बुरा किया!
बुरा किया उसने
जो अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर
ज़मीर बेच दिया.
इस तरह बोझ से मुक्त हो
वो
उठता गया ऊपर और ऊपर.
इतना ऊपर की उसे आदमी चींटी लगते
कभी-कभी उनका पैरों के नीचे आ जाना
उसे उनकी नियति लगता
कभी-कभार उनकी बाँबियों पर
कुछ आटा बिखेर वो कुछ पुण्य भी कमा लेता
और अपनी नज़र में कुछ और ऊपर उठ जाता
दो जून की रोटी के लिए
दिन-रात लड़ना
और
अपने हक के लिए
हर रोज़ मरना
उसे न था गवारा
ज़मीर न बेचता तो क्या करता
क्या बुरा किया, उसने.
- वाणभट्ट
आपकी बात से सहमत हूँ। मजबूरी में सब जायज है।
जवाब देंहटाएंज़मीर न बेचता तो क्या करता-सिस्टम के साथ कदमताल न मिलाता, तो मर मर कर जीता....जब तक सिस्टम न बदलेगा...यही होगा.
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना.
samsamayik bhav liye rachna..... bahut badhiya
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट कविता बधाई भाई वाणभट्ट जी बिलम्ब के लिये क्षमा चाहता हूँ परिवार में विवाह था |
जवाब देंहटाएंमज़बूरी में इंसान को बहुत कुछ करना पड़ता है| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंsocho to kuch bhi galat nahin
जवाब देंहटाएंजिन्दगी अगर होती इतनी सीधी तो
जवाब देंहटाएंये .....
मजबूरी ना होती
अगर ज़मीर को न बेचता तो शायद अपनी और इश्वर की नज़रों में अवश्य बड़ा हो जाता..
जवाब देंहटाएंपरिस्थितियाँ तो बनती रहेंगी.. पर कभी-कभी उनके खिलाफ आवाज़ उठा कर लड़ना ही एक सच्चे इंसान का जज्बा है..
ज़मीर न बेचता तो क्या करता
जवाब देंहटाएंक्या बुरा किया, उसने.
अत्यंत मार्मिक रचना , बधाई ....