शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

बिरादर

बिरादर 

चीफ साहब ने अपने रिटायरमेंट की फेयरवेल पार्टी थ्री-स्टार होटल में रखी थी। वो कभी साहब का ख़ास हुआ करता था, सो दूसरे शहर में रहने के बावजूद उसको आमन्त्रण मिला। चूँकि आख़िरी मौका था। इसके बाद कुछ श्रद्धा सुमन अर्पित करने का सौभाग्य न मिले, इसलिये आधे दिन की छुट्टी लेकर वो फ़ंक्शन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने पहुँच गया। 

टैक्सी कर के पहुँचने पर भी उसे कुछ देर हो गयी। जब वो पहुँचा, पार्टी अपने शबाब पर थी। हॉल में घुसते हुये उसके पेट में एक अजीब सी गुड़-गुड़ होने लगी। उसे लगा सबकी निगाहें उसी पर टिकी हैं और हर शख़्स उसे घूरता सा लगा। कुछ लोग उसे देख कर बातें कर रहे थे। कुछ उसे कनखियों से देख कर मुस्कुराते और अट्ठहास करते से लगे। वो कॉन्शस हो गया। 

दरअसल उसने इस पार्टी के लिये विशेष रूप से सूट सिलवाया था। जल्दबाज़ी में टेलर को सिर्फ एक बार ट्रायल दे पाया। ऑफिस से आधे दिन की छुट्टी लेकर जैसे-तैसे टेलर के यहाँ से सूट कलेक्ट करते हुये जब तक घर पहुंचा, तब तक टैक्सी वाला आ चुका था। दस मिनट में तैयार हो कर वो टैक्सी में बैठ गया था। घर से चलते-चलते उसने आदमक़द आईने में अपना निरीक्षण किया। एक झल्लाहट सी हुयी उसे टेलर के ऊपर। इतना कहने के बाद भी दायें कन्धे के पास एक झोल आ ही गया। जब वो पार्टी में पहुँचा तो उसे लगा पार्टी में मौज़ूद हर व्यक्ति का ध्यान नये सूट के उस झोल पर है और हर कोई उस पर टीका-टिप्पणी कर के आनन्द ले रहा है। उसका मूड स्पॉइल हो गया। ये लोग भी अपने काम से काम नहीं रखते बस दूसरे के फटे में टांग अड़ाते रहते हैं। एक तो दर्ज़ी ने इतना मँहगा कपड़ा ख़राब कर दिया और इन्हें मज़ाक का मौका मिल गया।

जब वो बीटेक करने प्रौद्योगिकी कॉलेज में प्रवेश लेने गया था तब भी उसे ऐसा लगता था कि सारे लोग उसके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। वो उसको पिछड़ा होने के कारण कुछ हेय दृष्टि से देखते हैं। प्रोफ़ेसर और छात्र सब उसके ख़िलाफ़ हैं और जानबूझ कर उसे नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उसको सामाजिक असमानता का पाठ घुट्टी में पिलाया गया था। तथाकथित सम्भ्रान्त बने बैठे लोगों ने उनके पुरखों पर कितने अत्याचार किये। उनको गाँव के बाहर रहना पड़ता था। लोग उनकी परछाईं से भी दूर भागते थे। कोई उनके हाथ का छुआ न छूता था न खाता था। उन्हें अछूत होने का दंश झेलना पड़ता सो अलग से। ठाकुर-बाम्हन-बनिया सब सक्षम लोग थे जो इनको आगे बढ़ते नहीं देख सकते थे। शिक्षा के अधिकार तक से इन्हें वंचित कर रखा था।

यद्यपि की जीवन ने उस जीवन को न कभी देखा था न भोगा था। लेकिन रोज सुबह शीशे में अपना अक़्स देखते हुये उसकी सारी स्मृतियाँ चलचित्र की तरह जागृत हो जाती। तथाकथित अगड़ों के प्रति उसका मन तिरस्कार से भर जाता था। पिता जी भी उसे याद दिलाने का कोई मौका न छोड़ते कि उनके साथ बहुत अन्याय हुये थे। 

पिता जी को बचपन से पढ़ने-लिखने में होशियार थे। उनकी प्रतिभा को देख कर पण्डित हेडमास्टर ने उन्हें प्रोत्साहित किया। पाँचवीं की छात्रवृत्ति के आधार पर उनका दाखिला शहर के सरकारी स्कूल में करवाने में हर संभव मदद की। अपने अथक परिश्रम और प्रयासों के द्वारा पिता जी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में समाज में व्याप्त तमाम अंतर्विरोधों के बावज़ूद बड़े अधिकारी के पद तक पहुँचे। लेकिन अतीत के नाम पर उनके पास केवल समाज में व्याप्त कुरीतियाँ और पुरखों की कानबीती के दुःस्वप्न ही बचे थे। जिसमें हेडमास्टर साहब का योगदान शामिल नहीं था। 

वो अपने सभी बच्चों को पढ़ने के लिये प्रेरित करते और अपने बीते हुये दिन याद दिलाते रहते। ये बात अलग है कि अधिकारी बनने के बाद से उनका गाँव से संपर्क लगभग खत्म था। सरकारी स्कूल में दाखिले के साथ ही गाँव का मोह कम होता चला गया। वजीफ़े से ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढाई ने घर पर निर्भरता को ख़त्म कर दिया था। पिता जी ने जिस दिन छोटे भाइयों को अपने साथ रख कर पढ़ाने के लिये कहा तो साल में दो-चार चक्कर जो घर के लग जाते थे, वो भी कम हो गये। नौकरी लग जाने के बाद अपनी ही बिरादरी के शहराती परिवार ने छेक लिया। और पढ़ी-लिखी लड़की के बीवी बन जाने के बाद तो गाँव-घर जाना बन्द सा हो गया। एक-एक कर के वो हर उस छाया से दूर होने में लग गये जो उनको उनके पिछड़ेपन की याद दिलाती। अपने ही गाँव-घर-परिवार के लोग उन्हें पिछड़े और जाहिल नज़र आते। अतीत का सब कुछ वो भूल चुके थे सिवाय इसके कि उनके पुरखे किस अन्याय और अत्याचार से गुजरे थे। अपने बच्चों को वो इन्हीं यादों के सहारे पढ़ाई के लिए प्रेरित करते। 

उन्होंने सभी बच्चों को बारहवीं तक विज्ञान विषय से पढ़ने का अवसर दिया। टारगेट था किसी तरह बारहवीं पास करना। अपनी-अपनी योग्यता अनुसार कोई इंजिनियर बन गया कोई डॉक्टर। चूँकि उनकी तरह किसी ने बीए नहीं किया नहीं तो प्रशासनिक सेवा में ज़रूर सेलेक्ट हो जाता। जीवन ने एनआईटी से सिविल में बीटेक किया। उस समय सिविल सिर्फ़ एंट्रेंस के टॉप उम्मीदवारों को ही मिल पाती थी। निर्माण विभाग में उसकी नौकरी की शुरुआत आज रिटायर हो रहे चीफ़ साहब के अन्तर्गत ही हुयी। अपनी ही बिरादरी के होने के कारण उन्होंने उसको एक पुत्र का सा स्नेह दिया। उनकी छत्रछाया में उसने अभियांत्रिकी के वो गुर सीखे जो एनआईटी के गुरुजन नहीं सीखा पाए थे। आज उसके पास वो सब कुछ था जो एक सुविधजनक जीवन के लिये आवश्यक समझा जाता है। उसके जीवन में ऐसा कुछ नहीं था जिसके लिये वो किसी और को दोष दे सके। लेकिन पिता जी के द्वारा बचपन से सुनाये गये संस्मरण उसके जेहन में ऐसे अंकित थे जैसे उसने भी वही नारकीय जीवन जिया हो। गाहे-बगाहे बिना उसकी इच्छा और अनुमति के पिता प्रदत्त संस्कार जागृत हो जाते थे। विशेष रूप से किसी आयोजन या समारोह में। 

उसके पेट की गुड़-गुड़ बढ़ती जा रही थी। मन हो रहा था समारोह छोड़ कर निकल जाने का। ख़ामख़्वाह वो क्यों हास्यास्पद बना सबके सामने घूम रहा है। सबकी नज़रें उसके सूट के दायें कन्धे के झोल पर टिकी हुयी थीं। इतने में चीफ साहब की नज़र जीवन पर पड़ गयी। उन्होंने दूर से ही उसे आवाज़ दे कर बुलाया और बड़ी ही आत्मीयता से सीने में भींच लिया। जैसे कोई छोटा भाई बहुत दिनों बाद मिला हो। मन ही मन जीवन ने सोचा - चीफ साहब कितने भले इन्सान हैं उनका ध्यान सूट के झोल पर नहीं गया। उसे शायद ये नहीं पता कि तेज रोशनी में  लिपे-पुते चेहरे अपना-अपना झोल सीने में दफ़न किये हँसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते हैं। उसी की तरह सब अपने-अपने झोल में उलझे हैं, दूसरे के झोल से किसी को कोई सरोकार नहीं है। सभी का अतीत गर्व करने लायक हो ऐसा तो हो नहीं सकता।   

कीमती गिफ्ट मिसेज़ चीफ़ के हाथों सौंप कर उसने पहली बार हॉल को नज़र भर देखा कि शायद कोई अपना बिरादर मिल जाये। 

- वाणभट्ट 
     

4 टिप्‍पणियां:

  1. Birader ka jhol. ...Buradari ka Dhong . Boss apni kahaniyan Nilesh Mishra ko bheje taki apne programme 'Yadon Ka Idiot Box'mein shamil ho

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  2. बहुत ही समीचीन लेख,जो कल भी प्रासंगिक था और आज
    भी उतना ही दुःखतर है।वर्ग और वर्ण विभाजन से अभिशप्त ये हमारा समाज कब इससे उबरेगा, ये एक यक्ष प्रश्न है।तथाकथित शोषित वर्ग भी इसके लिये उतना ही उत्तरदायी है जितने कि अन्य।जब इनका मानव विज्ञान की भाषा में संस्कृति करण हो जाता है तो ये अपने वर्ग को ही भूल जाते हैं और समाज के तथाकथित उच्च(सवर्ण)में घुलने मिलने,उनकी आदतों में अपने को ढालने के प्रयास करते हैं।

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  3. जातिगत हीन भावना भारतीय समाज का कोढ़ है।जब तक फॉर्म में जाति का कॉलम है,सम्विधान में आरक्षण का प्रलोभन है,समाज से इसे दूर करना नामुमकिन है।

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