कोई पूछे कि आदमी क्या है? तो गुलज़ार साहब कहते कि आदमी बुलबुला है पानी का. अब हम गुलज़ार तो हैं नहीं, इसलिये पुराना घिसा-पिटा डायलॉग मार देते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. आजकल जिसे देखो बस यही सिद्ध करने में लगा रहता है कि समय बहुत बदल गया है. समय ही तो एक ऐसी चीज़ है जो पल प्रति पल नवीन है. उसे निरन्तर आगे बढ़ना और बदलना ही है. लोगों की ये टिप्पणी अमूमन समय को लेकर कम समाज को लेकर अधिक होती है. जब समय हर समय बदल रहा है, तो समाज का बदलना भी तय है. वो वैसा का वैसा कैसे रहेगा जैसे पहले था. लेकिन आदमी की आदत है, उसे या तो भूत में जीना है या भविष्य में. हर कोई जमाने से पता नहीं क्या-क्या उम्मीदें पाले घूम रहा है. उनकी बातों से लगता है - 'क्या से क्या हो गया' या 'ये कहाँ आ गए हम'. उनका पसन्दीदा विषय होता है कि क्या ज़माना हुआ करता था और अब क्या हो गया है. वाट्सएप्प पर स्टेटस ऐसा लगाते हैं मानो समाज उनका उधार खा कर चुकता करना भूल गया हो. उन्होंने तो समाज को बचाने के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और ज़माना कृतघ्न निकला. भूतकाल की यादें संजोये कहेगा - जाने कहाँ गये वो दिन. जब आज की नयी पीढ़ी ने कन्चे और गुल्ली-डंडा खेला नहीं, देखा नहीं, जिन्होंने वीडियो गेम पर अपना बचपन गुजार दिया हो, उनको आपके 'हाय वो भी क्या दिन थे', से क्या ख़ाक सरोकार होगा. पुराने लोगों में भी, जिनका जीवन रईसी-जमींदारी, सुख-सुविधाओं में बीता हो, वो भले ही बीते हुये दिनों के लौटने की उम्मीद में ठंडी आहें भर सकते हैं. लेकिन जिनका जीवन त्रासदियों से जूझते बीता हो, वो कभी नहीं चाहेंगे कि कोई उनके बीते हुये दिन लौटा दे.
भविष्य के नाम पर इनके पास, भारत के चीन, जापान, इजरायल और अमेरिका बन जाने के दिवा स्वप्न हैं. लेकिन उस विकास के पीछे जिस राष्ट्रवाद और त्याग की आवश्यकता होती है या होगी, उसकी आशा ये दूसरों से करते हैं. भगत सिंह हो तो पडोसी के यहाँ और अम्बानी हो तो हमारे यहाँ. और जब ये सोच ऊपर से नीचे तक हर आदमी की आत्मा तक में घुस गयी हो तो आज़ादी के सत्तर साल बाद आज हम जहाँ पहुँचे हैं, वो भी बहुत है. स्वार्थ का भाव हावी है. त्याग का अभाव सर्वत्र व्याप्त है. देश-समाज से ऊपर व्यक्तिगत स्वार्थ की अति के कारण ही भारत आज भी विकासशील देशों की श्रेणी में आता है. ये सभ्यता का तकाज़ा है, नहीं तो विकसित देश हमें बैकवर्ड (पिछड़ा) देश भी कह सकते थे. जैसे हमने अपने यहाँ एक छद्म अदर बैकवर्ड क्लास (ओबीसी वर्ग) बना रखा है, ताकि कुछ जातियों को लगता रहे कि वो पैदायशी फॉरवर्ड हैं और रहेंगे. हम उसे डेवेलपिंग क्लास भी कह सकते थे, लेकिन उससे उनमें हीनता के बोध में कमी आती है. हमें लगता है कि विकसित देश हमें विकासशील बोल कर हमारी इज्ज़तअफज़ाई कर रहे हैं. हमें ये खुशफ़हमी बनी रहती है कि कुछ भी हो इतनी विसंगतियों के बाद भी हम तरक्की कर रहे हैं. हमारा इतिहास तो हमेशा से गौरवशाली रहा है. और हम आसानी से आत्मश्लाघा के शिकार बन जाते हैं. लेकिन हमें ये नहीं समझ आता कि इस शब्द से उन्होंने डिक्लेयर कर रखा है कि भाई आज़ादी के सत्तर साल बाद भी ये विकासरत हैं, और अभी तक विकसित नहीं हो पाये हैं. इसे कहते हैं मखमल में लपेट के जूता मारना.
हमने क्या सबने, बचपन से अब तक दुनिया को आगे ही जाते देखा है. देश ने तरक्की के नये-नये प्रतिमान गढ़े हैं. ऐसे में जब कोई बीते हुये दिनों को याद करता है, तो समझ आता है कि वो उस ज़माने की समाज में व्याप्त मानवीय मूल्यों और सद्भाव की बात कर रहा है. तब शायद नैतिकता और आदर्श कोरे शब्द नहीं थे और पूरा का पूरा समाज उन्हें जीने की कोशिश करता था. लोगों के पास समय की कोई कमी नहीं थी, इसलिए सबके साझे सुख और दुःख के होते थे. तीज-त्यौहार सब मिलजुल के मनाते थे. समाज एक परिवार था और जीवन एक उत्सव. लेकिन भौतिक तरक्की, जो आज देखने को मिल रही है, तब वो न थी. ढाई सौ रुपये की सैलरी में पूरा परिवार पल जाता था. परिवार को कुनबा कहना ज़्यादा उचित होगा, क्योंकि उसमें दादी-बाबा, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे सब शामिल थे. पास-पड़ोस और गाँव-देहात, एक्सटेंडेड फैमिली हुआ करते थे. आज ढाई लाख के पैकेज में ढाई प्राणी पल जायें तो गनीमत है. फिर आदमी कहता फिर रहा है, जमाना बदल गया है.
तब समय की न कमी थी, न कोई पाबन्दी. प्रतिदिन प्रातः खेत-खलिहान का मुआयना करना शारीरिक आवश्यकता भी थी और मज़बूरी भी. कोयले की अँगीठी की आँच में माँ और दादी को खाना बनाते सभी पुरनिया लोगों ने देखा होगा. सुबह सवेरा होने से पहले चूल्हा जलाना और रात का खाना खत्म होने के बाद चूल्हे को मिटटी से लीपना अनिवार्य था. बिना नहाये किचन में प्रवेश वर्जित था. अँधेरा होने के बाद का जीवन, लालटेन और लैम्प के प्रकाश तक सीमित हो जाता था. बिजली के अविष्कार, उत्पादन और वितरण ने मानव विकास में अमूल्य योगदान दिया है. आज जब जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है तो आदमी पुराने झींगा-लाला वाले दिनों में पुन: लौट जाने की बातें कर रहा है. बहुत से अतिशिक्षित और सम्पन्न लोग, सारे विकास को तिलांजलि देकर खेती करने और जंगलों में झोंपड़े बनाने को तत्पर लग रहे हैं. निसन्देह तकनीकी विकास ने मानव जीवन को बहुत सुगम बना दिया है. किन्तु सामाजिक जीवन को भी नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है.
आदमी ने इतनी तरक्की की है, इतनी तरक्की की है कि क्या बतायें. जहाँ दहेज में रेडियो और साइकिल की डिमांड हुआ करती थी, अब वहाँ कोई एसयूवी से नीचे बात करने को तैयार नहीं हैं. मेट्रो ट्रेन हर शहर में चलायी जा रही है. ऊँची-ऊँची स्काई स्क्रैपर बिल्डिंग हर शहर में बन रही हैं. जगह जगह एक्सप्रेस वे बन रहे हैं. मानव श्रम को कम करने और शरीर के आराम देने के लिये आज ना-ना प्रकार के उपकरण और यंत्र उपलब्ध हैं. आदमी अपने शरीर को आराम देने के लिये इसलिये काम कर रहा है कि बहुत सारे पैसे के बिना सुविधाओं का अम्बार नहीं खरीद सकता. पैसा कमाने की होड़ सी लगी है. यहाँ तक भी बात समझ आती है कि आदमी अपनी इच्छाओं के लिये ही तो जीता है. लेकिन इसके बाद कहानी में ट्विस्ट है. कुछ समय बाद अन्जाने में एक-दूसरे से आगे निकल जाने की अन्धी दौड़ में शामिल हो जाता है. इंसान का जीवन आज से ज़्यादा सुखी और खुशहाल शायद पहले कभी नहीं था. लेकिन जब सब सुखी हो जायें तो आदमी ये सोच कर दुखी हो जाता है कि उसका सुख मेरे सुख से बड़ा कैसे. किसी वाट्सएप्प ज्ञानी ने फ़रमाया है कि आदमी अपने दुःख से नहीं दूसरों के सुख से दुखी है.
एक जमाना था कि मेहनतकश लोगों ने 'आराम है हराम' का नारा दिया था. अब सब का ध्यान ऐशो-आराम की ओर रहता है. मेहनत-मजदूरी-किसानी करके जीवन-यापन तो किया जा सकता है लेकिन ज़िन्दगी का मज़ा लेना है, तो शरीर को आराम और दिमाग़ को काम पर लगाना पड़ता है. इसीलिये आज के संपन्न व्यक्ति को खाना कमाने के लिये कम और पचाने के लिये ज्यादा मेहनत (शरीरिक श्रम) करनी पड़ रही है. स्वीगी-जोमैटो-ब्लिंकिट-अमेज़न जैसी कम्पनियाँ सिर्फ़ इसलिये फल-फूल रहीं हैं कि आदमी को आराम चाहिये. पूरा बाज़ार आपके फ़िंगरटिप पर मौज़ूद है, आपको बाजार जाने और सामान लाद के लाने तक की जहमत भी नहीं उठानी.
सत्तर साल में घिसी-पिटी सत्ता लोलुपता वाली राजनीति भी धीरे-धीरे करके बदल चुकी है. नेताओं को भी मालूम हो गया है कि काठ की हांडी अब जल के कोयला बन गयी है. जनता भी अब अपने मतलब की सूचनाये इंटरनेट और मीडिया चैनेल्स से खोज लाती है. तरक्की की जो बयार पिछले सालों में चली है, उसे देख कर कभी-कभी लगने लगता कि इससे ज्यादा अच्छे दिन भला और क्या हो सकते हैं. हाँ, ये उन नेताओं और पार्टियों के दुर्दिन ज़रूर हैं, जो पुराने ढर्रे की लॉलीपॉप वाली राजनीति करना चाहते हैं. गरीबी हटाते-हटाते वो कब अरब-खरब पति बन गये, उन्हें खुद पता नहीं चला. कितने ही जनप्रतिनिधि जनता के पैसों का सदुपयोग (दुरूपयोग) करते हुये, फ़ुटपाथ से महलों में पहुँच गये. इस क्रान्ति को उन्होंने सामाजिक न्याय की संज्ञा से अलंकृत किया. आज सत्ताच्युत होने के बाद उनके पास अपने शासनकाल के स्वर्णिम दिनों को याद करते रहने के अलावा कोई चारा नहीं है. ये लोग समाजवाद की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिये इस कदर लालायित और आतुर हैं कि बस मुग़लकाल की पुनर्स्थापना का संकल्प ही उनके चुनावी घोषणापत्र में शामिल होने से बाक़ी रह गया है. अगले चुनाव में वो इस कमी को भी दूर करने का भरसक प्रयास अवश्य करेंगे.
सरकार चाहे कितना भी प्रयास कर ले, कितनी ही विकास की योजनायें बना ले, देश तो तभी उन्नति करेगा, जब जनता को ये एहसास होगा कि विकसित राष्ट्र के लिये सभी को योगदान देना होगा. नियम कानून तो हर देश में होते हैं ताकि समाज में सभी को समान सुरक्षा और अधिकार मिल सकें. वो देश और समाज आगे निकल गये, जहाँ इनका अनुपालन सुनिश्चित किया गया. समाज द्वारा स्वीकार्य कुछ मैनर्स और एटीकेट्स ने परस्पर व्यवहार को भी निर्धारित किया. तभी वो देश, सभ्य, सुसंस्कृत और विकसित देशों में शुमार हुआ. कलाम साहब ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि हिंदुस्तानी जिस तरह सिंगापुर में व्यवहार करता है, वैसा ही व्यवहार भारत में करने लग जाये, तो भारत को सिंगापुर बनने में देर नहीं लगेगी. लेकिन 70 सालों में हमें लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त फ़ुल फ्रीडम का आनन्द लेने की आदत पड़ चुकी है. 'रूल्स आर फ़ॉर फ़ूल्स' को ब्रह्मवाक्य मनाने वाली व्यवस्था में सबको लगता है कि हमने कोई देश या समाज सुधार का ठेका तो ले नहीं रखा. जब सारा देश सुधर जायेगा तो हम भी सुधरने की सोचेंगे.
इसमें भी कोई शक नहीं कि देश की तरक्की और खुशहाली दोनों के लिये काम करना ही पड़ता है. काम है तो पैसा है, पैसा है तो आलिशान ज़िन्दगी है और आलिशान ज़िन्दगी है तो खुशहाली है. लेकिन इन सबके पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण लिमिटिंग फैक्टर है, वो है समय. जब आप तरक्की की रेस में दौड़ रहे हैं, तो समय का अभाव उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है. उसे तो न आप घटा सकते हैं, न बढ़ा. हर एक के पास एक दिन में चौबीस घंटे ही हैं. उसी में आपको काम भी करना है और, सामाजिकता को भी बनाये और बचाये रखना है. पैसा तो काम का बाई-प्रोडक्ट (उप-उत्पाद) है. जिसे देखिये बहुत सा पैसा कमाने के उद्देश्य से दिन-रात काम कर रहा है. इसलिये प्रत्यक्ष रूप से देशप्रेम भले ही नेपथ्य में चला गया हो लेकिन विकास सर्वत्र दिखायी देने लगा है. इसी प्रकार यदि सब काम करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हम स्वयं को विकसित राष्ट्र डिक्लेयर कर दें. अपनी पीठ ख़ुद ही ठोंकनी पड़ती है. दूसरों से अप्रूवल लेने की आदत भी बदलने की ज़रूरत है. चाहे हम कितने भी विकसित हो जायें, एक चीज़ की कमी तो रहेगी. वो है समय की.
समय भी एक पूँजी है. लेकिन जब हर कोई धनोपार्जन के लिये व्यस्त से व्यस्ततर होता जा रहा है, तो कोई किसी को समय कैसे दे पायेगा. नतीजा आज आदमी में जैसा एकाकीपन का भाव देखने को मिलता है, वैसा कभी नहीं रहा. मनुष्य हमेशा से एक सामाजिक प्राणी रहा है. किन्तु व्यक्तिगत उत्थान के चक्कर में वो समाज की अनदेखी करता चला गया. जब सब के सब अपने-अपने स्तर पर समृद्ध हैं, तो दुखी रहने की कोई वजह दिखती है तो वो है भावनाओं की अभिव्यक्ति की कमी. जब सब अपनी सुनाने और दिखाने में लगे हैं तो किसे फुर्सत है कि आपकी सुने या देखे. यही कारण है कि इतनी समृद्धि के बाद भी आदमी जीवन का मर्सिया पढ़े जा रहा है. उन पुराने दिनों को याद करके दुखी हो रहा है, जब यार-दोस्त तो बहुत थे और जीवन की आपा-धापी न थी. अकेलापन एक महामारी बन के उभरा है. शायर जाफ़र अली से गुस्ताखी की मुआफ़ी के साथ शेर में थोडा संशोधन कर के प्रस्तुत कर रहा हूँ. 'तुम्हें अपने से कब फुर्सत, हम अपने ग़म से कब खाली, चलो बस हो चुका मिलना, न हम खाली, न तुम खाली'.
सशरीर मिलने के लिये समय चाहिये जो किसी के पास है नहीं (विशेष रूप से जब आप पीते-पिलाते न हों). चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इस नाते तकनीकी जगत ने कुछ विकल्प प्रस्तुत किये. जिसमें फ़ेसबुक, वाट्सएप्प, इन्स्टाग्राम आदि-इत्यादि प्रमुख हैं. लेकिन समय का चक्र देखिये, नौबत यहाँ तक आ गयी है कि समाज के नाम पर सोशल मिडिया ही बच गया है. जब सब बिज़ी हैं तो समय किसके पास है. और इतना ही काफी नहीं है. अगर हम बिज़ी हैं तो लोगों को बिज़ी लगना और दिखना भी चाहिये. पहले फ़ेसबुक पर आपने पोस्ट चेपी नहीं कि लाइक और कमेंट्स की झड़ी लग जाती थी. और ये एक सोशल ऑब्लिगेशन हो जाता था. यदि आपने मेरी पोस्ट लाइक की तो मेरा भी दायित्व था कि आपकी पोस्ट को लाइक करना. एक हाथ दे तो एक हाथ ले. अपने को बिज़ी दिखाने के चक्कर में लोगों ने पोस्ट्स पर कमेन्ट देने कम कर दिये. बाद में कुछ इमोजी और लाइक्स से काम चलाने लगे. अब तो हालात ये हैं कि हज़ार लोगों की फ्रेंड लिस्ट में व्यूज़ भले पाँच सौ पहुँच जायें, लेकिन कमेन्ट चार-पाँच और लाइक पचीस मिल जायें, तो गनीमत समझिये. देख तो सब रहे हैं लेकिन कोई दिखाना नहीं चाहता कि वो देख रहा है. ऐसा मै अपने वृहद सोशल मिडिया अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ. फ़ेसबुक का उपयोग मै लोगों के जन्मदिन के रिमाइंडर की तरह करता आया हूँ. और मेरा अनुभव कहता है कि जब भी किसी को मैंने व्यक्तिगत विश या कमेन्ट किया है, उसका जवाब आया है. यानि बन्दा देखता तो है लेकिन दिखाता है कि देख नहीं रहा है. यही हाल डिजिटल सामाजिकता के दूसरे स्तम्भ वाट्सएप्प का है. लोग रीड रिसिप्ट ऑफ़ करके इस सुविधा का भरपूर आनन्द ले रहे हैं. आपको पता ही नहीं चलेगा कि किसने आपकी पोस्ट देखी, किसने नहीं.
मेरा सोशल मिडिया अनुभव ये भी कहता है कि मानव जीवन में कभी भी इतना एकाकीपन नहीं था, जितना तकनीकी क्रान्ति ने उसे अकेला कर दिया है. जब हम पच्चासी इंच का टीवी खरीदेंगे और विभिन्न ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के लिये पैसा खर्च करेंगे, तो उसे वसूलना भी तो पड़ेगा. इसके लिये घर में रहना ज़रूरी है. जिसको सामाजिक भाईचारा निभाना हो उसे मेरा टीवी देखना पड़ेगा. लेकिन उसे भी तो अपने पचहत्तर इंच के टीवी का पैसा वसूलना है. न हम खाली न तुम खाली वाली बात है. कभी कभी लगता है कि मुझे भी दिखाना चाहिये कि मै भी बहुत बिज़ी हूँ. इसका बस एक ही तरीका है की सोशल मिडिया से किनारा कर लिया जाये. मेरे गुड मोर्निंग या बर्थडे विश करने से किसी को भला क्या ही फ़रक पड़ता होगा. पिछले साल की तरह मैंने इस साल भी सोशल मिडिया से दूर रहने का संकल्प लेने की सोच ही रहा था कि एक देववाणी हुयी - 'वत्स तुम जो कर रहे हो उसे निष्काम भाव से करते जाओ. देश को तुम्हारे जैसे लोगों की महती आवश्यकता है जो लोगों के एकाकीपन के एहसास को कम करने के प्रयास में लगे हैं. ये भी एक प्रकार की समाज सेवा है'.
यदि आप वाकई चाहते हैं कि कोई आपके काम में ख़लल न डाले तो इन प्लेटफॉर्म्स में अन्फ्रेंड और ब्लॉक करने के ऑप्शंस भी हैं. अब देववाणी तो मै टालने से रहा. आप अपना देख लीजिये.
-वाणभट्ट
सोशल मीडिया तो अब शादी के लड्डू जैसा हो गया है जो खाए पछताए जो न खाए वह भी पछताए
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