रविवार, 12 जून 2011

बुरा किया!

बुरा किया!

बुरा किया उसने
जो अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर
ज़मीर बेच दिया.

इस तरह बोझ से मुक्त हो
वो
उठता गया ऊपर और ऊपर.

इतना ऊपर की उसे आदमी चींटी लगते
कभी-कभी उनका पैरों के नीचे आ जाना
उसे उनकी नियति लगता

कभी-कभार उनकी बाँबियों पर
कुछ आटा बिखेर वो कुछ पुण्य भी कमा लेता
और अपनी नज़र में कुछ और ऊपर उठ जाता

दो जून की रोटी के लिए
दिन-रात लड़ना 
और
अपने हक के लिए
हर रोज़ मरना
उसे न था गवारा

ज़मीर न बेचता तो क्या करता

क्या बुरा किया, उसने.

- वाणभट्ट

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बात से सहमत हूँ। मजबूरी में सब जायज है।

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  2. ज़मीर न बेचता तो क्या करता-सिस्टम के साथ कदमताल न मिलाता, तो मर मर कर जीता....जब तक सिस्टम न बदलेगा...यही होगा.

    उम्दा रचना.

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  3. उत्कृष्ट कविता बधाई भाई वाणभट्ट जी बिलम्ब के लिये क्षमा चाहता हूँ परिवार में विवाह था |

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  4. मज़बूरी में इंसान को बहुत कुछ करना पड़ता है| धन्यवाद|

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  5. जिन्दगी अगर होती इतनी सीधी तो
    ये .....
    मजबूरी ना होती

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  6. अगर ज़मीर को न बेचता तो शायद अपनी और इश्वर की नज़रों में अवश्य बड़ा हो जाता..
    परिस्थितियाँ तो बनती रहेंगी.. पर कभी-कभी उनके खिलाफ आवाज़ उठा कर लड़ना ही एक सच्चे इंसान का जज्बा है..

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  7. ज़मीर न बेचता तो क्या करता
    क्या बुरा किया, उसने.

    अत्यंत मार्मिक रचना , बधाई ....

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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