पहाड़ों से मुझे एलर्जी थी. ऐसा नहीं कि पहाड़ मुझे अच्छे नहीं लगते बल्कि ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि पहाड़ किसे अच्छे नहीं लगते. मैदानी इलाकों में रहने वालों का पहाड़ों की दुश्वारियों से सामना कहां होता है. उन्हें तो सारे पहाड़ हिल स्टेशन से लगते. जिन्हें वहाँ रहना होता है, उन्हें भी दुश्वारियों का भान नहीं होता, क्योंकि वे उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी होती हैं. कोलाहल से दूर पहाड़, दुनिया के सताये लोगों को भी बहुत रास आते हैं. तभी तो हताश पति और निराश प्रेमी, इस नश्वर जगत के मानवीय प्रेम से ऊपर उठ कर, ईश प्रेम की खोज में पहाड़ों की ही शरण लेते हैं. भारत के पहाड़ों को देवभूमि ऐसे ही नहीं कहा जाता. कितने ही दीन-दुनिया के हिसाब से अनफिट लोग (कर्मयोगीयों के अनुसार निकम्मे और नाकारा लोग) जब कंदराओं में आत्म संयम और आत्म ज्ञान प्राप्त करके निकलते हैं, तो दुनिया उनके चरणों में होती है. दुनियादार कर्मयोगी बेसिकली जिस धन के पीछे-पीछे भाग-भाग के अपना जीवन व्यर्थ कर लेते हैं, वही धन इन बाबाओं के पीछे-पीछे भागता है. और तुर्रा ये कि बाबा उसे हाथ से छूना भी पसन्द नहीं करते. अगले प्रमोशन को लक्ष्य करके और स्कोर कार्ड सामने चिपका कर जो मात्र फल की कामना से काम करते हैं, उन्हें कर्मयोगी मानना, त्याग की प्रतिमूर्ति महान कर्मयोगियों के प्रति नाइंसाफी होगी.
ऐसा नहीं है कि मुझे पहाड़ों से प्रेम नहीं है लेकिन जिन पहाड़ों का ज़िक्र पहली पंक्ति में किया है, उसका सम्बन्ध गगनचुम्बी हिमालय से नहीं, बल्कि गणित वाले पहाड़ों से है. जिसे बच्चे-बच्चे को कंठस्थ कराने का ठेका हमारे गणित वाले मास्साब का था. उनकी व्यक्तिगत मान्यता थी कि जिसे भी दुनिया में तरक्की करनी है, उसकी गणित तो अच्छी ही होनी चाहिए. तब के मास्साब को सपने में भी गुमान न होगा कि भविष्य में दो और दो जोड़ने के लिए बच्चे कैलकुलेटर का उपयोग करेंगे. पहाड़ों पर घूमने जायेंगे, सैर-सपाटा करेंगे, भला उन्हें रटने की क्या जरूरत. वैसे गणित जैसा नामाकूल विषय हर किसी के बस की बात होता तो देश कला और खेल जगत के विभिन्न क्षेत्रों की अनेकानेक प्रतिभाओं से वंचित रह गया होता. अधिकांश लोगों ने गणित के फोबिया से ही डर कर बायो या आर्ट्स या कॉमर्स पढ़ी है. जबकि सबको पता है कि इंजीनियर बन कर आसानी से एक सुखद और समृद्ध जीवन जिया जा सकता है. पुल के एक-आध खम्भे भी इधर-उधर कर लिए, तो जीवन के खट-राग से मुक्ति.
पता नहीं क्यों मेरे ऊपर घर में बुजुर्गों और स्कूल में टीचरों की (और ऑफिस में अफसरों की) विशेष अनुकम्पा सदैव बरसती रही है. सब के सब मुझे सुधारने को तत्पर रहे हैं. इसमें उनका कोई दोष नहीं है, उनको मुझमें कुछ प्रतिभा अवश्य दिखाई देती होगी, तभी वो उसे निखारने के प्रयास में लग जाते हैं. उस ज़माने में हमारे मास्साब को जीनोम एडिटिंग के बारे कुछ पता तो था नहीं लेकिन उनके पास जीन एडिट करने के बहुत से अचूक तरीके (टूल्स) थे. जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि अन्य गुरुओं की तरह हमारे मैथ्स से गुरु जी को भी अगाध स्नेह था, मुझसे. क्लास के बाकी लड़कों से भले ही वो ग्यारह का पहाड़ा पूछ लें, लेकिन वो मुझसे तेरह का पहाड़ा ही पूछा करते थे. बारह तक के पहाड़े उनकी कट्टर पढाई (कट्टर ईमानदार टाइप) विधि से फर्राटे से याद हो गए थे. लेकिन तेरह के अंक से मुझे एक अनजान फोबिया डेवलप हो गया. तेरह का पहाड़ा कोई पूछ ले तो हाथ-पैर फूल जाते थे. और उन्होंने भी कसम खा रखी थी कि तेरह का पहाड़ा रटा कर ही मानेंगे. जब मेरे हाथ-पैर तेरह के नाम से अच्छी तरह फूल चुके होते तो उनके चेहरे पर वैसी ही मुस्कान नाचने लगती थी जैसी फिल्मों में किसी विलेन की. वो इशारों में बस इतना कहते - 'जा बेटा जा, ले आ'. मैं जाता और ले भी आता. फिर एक आवाज़ दूर तक गूँजती थी, सटाक-सटाक, सटाक-सटाक, संटी की.
इसमें भी मुझे अपने पिता जी की साजिश लगती है. जब मेरा मन साहित्य और संगीत में की ओर झुक रहा था, तो उनकी तमन्ना मुझ नाचीज़ को बड़े भाई की तरह इंजीनियर बनाने की हुआ करती रही होगी. बड़े भाई साहब पढ़ने में मुझसे अच्छे थे. टेंथ के बाद उनके बायलोजी और मैथ्स के टीचर दोनों ने घर पर धरना दे दिया, कि बच्चे में पोटेंशियल है. एक कहते थे इसे डॉक्टर बनाना चाहिए, और दूसरे इंजीनियर बनाने पर अड़े थे. तब सिंगल प्लांट सलेक्शन की अवधारणा मुझे नहीं थी. टीचर्स भी एक तरह के ब्रीडर ही होते हैं. ये पता लगा ही लेते हैं कि बन्दे में कौन-कौन से गुण और हुनर हैं. एक सा पेपर सभी बच्चों को देकर स्क्रीनिंग करने की प्रथा बहुत पुरानी है. ये नहीं कि इंटेलीजेंट बच्चों को कठिन पेपर दें और पढ़ाई से भागने वालों को सरल. शिक्षा विभाग को ये बहुत बाद में समझ आया कि हर बच्चे को तब तक पास करते जाओ जब तक बच्चा ख़ुद फेल होना न चाहे. अब कोई डांट-मार का डर भी नहीं रहा. टीचर्स को आब्जर्वर कहना ज़्यादा उचित होगा क्योंकि उसमें साइंस की बहुत सी विधाओं की तरह साइंस जैसा कुछ नहीं है. विज्ञान के कई विषय हैं, जिनमें न किसी प्रकार का विशेष उपकरण चाहिये, ना ही कोई केमिकल. खाली हाथ आइये, शोध कीजिये और रिटायर्मेंट पर ऐसे निस्पृह भाव से निकल लीजिये, जैसे कमल के पत्ते पर पानी की बूँदें. ऑब्जरवेशन अपने आप में एक विज्ञान है. हमारे पुरखों ने बिना टेलिस्कोप के मात्र ऑब्जरवेशन से ग्रह-नक्षत्रों की चाल माप डाली. पूरे विश्व में बिना उपकरण वाले इस विज्ञान को साइंस का दर्जा दिलाने के लिये बायोटेक्नोलोजी के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया जा रहा है. जिससे पुराने शोधकर्ताओं में एक इन्फेरियोरिटी कॉम्प्लेक्स डेवेलप होना स्वाभाविक है.
गुरु का काम ही है कि दस साल में वो भी पहचान ले कि किस बच्चे में क्या पोटेंशियल है. किसे मेडिकल में जाना चाहिए, किसे इंजीनियरिंग में. कौन खेल से नाम कमायेगा और कौन संगीत साधना करेगा. ये गुरु की पारखी नजरों से छिपा नहीं रह सकता था. गुरु तो वहीं का वहीं रह जाता है, चेले पता नहीं क्या-क्या अफलातून बने फिरते हैं. पिता जी ने गणित के मास्साब को मुझे इंजीनियर बनाने की सुपारी दे रखी थी. इसलिए वो मेरी जीन एडिटिंग का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे. उनके पास कई तरीके कई थे - ऊँगली के बीच पेन्सिल दबाना, कान खींचना/उमेंठना, डस्टर सर पर खटखटा देना आदि-इत्यादि. जीन एडिटिंग का उनका प्रमुख शस्त्र था, नीम की संटी. जो वो मुझी से तुड़वाते. उनकी उसी एडिटिंग का अमूल्य योगदान है जो मैं गिरते-पड़ते इंजीनियर बन ही गया.
प्रकृति का नियम है, परिवर्तन जो अन्तर से आता है, वो चिर स्थाई होता है. बाहर से थोपा हुआ चेंज तभी तक रहता है जब तक बाहर का इन्वायरमेंट फेवरेबल होता है. दारु और सिगरेट छोड़ने का प्रयास करने वाले इस बात को भली-भाँती समझ सकते हैं. वातावरण के हिसाब से प्रकृति के सभी प्राणी या तो विलुप्त हो गये या उन्नत होते गये. पहले (हमारे ज़माने में) आदमी का बच्चा बहुत भोंदू सा हुआ करता था. ये बात इस बात से परिलक्षित होती है कि अम्मा-दादी उन्हें मालिश करके, नहला-धुला के, काला टीका लगा के पालने में लिटा दें, तो बच्चा तभी हाहाकार मचाता था जब उसे भूख लगे. आज आदमी के बच्चे की प्रजाति बहुत ही उन्नत है. आज के बच्चे सिर्फ दूध-मालिश से नहीं मानने वाले. उन्हें पैदा होते ही कार्टून नेटवर्क चाहिए और कुछ दिन बाद मम्मी का स्मार्ट फोन. और एक बात नहीं मानी कि पूरा घर सर पर उठा लेते हैं. आज कल किसी बच्चे को आप उल्टी चप्पल पहने नहीं देख सकते. न ही कोई बच्चा उल्टा अखबार या मैगज़ीन पढ़ता मिलेगा. एक ढाई साल का बच्चा भी दस रूपये और पांच रूपये की चॉकलेट का फ़र्क जानता है. अब पहाड़ा वो इसलिए याद नहीं करता कि उसे कैलकुलेटर का उपयोग पता है. हिस्ट्री-ज्योग्रेफी को याद करके दिमाग की हार्ड डिस्क को वो बेवजह नहीं भरता क्योंकि सब कुछ तो गुगल बाबा की सहायता से एक फिंगरटिप पर उपलब्ध है. बच्चों का दिमाग समय के साथ अधिक विकसित होता चला गया. तभी तो बचपन की कल्पनायें आज साकार होती दिख रही हैं और भविष्योन्मुखी नयी पीढ़ी, नये-नये सपने देख रही है.
तकनीकी विकास ने मानव विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है. आज का बच्चा लेटेस्ट गैजेट्स से लैस है, और युवा मानव जीवन को और अधिक आरामदेह बनाने के लिए नयी-नयी तकनीक ईजाद कर रहा है. आदमी के इस विकास क्रम में मुख्य बात है कि किसी प्रकार का कोई जेनेटिक मैनेजमेंट (मैनिपुलेशन) नहीं किया गया है, और जो इन्वायरमेंटल चेंज होने थे, उनसे बचना नामुमकिन था. इन्वायरमेंट के साथ यदि आदमी का बच्चा उन्नत हो गया तो बाकि प्राणियों के बच्चे भी बदलते वातावरण के अनुसार विकसित होते गए या हो जायेंगे. रेंड के पेड़, मोथा, पार्थेनियम, आदि-इत्यादि खर-पतवार बिना किसी जेनेटिक्स के इंप्रूव हो गये. आदमी जिनका समूल नाश करना चाहता है, वो हर तरह मुँह चिढ़ाते लहलहा रहे हैं. और उनके लिए बड़ी-बड़ी कम्पनियां एक से एक भयंकर केमिकल बनाने-बेचने में लगी हैं. प्रकृति में ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं. जो मच्छर पहले कछुआ जलाते ही भाग जाते थे, अब उनके लिये पूरी एक इंडस्ट्री खड़ी हो गयी है, वे रोज-रोज एक से एक एडवान्स केमिकल निकाल रही है ताकि आप और हम मच्छर से होने वाली ना-ना प्रकार की बीमारियों से बचे रहें. इसका भी अध्ययन होना चाहिए, कि इनकी कौन सी जीन एडिट हो गयी जो इन पर ग्लोबल वार्मिंग का कोई असर नहीं पड़ा रहा. इन अनवांटेड वनस्पतियों का न तो जीवन चक्र छोटा हुआ, न ही इनके प्रसार में कोई कमी आयी. ये बारहमासी अवांछित वनस्पतियां पूरी धरा पर कब्ज़ा करने का माद्दा रखती हैं. कभी-कभी लगता है कि क्या गेहूँ के पौधे को कांग्रेस ग्रास जितना ताकतवर बनाया जा सकता है. गलियों-सड़कों के किनारे गेहूं लहलहाता रहे. यदि बन गया तो समझ लीजिये, एवरग्रीन रिवोल्यूशन हो गया. नई-नई विकसित प्रजातियों की प्रतिरोधकता समय के साथ कम होती जाती है. जैसे एक रेस लगी है, सुर और असुर के बीच. सुर नाज़ुक और सुकुंआर होते हैं, क्योंकि ये अच्छे और अनुकूल वातावरण में पलते-बढ़ते हैं. सभी खर-पतवार और कीट-पतंगों और विषाणु-रोगाणु बदलते परिवेश में समय के साथ इवोल्व करते गये. और इवोल्यूशन, रिवोल्यूशन की तुलना में अधिक स्थाई होता है.
संटी द्वारा की गई एडिटिंग का असर को एक दिन तो खत्म होना ही था. एक ट्रेनिंग की रिपोर्ट समिट करनी थी. ट्रेनिंग में कुछ ईमानदारी-कर्तव्यनिष्ठा-देश प्रेम का अंश था. रिपोर्ट तो ठीक-ठाक ही लिख दी थी लेकिन अंत में दिनकर जी की कविता पेल दी -
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध.
किसी ने मेरे अन्तर में उठती देश प्रेम की हिलोरें नहीं देखीं. उसे अन्यथा ले लिया गया. नतीजा एक मेमो. मेमो की रिप्लाई में एक और साहित्यिक रचना लिखी गयी. इस बार ये पूरी तरह स्वरचित थी. अब तो मेमो रिप्लाई पर भी मेमो मिलने लगे और वाणभट्ट की साहित्यिक प्रतिभा दिनोंदिन निखरती चली गयी. यही व्यवस्था प्राणी जगत में हर तरफ व्याप्त है, चाहे वो प्राणी विज्ञान हो या वनस्पति विज्ञान. कुत्ते की दुम को बीस वर्षों तक पाइप में रखने के बाद भी उसे सीधा नहीं किया जा सका. जिस दिन कुत्ता ख़ुद ठान लेगा वो अपनी दुम सीधी भी कर लेगा. इसी प्रकार खर-पतवार हो या कीट-पतंगे, या वायरस-बैक्टीरिया, सब के सब वही रहे और वातावरण को एडॉप्ट करते चले गए. उनके आगे एक से एक उन्नत प्रजातियों ने दम तोड़ दिया. जिस रेट से प्रजातियाँ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से लेकर हर गली-मोहल्ले के विद्यालयों-विश्विद्यालयों में विकसित की जा रही हैं, उसका कोई अंत होता नहीं दिख रहा है.
जब कोई ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज को काउंटर करने की बात करता है, तो लगता है, वो टाइम पास कर रहा है. प्राकृतिक आपदा का प्रबन्धन किया जा सकता है. उसके प्रभाव को कम (मिटीगेट) किया जा सकता है, लेकिन समाप्त करने की परिकल्पना स्वान्तः सुखाय जैसे शोध कार्यों से अधिक नहीं लगती. जिनका उदेश्य पीएचड़ी करने-कराने से अधिक नहीं है. वैसे शोध ऐसे ही विषयों पर होने चाहिये जैसे ब्रह्माण्ड की खोज, ताकि लोगों की पीएचडी होती रहे, बड़े-बड़े जर्नल्स पैसा ले-ले कर शोध पत्र छापते रहें. उनकी और सबकी दुकानें चलती रहे. कार-एसी-फ्रिज बनाने वाले, जिनके दम पर पांच सितारा होटलों में विज्ञान ग्लोबल वार्मिंग पर ज्ञान दिया जाता है, इंसान की जिन्दगी आरामदायक बनाते-बनाते सिधार गये, लेकिन नोबल उन्हें तो मिलने से रहा. हरित क्रांति के पुरोधा को रत्न देने में भी चार दशक लगा दिए.
ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए जमीन पर काम करना पड़ेगा. जो कोई नहीं करना चाहता क्योंकि एसी के बाहर दिमाग काम नहीं करता. हार्डडिस्क को ठंडा न रखो तो उसके क्रैश होने का खतरा रहता है. दुनिया भर के वनस्पति शास्त्री कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सिर्फ़ जीन मेनपुलेशन और एडिटिंग में समाधान खोज रहे हैं. इसमें बजट भले मिल जाये लेकिन स्थायी समाधान मिलने की सम्भावना कम है. वैसे भी बायो साइंस बहुत डायनेमिक है, इसमें चिरस्थाई जैसा कुछ नहीं होता. यही इसका प्लस प्वाइंट है. आज वृक्षारोपण, मृदा क्षरण रोकना और जल संरक्षण की दिशा में न सिर्फ बातें हो रही हैं बल्कि काम भी किया जा रहा है. जो काम आसान होते है, वहां शोध की गुंजाइश कम होती है, लेकिन वहीं सक्सेस स्टोरीज़ बनती हैं. ये काम तो हमारे गांव के अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोग भी कर सकते हैं. हम पढ़े लिखे हैं, तो कुछ हट कर ही करेंगे. आम खा कर उसकी गुठली जमीन में गाड़ देना तो कोई भी कर सकता है. बजट तो बड़े-बड़े काम के लिए मिलता है. जहां बजट होगा वहीं बेस्ट ब्रेन काम करेंगे. इसीलिए एलोपैथी को विज्ञान मान लिया गया और, होम्योपैथी और आयुर्वेद को झाड-फूँक. यदि मृदा समृद्ध है और जल उपलब्ध है, तो बहुत सी आपदाओं और बीमारियों से बचा जा सकता है. जैसे स्वस्थ शरीर के लिए इम्यूनिटी की आवश्यकता होती है, उसी तरह ये बात पेड़-पौधों पर भी लागू होती है. ऐसा नहीं है कि किसी को इस बात का ज्ञान नहीं है, लेकिन जब साइंस पढ़ी है तो साइंस ही करेंगे. एलोपैथी का डॉक्टर खुद भले प्राणायाम कर ले, लेकिन अपने मरीज को इन्हेलर ही बताएगा. क्योंकि उसने वो ही पढ़ा है. बक्से के बाहर की सोच वाले डॉक्टर्स, एलोपैथी छोड़ आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार करने लगे हैं. एलोपैथी तो है ही, जब मुलेठी से काम नहीं चलेगा तो एंटीबायेटिक का विकल्प भी ट्राई कर लेना.
तो अब आवश्यकता है, शत्रुओं के स्ट्रॉन्ग प्वाइंट को समझने की. हमें इवोल्यूशन पर काम करना चाहिए. यदि चने के चार बीज भी 55 डिग्री पर बन गये तो वो अंदर से कितना सॉलिड होगा. वो वातावरण के अनुसार स्वयं अपने जीन की एडिटिंग करने में सक्षम होगा. क्राइसिस में ही विकास के गुणसूत्र छिपे होते हैं.
आजकल बच्चों को पहाड़ा याद करने पर जोर नहीं दिया जाता. घर और स्कूल की डांट-मार से दूर रही ये नयी पीढ़ी के फ्री डेवलपमेंट वाले सेल्फ इवोल्वड बच्चे हैं, और शायद इसीलिए ज्यादा इंडीपेंडेंट हैं, और ज्यादा क्रियेटिव भी.
- वाणभट्ट