ग़ज़ल : अगर इस कह सकते हैं तो...
सोते हुए शहर को जगाने की चाह है
सोते शहर में जागना भी इक गुनाह है
पत्तों भी दरख्तों का साथ छोड़ जायेंगे
कुचले हुए चमन के फूलों की आह है
पसरा पड़ा है घटाटोप अँधेरा हर कहीं
चिरागों को शहीद बनाने की राह है
कीचड़ निगल रहा कमल को सरेआम
सूरज पे भी दाग लगाने की चाह है
अपनों ने ही लगाई है दामन की ये आग
समझे जिसे बैठे थे कि ये ही पनाह है
अंधों को बेच आईने तू क्या करे 'प्रसून'
वो देख क्या सकेंगे जब फ़िज़ा ही स्याह है
वाह-वाह,
(स्वनामधन्य पत्रकारिता के युग में अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना ज़रूरी है...पता नहीं कोई और तारीफ़ करे...न करे...)
(स्वनामधन्य पत्रकारिता के युग में अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना ज़रूरी है...पता नहीं कोई और तारीफ़ करे...न करे...)
- वाणभट्ट
अजी इस क़ाबिले तारीफ़ ग़ज़ल को सुन (पढ़) कर वाह-वाह तो निकलेगी ही।
जवाब देंहटाएंकीचड़ निगल रहा कमल को सरेआम
सूरज पे भी दाग लगाने की चाह है
बेहतरीन! लाजवाब!!
पत्तों भी दरख्तों का साथ छोड़ जायेंगे
जवाब देंहटाएंकुचले हुए चमन के फूलों की आह है
bahut hi badhiya gazal
कीचड़ निगल रहा कमल को सरेआम
जवाब देंहटाएंसूरज पे भी दाग लगाने की चाह है
अपनों ने ही लगाई है दामन की ये आग
समझे जिसे बैठे थे कि ये ही पनाह है
बहुत सटीक बात कही है ..
कीचड़ निगल रहा कमल को सरेआम
जवाब देंहटाएंसूरज पे भी दाग लगाने की चाह है
बहुत सटीक बात|
Accha likh rahe hai bandhu,aapki rachna pasand ayee.
जवाब देंहटाएंsader,
dr.bhoopendra singh
rewa