शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

जागे हुये लोग

सुबह सवेरे हमारे घर की शुरुआत विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून से होती थी. वंदेमातरम जो आज तक कंठस्थ है, उसके बाद शुरू होता था. फिर शुरू होती थी हम लोगों की भागम-भाग. सात बजे तक स्कूल पहुँचना होता था. प्रार्थना सभा में ही अटेंडेंस हुआ करती थी. पिता जी की दिनचर्या बहुत ही नियमित थी. जाड़ा-गर्मी-बरसात पाँच बजे टहलने निकल जाते थे. बस बरसात में छड़ी, छाते से बदल जाती थी. संडे हो या छुट्टी हो या समर-विन्टर वेकेशन्स. न उनका नियम टूटता था, न हम लोगों का सुबह-सुबह उठना. ये बात अलग है कि छुट्टियों में हम लोगों का उठने का कोई इरादा नहीं होता था, लेकिन उठना पड़ता था क्योंकि पापा टहल के लौटने के बाद किसी को बिस्तर पर देखना पसन्द नहीं करते थे.

गर्मी की छुट्टी से पहले अगले क्लास की किताबें आ जाती थीं और विन्टर वेकेशन्स में तो होम वर्क मिला ही करता था. एक गीत वो अक्सर कोट किया करते थे - भिंसहरे होगी अच्छी पढ़ाई, मुझको जगाना मेरे मुर्गे भाई. उनका मानना था कि प्रातः काल जो पढ़ाई होती है, वो लम्बे समय तक टिकती है.  लेकिन वो ज़माना अलग था. तब बच्चे बड़ों की बातें सिर्फ़ इसलिये मानते थे क्योंकि वो बड़े थे. आजकल के अन्तरजाल युग के बच्चों के पास हर चीज़ के तर्क हैं. उन्हें कुतर्क कहना ज़्यादा उचित होगा. रात के समय ज़्यादा शान्ति होती है, तब पढ़ाई में मन लगता है. और हम लोगों का बॉडी सायकिल भी समय के हिसाब से बदल गयी है. लेकिन इस पीढ़ी की एक बात तो माननी पड़ेगी, इन्हें जब उठना होता है, तो उठ ही जाते हैं, वो भी बिना अलार्म के. सुबह-सुबह मेरा भी मन करता है कि पूरे घर को उठा दूँ, लेकिन ख़ुदा के खौफ़ से ज़्यादा बेग़म का ख़ौफ़ होता है, जो हमेशा बच्चों के खेमे में खड़ी रहती हैं. रात भर पढ़ते हैं बच्चे, कब सोये तुम्हें क्या पता. तुम तो शुरू हो जाते हो सुबह-सुबह. तड़के सुबह उठने की बात हमारे समय के हिसाब से सही भी थी. कोई टीवी-मोबाइल-इंटरनेट तो था नहीं. सब टाइम से सोते थे और टाइम से उठते थे. अब जब उम्र का तकाज़ा है कि अपनी नींद पौ फटने से पहले ही खुल जाती है, तो पापा का दर्द समझ आता है. जब आप जग गये हों तो दूसरे लोगों को सोते हुये देखना बड़ा कष्टकारी होता है, आपके लिये.

रात में बिस्तर पर लेटने के बाद नींद न आये तो डॉक्टर इसे भयंकर बीमारी इन्सोम्निया बताते हैं. इसके लिये उनके तरकश में बहुत सी दवाइयाँ हैं. रात में सोने से पहले लीजिये और चैन से सोइये. लेकिन सुबह-सुबह बिना कारण सूर्योदय से पहले उठ जाना भी बीमारी से कम नहीं है. ये ऐसी बीमारी है कि जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है. इसे बीमारी कहना सही है या गलत, ये निर्णय मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ. लेकिन ये कहाँ तक सही है कि आप सबको इसलिये जगाने में लग जायें क्योंकि आप की आँख खुल चुकी है. दूसरों के सुख से सुखी न होना बीमारी नहीं तो और क्या है. वो भी सुबह-सुबह की अधजगी नींद जिसमें आपके मन के सपने साकार होते दिखते हैं. सुबह के सपनों के सच होने की सम्भावना भी अधिक रहती है क्योंकि वो ही तो कुछ-कुछ याद रह जाते हैं. ख़ुद जग जाना शायद बीमारी नहीं है लेकिन दूसरों को जगाने की इच्छा रखना मेरी समझ में बीमारी से कम नहीं है.

इस बीमारी से बड़े-बड़े लोग भी नहीं बच पाये. इस संसार में जो भी जग गया, वो दूसरों को जगाने में लग जाता है. फिर वो चाहे बुद्ध हों या महावीर हों. इन लोगों ने तो इतने लोगों के जीवन दर्शन को प्रभावित किया कि भगवान बन गये. हर युग में जब आदमी को हर तरफ़ अन्धकार ही दिख रहा हो, महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है. उन्होंने पाया कि अज्ञानता का अन्धकार प्रकाश की अनुपस्थिति से ज़्यादा गहन होता है. उन्होंने दुःख पर विजय के मार्ग खोजे. और लोगों में अपने ज्ञान का प्रसार करने में लग गये ताकि अन्य लोगों के जीवन को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर सकें. लेकिन बुद्ध के बता देने मात्र से कोई बुद्ध नहीं बन जाता. उनका ज्ञान सबके लिये सहज उपलब्ध था लेकिन सब उसका लाभ नहीं उठा पाये. ज्ञान की प्राप्ति के लिये सबसे पहले पात्रता विकसित करनी होती है. 

ये तो भला हो वे लोग हज़ारों वर्ष पहले धरा पर अवतरित हुये थे वरना आज के युग में जब ज्ञान इंटरनेट पर एक क्लिक में उपलब्ध है तो कौन भला किसे भगवान माने. पियर रिव्यूड जर्नल में जब तक न छप जाये, उस ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं है. भले लोग इम्युनिटी बढ़ाने के लिये आँवले का मुरब्बा खायें या तुलसी जी का काढ़ा पियें लेकिन डॉक्टर जब तक इलाज न करे, उसका ज्ञान व्यर्थ है. एक तरफ़ जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान है तो दूसरी तरफ सदियों के टाइम टेस्टेड देसी घरेलू नुस्ख़े हैं. अब चूँकि हमारी शिक्षा ही अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी पद्यति से हुयी है तो हमारा ज्ञान भी पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रभावित हो गया है. आज हम अपने परम्परागत ज्ञान पर विश्वास कर पाने में असमर्थ इसलिये हैं क्योंकि सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा ने अपना मूलभूत आधार ही खो दिया है. प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और होम्योपैथी के प्रति एक नकारात्मकता इसलिये देखने को मिलती है क्योंकि इसको पश्चिमी ज्ञान की स्वीकार्यता नहीं मिली है. दवाई की दुकानों पर ऐसी भीड़ देखने को मिलती है, जितनी किराना की दुकान पर नहीं. इसका मुख्य कारण लाइफ़ स्टाइल में बदलाव के बजाय दवाइयों का सेवन कहीं आसान है. आजकल एक बाबा और जग गये हैं, जो लोगों को स्वस्थ जीवन शैली अपनाने के लिये दिन-रात एक किये पड़े हैं. और लोग हैं कि एलोपैथी के पीछे लट्ठ लिये भाग रहे हैं. चूँकि बाबा की भाषा देसी है, अंग्रेजी पढ़े लोगों को उस पर विश्वास कम होता है. लेकिन दिनोंदिन बाबा के फॉलोवर्स बढ़ते जा रहे हैं. बाबा भी उत्साहित हो कर डटे हुये हैं. कुछ लोग ऐसे ही प्राकृतिक और जैविक खेती के प्रति लोगों को जागरूक करने में लगे हैं. यहाँ भी देसी और विदेशी शिक्षा का अन्तर्द्वन्द देखने को मिल सकता है. लेकिन जो लोग जग गये हैं, उन्हें चैन कहाँ जब तक सबको जगा न लें. 

आज सुबह भी हर रोज की तरह पौ फटने से पहले नींद खुल गयी तो इसी प्रकार के ना ना विचार मन-मस्तिष्क में घूमने लगे. ये भी महसूस हुआ कि जब बुद्ध को ज्ञान मिल गया तो उन्हें दूसरों को बताने की क्या आवश्यकता थी कि ज्ञान प्राप्ति का ये ही रास्ता है. यही बात महावीर, ओशो, कबीर और तमाम उन ज्ञानियों पर लागू होती है, जिन्होंने सनातन धर्म से निकल कर अपने-अपने सम्प्रदाय खड़े कर दिये. उन्होंने जिस ज्ञान का अनुभव किया उसके लिये उन्होंने अपने-अपने पथ चुने. यानि जितना ज्ञान उतने ही पंथ. हर एक का रास्ता अलग लेकिन लक्ष्य वही, परमात्मा या परमानन्द. सारी नदियों का उद्गम भले अलग हो लेकिन अंततः सब पहुँचती हैं उसी समुद्र में. आँखें मूँदे मैं सुषुम्ना का आरोहण अनुभव कर रहा हूँ. सारे चक्र खुलते जा रहे हैं. एक दिव्य प्रकाश कूटस्थ पर दीप्तमान हो रहा है. उस ब्रह्म-चेतना में ये अनुभव हो रहा है कि बुद्ध ने क्यों कहा था - अप्प दीपो भव. अंतःकरण में एक ध्वनि प्रतिध्वनित हो रही थी. बुद्ध-बुद्ध-बुद्ध. हर तरफ़ बस परमानन्द.

परमानन्द की अवस्था बनी रहती यदि उसी ध्यान में एक आवाज़ न आती - ऑफ़िस के लिये देर हो रही है. और एकाएक आँखें खुल गयी. जैसे किसी स्वप्न से जग गया हूँ. घड़ी अभी भी छः बजा रही थी. ऑफ़िस जाने के लिये पर्याप्त समय था. मैं पूरी तरह जग चुका था. अन्तर्ज्ञान के लिये बाहर की नहीं अन्दर की यात्रा करनी होगी. इसका कोई सेट फॉर्मूला नहीं है. हर एक की यात्रा अलग है, जो उसे स्वयं तय करनी है. अपनी गति से और अपनी विधि से. बुद्ध होना एक घटना है. कभी भी घट सकती है, किसी के साथ. 

मैं जग गया तो सोचा औरों को जगाने के उद्देश्य से एक लेख ही लिख डालूँ. इंटरनेट पर जब कुण्डली जागरण जैसे विषय पर वीडिओज़ उपलब्ध हैं तो कोई मुझ जैसे अज्ञानी की बात तो मानने से रहा. लोगों को ये बताना जरूरी है कि तुम्हारा जागरण भी भीतर ही घटित होगा. जगा हुआ आदमी भला दूसरों को सोता कैसे देख सकता है. न मैं बुद्ध हूँ न महावीर. न किसी पियर रिव्यूड पेपर का लेखक. लोग हँसेंगे कि क्या बक़वास है, सोच के मैं लोगों को जगाने का प्रयास तो नहीं बन्द कर दूँगा. घर में तो किसी ने न बुद्ध की सुनी न महावीर की. इसलिये मुझे भी शुरुआत बाहरी लोगों से ही करनी पड़ेगी. भाइयों और बहनों ये फ्री का ज्ञान है. इसे तुरन्त ले लीजिये. एक बार पॉपुलर हो गया तो बाद में कोचिंग लगा के बेचूँगा. फ़िलहाल अभी ये फ्री है ताकि अधिक से अधिक लोग इसका लाभ ले सकें. 

सोते हुये शहर को जगाने की चाह है

सोते शहर में जागना भी इक गुनाह है

ऐसा भला कौन सोच सकता है, सिवाय एक और अकेले वाणभट्ट के.


-वाणभट्ट

1 टिप्पणी:

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जीनोम एडिटिंग

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