प्रायश्चित
करिया भैया जब पैदा हुए तो झक सफ़ेद थे। दादी ने "आ गए करियउ" कहते हुये बच्चे का स्वागत किया और माथे पर काला टीका लगा दिया। बच्चे के माँ और बाप दोनों ही साफ़ रंग के थे इसलिये बच्चे के काला होने की गुंजाइश न के बराबर थी। लेकिन दादी को मालूम था कि कितनी मन्नतों और चार लड़कियों के बाद ईश्वर ने उनकी सुनी। गोदी में पोता लिया तो जैसे इस जन्म के सारे बन्धन कट गये। आठ पाउण्ड के सुन्दर-स्वस्थ बच्चे को हर बुरी नज़र से बचाना ज़रूरी था। इसलिये उन्होंने पहले से ही नाम सोच रखा था - काली प्रसाद मिश्र। उन दिनों 40 -50 साल के होने को आये बेटा-बहू की क्या मज़ाल कि अपने माँ -बाप की आज्ञा की अवहेलना कर सकें। इस प्रकार काली प्रसाद मिश्र जी का अवतरण भवानी प्रसाद मिश्र जी के आँगन में हो गया। स्कूल के नाम से अलग नाम की व्यवस्था सम्भवतः इसलिये की गयी ताकि घर-पास-पड़ोस का हर प्राणी अपने-अपने प्रेम को अपने-अपने हिसाब से व्यक्त कर सके। फलस्वरूप काली के जितने अपभ्रन्श सम्भव थे उन सभी नामों से उस खूबसूरत-हँसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते बच्चे को नवाज़ा गया। कलुवा, करियवा, कालिया, कल्लू और करिया आदि-आदि। आखिर के दो नाम बच्चे के साथ ऐसे चिपके कि लाख चाहने के बाद भी वो किसी के लिये कल्लू था तो किसी के लिये करिया।
मेधावी काली प्रसाद मिश्र ने उच्च शिक्षा प्राप्त करके एक शालीन सरकारी नौकरी का जुगाड़ कर लिया था। भवानी प्रसाद ने पूरी ज़िन्दगी सरकारी क्लर्की में निकाल दी थी। बेटा जब सरकारी अफसर बन गया तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। सरकारी आवास मिला। सरकारी गाड़ी मिली। गज़टेड क्लास वन बताते-बताते भवानी इतने भाव-विह्वल हो जाते कि लगता इसके पहले या बाद में कोई और इस पद की शोभा नहीं बढ़ा पायेगा। अब उनकी तमन्ना थी जल्दी से जल्दी अवकाश प्राप्त करके बेटे के साथ रहने की और उसकी अफसरी का लुफ़्त उठाने की। रिटायरमेन्ट के बाद स्कूल में शौकिया पढ़ाने वाली बहू ने बहुत समझाने की कोशिश की कि पिता जी आप अपने शहर और अपने मकान में ही रहिये हम लोग आते-जाते रहेंगे और आपका ख्याल रखेंगे। लेकिन भवानी बाबू के अपने तर्क थे। पत्नी के देहावसान और बेटियों के विवाह के बाद अब बस बेटा-बहू-पोते के साथ ही रहने की इच्छा है। और फिर पाँच कमरों के सरकारी बंगले में तुम ढाई प्राणी क्या करोगे। मैं साथ रहूँगा तो पोते को कहीं क्रेच में नहीं डालना पड़ेगा। "देखो कल्लू अब मैं अकेले यहाँ नहीं रहने वाला"। भवानी बाबू ने अपना निर्णय सुना दिया था।
सरकारी मकान में आ कर और पोते को गोद में लेकर दिन भर भवानी बाबू कालोनी में घूमा करते। काली प्रसाद को जिस बात का अन्देशा था वो होना ही था और हुआ भी। पूरे मोहल्ले को जल्द ही मालूम हो गया कि केपी साहब के घर का नाम कल्लू है। उन्होंने ड्राइंग रूम के दीवान पर अपना कब्जा जमा लिया। चूँकि टीवी भी वहीँ लगा था इसलिये यदि क्रिकेट या फुटबॉल मैच न आ रहा हो तो अपने पोते लालता प्रसाद मिश्र, जिसे प्रेम से वो लल्लू, लालू, ललुआ बुलाते, के साथ पोगो देखने में उन्हें बहुत आनंद आता। बेटे-बहू ने पिता जी के चक्कर में टीवी देखना छोड़ दिया। उन्हीं के चक्कर में केपी की मित्र मण्डली और बहू की सहेलियों ने आना-जाना कम कर दिया। निष्कपट भवानी बाबू का ध्यान इस ओर कभी गया ही नहीं। इन सब प्रपंचों से मुक्त उन्होंने अपना सर्वस्व लल्लू की सेवा में झोंक रखा था। उनके हिसाब से उन्हें इस जिन्दगी इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी।
सब कुछ ठीक चलता रहता यदि लल्लू का प्ले ग्रुप में दाख़िला ना होता। भवानी बाबू को क्या पता कि अफसर बनाना अब उतना आसान नहीं रहा। प्लेग्रुप से जब बच्चा मेहनत करेगा तभी तो इंजिनियर या डॉक्टर बनेगा। उनका ज़माना तो रहा नहीं कि डिग्री लो और नौकरी पा जाओ। बेटे-बहू को अब पोते के भविष्य की चिन्ता होने लगी थी। "देखो ये पिता जी के साथ रहेगा तो यही सब करेगा। टीवी में कितना मन लगता है इसका। ऐसा करो पिता जी को पीछे कमरे में शिफ्ट कर देते हैं। एक टीवी और लगवा दो। उन्हें क्या, बस दिन भर टीवी ही तो देखना है।" पति-पत्नी ने मशविरा किया और अगले दिन इस योजना को क्रियान्वित भी कर दिया। पढ़ाई बढ़ने के साथ-साथ लल्लू भी व्यस्त होता चला गया। कभी ट्यूशन्स तो कभी कोचिंग। उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते बिना जले ही रस्सी के सारे बल ढीले पड़ जाते हैं। मूल और सूद के दम पर अपना घर छोड़ आये थे। अब तो जिस विधि राखे राम उसी विधि रहिये वाली स्थिति थी। शरीर भी कम साथ देने लगा था इसलिये बाहर निकलना दिनोंदिन कम होता जा रहा था। शाम होते-होते पीछे कमरे में उनका मन हुड़कने लगता। पता भी नहीं चलता कल्लू ऑफिस से आये की नहीं।
साढ़े-चार बजते न बजते वो साइड के गलियारे से निकल कर गेट तक आ जाते। और गेट पर लटक कर कल्लू के लौटने का इन्तज़ार करते। हर आने-जाने वाले से अपनी फ़िक्र का ज़िक्र ज़रूर करते। "का बतायीं अबहिन तक कल्लू नहीं आये।" अन्दर से बहू चिल्लाती "बाबू जी अन्दर आ जाइये जब आना होगा आ जायेंगे। आपके गेट पर खड़े होने से वो जल्दी नहीं आ जायेंगे।" धीरे-धीरे ये रोज का नियम बन गया था। अब तो अडोसी-पडोसी भी चुटकी लेते। पूछ लेते "बाबू जी कल्लू अभी आये नहीं क्या।" भवानी बाबू निशंक भाव से बताते कि "आज बड़ी देर हो गयी। कल्लू को पता नहीं ऑफिस में कौन सा काम आ गया। पता नहीं कहाँ लेट हो गये।" गेट पर ऑफिस की दिशा में टकटकी लगाये खड़े बाबू जी को देख कर सरकारी गाड़ी से उतरते हुये श्रीमान केपी मिश्र उर्फ़ कल्लू का रोम-रोम सुलग उठता। उन्हें पता था कि साढ़े-चार बजे से गेट पर लोग कल्लू-कल्लू नाटक का रसास्वादन कर रहे होंगे। वो आपे से बाहर हो उठता। उन्हें लगभग डाँटते हुये अन्दर चलने को कहता। भवानी बाबू शायद इसी में खुश हो जाते कि बेटा सकुशल वापस आ गया और उसने उनसे बात की।
जगह बदलती है, समय बदलता है, नहीं बदलता है समय का लेख। कल ही किसी ने सूचना दी कि करिया भैया बेटे लल्लू के साथ लखनऊ में रह रहे हैं। आजकल केपी बाबू हर शाम बालकनी में आधे लटके हुये टकटकी बाँधे लल्लू के ऑफिस से लौटने का इंतज़ार करते हैं। और लल्लू ऑफिस से लौटते ही जब तक उन्हें दो-चार खरी-खरी न सुना दे, वो अन्दर नहीं जाते। उन्हें उसकी बातों का बिल्कुल बुरा भी नहीं लगता। ये सिलसिला हर रोज घटित होता है। जाने अन्जाने शायद यही उनका प्रायश्चित है।
-वाणभट्ट
जैसा बोवोगे वैसा ही काटोगे। लगता है कि हम भी अछूते नहीं रहेंगे
जवाब देंहटाएंयस प्रोफेसर...कहानी का यही उद्देश्य है...👍
हटाएंदिल को छू गई सर। बिल्कुल सत्य कहा है आपने।
जवाब देंहटाएंजीवन का शाश्वत सत्य।जितनी जल्दी स्वीकार लो उतना अच्छा
जवाब देंहटाएंसमय रहते वास्तिविकता से परिचयलेख का अति ।मूल भाव बहुत देखने सुनने को मिलता रहता है। परंतु प्रत्येक लेखक की प्रस्तुत करने की कला ही किसी लेख के प्राण जैसी होती है। लेख पढ़ कर मुंशी प्रेमचंद की कहानियों को याद ताजा हो गई। एक और बात याद आ गई। के पी मिश्रा जी की तरह एक डी सिंह थे। परंतु जब प्रोफेसर क्लास में उन्हें डेंजर या डांगर बुलाते तो उनकी हालत कैसी होती थी बताने की आवश्यकता नहीं बस के पी मिश्रा का ध्यान ही काफी है। अति सुंदर लेख। बधाई
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