भारत वर्ष को लेकर विकसित देश बस गरीबी और भुखमरी की बातें करते हैं. उन्हें ये बताते बड़ा अच्छा लगता है कि अभी भी हमारा देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स में बहुत आगे है. जो कि देश में व्याप्त भयंकर भुखमरी का द्योतक है. और हमारा भोलापन देखिये कि कोई भी बात अंग्रेजी में छप जाये तो उसे ब्रह्मवाक्य मान कर अपनी ही सरकार के पीछे पड़ जाते हैं. अपने पिछड़ेपन का सियापा फैलाना विपक्ष के लिये सत्ता तक पहुँचने का माध्यम बन गया है. एक बात मेरी समझ में आजतक नहीं आयी कि जब पक्ष और विपक्ष दोनों का ध्येय देश की उन्नति है तो सत्ता में होने या न होने से क्या फ़र्क पड़ता है. जो लोग भी चुन के आ जायें, देशहित में काम करें. और न भी आयें तो भी देशहित के लिये काम करने से किसी ने उन्हें रोका तो नहीं है. सब मिल जुल के संसद में बैठो, जो उचित हो उस पर वोटिंग के आधार पर नियम बनाओ, कानून बनाओ. बहुत ही आसान है. पर शायद यहीं से राजनीति की शुरुआत होती है.
स्थिति ये है कि भाई लोग बिना सत्ता में आये कुछ करना नहीं चाहते. और जब आ जाते हैं तो पक्ष, विपक्ष में परिवर्तित हो जाता है और विपक्ष पक्ष में. इतने समय में जो बात समझ आयी है वो ये है कि पक्ष अपनी पीठ ठोंकने को आतुर है, तो विपक्ष उसकी बधिया उधेड़ने में. क्या मजाल कि किसी भी कंस्ट्रॅक्टिव काम पर ही दोनों एक मत हो जायें. एक जमाना था जब नेता देश की आज़ादी के लिये एकजुट हो कर लड़ रहे थे, अपनी-अपनी तरह से. लेकिन तब तक सत्ता का स्वाद नहीं चखा गया था. दुश्मन एकदम क्लियर था. एक बार सत्ता का स्वाद मिल गया तो देश को अपनी जागीर समझ लिया. पुश्त-दर-पुश्त अपनी संतानों को बस ये ही बताते रहे कि ये देश तुम्हारी विरासत है. 70 सालों में तरक्की तो हुयी लेकिन जितनी होनी चाहिये थी, उतनी नहीं. जिनको सत्ता मिली, उनका विकास देख के ये अवश्य पता लगता है कि देश के विकास की कृपा कहाँ रुकी पड़ी थी.
सत्तर सालों में जनता ने भी बहुत सारे प्रयोग कर डाले. जब हम आज भी इतने भोले-भाले हैं कि अपना भला नहीं सोच सकते, तो पहले की बात ही क्या करनी. जिसने जो भी वादे किये, जनता ने उसे ही सिरमौर बना दिया. वादे भी ऐसे कि जनता को लगे कि रामराज्य ऐसा ही होता होगा. अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम. कोई भी समाज त्याग पर तो विकसित हो सकता है, लेकिन यदि भोग को ही विकास का पैमाना मान लिया जाये तो समाज का तो भला होने से रहा. जो बुद्धि-बल-धन से सम्पन्न हैं, जिम्मेदारी उन्हीं की है, कि वो समाज के वंचितों के उत्त्थान और विकास के विषय में सोचें, काम करें. समृद्ध और सम्पन्न लोग यथासामर्थ्य-यथाशक्ति कर भी रहे थे. कभी-कभी उन लोगों को भी भ्रम हो जाता था कि दुनिया चलाने का ठेका उन्होंने ही तो नहीं ले रखा है. जब हम अपने बुद्धि-बल से सम्पन्न हो रहे हैं, तो वो मेरी व्यक्तिगत सम्पन्नता है और उस पर किसी प्रकार की दावेदारी नहीं होनी चाहिये.
लोकतंत्र की खूबी ये है कि वो बनता वंचितों से है लेकिन पलता पूँजीपतियों की गोद में ही है. क्योंकि 'एव्री वोट काउंट्स'. और वंचितों की संख्या, समर्थों की संख्या से हमेशा अधिक रही है. सत्ता उसी के पास रहती है जिसके पीछे जनता है. और जनता को चाहिये उँगलियाँ घी में और सर कढाई में. ऐसी स्थिति में एक ऐसे समाज की परिकल्पना गढ़ी गयी, जहाँ किसी प्रकार का वर्ग-विभेद न हो. सब बराबर. एक काल्पनिक आदर्श व्यवस्था. ये बात अलग है कि आदर्श के मानदण्ड इतने ऊपर हैं कि उनके लिये प्रयास तो किया जा सकता है, लेकिन प्राप्त करना असम्भव है, वो भी तब जब समाज के अधिसंख्य लोग त्याग के लिये तत्पर न हों और व्यक्तिगत स्वार्थ सर्वोपरि हो. बहरहाल लोकतंत्र की कुन्जी जनता के हाथ है और जनता उसके साथ है, जो अधिक सपने यथार्थवादी तरीके से बेच सके. इसी प्रयोग में सरकारें जीतती रहीं और जनता हर बार हारती रही. उसी के परिणामस्वरुप आज सामने है एक विभाजित-विघटित समाज. जो आज भी अपने उत्थान का जश्न मनाने से अधिक अपने पिछड़ेपन को जीने और ढोने को विवश है.
मेरे एक परिचित कनाडा से लौट के भारत आये. पुणे में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी शुरू की. लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें ये एहसास हो गया कि उन्होंने गलती कर दी. जो वर्क कल्चर कनाडा में था या जिस ग्रोथ की सम्भावनायें कनाडा में थीं, वो यहाँ नहीं मिलनी. इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी से वापस लौटने के विषय में परामर्श किया. पत्नी ने छूटते ही मना कर दिया. यहाँ उसने हर घरेलू काम के लिये कोई न कोई हेल्पर लगा रखा था, वहाँ सारा का सारा काम खुद ही करना पड़ता था. जहाँ सब समृद्ध हों वहाँ आपकी समृद्धि का कोई मोल नहीं. यहाँ तो आप आदमी, और आदमी का समय दोनों खरीद सकते हैं. कोई देश कितनी भी तरक्की कर ले लेकिन तरक्की का मज़ा (विशेष रूप से जब व्यक्तिगत हो) तो वो आप विकाशसील देश में ही ले सकते हैं. देश को तो निरन्तर आगे ही बढ़ना है. उसी का नतीजा है कि आज हर क्षेत्र में उन्नति दिखायी देती है. जैसे-जैसे लोगों समृद्धि बढ़ी है वैसे-वैसे जनसामान्य के जीवन स्तर में भी सुधार हुआ है. एक समय वो था जब समृद्धि का मानक मारुती 800 थी, आज ना-ना प्रकार की विदेशी कारों का भारतीय बाज़ार में जलवा है. हर तरफ मॉल कल्चर देख-देख कर आँखें चकाचौंध हैं. हर कोई देश की तरक्की देख कर हतप्रभ है. कुछ दिन पूर्व ही मेरे एक मित्र दो महीने का जापान प्रवास करके आये हैं. जब हालचाल लिया तो उनका पहला वाक्य था - वर्मा जी नरक देखने के लिये आपको कहीं और जाने की जरूरत नहीं है. बस अपने अगल-बगल नज़र घुमा के देख लीजिये. उनके इस वक्तव्य ने मेरी - 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' की भावना को ठेस लगायी, लेकिन वास्तविकता यही है इसलिये मैंने कोई कुतर्क नहीं किया.
चूँकि हमने सारे विकास का ठेका अपने नेताओं को दे दिया है तो हम आसानी से अपनी बेसिक जिम्मेदारी भी उन पर थोपने से नहीं चूकते. सरकार कुछ करती ही नहीं. सरकार के सफायी अभियान के प्रयासों के बाद भी कूड़ों के ढेर अभी भी दिखायी दे रहे हैं. बहुमंजली इमारतों और आवासीय कॉलोनियों के बगल में बसी झुग्गी-झोपड़ियों ने विकसित समाज को सस्ते मजदूर मुहैया करा रखे हैं. और उन्हीं मलिन बस्तियों को सम्पन्न लोग प्रायः हिकारत की नज़र से देखते हैं. नेताओं ने भी अपनी गाड़ियों के शीशे काले कर रखे हैं ताकि समाज की विद्रूपता को आसानी से अनदेखा कर सकें. अभी हमारे इलाके में फुटपाथ और नाली का अभियान आरम्भ हुआ. उम्मीद थी कि विलुप्त हो गये फुटपाथ और नालियाँ पुन: प्रगट हो जायेंगे, लेकिन ऐसा हो न सका. जिसने-जिसने सहयोग किया उसके सामने काम हो गया, जिसने नहीं किया उसका वोट भी तो सरकार में बने रहने के लिये आवश्यक है. फुटपाथ पर अतिक्रमण वैसे ही विद्यमान है, जैसे पहले था. जैसा समाज होगा वो अपने जैसे लीडर ही चुनेगा. जाति-पंथ-सम्प्रदाय के आधार पर हम जब तक नेता चुनते रहेंगे, सरकारें तो बनती रहेगी, किन्तु देश हाशिये पर ही रहेगा.
प्रिय पाठकों, आप लोगों को लग रहा होगा कि बंदा ये क्या मर्सिया ले कर बैठ गया जबकि देश दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है. मल्टीस्टोरी बिल्डिंगें बन रही हैं, मेट्रो रेल चल रही हैं, सड़कों के जाल बुने जा रहे हैं, बड़ी-बड़ी विदेशी कारों ने सड़कों को जाम कर रखा है, ट्रेन में एसी कोच की संख्या जनरल डिब्बों से ज्यादा हो गयी है, फिर भी वाणभट्ट को तरक्की नहीं दिखायी दे रही है, तो निश्चय ही आप गलत सोच रहे हैं. दरअसल लेखक ये कहना चाहता है कि देश को सत्तर साल बाद जहाँ होना चाहिये था, वहाँ से अभी भी बहुत दूर है. इन्फ्रास्ट्रक्चर की तरक्की दिखायी देती है लेकिन सामाजिक मूल्यों का ह्रास किसी को दिखायी नहीं देता. एक मित्र इंग्लैण्ड में रहते हैं. भारत आते-जाते रहते हैं. उनका कहना था कि हम लोग सिर्फ़ भौतिक संरचनात्मक विकास देख कर प्रफुल्लित हैं. सभ्यता और संस्कार छोड़ कर प्रगति नहीं होती. ये ढाई साल के बच्चे में तो विकसित की जा सकती है लेकिन पच्चीस साल के युवा में नहीं. न तो हम अपने भारतीय संस्कारों को पोषित कर सके, न ही हमने विदेशी मैनर्स को पूरी तरह अपनाया. जब बदतमीज़ी को हमने स्मार्टनेस का पर्याय मान लिया तो हर व्यक्ति स्मार्ट बनने और बच्चों को स्मार्ट बनाने में लगा है. दलील देता है कि ज़माने के साथ चलना हमारी मज़बूरी है.
मेरा ध्यान देश की समृद्धि पर नहीं गया होता यदि इस बार देवोत्थान एकादशी पर अपने भाई साहब के कहने पर एकादशी का व्रत रखना शुरू न किया होता. तब पता चला कि देवशायनी एकादशी से लेकर देवोत्थान एकादशी तक हिन्दू धर्म में सभी शुभ कार्य वर्जित हैं. और विष्णु भगवान के जागने के बाद जो शुभ कार्यों का रेला शुरू हुआ कि मेरे जैसे असामाजिक व्यक्ति (तत्व) के यहाँ भी विवाह के कुछ नहीं तो दस कार्ड आ गये. अब चूँकि दिखावे का ही जमाना है तो मुझे भी ग्यारह सौ से लेकर इक्कीस सौ से लेकर इक्यावन सौ तक देने पड़ गये. जिसको तेल लगाना था, उसको इक्यावन सौ और जिससे ज्यादा काम न पड़ने की उम्मीद थी, उसे ग्यारह सौ में निपटा दिया. फिर भी औकात दिखाने के चक्कर में महीने का बजट बिगड़ गया. अब जब कार्ड ही इतना मँहगा है तो नैवेद्य तो उससे ऊपर ही होना चाहिये. उपर से कार्ड देते समय कोई मैरिज हॉल में पर-प्लेट का रेट बता दे तो आदमी शर्माते-शर्माते भी ग्यारह सौ तो दे ही जायेगा. यदि आपका किसी से दुश्मनी मोल लेने का मंसूबा हो तो, आप पाँच सौ एक से भी काम चला सकते हैं.
केवल दिल्ली एनसीआर में ही देवोत्थान एकादशी पर 48000 शादियाँ एक ही दिन में थीं. पूरे देश में कितनी होंगी, इसका एक सहज अंदाज़ लगाया जा सकता है. तमाम डेस्टिनेशन वेडिंग के कार्ड थे, जिसमें हर ओकेजन के हिसाब से ड्रेस कोड निर्धारित थे. उस पर तुर्रा ये था कि दसों शादी में फोटो खींची जानी थी. जिन्हें स्टेटस और फेसबुक पर अपडेट किया जाना था, इसलिये ड्रेस रिपीट भी नहीं होनी थी. और ऐसा सिर्फ मेरे लिये होता तो गनीमत थी, सारे कार्ड विथ फैमिली वाले थे. पूरे घर का स्टैण्डर्ड दिखाते-दिखाते मेरी तो ऐसी की तैसी हो गयी. और ऐसा सभी के साथ हुआ होगा. अपर क्लास अगर एक सूट में सारी शादी अटेंड कर ले, तो उसे सादगी या सिम्प्लिसिटी कहा जाता है. मिडल क्लास के लिये, इसे ही चिरकुटई की संज्ञा दी गयी है. बेगानी शादी में जब हम ही दस-बीस हज़ार के लपेटे में आ गये तो जिसके यहाँ शादी होगी उसको तो दिल खोल के दिखाना ही होता है. अब जब से लड़कियों और लड़कों में भेद कम हो रहा है, तो क्या लड़की और क्या लड़का दोनों की शादी में खर्चा बराबर हो रहा है. तीन-चार दिन चलने वाली शादीयों में, जिसे पूछो कितना खर्च हुआ तो ऑन एन एवेरेज पच्चीस-तीस लाख ऐसे बोल रहा है, जैसे इतना तो बनता ही था. और ये मै अपने जैसे मिडल क्लास लोगों की बात कर रहा हूँ. वर-वधु पक्ष दोनों के खर्चों को जोड़ लिया जाये तो एक शादी पचास लाख के अल्ले-पल्ले पड़ेगी. इसीलिये भारतीय शादियों को बिग फैट इंडियन वेडिंग्स के रूप में इन्टरनैशनल टीवी चैनेल्स पर शान से दिखाया जा रहा है. इतनी शादी से कितने ही लोग जुड़े होंगे. आभूषण वाला, परिधान वाला, किराने वाला, फल-फूल-सब्जी वाला, खाना बनाने वाला, खिलाने वाला, डेकोरेशन वाला, मैरिज हॉल वाला, बैंड वाला, पटाखे वाला, ट्रान्सपोर्ट वाला, होटल वाला, ट्रेवेल वाला. ब्यूटिशियन-मेकअप-नाइ-दर्जी-मोची-धोबी-लौंड्री, सभी की कहीं न कहीं आवश्यकता पड़ी होगी. पहले एक शादी, एक सायकिल, फिर स्कूटर, फिर मोटर सायकिल पर सेटेल हो जाया करती थी, अब कार से कम में बात नहीं बनती. स्टेटस की बात हो तो बस ये बताना होता है कि कार दस की है या बीस की. लाख तो आपने जोड़ ही लिया होगा. एक शादी कितने लोगों को इनकम और एम्प्लॉयमेंट देती है. शादी को पैसे की बर्बादी कहने वालों को इसके देश की अर्थ व्यवस्था में देने वाले योगदान पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये. देश की अर्थव्यवस्था को सम्हालने के सबसे बड़े पिलर का ज़िक्र करना तो मै भूल ही गया. जी हाँ, आपने सही समझा. जब तक उनका सहयोग न मिले किसी भी बारात का मज़ा जाता रहता है. बिना पिये आदमी (और अब औरत भी) भला कितनी देर डांस कर सकता/सकती है. यानि एक शादी का मतलब है देश की अर्थ व्यवस्था के सशक्तिकरण की दिशा में एक सशक्त कदम. जितना हम प्रतिवर्ष शादियों में खर्च कर देते हैं उतना तो कई विकसित देशों का जीडीपी भी न होगा. प्रोस्पैरिटी हर तरफ से फटी पड़ रही है. विश्व की 70 प्रतिशत ओबीस पॉपुलेशन (मोटापाग्रसित जनसंख्या) के साथ हम विश्व की नम्बर तीन पायदान पर हैं. बताइये और कितनी समृद्धि चाहिये.
जो लोग भारत को गरीब और मुफलिसों का देश समझते हों उन्हें कम से कम भारत में एक शादी जरुर अटेंड करनी चाहिये. दिमाग चकरघिन्नी न खा जाये तो कहना. यहाँ लोग जिंदगी भर बचत इसलिये करते हैं कि बच्चों की शादी शानदार तरह से की जायेगी. एक सौ सत्ताईस देशों की ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत एक सौ पाँचवें नम्बर पर है. इस बात पर विपक्ष बहुत शोर मचाता है. लेकिन किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि ग्लोबल प्रोस्पैरिटी इंडेक्स में हम कहाँ हैं. सुधी पाठकों की जानकारी के लिये ये बताना जरूरी हो जाता कि यहाँ भी हमारी स्थिति एक सौ सडसठ देशों में एक सौ तीन है. जीवन में द्वैत हमेशा रहेगा. सच-झूठ, अच्छाई-बुराई, श्वेत-श्याम, अमीरी-गरीबी, सब जगह साथ-साथ रहते हैं. एक चन्द्रयान प्रोजेक्ट को संसाधनों का दुरूपयोग मान सकता है तो दूसरा सफलता का कीर्तिमान. ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हमारा अपना दृष्टिकोण क्या है. हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और हर तस्वीर के दो रुख़.
विपक्ष जहाँ हंगर इंडेक्स के आधार पर भारत के पिछड़े होने का सियापा फैला सकता है, तो वहीं सत्ता पक्ष ग्लोबल प्रोस्पैरिटी इंडेक्स को आधार बना कर देश के विकासोन्मुखी होने पर अपनी पीठ ठोंक सकता है. मेरे विचार से ये सब आंकड़े हैं जो सदैव मानवीय संवेदनाओं से परे होते हैं. देश को विकसित होने में हम सबकी भूमिका अहम होने वाली है. राष्ट्रवाद और मानवमूल्य ही किसी विकसित देश की आधारशिला हैं.
-वाणभट्ट
सही कहा है आपने, सरकार ही सब कुछ करेगी यही सोच भारत को विकसित देश होने से रोक रही है, इसके लिए हम सभी ज़िम्मेदार हैं
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