शनिवार, 25 मई 2024

प्रदूषण

हर ओर है धुआँ और धुंध 

साँसों पर पहरा है

हवाओं का 


शोर इतना है कि 

कान का बहरा जाना भी

है सम्भव 


तारे भी छुप जाते हैं

रातों में अपना अस्तित्व बचाने को

कि धरती इस तरह जगमगाती है 

अँधेरा हटाने को 


कुहाँसा सा छा जाता है 

मन और मस्तिष्क पर 

जब सूचना तन्त्र परोस देता है

अप्रमाणिक सूचनायें 

अनियंत्रित स्रोतों से 


बाढ़ सी आ रखी है 

व्यक्तिगत अवधारणाओं की 

विज्ञान में हैं सबके पास 

अनेक समाधान 

यही है अनेकता में एकता 

एक समस्या के अनेक निदान 


विषयों कि पहचान बनाये रखने के लिये

आवश्यक भी है भिन्नता 

हर विशेषज्ञ के पास है अपनी 

समाधान की विधियाँ 

किन्तु 

एकीकृत समाधान से विद्वतजनों को 

डर है उनके विषय के गौण हो जाने का 


प्रकृति ने सदैव किया है

अपना संरक्षण

वो करती रहती है आज भी

अपना पोषण 

अपनी विधि से 

किन्तु यह तभी सम्भव है 

जब वो बच जाये 

मनुष्य के अवांछित हस्तक्षेप से


प्रकृति छेड़-छाड़ कुछ सीमा तक सहती है 

फिर देती है बदले के संकेत 

यदि कोई पढ़ पाये तो 

नहीं तो वो बदले भी लेती है 

अपनी प्राकृतिक विधि से 


विनाश करती है 

प्रचंड प्रलयंकारी रूप में 

इस तरह से कि 

किसी पर ना लगे उसका दोष 

ले लेती है प्रकृति सब दोष अपने ऊपर 

ताकि मनुष्य को न हो

किसी तरह का अपराध बोध 


अंग्रेजी में लिखे और पढ़े गये 

विज्ञान के 

अप्राकृतिक समाधानों का 

आधार है स्वार्थ 

जिसमें से झाँकता है 

ढंका-छिपा अर्थ


हानि और लाभ के गणित में

सर्वाधिकार पर एकाधिकार में सिमट 

अपने में ही उलझा 

माध्यम बन रह गया है विज्ञान 


हर ज्ञानी व्यस्त है ज्ञान को भुनाने में 

उस ज्ञान को जो सहज उपलब्ध था, है और रहेगा 

पूर्वजों द्वारा प्रदत्त निशुल्क ज्ञान 

शास्त्रों, वेदों, पुराणों और पुस्तकों के 

माध्यम से 


मँहगी शिक्षा और शोध व्यय का 

मूल्य तो भरना ही होगा किसी को

ज्ञानी को ज्ञान का लाभ चाहिये 

समाज कल्याण के आधार पर 

स्वयं के लिये 


विज्ञान के नाम पर 

अपना-अपना झण्डा और डंडा उठाये 

ज्ञानी-ध्यानी 

निरंतर लिप्त हैं कूटनीति और राजनीति में 

एक के बाद एक असफल होती 

प्रकृति के अप्राकृतिक सुधार विधियों के

इसीलिये उठा लाते हैं नये-नये झुनझुने 

बजाने को कि कुछ साल और निकल जायें 

समाधान के प्रयास में 

चला चली की बेला पर 

पकड़ा जायेंगे लकड़ी अगली पौध को 

जो गढ़ेगी अपना नया झुनझुना 


देश-विदेश के पंच सितारा होटलों में 

आयोजित संगोष्ठीयों में 

विश्वस्तरीय आवभगत और स्वादिष्ट व्यंजनों से 

तृप्त आत्माओं के साथ 

विज्ञान की पुनर्स्थापना हेतु 

गहन चिंतन और मंथन भी है 

एक प्रकार का 

वैज्ञानिक प्रदूषण


-वाणभट्ट 

सोमवार, 20 मई 2024

जाना तेरा

तुम्हारी तरह
जाना तो हमको भी है
किसी दिन अचानक
बिन बताये 

ये जो दुनिया में डूबे हैं
तो बस इस उम्मीद में
कि चार से कुछ ज्यादा कंधे हों
वैसे चार भी कम नहीं हैं

उम्मीद तो ये भी है
कि कुछ आँखें नम हों
कुछ आँसू सूख जाएं गालों पर 
चन्द दिन बसें यादों में कुछ लोगों की

श्रद्धांजलि के कुछ शब्द पहुंचे
बच्चों तक कि कुछ पल को
उन्हें लगे सफल होना
एक असफल जीवन का

- वाणभट्ट

शनिवार, 18 मई 2024

एज इज़ जस्ट नम्बर

अभी सवेरा नहीं हुआ था. रोज की तरह एलार्म ने अपना काम कर दिया. नींद पूरी तरह खुल नहीं पायी थी. ख़ुमारी कायम थी. आजकल सोते-सोते साढ़े ग्यारह-बारह बज जाना आम है. रोज ये तमन्ना ले कर सोने जाना कि कल से सुबह पाँच बजे उठ जाउँगा, पर वो सुबह आती ही नहीं. लेकिन एलार्म बजते ही नये डॉक्टरों की चेतावनी याद आने लगती है कि आदमी को कम से कम सात से आठ घण्टे तो सोना ही चाहिये. आदमी के लिये इतना बहाना काफी है. सोते-सोते जोड़-घटाना शुरू कर देता है. इस हिसाब से तो उसे सात बजे से पहले तो उठना ही नहीं चाहिये. 

अंग्रेजी में मेडिकल साइंस पढ़े लोगों से और क्या उम्मीद कर सकते हैं. इनके सैलिबस में यम-नियम-संयम के बारे में न तो बताया गया है, न पढाया. शरीर को मशीन मानने वाले इन प्राणियों की स्थिति ये हो गयी है कि मोटरसायकिल मेकैनिक की तरह आपको याद दिलाते घूम रहे हैं कि बहुत दिनों से आप सर्विस कराने नहीं आये. एक आई स्पेशलिस्ट के यहाँ जाना हुआ तो वो भड़क उठे - जिनकी आँख ख़राब है (यानि चश्मिश हैं), उन्हें छ: महीने में एक बार तो आई टेस्ट जरुर कराना चाहिये. 

मुझे नहीं याद कि किसी मेकैनिक ने मेरी मोटर सायकिल को कभी भी एकदम परफेक्ट बताया हो. यही हाल हमारे चिकित्सकों का हो रखा है. ब्रह्म मुहूर्त और ब्रह्मचर्य का इनके लिये कोई महत्त्व नहीं है. ये तो जो भी अंग्रेजी में छप जाये उसी को ज्ञान समझ कर बाँचने लगते हैं. अपनी आयुर्वेद की चिकित्सा पद्यति पर इन्हें भरोसा नहीं है. चूँकि पूरी एनाटॉमी-फिजियोलॉजी इन्होंने विदेशी पुस्तकों से पढ़ी है तो इनको लगता है कि चिकित्सा विज्ञान के बारे में संस्कृत जानने वाले पुरखों को क्या पता होगा. शायद इसीलिये आज इन्सान के बच्चे का इलाज पैदा होने से पहले शुरू हो जाता है और वेंटीलेटर पर मरने तक चलता रहता है. तुर्रा ये है कि मेडिकल साइन्स ने आदमी की आयु बढ़ा दी है. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मनुष्य का जन्म ही इलाज कराने और डॉक्टरों को फ़ीस देने के लिये हुआ है. इस प्रक्रिया में यदि मेडिकल लाइन सेवा की जगह एक इन्डस्ट्री या प्रोफेशन बन जाये, तो इसमें गलत क्या है. शहर में होटल कम हॉस्पिटल ज्यादा दिखते हैं. परचून की दुकानें जिस रेट से बन्द हो रही हैं, दवाई की दुकानें उसकी दुगनी दर से खुल रही हैं. 

हालात ये हैं कि भूख से सरकार मरने नहीं देगी और डॉक्टर बिना इलाज किये. हर गली-मोहल्ले में नर्सिंग होम्स की बाढ़ आ रखी है, क्या मजाल कि कोई बिना इलाज कराये मर जाये. इलाज इतना मँहगा हो गया है कि आम आदमी के लिये इलाज करा पाना मुश्किल होता जा रहा है. जहाँ समस्या है, वहाँ समाधान है, और जहाँ समाधान है, वहीं तो रोजगार और व्यापार की संभावनायें हैं. इसीलिये बहुत सी स्वास्थ्य बीमा कम्पनियाँ मार्केट में आ गयी हैं. पहले बीमा लोग जीवन के सुरक्षा कवच के लिये लेते थे. मरने के पहले इन्वेस्टमेंट और मरने के बाद परिवार के लिये कुछ पूँजी की व्यवस्था. बीमे का तो धन्धा ही डर के आधार पर खड़ा किया गया है. गब्बर ने सन पचहत्तर में ही एलान कर दिया था कि जो डर गया समझो मर गया. तो मरे हुये लोग इस धन्धे के सबसे बड़े ग्राहक हैं. गब्बर की बात सही होती तो उसका अन्त इतना दु:खद न होता. लेकिन अगर ठाकुर और उसके पूरे परिवार का टर्म इन्श्योरेंस होता तो फिल्म बनाने की जरूरत ही न पड़ती. ठाकुर भी पूरे इण्डिया में इंश्योरेंस के पैसे से घूम-घूम के निहाल हो रहा होता. 

लेकिन तब लोग बड़े पक्के हुआ करते थे. बिना इंश्योरेन्स के हर किसी से पन्गा लिये रहते थे. जल्द ही वो समय आने जा रहा है कि डॉक्टर बिना बीमा कराये लोगों को देखने से सिर्फ इसलिये  मना कर दे कि बंदा उनकी फ़ीस और इलाज का ख़र्च वहन नहीं कर पायेगा. और बीमा है तो डॉक्टर से लेकर हेल्थ केयर सिस्टम से जुड़े के हर व्यक्ति का लाभ ही लाभ है. अमरीका के भारतीय मूल के एक चिकित्सक का विचार था कि डॉक्टर का काम है स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा करना ताकि उनकी जरूरत न पड़े या कम से कम पड़े. धरती पर डॉक्टर्स को भगवान का दूसरा रूप माना जाता है. ऐसा नहीं है कि भगवान तुल्य डॉक्टर्स आज नहीं हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है और ये उनकी प्रोफेशनल मजबूरी भी हो सकती है. जब मँहगी शिक्षा ले कर पढायी की है तो उसका कई गुना अर्जित करना आवश्यक हो जाता है.     

एक दौर वो था जब एलार्म बजने से पहले ही पैर धरती चूमने को बेताब रहते थे. इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि वो भी दौर था जब फ़न्ने मियां फ़ाख्ता उड़ाया करते थे. आखिर उम्र भी कोई चीज़ होती है. उम्र को बढ़ना ही था तो बढ़ी, उसे कौन रोक सकता था. ये तो भला हो मेडिकल साइंस का जो पच्चीस और पचास साल के आदमियों के मेडिकल पैरामीटर एक समान मान के चलती है. इसलिए हर उम्र के हर आदमी के लिये कुछ न कुछ इलाज है, कुछ न कुछ दवाई है. एक से एक एनर्जी टैबलेट्स और कैप्सूल हैं जो दावे से कहती हैं कि रुकना मना है. बढ़ती उम्र को रोकने के लिये टॉनिक भी हैं. लेकिन कोई ये मानने-बताने को तैयार नहीं है कि भाई उम्र हो गई है थोड़ा स्लो हो जाओ. बाल-वाल काले-पीले करके आदमी भी ये मानने को तैयार नहीं दिखता कि उम्र हो गई है. इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार है. 

हिन्दुस्तान में तो वैसे ही हर आदमी ये मान के चलता है कि इस धरा पर अवतरित हो कर उसने देश पर बहुत बड़ा एहसान कर दिया है. ऐसे में सरकार का दायित्व है कि वो उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण करे. और सरकारें बनती भी हैं यही सब्ज बाग दिखा कर. जनता को पांचों उंगलियां घी में और सर कढ़ाई में चाहिये. सरकार बहुत प्रयास कर रही है कि लोग सेहत के लिए कुछ जागरूक हो जाएं तो मेडिकल के खर्च में कुछ लगाम लगे. लेकिन अक्सर लोग स्वाद और शौक के आगे स्वास्थ्य के प्रति उदासीन रवैया अपनाते हैं. जब भरण-पोषण से लेकर स्वास्थ्य का ठेका सरकार का है तो सरकार को भी चाहिए कि हर व्यक्ति को एक डायट चार्ट और योग का एक मिनिमम पैकेज पकड़ा दे. अपने शरीर की कुछ तो जिम्मेदारी लो.

सर पर बचे-खुचे बालों को रंगने के बाद, कभी वर्मा को बढ़ती उम्र का एहसास हुआ हो, ऐसा नहीं था. एक जमाने में परमानेंट-गेवरमेंट-सर्वेंट्स की आय भले ही प्राइवेट में जॉब करने वाले उनके दोस्तों से कम रही हो, लेकिन पे कमीशनों के लगने के बाद से उनके लिविंग स्तर में भी काफ़ी सुधार देखने को मिला है. साठ के करीब पहुंच रहे लोगों ने जिन्दगी तो पैसा बचाने में गुजार दी, अब समझ नहीं आता कि खर्च करें तो कहां. शेयर मार्केट का जो उठान है, वो इन्हीं लोगों की देन है. घूमने की आदत रही नहीं, तला-भुना खाना डॉक्टर ने मना कर रखा है, तो बेचारे करें क्या. बस म्यूचुअल फण्ड और शेयर ही बचता है, इन्वेस्टमेंट के नाम पर. एसी कार से आना, एसी रूम में काम या मीटिंग करना और उसी एसी कार से वापस लौट जाना. इस दिनचर्या में कभी एंड्यूरेंस टेस्ट की स्थिति आती ही नहीं. जब से उम्र ने पचास पार किया, वर्मा को तड़कीले-भड़कीले कपड़े पसन्द आने लगे. जींस और टीशर्ट पहनते तो शाम तक बेल्ट में दबी-सहमी टमी विद्रोह कर देती. ऊपर की गैस ऊपर और नीचे की नीचे फंसी रह जाती. लेकिन जवान दिखने और दिखाने के लिए ये कोई बड़ा सैक्रीफ़ाइस नहीं था. वैसे भी बहुत से महापुरुष सुबह शाम मोटिवेशनल चैनल्स पर ये बताते घूम रहे हैं कि एज इज़ जस्ट नम्बर. बाकी लोगों को तो बस महसूस करना है. सुविधाओं के साथ ऐसा लगता भी है कि एज नम्बर गेम मात्र है.

लेकिन ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था. एक एंड्यूरेंस टेस्ट वर्मा को खोज रहा था. सभी स्मार्ट लोगों ने भयंकर गर्मी में होने वाले इलेक्शंस में ड्यूटी करने से ख़ुद को बचा लिया. वर्मा ख़ुद को जवान भले समझता रहा हो लेकिन स्मार्ट लोगों की कैटेगरी में वो ख़ुद को नहीं मानता था. स्मार्टनेस की शुरुआत घर से ही होती है और देश पर खत्म होती है. इनके हिस्से न मां-बाप की सेवा आती है, न समाज सेवा और न ही देश सेवा. क्योंकि जो स्मार्ट होता है, वो स्मार्ट ही होता है. हर चीज़ में सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना लाभ देखता है. साठ के पास पहुंच रहा वर्मा इलेक्शन ड्यूटी करने वाला विभाग का सबसे उम्र दराज व्यक्ति रहा होगा. मित्रों ने दिल सांत्वनाएं दीं. सांत्वना दुश्मनों ने भी दी लेकिन उन्होंने चेहरे से टपकी पड़ रही खुशी को छिपाने का प्रयास नहीं किया. किसी ने अपनी पुरानी खुन्नस निकालने के उद्देश्य से वर्मा का नाम उस लिस्ट में डलवा दिया, जिनको इलेक्शन के लिए विभाग उपलब्ध करा सकता था. ऐसा नहीं है कि वर्मा ने इलेक्शन ड्यूटी पहले नहीं की थी. सरकारी नौकर के लिए ये एक आवश्यक व अनिवार्य ड्यूटी है. पहले इलेक्शन ड्यूटी महाकुम्भ की तरह लगती थी. पुलिस और पैरामिलिट्री साथ होने पर सरकारी नौकर को सरकार प्रदत्त जिम्मेदारियों और ताकत का एहसास होता था. निश्चित रूप से सुविधाओं के अभाव वाले बूथ्स में कभी-कभी ड्यूटी कष्टकारी भी हो जाती थी. लेकिन इस पंच वर्षीय प्रक्रिया का आनन्द भी अलग था. हफ्तों लोग उसी को याद करते. 

इस बार गर्मी का कहर अप्रैल से ही शुरू हो गया था. मई में तो हालात और भीषण हो गए. दो दिन की ही बात थी. वर्मा अपने पुराने दौर में पहुंच गया. किन्तु इस बार गर्मी प्रचंड थी और सुविधाओं का था नितांत टोटा. बहरहाल पूरे शौक से ड्यूटी की और जब फाइनल रिपोर्ट जमा करके निकले तो लगा - अभी तो मैं जवान हूं. जवान लोगों के साथ ड्यूटी करने का अलग अनुभव होता है. जब घर लौटे तो ऐसी फीलिंग थी मानो युद्ध भूमि से लौटे हों. दो दिन बाद ठीक से खाना खाने को मिला. एसी में रहने वालों के लिए, बिना एसी के रहना ही सजा है. पसीना धारों-धार बहा. स्कूल जहां ड्यूटी थी, वहां पानी की व्यवस्था बढ़िया थी. वर्ना भूख के साथ प्यास का दंश भी झेलना पड़ता. कुल मिला कर वर्मा संतुष्ट था कि रिटायरमेंट से पहले देश सेवा का सुनहरा अवसर मिला.

खाना खाने के बाद थकान का एहसास हुआ. एसी की ठंडी हवा में जल्द ही नींद आ गई.

सुबह एलार्म अपने समय पर बजा. आदतन झटके से उठने की कोशिश की. अस्थि पंजर कड़कड़ा गया. मांसपेशियों ने दिमाग का कहा मानने से इंकार कर दिया. वर्मा डिहाइड्रेशन सा फील कर रहा था. दो दिन के एक्सरशन ने उसके रंगे बालों की कलई खोल के रख दी. सबसे अनुरोध है कि दो-चार दिन कोई वर्मा को ये न बोले - एज इज़ जस्ट नम्बर. कसम से, बहुत गुस्से में है. 

- वाणभट्ट

बुधवार, 1 मई 2024

जीनोम एडिटिंग

पहाड़ों से मुझे एलर्जी थी. ऐसा नहीं कि पहाड़ मुझे अच्छे नहीं लगते बल्कि ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि पहाड़ किसे अच्छे नहीं लगते. मैदानी इलाकों में रहने वालों का पहाड़ों की दुश्वारियों से सामना कहां होता है. उन्हें तो सारे पहाड़ हिल स्टेशन से लगते. जिन्हें वहाँ रहना होता है, उन्हें भी दुश्वारियों का भान नहीं होता, क्योंकि वे उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी होती हैं. कोलाहल से दूर पहाड़, दुनिया के सताये लोगों को भी बहुत रास आते हैं. तभी तो हताश पति और निराश प्रेमी, इस नश्वर जगत के मानवीय प्रेम से ऊपर उठ कर, ईश प्रेम की खोज में पहाड़ों की ही शरण लेते हैं. भारत के पहाड़ों को देवभूमि ऐसे ही नहीं कहा जाता. कितने ही दीन-दुनिया के हिसाब से अनफिट लोग (कर्मयोगीयों के अनुसार निकम्मे और नाकारा लोग) जब कंदराओं में आत्म संयम और आत्म ज्ञान प्राप्त करके निकलते हैं, तो दुनिया उनके चरणों में होती है. दुनियादार कर्मयोगी बेसिकली जिस धन के पीछे-पीछे भाग-भाग के अपना जीवन व्यर्थ कर लेते हैं, वही धन इन बाबाओं के पीछे-पीछे भागता है. और तुर्रा ये कि बाबा उसे हाथ से छूना भी पसन्द नहीं करते. अगले प्रमोशन को लक्ष्य करके और स्कोर कार्ड सामने चिपका कर जो मात्र फल की कामना से काम करते हैं, उन्हें कर्मयोगी मानना, त्याग की प्रतिमूर्ति महान कर्मयोगियों के प्रति नाइंसाफी होगी.

ऐसा नहीं है कि मुझे पहाड़ों से प्रेम नहीं है लेकिन जिन पहाड़ों का ज़िक्र पहली पंक्ति में किया है, उसका सम्बन्ध गगनचुम्बी हिमालय से नहीं, बल्कि गणित वाले पहाड़ों से है. जिसे बच्चे-बच्चे को कंठस्थ कराने का ठेका हमारे गणित वाले मास्साब का था. उनकी व्यक्तिगत मान्यता थी कि जिसे भी दुनिया में तरक्की करनी है, उसकी गणित तो अच्छी ही होनी चाहिए. तब के मास्साब को सपने में भी गुमान न होगा कि भविष्य में दो और दो जोड़ने के लिए बच्चे कैलकुलेटर का उपयोग करेंगे. पहाड़ों पर घूमने जायेंगे, सैर-सपाटा करेंगे, भला उन्हें रटने की क्या जरूरत. वैसे गणित जैसा नामाकूल विषय हर किसी के बस की बात होता तो देश कला और खेल जगत के विभिन्न क्षेत्रों की अनेकानेक प्रतिभाओं से वंचित रह गया होता. अधिकांश लोगों ने गणित के फोबिया से ही डर कर बायो या आर्ट्स या कॉमर्स पढ़ी है. जबकि सबको पता है कि इंजीनियर बन कर आसानी से एक सुखद और समृद्ध जीवन जिया जा सकता है. पुल के एक-आध खम्भे भी इधर-उधर कर लिए, तो जीवन के खट-राग से मुक्ति. 

पता नहीं क्यों मेरे ऊपर घर में बुजुर्गों और स्कूल में टीचरों की (और ऑफिस में अफसरों की) विशेष अनुकम्पा सदैव बरसती रही है. सब के सब मुझे सुधारने को तत्पर रहे हैं. इसमें उनका कोई दोष नहीं है, उनको मुझमें कुछ प्रतिभा अवश्य दिखाई देती होगी, तभी वो उसे निखारने के प्रयास में लग जाते हैं. उस ज़माने में हमारे मास्साब को जीनोम एडिटिंग के बारे कुछ पता तो था नहीं लेकिन उनके पास जीन एडिट करने के बहुत से अचूक तरीके (टूल्स) थे. जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि अन्य गुरुओं की तरह हमारे मैथ्स से गुरु जी को भी अगाध स्नेह था, मुझसे. क्लास के बाकी लड़कों से भले ही वो ग्यारह का पहाड़ा पूछ लें, लेकिन वो मुझसे तेरह का पहाड़ा ही पूछा करते थे. बारह तक के पहाड़े उनकी कट्टर पढाई (कट्टर ईमानदार टाइप) विधि से फर्राटे से याद हो गए थे. लेकिन तेरह के अंक से मुझे एक अनजान फोबिया डेवलप हो गया. तेरह का पहाड़ा कोई पूछ ले तो हाथ-पैर फूल जाते थे. और उन्होंने भी कसम खा रखी थी कि तेरह का पहाड़ा रटा कर ही मानेंगे. जब मेरे हाथ-पैर तेरह के नाम से अच्छी तरह फूल चुके होते तो उनके चेहरे पर वैसी ही मुस्कान नाचने लगती थी जैसी फिल्मों में किसी विलेन की. वो इशारों में बस इतना कहते - 'जा बेटा जा, ले आ'. मैं जाता और ले भी आता. फिर एक आवाज़ दूर तक गूँजती थी, सटाक-सटाक, सटाक-सटाक, संटी की.

इसमें भी मुझे अपने पिता जी की  साजिश लगती है. जब मेरा मन साहित्य और संगीत में की ओर झुक रहा था, तो उनकी तमन्ना मुझ नाचीज़ को बड़े भाई की तरह इंजीनियर बनाने की हुआ करती रही होगी. बड़े भाई साहब पढ़ने में मुझसे अच्छे थे. टेंथ के बाद उनके बायलोजी और मैथ्स के टीचर दोनों ने घर पर धरना दे दिया, कि बच्चे में पोटेंशियल है. एक कहते थे इसे डॉक्टर बनाना चाहिए, और दूसरे इंजीनियर बनाने पर अड़े थे. तब सिंगल प्लांट सलेक्शन की अवधारणा मुझे नहीं थी. टीचर्स भी एक तरह के ब्रीडर ही होते हैं. ये पता लगा ही लेते हैं कि बन्दे में कौन-कौन से गुण और हुनर हैं. एक सा पेपर सभी बच्चों को देकर स्क्रीनिंग करने की प्रथा बहुत पुरानी है. ये नहीं कि इंटेलीजेंट बच्चों को कठिन पेपर दें और पढ़ाई से भागने वालों को सरल. शिक्षा विभाग को ये बहुत बाद में समझ आया कि हर बच्चे को तब तक पास करते जाओ जब तक बच्चा ख़ुद फेल होना न चाहे. अब कोई डांट-मार का डर भी नहीं रहा. टीचर्स को आब्जर्वर कहना ज़्यादा उचित होगा क्योंकि उसमें साइंस की बहुत सी विधाओं की तरह साइंस जैसा कुछ नहीं है. विज्ञान के कई विषय हैं, जिनमें न किसी प्रकार का विशेष उपकरण चाहिये, ना ही कोई केमिकल. खाली हाथ आइये, शोध कीजिये और रिटायर्मेंट पर ऐसे निस्पृह भाव से निकल लीजिये, जैसे कमल के पत्ते पर पानी की बूँदें. ऑब्जरवेशन अपने आप में एक विज्ञान है. हमारे पुरखों ने बिना टेलिस्कोप के मात्र ऑब्जरवेशन से ग्रह-नक्षत्रों  की चाल माप डाली. पूरे विश्व में बिना उपकरण वाले इस विज्ञान को साइंस का दर्जा दिलाने के लिये बायोटेक्नोलोजी के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया जा रहा है. जिससे पुराने शोधकर्ताओं में एक इन्फेरियोरिटी कॉम्प्लेक्स डेवेलप होना स्वाभाविक है. 

गुरु का काम ही है कि दस साल में वो भी पहचान ले कि किस बच्चे में क्या पोटेंशियल है. किसे मेडिकल में जाना चाहिए, किसे इंजीनियरिंग में. कौन खेल से नाम कमायेगा और कौन संगीत साधना करेगा. ये गुरु की पारखी नजरों से छिपा नहीं रह सकता था. गुरु तो वहीं का वहीं रह जाता है, चेले पता नहीं क्या-क्या अफलातून बने फिरते हैं. पिता जी ने गणित के मास्साब को मुझे इंजीनियर बनाने की सुपारी दे रखी थी. इसलिए वो मेरी जीन एडिटिंग का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे. उनके पास कई तरीके कई थे - ऊँगली के बीच पेन्सिल दबाना, कान खींचना/उमेंठना, डस्टर सर पर खटखटा देना आदि-इत्यादि. जीन एडिटिंग का उनका प्रमुख शस्त्र था, नीम की संटी. जो वो मुझी से तुड़वाते. उनकी उसी एडिटिंग का अमूल्य योगदान है जो मैं गिरते-पड़ते इंजीनियर बन ही गया. 

प्रकृति का नियम है, परिवर्तन जो अन्तर से आता है, वो चिर स्थाई होता है. बाहर से थोपा हुआ चेंज तभी तक रहता है जब तक बाहर का इन्वायरमेंट फेवरेबल होता है. दारु और सिगरेट छोड़ने का प्रयास करने वाले इस बात को भली-भाँती समझ सकते हैं. वातावरण के हिसाब से प्रकृति के सभी प्राणी या तो विलुप्त हो गये या उन्नत होते गये. पहले (हमारे ज़माने में) आदमी का बच्चा बहुत भोंदू सा हुआ करता था. ये बात इस बात से परिलक्षित होती है कि अम्मा-दादी उन्हें मालिश करके, नहला-धुला के, काला टीका लगा के पालने में लिटा दें, तो बच्चा तभी हाहाकार मचाता था जब उसे भूख लगे. आज आदमी के बच्चे की प्रजाति बहुत ही उन्नत है. आज के बच्चे सिर्फ दूध-मालिश से नहीं मानने वाले. उन्हें पैदा होते ही कार्टून नेटवर्क चाहिए और कुछ दिन बाद मम्मी का स्मार्ट फोन. और एक बात नहीं मानी कि पूरा घर सर पर उठा लेते हैं. आज कल किसी बच्चे को आप उल्टी चप्पल पहने नहीं देख सकते. न ही कोई बच्चा उल्टा अखबार या मैगज़ीन पढ़ता मिलेगा. एक ढाई साल का बच्चा भी दस रूपये और पांच रूपये की चॉकलेट का फ़र्क जानता है. अब पहाड़ा वो इसलिए याद नहीं करता कि उसे कैलकुलेटर का उपयोग पता है. हिस्ट्री-ज्योग्रेफी को याद करके दिमाग की हार्ड डिस्क को वो बेवजह नहीं भरता क्योंकि सब कुछ तो गुगल बाबा की सहायता से एक फिंगरटिप पर उपलब्ध है. बच्चों का दिमाग समय के साथ अधिक विकसित होता चला गया. तभी तो बचपन की कल्पनायें आज साकार होती दिख रही हैं और भविष्योन्मुखी नयी पीढ़ी, नये-नये सपने देख रही है. 

तकनीकी विकास ने मानव विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है. आज का बच्चा लेटेस्ट गैजेट्स से लैस है, और युवा मानव जीवन को और अधिक आरामदेह बनाने के लिए नयी-नयी तकनीक ईजाद कर रहा है. आदमी के इस विकास क्रम में मुख्य बात है कि किसी प्रकार का कोई जेनेटिक मैनेजमेंट (मैनिपुलेशन) नहीं किया गया है, और जो इन्वायरमेंटल चेंज होने थे, उनसे बचना नामुमकिन था. इन्वायरमेंट के साथ यदि आदमी का बच्चा उन्नत हो गया तो बाकि प्राणियों के बच्चे भी बदलते वातावरण के अनुसार विकसित होते गए  या हो जायेंगे. रेंड के पेड़, मोथा, पार्थेनियम, आदि-इत्यादि खर-पतवार बिना किसी जेनेटिक्स के इंप्रूव हो गये. आदमी जिनका समूल नाश करना चाहता है, वो हर तरह मुँह चिढ़ाते लहलहा रहे हैं. और उनके लिए बड़ी-बड़ी कम्पनियां एक से एक भयंकर केमिकल बनाने-बेचने में लगी हैं.  प्रकृति में ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं. जो मच्छर पहले कछुआ जलाते ही भाग जाते थे, अब उनके लिये पूरी एक इंडस्ट्री खड़ी हो गयी है, वे रोज-रोज एक से एक एडवान्स केमिकल निकाल रही है ताकि आप और हम मच्छर से होने वाली ना-ना प्रकार की बीमारियों से बचे रहें. इसका भी अध्ययन होना चाहिए, कि इनकी कौन सी जीन एडिट हो गयी जो इन पर ग्लोबल वार्मिंग का कोई असर नहीं पड़ा रहा. इन अनवांटेड वनस्पतियों का न तो जीवन चक्र छोटा हुआ, न ही इनके प्रसार में कोई कमी आयी. ये बारहमासी अवांछित वनस्पतियां पूरी धरा पर कब्ज़ा करने का माद्दा रखती हैं. कभी-कभी लगता है कि क्या गेहूँ के पौधे को कांग्रेस ग्रास जितना ताकतवर बनाया जा सकता है. गलियों-सड़कों के किनारे गेहूं लहलहाता रहे. यदि बन गया तो समझ लीजिये, एवरग्रीन रिवोल्यूशन हो गया. नई-नई विकसित प्रजातियों की प्रतिरोधकता समय के साथ कम होती जाती है. जैसे एक रेस लगी है, सुर और असुर के बीच. सुर नाज़ुक और सुकुंआर होते हैं, क्योंकि ये अच्छे और अनुकूल वातावरण में पलते-बढ़ते हैं. सभी खर-पतवार और कीट-पतंगों और विषाणु-रोगाणु बदलते परिवेश में समय के साथ इवोल्व करते गये. और इवोल्यूशन, रिवोल्यूशन की तुलना में अधिक स्थाई होता है.

संटी द्वारा की गई एडिटिंग का असर को एक दिन तो खत्म होना ही था. एक ट्रेनिंग की रिपोर्ट समिट करनी थी. ट्रेनिंग में कुछ ईमानदारी-कर्तव्यनिष्ठा-देश प्रेम का अंश था. रिपोर्ट तो ठीक-ठाक ही लिख दी थी लेकिन अंत में दिनकर जी की कविता पेल दी - 

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, 

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध. 

किसी ने मेरे अन्तर में उठती देश प्रेम की हिलोरें नहीं देखीं. उसे अन्यथा ले लिया गया. नतीजा एक मेमो. मेमो की रिप्लाई में एक और साहित्यिक रचना लिखी गयी. इस बार ये पूरी तरह स्वरचित थी. अब तो मेमो रिप्लाई पर भी मेमो मिलने लगे और वाणभट्ट की साहित्यिक प्रतिभा दिनोंदिन निखरती चली गयी. यही व्यवस्था प्राणी जगत में हर तरफ व्याप्त है, चाहे वो प्राणी विज्ञान हो या वनस्पति विज्ञान. कुत्ते की दुम को बीस वर्षों तक पाइप में रखने के बाद भी उसे सीधा नहीं किया जा सका. जिस दिन कुत्ता ख़ुद ठान लेगा वो अपनी दुम सीधी भी कर लेगा. इसी प्रकार खर-पतवार हो या कीट-पतंगे, या वायरस-बैक्टीरिया, सब के सब वही रहे और वातावरण को एडॉप्ट करते चले गए. उनके आगे एक से एक उन्नत प्रजातियों ने दम तोड़ दिया. जिस रेट से प्रजातियाँ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से लेकर हर गली-मोहल्ले के विद्यालयों-विश्विद्यालयों में  विकसित की जा रही हैं, उसका कोई अंत होता नहीं दिख रहा है. 

जब कोई ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज को काउंटर करने की बात करता है, तो लगता है, वो टाइम पास कर रहा है. प्राकृतिक  आपदा का प्रबन्धन किया जा सकता है. उसके प्रभाव को कम (मिटीगेट) किया जा सकता है, लेकिन समाप्त करने की परिकल्पना स्वान्तः सुखाय जैसे शोध कार्यों से अधिक नहीं लगती. जिनका उदेश्य पीएचड़ी करने-कराने से अधिक नहीं है. वैसे शोध ऐसे ही विषयों पर होने चाहिये जैसे ब्रह्माण्ड की खोज, ताकि लोगों की पीएचडी होती रहे, बड़े-बड़े जर्नल्स पैसा ले-ले कर शोध पत्र छापते रहें. उनकी और सबकी दुकानें चलती रहे. कार-एसी-फ्रिज बनाने वाले, जिनके दम पर पांच सितारा होटलों में विज्ञान ग्लोबल वार्मिंग पर ज्ञान दिया जाता है, इंसान की जिन्दगी आरामदायक बनाते-बनाते सिधार गये, लेकिन नोबल उन्हें तो मिलने से रहा. हरित क्रांति के पुरोधा को रत्न देने में भी चार दशक लगा दिए. 

ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए जमीन पर काम करना पड़ेगा. जो कोई नहीं करना चाहता क्योंकि एसी के बाहर दिमाग काम नहीं करता. हार्डडिस्क को ठंडा न  रखो तो उसके क्रैश होने का खतरा रहता है. दुनिया भर के वनस्पति शास्त्री कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सिर्फ़ जीन मेनपुलेशन और एडिटिंग में समाधान खोज रहे हैं. इसमें बजट भले मिल जाये लेकिन स्थायी समाधान मिलने की सम्भावना कम है. वैसे भी बायो साइंस बहुत डायनेमिक है, इसमें चिरस्थाई जैसा कुछ नहीं होता. यही इसका प्लस प्वाइंट है. आज वृक्षारोपण, मृदा क्षरण रोकना और जल संरक्षण की दिशा में न सिर्फ बातें हो रही हैं बल्कि काम भी किया जा रहा है. जो काम आसान होते है, वहां शोध की गुंजाइश कम होती है, लेकिन वहीं सक्सेस स्टोरीज़ बनती हैं. ये काम तो हमारे गांव के अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोग भी कर सकते हैं. हम पढ़े लिखे हैं, तो कुछ हट कर ही करेंगे. आम खा कर उसकी गुठली जमीन में गाड़ देना तो कोई भी कर सकता है. बजट तो बड़े-बड़े काम के लिए मिलता है. जहां बजट होगा वहीं बेस्ट ब्रेन काम करेंगे. इसीलिए एलोपैथी को विज्ञान मान लिया गया और, होम्योपैथी और आयुर्वेद को झाड-फूँक. यदि मृदा समृद्ध है और जल उपलब्ध है, तो बहुत सी आपदाओं और बीमारियों से बचा जा सकता है. जैसे स्वस्थ शरीर के लिए इम्यूनिटी की आवश्यकता होती है, उसी तरह ये बात पेड़-पौधों पर भी लागू होती है. ऐसा नहीं है कि किसी को इस बात का ज्ञान नहीं है, लेकिन जब साइंस पढ़ी है तो साइंस ही करेंगे. एलोपैथी का डॉक्टर खुद भले प्राणायाम कर ले, लेकिन अपने मरीज को इन्हेलर ही बताएगा. क्योंकि उसने वो ही पढ़ा है. बक्से के बाहर की सोच वाले डॉक्टर्स, लोपैथी  छोड़ आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार करने लगे हैं. एलोपैथी तो है ही, जब मुलेठी से काम नहीं चलेगा तो एंटीबायेटिक का विकल्प भी ट्राई कर लेना.

तो अब आवश्यकता है, शत्रुओं के स्ट्रॉन्ग प्वाइंट को समझने की. हमें इवोल्यूशन पर काम करना चाहिए. यदि चने के चार बीज भी 55 डिग्री पर बन गये तो वो अंदर से कितना सॉलिड होगा. वो वातावरण के अनुसार स्वयं अपने जीन की एडिटिंग करने में सक्षम होगा. क्राइसिस में ही विकास के गुणसूत्र छिपे होते हैं. 

आजकल बच्चों को पहाड़ा याद करने पर जोर नहीं दिया जाता. घर और स्कूल की डांट-मार से दूर रही ये नयी पीढ़ी के फ्री डेवलपमेंट वाले सेल्फ इवोल्वड बच्चे हैं, और शायद इसीलिए ज्यादा इंडीपेंडेंट हैं, और ज्यादा क्रियेटिव भी.

- वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...