहब का ख़ास हुआ करता था, सो दूसरे शहर में रहने के बावजूद उसको आमन्त्रण मिला। चूँकि आख़िरी मौका था। इसके बाद कुछ श्रद्धा सुमन अर्पित करने का सौभाग्य न मिले, इसलिये आधे दिन की छुट्टी लेकर वो फ़ंक्शन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने पहुँच गया। 

टैक्सी कर के पहुँचने पर भी उसे कुछ देर हो गयी। जब वो पहुँचा, पार्टी अपने शबाब पर थी। हॉल में घुसते हुये उसके पेट में एक अजीब सी गुड़-गुड़ होने लगी। उसे लगा सबकी निगाहें उसी पर टिकी हैं और हर शख़्स उसे घूरता सा लगा। कुछ लोग उसे देख कर बातें कर रहे थे। कुछ उसे कनखियों से देख कर मुस्कुराते और अट्ठहास करते से लगे। वो कॉन्शस हो गया। 

दरअसल उसने इस पार्टी के लिये विशेष रूप से सूट सिलवाया था। जल्दबाज़ी में टेलर को सिर्फ एक बार ट्रायल दे पाया। ऑफिस से आधे दिन की छुट्टी लेकर जैसे-तैसे टेलर के यहाँ से सूट कलेक्ट करते हुये जब तक घर पहुंचा, तब तक टैक्सी वाला आ चुका था। दस मिनट में तैयार हो कर वो टैक्सी में बैठ गया था। घर से चलते-चलते उसने आदमक़द आईने में अपना निरीक्षण किया। एक झल्लाहट सी हुयी उसे टेलर के ऊपर। इतना कहने के बाद भी दायें कन्धे के पास एक झोल आ ही गया। जब वो पार्टी में पहुँचा तो उसे लगा पार्टी में मौज़ूद हर व्यक्ति का ध्यान नये सूट के उस झोल पर है और हर कोई उस पर टीका-टिप्पणी कर के आनन्द ले रहा है। उसका मूड स्पॉइल हो गया। ये लोग भी अपने काम से काम नहीं रखते बस दूसरे के फटे में टांग अड़ाते रहते हैं। एक तो दर्ज़ी ने इतना मँहगा कपड़ा ख़राब कर दिया और इन्हें मज़ाक का मौका मिल गया।

जब वो बीटेक करने प्रौद्योगिकी कॉलेज में प्रवेश लेने गया था तब भी उसे ऐसा लगता था कि सारे लोग उसके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। वो उसको पिछड़ा होने के कारण कुछ हेय दृष्टि से देखते हैं। प्रोफ़ेसर और छात्र सब उसके ख़िलाफ़ हैं और जानबूझ कर उसे नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उसको सामाजिक असमानता का पाठ घुट्टी में पिलाया गया था। तथाकथित सम्भ्रान्त बने बैठे लोगों ने उनके पुरखों पर कितने अत्याचार किये। उनको गाँव के बाहर रहना पड़ता था। लोग उनकी परछाईं से भी दूर भागते थे। कोई उनके हाथ का छुआ न छूता था न खाता था। उन्हें अछूत होने का दंश झेलना पड़ता सो अलग से। ठाकुर-बाम्हन-बनिया सब सक्षम लोग थे जो इनको आगे बढ़ते नहीं देख सकते थे। शिक्षा के अधिकार तक से इन्हें वंचित कर रखा था।

यद्यपि की जीवन ने उस जीवन को न कभी देखा था न भोगा था। लेकिन रोज सुबह शीशे में अपना अक़्स देखते हुये उसकी सारी स्मृतियाँ चलचित्र की तरह जागृत हो जाती। तथाकथित अगड़ों के प्रति उसका मन तिरस्कार से भर जाता था। पिता जी भी उसे याद दिलाने का कोई मौका न छोड़ते कि उनके साथ बहुत अन्याय हुये थे। 

पिता जी को बचपन से पढ़ने-लिखने में होशियार थे। उनकी प्रतिभा को देख कर पण्डित हेडमास्टर ने उन्हें प्रोत्साहित किया। पाँचवीं की छात्रवृत्ति के आधार पर उनका दाखिला शहर के सरकारी स्कूल में करवाने में हर संभव मदद की। अपने अथक परिश्रम और प्रयासों के द्वारा पिता जी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में समाज में व्याप्त तमाम अंतर्विरोधों के बावज़ूद बड़े अधिकारी के पद तक पहुँचे। लेकिन अतीत के नाम पर उनके पास केवल समाज में व्याप्त कुरीतियाँ और पुरखों की कानबीती के दुःस्वप्न ही बचे थे। जिसमें हेडमास्टर साहब का योगदान शामिल नहीं था। 

वो अपने सभी बच्चों को पढ़ने के लिये प्रेरित करते और अपने बीते हुये दिन याद दिलाते रहते। ये बात अलग है कि अधिकारी बनने के बाद से उनका गाँव से संपर्क लगभग खत्म था। सरकारी स्कूल में दाखिले के साथ ही गाँव का मोह कम होता चला गया। वजीफ़े से ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढाई ने घर पर निर्भरता को ख़त्म कर दिया था। पिता जी ने जिस दिन छोटे भाइयों को अपने साथ रख कर पढ़ाने के लिये कहा तो साल में दो-चार चक्कर जो घर के लग जाते थे, वो भी कम हो गये। नौकरी लग जाने के बाद अपनी ही बिरादरी के शहराती परिवार ने छेक लिया। और पढ़ी-लिखी लड़की के बीवी बन जाने के बाद तो गाँव-घर जाना बन्द सा हो गया। एक-एक कर के वो हर उस छाया से दूर होने में लग गये जो उनको उनके पिछड़ेपन की याद दिलाती। अपने ही गाँव-घर-परिवार के लोग उन्हें पिछड़े और जाहिल नज़र आते। अतीत का सब कुछ वो भूल चुके थे सिवाय इसके कि उनके पुरखे किस अन्याय और अत्याचार से गुजरे थे। अपने बच्चों को वो इन्हीं यादों के सहारे पढ़ाई के लिए प्रेरित करते। 

उन्होंने सभी बच्चों को बारहवीं तक विज्ञान विषय से पढ़ने का अवसर दिया। टारगेट था किसी तरह बारहवीं पास करना। अपनी-अपनी योग्यता अनुसार कोई इंजिनियर बन गया कोई डॉक्टर। चूँकि उनकी तरह किसी ने बीए नहीं किया नहीं तो प्रशासनिक सेवा में ज़रूर सेलेक्ट हो जाता। जीवन ने एनआईटी से सिविल में बीटेक किया। उस समय सिविल सिर्फ़ एंट्रेंस के टॉप उम्मीदवारों को ही मिल पाती थी। निर्माण विभाग में उसकी नौकरी की शुरुआत आज रिटायर हो रहे चीफ़ साहब के अन्तर्गत ही हुयी। अपनी ही बिरादरी के होने के कारण उन्होंने उसको एक पुत्र का सा स्नेह दिया। उनकी छत्रछाया में उसने अभियांत्रिकी के वो गुर सीखे जो एनआईटी के गुरुजन नहीं सीखा पाए थे। आज उसके पास वो सब कुछ था जो एक सुविधजनक जीवन के लिये आवश्यक समझा जाता है। उसके जीवन में ऐसा कुछ नहीं था जिसके लिये वो किसी और को दोष दे सके। लेकिन पिता जी के द्वारा बचपन से सुनाये गये संस्मरण उसके जेहन में ऐसे अंकित थे जैसे उसने भी वही नारकीय जीवन जिया हो। गाहे-बगाहे बिना उसकी इच्छा और अनुमति के पिता प्रदत्त संस्कार जागृत हो जाते थे। विशेष रूप से किसी आयोजन या समारोह में। 

उसके पेट की गुड़-गुड़ बढ़ती जा रही थी। मन हो रहा था समारोह छोड़ कर निकल जाने का। ख़ामख़्वाह वो क्यों हास्यास्पद बना सबके सामने घूम रहा है। सबकी नज़रें उसके सूट के दायें कन्धे के झोल पर टिकी हुयी थीं। इतने में चीफ साहब की नज़र जीवन पर पड़ गयी। उन्होंने दूर से ही उसे आवाज़ दे कर बुलाया और बड़ी ही आत्मीयता से सीने में भींच लिया। जैसे कोई छोटा भाई बहुत दिनों बाद मिला हो। मन ही मन जीवन ने सोचा - चीफ साहब कितने भले इन्सान हैं उनका ध्यान सूट के झोल पर नहीं गया। उसे शायद ये नहीं पता कि तेज रोशनी में  लिपे-पुते चेहरे अपना-अपना झोल सीने में दफ़न किये हँसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते हैं। उसी की तरह सब अपने-अपने झोल में उलझे हैं, दूसरे के झोल से किसी को कोई सरोकार नहीं है। सभी का अतीत गर्व करने लायक हो ऐसा तो हो नहीं सकता।   

कीमती गिफ्ट मिसेज़ चीफ़ के हाथों सौंप कर उसने पहली बार हॉल को नज़र भर देखा कि शायद कोई अपना बिरादर मिल जाये। 

- वाणभट्ट 
     

शनिवार, 1 सितंबर 2018

या देवी सर्व भूतेषु

या देवी सर्व भूतेषु

सुबह-सुबह अदरक की कुटाई चल रही थी। टहलने के बाद किसी धार्मिक चैनल पर प्रवचन सुनते हुये अखबार से चिपक जाना प्रकाश की आदत बन चुकी थी। लोग अखबार ऐसे पढ़ते हैं जैसे किसी एग्जाम के लिये जीके की तैयारी कर रहे हों। पता नहीं कौन सा क्वेशचन कहाँ से आ जाये। लेकिन दस मिनट बाद कोई पूछ लें कि कोई खास खबर तो बतायेंगे फलां मोहल्ले में चोर भैंस हाँक ले गये...कैसा ज़माना आ गया है। 

कुछ अलग करने की गरज़ से प्रकाश एडिटोरियल पढ़ा करता था। समकालीन चिंतकों के विचार पढ़ना उसका शग़ल था। कब कहाँ मौका मिल जाये और वो उन विचारों को अपना बता कर बुद्धिजीवियों की कतार में शामिल हो जाये। विचारों का कहाँ कॉपीराइट होता है। ये बात अलग है कि संख्याबल पर चलने वाले इस देश में बुद्धिजीवियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। पढ़ते-पढ़ते उसने जिज्ञासा को आवाज़ लगायी "देवी चाय नहीं आयी अभी तक, अखबार खत्म होने को आया। अरे हाँ आज का अखबार बिल्कुल छूना मत। पता नहीं क्या-क्या छाप देते हैं देवी।" वो जिज्ञासा को देवी ही बुलाता था। शायद स्वयं को देवता घोषित करने का ये सबसे आसान तरीका है क्योंकि यंत्र नार्य पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता वाला सीधा-सटीक सिद्धान्त है।

जिज्ञासा चाय की ट्रे हाथ में लिये हाज़िर हो गयी। "क्यों न पढ़ूँ आज का पेपर। ज़रूर कोई नारी मुक्ति की बात लिखी होगी। चाहे कोई कितना भी पढ़-लिख ले लेकिन नारी की स्वतंत्रता उसे रास नहीं आती। अब तो पढ़ना ही पड़ेगा। अखबार बढ़ाओ।" चाय का प्याला पकड़ते हुये प्रकाश ने अखबार का न पढ़ने वाला पन्ना आगे करके पत्नी को पकड़ा दिया। 

प्रकाश एक मल्टीनेशनल फर्म में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। जिज्ञासा विज्ञान में पीएचडी कर के एक फार्मा कम्पनी में कार्यरत थी। दोनों की केमिस्ट्री अच्छी थी। नोक-झोंक हर समय चलती रहती। ऐसे ही साल गुज़रते गये और जिम्मेदारियाँ बढ़ती गयीं। जिज्ञासा ऑफिस और घर का मैनेजमेंट बखूबी निभाती जबकि उम्र में प्रकाश से कुछ छोटी ही थी। लेकिन दो बच्चों के बाद भी प्रकाश पूरा बच्चा ही बना हुआ था। जब तक वो घर पर रहता उसकी ज़िन्दगी जिज्ञासा के इर्द-गिर्द ही घूमती। कपड़े निकल दो। टाई कहाँ है। क्या खिला रही हो। हर समय कहाँ बिज़ी रहती हो। कुछ देर साथ बैठ जाया करो। लेकिन डबल ड्यूटी करने वाली जिज्ञासा के पास इतना समय कहाँ था। सो निर्णय ये हुआ कि सुबह की चाय साथ पियेंगे। और ये नियम बदस्तूर चलता था।

आज के एडिटोरियल में किसी महिला एक्टिविस्ट ने एक बहुत ही सुन्दर लेख लिखा था। उसका अभिप्राय ये था कि आज महिलायें लगभग हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही हैं। और अक्सर उनसे अच्छा भी। वो उच्च पदों को सुशोभित ही नहीं कर रही बल्कि उनमें निहित व्यावसायिक ज़िम्मेदारियाँ बखूबी निभा रही हैं। खास बात ये है कि घर वापसी पर भी घर के सारे काम उनका इंतज़ार कर रहे होते हैं। और वो इसे काम भी नहीं मानती। पति और बच्चों के साथ दोस्त-रिश्तेदारों को सम्हालना शायद सुपरवुमन के बस की ही बात है।

लेख ने एक प्रश्न खूबसूरती से उछाला था कि ये पुरुष ऑफिस में ऐसा क्या करते हैं कि घर आने के बाद सिर्फ टीवी देखने और मैगज़ीन पलटने लायक ही बचते हैं। देवता बनना शायद  कठिन नहीं है लेकिन देवता बने रहना थोड़ा मुश्किल ज़रूर है। जिज्ञासा ने लेख खत्म करते हुये अपने अंदाज में कहा "कब से हाथ बटाने का इरादा है मिस्टर प्रकाश।"

- वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...