कुछ लोगों को लेख के टाइटल से शिकायत होनी लाज़मी है. दरअसल सभ्यता का तकाज़ है कि कुत्ते को कुत्ता न कहा जाये. भले ही कुत्ता कितना बड़ा कमीना हो. आख़िर कुत्तों के भी कुछ मानवाधिकार हैं. उन्हें व्यक्तिवाचक सम्बोधन से बुलाना श्रेयस्कर है, जातिवाचक उद्बोधन उनके सम्मान को ठेस पहुँचा सकता है. इन परिस्थितियों में यदि उसने आपके दुर्व्यवहार से कुपित हो कर काट लिया तो आपको बुरा मानने का अधिकार नहीं है.
आजकल जिस चैनेल पर देखो, डिबेट छिड़ी हुयी है, कुत्तों के पक्ष और विपक्ष में. धरती जब से क़ायम है, तब से द्वैत भी स्थापित है. इलेक्ट्रॉन है तो प्रोटॉन भी है. ज़मीन है तो आसमान भी है. स्थिर है तो चालयमान भी है. जीवन है तो मरण भी है. वाद-विवाद भी तभी होगा जब एक पक्ष सही को सही कहेगा और दूसरा उसी सही को गलत. दोनों ही सही को सही या ग़लत को गलत कहेंगे तो वाद-विवाद की गुंजाइश ही नहीं बचेगी. ऐसे में और कोई समस्या हो या न हो लेकिन लोग अपना बहुमूल्य समय कैसे काटेंगे, ये एक राष्ट्रीय चुनौती बन जायेगा. जिस देश में हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान भी सरकार द्वारा किये जाने की उम्मीद पाले बैठा हो, वहाँ सरकार को लोगों का समय कैसे कटे इसके लिये अध्यादेश लाना पड़ेगा. फिर उसके समर्थन और विरोध में चैनलों पर डिबेट होगी, पार्लियामेंट में गतिरोध होगा, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी, अखबार में सुर्खियाँ बनेंगी और लोगों का समय कट जायेगा. जिनको भगवान ने दूरदृष्टि से नहीं नवाज़ा है, उनका आज कट जाये तो फिर कल की कल देखी जायेगी वाले एटीट्युड में उनका पूरा जीवन ही कट जाता है.
कुछ लोगों का तो काम ही है विरोध करना. यदि आप खेत कहेंगे तो वो खलिहान की बात करेंगे. ऐसे लोग ही हैं जिनके कारण समाज में निरंतर कोई न कोई बहस चलती रहती है. उन्हें बहस खत्म करने की गरज नहीं है, बल्कि बहस-मुबाहिसा जारी रहे, बिना किसी स्वार्थ के उनकी बस इतनी सी ख्वाहिश रहती है. बहस खत्म हो गयी तो वो करेंगे क्या. क्या विधानसभा क्या लोक सभा. क्या कोर्ट क्या कचहरी. यदि बहस नहीं होगी तो बहुतों की नौबत फ़ाक़ाकशी की आ जायेगी. कुल मिला के ये कहा जा सकता है कि बहसबाजी का मुख्य उद्देश्य कंफ्यूजन क्रियेट करना है ताकि सही और गलत का निर्णय ना हो पाये. और सही को इतना कन्फ्यूज हो जाये कि गलत के आगे आत्मसमर्पण कर दे.
नौकरी के शुरूआती दिन थे. तनख्वाह कम थी और मकान किराये का. मकानमालिक रात नौ बजे गेट पर ताला लगा देता था. और विजय का मार्केटिंग का जॉब था. लौटने का कोई समय न था. मकानमालिक था भला आदमी. उसका व्यवहार पितृवत था. कभी भी उन्होंने गेट खोलने में कोई हुज्जत नहीं की. रात-बिरात जब भी उस घर का कोई सदस्य लौटे तो उनको पता होना चाहिये कि कौन कब लौटा और क्यों देर से लौटा. उस नियम के लपेटे में किरायेदारों को भी आना ही था. विजय बाबू की समस्या ये थी कि वो शहर में नये थे और गली के कुत्तों लिये बिलकुल अनजान. जब तक मकानमालिक गेट न खोल दे, गली के कुत्ते भौंक-भौंक के उसका जीना मुहाल कर देते. मार्केटिंग के बन्दों की यही खासियत उन्हें आरएनडी और प्रोडक्शन के लोगों से अलग करती है कि उन्हें दुनिया देखनी और झेलनी पड़ती है. जबकि बाकी सब अपनी कम्फर्ट ज़ोन में भी कम्फर्ट महसूस नहीं कर पाते. दिनभर की भागा-दौड़ी में विजय बाबू को रात में ही सॉलिड डिनर करने का मौका मिलता था. नॉनवेज के शौक़ीन थे. उन्होंने भोजन के अवशेष प्लेट में छोड़ने के बजाय पॉलीथीन में पैक कराना शुरू कर दिया. अब वही गली के कुत्ते देर रात तक दुम हिलाते हुये विजय के लौटने की बाट जोहते. ये कुत्तों की खासियत है, बोटी फेंको तो उनकी दुम में ब्राउनियन मोशन शुरू हो जाता है.
जब से लोगों को पता चला कि श्वान को साधने से खतरनाक ग्रह सध जाता है तबसे लोगों का कुत्तों के प्रति अगाध स्नेह उमड़ पड़ा है. घर में श्वान पालना एक जिम्मेदारी वाला काम है. घर के मेम्बर की तरह उसका भी ख्याल रखो. खाना-पीना, दवा-दारु. इसमें खर्चा तो है ही लेकिन सबसे बड़ी समस्या सुबह-शाम टहलाने की है. नहीं टहलायेंगे तो डर रहता है कि जिन गद्दों और एसी कमरों में वो रहता है, वहीं गन्दगी न कर दे. बाहर टहलाने के चक्कर में दूर-दूर तक के मोहल्लों में दुश्मनी हो जाती है, सो अलग से. अपने मोहल्ले में टहलाओ तो पड़ोसियों से दुश्मनी होने की सम्भावना रहती है. और अच्छे-बुरे दिनों में पडोसी ही साथ देते हैं, इसलिये मोहल्ले में टहलाने का प्रश्न नहीं उठता. दूसरे मोहल्ले में जाओ तो उस मोहल्ले के लोग और कुत्ते वस्तुतः कुत्ता बना देते हैं. कुत्ता पालक अपने अन्दर के जानवर (कुत्ते) को न जगाये तो दूसरे मोहल्ले में टहल या टहला पाना कोई हँसी-मज़ाक नहीं है.
जब गली में ढेर सारे लावारिस कुत्ते घूम रहे हों तो ग्रह शान्ति के लिये के लिये कुत्ते पालना कहाँ की समझदारी है. जब से लॉकर में घर की बहुमूल्य वस्तुयें रखी जाने लगीं हैं, चोरों को भी मालूम है कि घरों में कुछ नहीं मिलना. तो उन्होंने भी एटीएम उड़ाने और ऑनलाइन हैकिंग को अपना लिया है. ऐसे में सुरक्षा के दृष्टिकोण से कुत्ते पालना कतई उचित नहीं है. सड़क के कुत्तों का क्या है बस दिन में एक रोटी के चार टुकड़े कर के फेंक दो, उसी में दुम हिलाते रहते हैं. कुत्ते भले दस हों या बीस, रोटी एक ही निकलती है. हमने अपनी भूमिका निभा दी बाकी मोहल्लावासी भी तो अपना योगदान दें. आख़िर ये सुरक्षा तो सभी की करते हैं. भोजन कम मिलने के कारण सड़क के कुत्ते मालनरिश्ड हो गये हैं. दिन भर इधर-उधर पड़े गहन निद्रा में सोते रहते हैं. निंद्रा इतनी गहन होती है कि जब तक स्कूटर-कार इनके सर पर न पहुँच जाये ये हिलते नहीं हैं. दिन भर में हॉर्न की इतनी हॉन्किंग सुन लेते हैं कि आपके हॉर्न बजाने का इन पर कोई असर नहीं होता. लेकिन पालतू कुत्तों की तुलना में सड़क के कुत्तों में एक और अच्छाई है. पालतू कुत्ते साफ़-सुथरी जगह पर ही निवृत होना पसन्द करते हैं. उनके मालिक भी जब साथ चलते हैं तो ये अन्दाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन किसको टहला रहा है. कुत्ता चलता है तो ये चलते हैं, कुत्ता रुक जाये तो इनका सारा ध्यान उसके निवृत होने की प्रक्रिया पर रहता है. भले ही वो गेट आपका हो. इसी चक्कर में मुझे पचीस हज़ार ख़र्च कर के सीसीटीवी लगवाना पड़ा ताकि कम से कम ये तो पता चल सके कि ये किस कुत्ते का काम है.
मिश्र जी नहाने के लिये तौलिया लपेटे तैयार थे. एकाएक उन्हें याद आया कि गेट पर थोड़ी झाड़ू-बुहारू कर ली जाये. उसी अवस्था में वो झाड़ू ले कर गेट पर आ गये. गेट पर एक कुत्ता उनके ऊपर लपका, जिसकी तीव्रता को उन्होंने झाड़ू दिखा कर शान्त कर दिया. झाड़ू लगा कर वो नहाने घुस गये. नहा कर निकले ही थे कि कॉलबेल बज गयी. बाहर निकले तो पुलिस की गाड़ी खड़ी थी जो उन्हें बैठा कर थाने ले गयी. किसी कुत्ता प्रेमी ने उनकी झाड़ू से कुत्ते को मारते हुये फ़ोटो खींच कर पुलिस में शिकायत कर दी थी. किसी तरह मामला निपटा पर मिश्र जी घर तो लौट आये. रात भर दहशत में रहे कि कहीं कल के अख़बार में उनकी तौलिया पहने फोटो न आ जाये.
जब स्मार्ट वाच खरीद ही ली तो दस हज़ार स्टेप्स चलने की तमन्ना भी जागृत हो गयी. वाच पर पैसा ख़र्च किया था, तो घर से निकलना ज़रूरी हो गया. उन दिनों वाच नयी थी और उसका पैसा वसूलने के इरादे से जब भी मौका मिलता, मै सड़क पर होता. एक रात दस बजे मौका मिला. रूट थोडा लम्बा पकड़ लिया. ये एहसास जब हुआ तो विचार बना कि शॉर्टकट से निकल लिया जाये. रास्ता आधा हो जाता. गली में सन्नाटा पसरा था. स्ट्रीट लाईट जल रही थी. किसी प्रकार की कोई गतिविधि नहीं दिख रही थी. जल्दी वापस लौटने के इरादे से गली में 20-30 कदम ही बढ़ा होऊँगा कि एक मिट्टी का ढेर कुत्ते में तब्दील हो कर भौंकता हुआ मेरी ओर लपका. और देखते ही देखते और भी मिट्टी के ढेरों में जीवन आ गया. सर पर पाँव रख कर भागना क्या होता है, उस दिन मेरी समझ में आ गया. लम्बे रूट से भी जब तक घर नहीं पहुँच गया, दिल की धड़कन पर मेरा नियन्त्रण नहीं था. वो दिन है और आज का दिन, सुबह-दोपहर-शाम-रात जब भी टहलने निकलता हूँ तो ढाई फ़िट की एक चमचमाती हुयी सुनहरे रंग की परदे की रॉड बैटन के रूप में मेरे हाथ में शोभायमान होती है. कुत्ता प्रेमी चमकती बैटन का उद्देश्य कुत्तों पर प्रहार के लिये कतई न समझें. ये इसलिये है कि कुत्तों को दूर से दिख जाये कि मेरे हाथ में कुछ है. पास आने पर कुत्ते ये न सोचें कि वर्मा जी भी कुत्तई कर गये.
ये दुर्भाग्य ही है कि अल्पमत मुखर है और बहुमत शान्त. एक या दो प्रतिशत कुत्ता प्रेमियों की तुलना में कुत्ता पीड़ितों की संख्या बहुत ज्यादा है. लेकिन ये दो प्रतिशत लोग पूरे समाज को कुत्तों के प्रति दया का सन्देश दे रहे हैं. इनमें से अधिकांश मांसभक्षीयों का अन्य जीवों के प्रति पशु प्रेम नहीं उमड़ता. कुत्ता प्रेमियों से निवेदन है कि कुत्तों के मानवाधिकार के लिये बेशक नैशनल और इंटरनैशनल लेवल तक अवश्य लडें लेकिन उनके कल्याण के लिये कुछ करें. सिर्फ़ दिन में दो बार रोटी डाल कर कुत्ता प्रेम से मुक्त न हो जायें. उनके लिये शेल्टर होम बनायें. उनके भोजन, रहन-सहन, दवा-दारू का सम्पूर्ण ख्याल रखें. कुत्ता पीड़ित इस पुनीत कार्य के लिये, किसी प्रकार का धनावरोध नहीं आने देंगे. फिलहाल ये काम आप अपने घर के एक कमरे से आरम्भ कर सकते हैं. आपका प्रेम और हमारा जीवन दोनों सुरक्षित रहेंगे.
-वाणभट्ट
Very immediate problem & best solution in your writing.Keep it up.🙏🙏
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी का एक कुत्ता प्रेमी में भी हूँ | बहुमत में से एक को मेरे कुत्ते ने भौंक दिया मेरे ही घर के आंगन से और उसने सी एम पोर्टल पर मेरी और मेरे कुत्ते की शिकायत कर दी | नगर निगम ने नोटिस थमा दिया | शेल्टर खोलेंगे तो लोग निचोड़ देंगे| :(
जवाब देंहटाएंरोचक आलेख, हमारी सोसाईटी में भी यही बहसबाजी पिछले कई दिनों से चल रही है, अब तो लोग सुप्रीम कोर्ट का उदाहरण देकर अपनी बात सही ठहरा रहे हैं।
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