अभी सवेरा नहीं हुआ था. रोज की तरह एलार्म ने अपना काम कर दिया. नींद पूरी तरह खुल नहीं पायी थी. ख़ुमारी कायम थी. आजकल सोते-सोते साढ़े ग्यारह-बारह बज जाना आम है. रोज ये तमन्ना ले कर सोने जाना कि कल से सुबह पाँच बजे उठ जाउँगा, पर वो सुबह आती ही नहीं. लेकिन एलार्म बजते ही नये डॉक्टरों की चेतावनी याद आने लगती है कि आदमी को कम से कम सात से आठ घण्टे तो सोना ही चाहिये. आदमी के लिये इतना बहाना काफी है. सोते-सोते जोड़-घटाना शुरू कर देता है. इस हिसाब से तो उसे सात बजे से पहले तो उठना ही नहीं चाहिये.
अंग्रेजी में मेडिकल साइंस पढ़े लोगों से और क्या उम्मीद कर सकते हैं. इनके सैलिबस में यम-नियम-संयम के बारे में न तो बताया गया है, न पढाया. शरीर को मशीन मानने वाले इन प्राणियों की स्थिति ये हो गयी है कि मोटरसायकिल मेकैनिक की तरह आपको याद दिलाते घूम रहे हैं कि बहुत दिनों से आप सर्विस कराने नहीं आये. एक आई स्पेशलिस्ट के यहाँ जाना हुआ तो वो भड़क उठे - जिनकी आँख ख़राब है (यानि चश्मिश हैं), उन्हें छ: महीने में एक बार तो आई टेस्ट जरुर कराना चाहिये.
मुझे नहीं याद कि किसी मेकैनिक ने मेरी मोटर सायकिल को कभी भी एकदम परफेक्ट बताया हो. यही हाल हमारे चिकित्सकों का हो रखा है. ब्रह्म मुहूर्त और ब्रह्मचर्य का इनके लिये कोई महत्त्व नहीं है. ये तो जो भी अंग्रेजी में छप जाये उसी को ज्ञान समझ कर बाँचने लगते हैं. अपनी आयुर्वेद की चिकित्सा पद्यति पर इन्हें भरोसा नहीं है. चूँकि पूरी एनाटॉमी-फिजियोलॉजी इन्होंने विदेशी पुस्तकों से पढ़ी है तो इनको लगता है कि चिकित्सा विज्ञान के बारे में संस्कृत जानने वाले पुरखों को क्या पता होगा. शायद इसीलिये आज इन्सान के बच्चे का इलाज पैदा होने से पहले शुरू हो जाता है और वेंटीलेटर पर मरने तक चलता रहता है. तुर्रा ये है कि मेडिकल साइन्स ने आदमी की आयु बढ़ा दी है. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मनुष्य का जन्म ही इलाज कराने और डॉक्टरों को फ़ीस देने के लिये हुआ है. इस प्रक्रिया में यदि मेडिकल लाइन सेवा की जगह एक इन्डस्ट्री या प्रोफेशन बन जाये, तो इसमें गलत क्या है. शहर में होटल कम हॉस्पिटल ज्यादा दिखते हैं. परचून की दुकानें जिस रेट से बन्द हो रही हैं, दवाई की दुकानें उसकी दुगनी दर से खुल रही हैं.
हालात ये हैं कि भूख से सरकार मरने नहीं देगी और डॉक्टर बिना इलाज किये. हर गली-मोहल्ले में नर्सिंग होम्स की बाढ़ आ रखी है, क्या मजाल कि कोई बिना इलाज कराये मर जाये. इलाज इतना मँहगा हो गया है कि आम आदमी के लिये इलाज करा पाना मुश्किल होता जा रहा है. जहाँ समस्या है, वहाँ समाधान है, और जहाँ समाधान है, वहीं तो रोजगार और व्यापार की संभावनायें हैं. इसीलिये बहुत सी स्वास्थ्य बीमा कम्पनियाँ मार्केट में आ गयी हैं. पहले बीमा लोग जीवन के सुरक्षा कवच के लिये लेते थे. मरने के पहले इन्वेस्टमेंट और मरने के बाद परिवार के लिये कुछ पूँजी की व्यवस्था. बीमे का तो धन्धा ही डर के आधार पर खड़ा किया गया है. गब्बर ने सन पचहत्तर में ही एलान कर दिया था कि जो डर गया समझो मर गया. तो मरे हुये लोग इस धन्धे के सबसे बड़े ग्राहक हैं. गब्बर की बात सही होती तो उसका अन्त इतना दु:खद न होता. लेकिन अगर ठाकुर और उसके पूरे परिवार का टर्म इन्श्योरेंस होता तो फिल्म बनाने की जरूरत ही न पड़ती. ठाकुर भी पूरे इण्डिया में इंश्योरेंस के पैसे से घूम-घूम के निहाल हो रहा होता.
लेकिन तब लोग बड़े पक्के हुआ करते थे. बिना इंश्योरेन्स के हर किसी से पन्गा लिये रहते थे. जल्द ही वो समय आने जा रहा है कि डॉक्टर बिना बीमा कराये लोगों को देखने से सिर्फ इसलिये मना कर दे कि बंदा उनकी फ़ीस और इलाज का ख़र्च वहन नहीं कर पायेगा. और बीमा है तो डॉक्टर से लेकर हेल्थ केयर सिस्टम से जुड़े के हर व्यक्ति का लाभ ही लाभ है. अमरीका के भारतीय मूल के एक चिकित्सक का विचार था कि डॉक्टर का काम है स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा करना ताकि उनकी जरूरत न पड़े या कम से कम पड़े. धरती पर डॉक्टर्स को भगवान का दूसरा रूप माना जाता है. ऐसा नहीं है कि भगवान तुल्य डॉक्टर्स आज नहीं हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है और ये उनकी प्रोफेशनल मजबूरी भी हो सकती है. जब मँहगी शिक्षा ले कर पढायी की है तो उसका कई गुना अर्जित करना आवश्यक हो जाता है.
एक दौर वो था जब एलार्म बजने से पहले ही पैर धरती चूमने को बेताब रहते थे. इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि वो भी दौर था जब फ़न्ने मियां फ़ाख्ता उड़ाया करते थे. आखिर उम्र भी कोई चीज़ होती है. उम्र को बढ़ना ही था तो बढ़ी, उसे कौन रोक सकता था. ये तो भला हो मेडिकल साइंस का जो पच्चीस और पचास साल के आदमियों के मेडिकल पैरामीटर एक समान मान के चलती है. इसलिए हर उम्र के हर आदमी के लिये कुछ न कुछ इलाज है, कुछ न कुछ दवाई है. एक से एक एनर्जी टैबलेट्स और कैप्सूल हैं जो दावे से कहती हैं कि रुकना मना है. बढ़ती उम्र को रोकने के लिये टॉनिक भी हैं. लेकिन कोई ये मानने-बताने को तैयार नहीं है कि भाई उम्र हो गई है थोड़ा स्लो हो जाओ. बाल-वाल काले-पीले करके आदमी भी ये मानने को तैयार नहीं दिखता कि उम्र हो गई है. इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार है.
हिन्दुस्तान में तो वैसे ही हर आदमी ये मान के चलता है कि इस धरा पर अवतरित हो कर उसने देश पर बहुत बड़ा एहसान कर दिया है. ऐसे में सरकार का दायित्व है कि वो उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण करे. और सरकारें बनती भी हैं यही सब्ज बाग दिखा कर. जनता को पांचों उंगलियां घी में और सर कढ़ाई में चाहिये. सरकार बहुत प्रयास कर रही है कि लोग सेहत के लिए कुछ जागरूक हो जाएं तो मेडिकल के खर्च में कुछ लगाम लगे. लेकिन अक्सर लोग स्वाद और शौक के आगे स्वास्थ्य के प्रति उदासीन रवैया अपनाते हैं. जब भरण-पोषण से लेकर स्वास्थ्य का ठेका सरकार का है तो सरकार को भी चाहिए कि हर व्यक्ति को एक डायट चार्ट और योग का एक मिनिमम पैकेज पकड़ा दे. अपने शरीर की कुछ तो जिम्मेदारी लो.
सर पर बचे-खुचे बालों को रंगने के बाद, कभी वर्मा को बढ़ती उम्र का एहसास हुआ हो, ऐसा नहीं था. एक जमाने में परमानेंट-गेवरमेंट-सर्वेंट्स की आय भले ही प्राइवेट में जॉब करने वाले उनके दोस्तों से कम रही हो, लेकिन पे कमीशनों के लगने के बाद से उनके लिविंग स्तर में भी काफ़ी सुधार देखने को मिला है. साठ के करीब पहुंच रहे लोगों ने जिन्दगी तो पैसा बचाने में गुजार दी, अब समझ नहीं आता कि खर्च करें तो कहां. शेयर मार्केट का जो उठान है, वो इन्हीं लोगों की देन है. घूमने की आदत रही नहीं, तला-भुना खाना डॉक्टर ने मना कर रखा है, तो बेचारे करें क्या. बस म्यूचुअल फण्ड और शेयर ही बचता है, इन्वेस्टमेंट के नाम पर. एसी कार से आना, एसी रूम में काम या मीटिंग करना और उसी एसी कार से वापस लौट जाना. इस दिनचर्या में कभी एंड्यूरेंस टेस्ट की स्थिति आती ही नहीं. जब से उम्र ने पचास पार किया, वर्मा को तड़कीले-भड़कीले कपड़े पसन्द आने लगे. जींस और टीशर्ट पहनते तो शाम तक बेल्ट में दबी-सहमी टमी विद्रोह कर देती. ऊपर की गैस ऊपर और नीचे की नीचे फंसी रह जाती. लेकिन जवान दिखने और दिखाने के लिए ये कोई बड़ा सैक्रीफ़ाइस नहीं था. वैसे भी बहुत से महापुरुष सुबह शाम मोटिवेशनल चैनल्स पर ये बताते घूम रहे हैं कि एज इज़ जस्ट नम्बर. बाकी लोगों को तो बस महसूस करना है. सुविधाओं के साथ ऐसा लगता भी है कि एज नम्बर गेम मात्र है.
लेकिन ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था. एक एंड्यूरेंस टेस्ट वर्मा को खोज रहा था. सभी स्मार्ट लोगों ने भयंकर गर्मी में होने वाले इलेक्शंस में ड्यूटी करने से ख़ुद को बचा लिया. वर्मा ख़ुद को जवान भले समझता रहा हो लेकिन स्मार्ट लोगों की कैटेगरी में वो ख़ुद को नहीं मानता था. स्मार्टनेस की शुरुआत घर से ही होती है और देश पर खत्म होती है. इनके हिस्से न मां-बाप की सेवा आती है, न समाज सेवा और न ही देश सेवा. क्योंकि जो स्मार्ट होता है, वो स्मार्ट ही होता है. हर चीज़ में सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना लाभ देखता है. साठ के पास पहुंच रहा वर्मा इलेक्शन ड्यूटी करने वाला विभाग का सबसे उम्र दराज व्यक्ति रहा होगा. मित्रों ने दिल सांत्वनाएं दीं. सांत्वना दुश्मनों ने भी दी लेकिन उन्होंने चेहरे से टपकी पड़ रही खुशी को छिपाने का प्रयास नहीं किया. किसी ने अपनी पुरानी खुन्नस निकालने के उद्देश्य से वर्मा का नाम उस लिस्ट में डलवा दिया, जिनको इलेक्शन के लिए विभाग उपलब्ध करा सकता था. ऐसा नहीं है कि वर्मा ने इलेक्शन ड्यूटी पहले नहीं की थी. सरकारी नौकर के लिए ये एक आवश्यक व अनिवार्य ड्यूटी है. पहले इलेक्शन ड्यूटी महाकुम्भ की तरह लगती थी. पुलिस और पैरामिलिट्री साथ होने पर सरकारी नौकर को सरकार प्रदत्त जिम्मेदारियों और ताकत का एहसास होता था. निश्चित रूप से सुविधाओं के अभाव वाले बूथ्स में कभी-कभी ड्यूटी कष्टकारी भी हो जाती थी. लेकिन इस पंच वर्षीय प्रक्रिया का आनन्द भी अलग था. हफ्तों लोग उसी को याद करते.
इस बार गर्मी का कहर अप्रैल से ही शुरू हो गया था. मई में तो हालात और भीषण हो गए. दो दिन की ही बात थी. वर्मा अपने पुराने दौर में पहुंच गया. किन्तु इस बार गर्मी प्रचंड थी और सुविधाओं का था नितांत टोटा. बहरहाल पूरे शौक से ड्यूटी की और जब फाइनल रिपोर्ट जमा करके निकले तो लगा - अभी तो मैं जवान हूं. जवान लोगों के साथ ड्यूटी करने का अलग अनुभव होता है. जब घर लौटे तो ऐसी फीलिंग थी मानो युद्ध भूमि से लौटे हों. दो दिन बाद ठीक से खाना खाने को मिला. एसी में रहने वालों के लिए, बिना एसी के रहना ही सजा है. पसीना धारों-धार बहा. स्कूल जहां ड्यूटी थी, वहां पानी की व्यवस्था बढ़िया थी. वर्ना भूख के साथ प्यास का दंश भी झेलना पड़ता. कुल मिला कर वर्मा संतुष्ट था कि रिटायरमेंट से पहले देश सेवा का सुनहरा अवसर मिला.
खाना खाने के बाद थकान का एहसास हुआ. एसी की ठंडी हवा में जल्द ही नींद आ गई.
सुबह एलार्म अपने समय पर बजा. आदतन झटके से उठने की कोशिश की. अस्थि पंजर कड़कड़ा गया. मांसपेशियों ने दिमाग का कहा मानने से इंकार कर दिया. वर्मा डिहाइड्रेशन सा फील कर रहा था. दो दिन के एक्सरशन ने उसके रंगे बालों की कलई खोल के रख दी. सबसे अनुरोध है कि दो-चार दिन कोई वर्मा को ये न बोले - एज इज़ जस्ट नम्बर. कसम से, बहुत गुस्से में है.
- वाणभट्ट
ऐसा अनुभव किसी को कराये ईश्वर … पर आपको नमन इतनी गर्मी में भी आप डटे हैं ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंरोचक आलेख
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