शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

जागे हुये लोग

सुबह सवेरे हमारे घर की शुरुआत विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून से होती थी. वंदेमातरम जो आज तक कंठस्थ है, उसके बाद शुरू होता था. फिर शुरू होती थी हम लोगों की भागम-भाग. सात बजे तक स्कूल पहुँचना होता था. प्रार्थना सभा में ही अटेंडेंस हुआ करती थी. पिता जी की दिनचर्या बहुत ही नियमित थी. जाड़ा-गर्मी-बरसात पाँच बजे टहलने निकल जाते थे. बस बरसात में छड़ी, छाते से बदल जाती थी. संडे हो या छुट्टी हो या समर-विन्टर वेकेशन्स. न उनका नियम टूटता था, न हम लोगों का सुबह-सुबह उठना. ये बात अलग है कि छुट्टियों में हम लोगों का उठने का कोई इरादा नहीं होता था, लेकिन उठना पड़ता था क्योंकि पापा टहल के लौटने के बाद किसी को बिस्तर पर देखना पसन्द नहीं करते थे.

गर्मी की छुट्टी से पहले अगले क्लास की किताबें आ जाती थीं और विन्टर वेकेशन्स में तो होम वर्क मिला ही करता था. एक गीत वो अक्सर कोट किया करते थे - भिंसहरे होगी अच्छी पढ़ाई, मुझको जगाना मेरे मुर्गे भाई. उनका मानना था कि प्रातः काल जो पढ़ाई होती है, वो लम्बे समय तक टिकती है.  लेकिन वो ज़माना अलग था. तब बच्चे बड़ों की बातें सिर्फ़ इसलिये मानते थे क्योंकि वो बड़े थे. आजकल के अन्तरजाल युग के बच्चों के पास हर चीज़ के तर्क हैं. उन्हें कुतर्क कहना ज़्यादा उचित होगा. रात के समय ज़्यादा शान्ति होती है, तब पढ़ाई में मन लगता है. और हम लोगों का बॉडी सायकिल भी समय के हिसाब से बदल गयी है. लेकिन इस पीढ़ी की एक बात तो माननी पड़ेगी, इन्हें जब उठना होता है, तो उठ ही जाते हैं, वो भी बिना अलार्म के. सुबह-सुबह मेरा भी मन करता है कि पूरे घर को उठा दूँ, लेकिन ख़ुदा के खौफ़ से ज़्यादा बेग़म का ख़ौफ़ होता है, जो हमेशा बच्चों के खेमे में खड़ी रहती हैं. रात भर पढ़ते हैं बच्चे, कब सोये तुम्हें क्या पता. तुम तो शुरू हो जाते हो सुबह-सुबह. तड़के सुबह उठने की बात हमारे समय के हिसाब से सही भी थी. कोई टीवी-मोबाइल-इंटरनेट तो था नहीं. सब टाइम से सोते थे और टाइम से उठते थे. अब जब उम्र का तकाज़ा है कि अपनी नींद पौ फटने से पहले ही खुल जाती है, तो पापा का दर्द समझ आता है. जब आप जग गये हों तो दूसरे लोगों को सोते हुये देखना बड़ा कष्टकारी होता है, आपके लिये.

रात में बिस्तर पर लेटने के बाद नींद न आये तो डॉक्टर इसे भयंकर बीमारी इन्सोम्निया बताते हैं. इसके लिये उनके तरकश में बहुत सी दवाइयाँ हैं. रात में सोने से पहले लीजिये और चैन से सोइये. लेकिन सुबह-सुबह बिना कारण सूर्योदय से पहले उठ जाना भी बीमारी से कम नहीं है. ये ऐसी बीमारी है कि जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है. इसे बीमारी कहना सही है या गलत, ये निर्णय मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ. लेकिन ये कहाँ तक सही है कि आप सबको इसलिये जगाने में लग जायें क्योंकि आप की आँख खुल चुकी है. दूसरों के सुख से सुखी न होना बीमारी नहीं तो और क्या है. वो भी सुबह-सुबह की अधजगी नींद जिसमें आपके मन के सपने साकार होते दिखते हैं. सुबह के सपनों के सच होने की सम्भावना भी अधिक रहती है क्योंकि वो ही तो कुछ-कुछ याद रह जाते हैं. ख़ुद जग जाना शायद बीमारी नहीं है लेकिन दूसरों को जगाने की इच्छा रखना मेरी समझ में बीमारी से कम नहीं है.

इस बीमारी से बड़े-बड़े लोग भी नहीं बच पाये. इस संसार में जो भी जग गया, वो दूसरों को जगाने में लग जाता है. फिर वो चाहे बुद्ध हों या महावीर हों. इन लोगों ने तो इतने लोगों के जीवन दर्शन को प्रभावित किया कि भगवान बन गये. हर युग में जब आदमी को हर तरफ़ अन्धकार ही दिख रहा हो, महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है. उन्होंने पाया कि अज्ञानता का अन्धकार प्रकाश की अनुपस्थिति से ज़्यादा गहन होता है. उन्होंने दुःख पर विजय के मार्ग खोजे. और लोगों में अपने ज्ञान का प्रसार करने में लग गये ताकि अन्य लोगों के जीवन को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर सकें. लेकिन बुद्ध के बता देने मात्र से कोई बुद्ध नहीं बन जाता. उनका ज्ञान सबके लिये सहज उपलब्ध था लेकिन सब उसका लाभ नहीं उठा पाये. ज्ञान की प्राप्ति के लिये सबसे पहले पात्रता विकसित करनी होती है. 

ये तो भला हो वे लोग हज़ारों वर्ष पहले धरा पर अवतरित हुये थे वरना आज के युग में जब ज्ञान इंटरनेट पर एक क्लिक में उपलब्ध है तो कौन भला किसे भगवान माने. पियर रिव्यूड जर्नल में जब तक न छप जाये, उस ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं है. भले लोग इम्युनिटी बढ़ाने के लिये आँवले का मुरब्बा खायें या तुलसी जी का काढ़ा पियें लेकिन डॉक्टर जब तक इलाज न करे, उसका ज्ञान व्यर्थ है. एक तरफ़ जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान है तो दूसरी तरफ सदियों के टाइम टेस्टेड देसी घरेलू नुस्ख़े हैं. अब चूँकि हमारी शिक्षा ही अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी पद्यति से हुयी है तो हमारा ज्ञान भी पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रभावित हो गया है. आज हम अपने परम्परागत ज्ञान पर विश्वास कर पाने में असमर्थ इसलिये हैं क्योंकि सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा ने अपना मूलभूत आधार ही खो दिया है. प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और होम्योपैथी के प्रति एक नकारात्मकता इसलिये देखने को मिलती है क्योंकि इसको पश्चिमी ज्ञान की स्वीकार्यता नहीं मिली है. दवाई की दुकानों पर ऐसी भीड़ देखने को मिलती है, जितनी किराना की दुकान पर नहीं. इसका मुख्य कारण लाइफ़ स्टाइल में बदलाव के बजाय दवाइयों का सेवन कहीं आसान है. आजकल एक बाबा और जग गये हैं, जो लोगों को स्वस्थ जीवन शैली अपनाने के लिये दिन-रात एक किये पड़े हैं. और लोग हैं कि एलोपैथी के पीछे लट्ठ लिये भाग रहे हैं. चूँकि बाबा की भाषा देसी है, अंग्रेजी पढ़े लोगों को उस पर विश्वास कम होता है. लेकिन दिनोंदिन बाबा के फॉलोवर्स बढ़ते जा रहे हैं. बाबा भी उत्साहित हो कर डटे हुये हैं. कुछ लोग ऐसे ही प्राकृतिक और जैविक खेती के प्रति लोगों को जागरूक करने में लगे हैं. यहाँ भी देसी और विदेशी शिक्षा का अन्तर्द्वन्द देखने को मिल सकता है. लेकिन जो लोग जग गये हैं, उन्हें चैन कहाँ जब तक सबको जगा न लें. 

आज सुबह भी हर रोज की तरह पौ फटने से पहले नींद खुल गयी तो इसी प्रकार के ना ना विचार मन-मस्तिष्क में घूमने लगे. ये भी महसूस हुआ कि जब बुद्ध को ज्ञान मिल गया तो उन्हें दूसरों को बताने की क्या आवश्यकता थी कि ज्ञान प्राप्ति का ये ही रास्ता है. यही बात महावीर, ओशो, कबीर और तमाम उन ज्ञानियों पर लागू होती है, जिन्होंने सनातन धर्म से निकल कर अपने-अपने सम्प्रदाय खड़े कर दिये. उन्होंने जिस ज्ञान का अनुभव किया उसके लिये उन्होंने अपने-अपने पथ चुने. यानि जितना ज्ञान उतने ही पंथ. हर एक का रास्ता अलग लेकिन लक्ष्य वही, परमात्मा या परमानन्द. सारी नदियों का उद्गम भले अलग हो लेकिन अंततः सब पहुँचती हैं उसी समुद्र में. आँखें मूँदे मैं सुषुम्ना का आरोहण अनुभव कर रहा हूँ. सारे चक्र खुलते जा रहे हैं. एक दिव्य प्रकाश कूटस्थ पर दीप्तमान हो रहा है. उस ब्रह्म-चेतना में ये अनुभव हो रहा है कि बुद्ध ने क्यों कहा था - अप्प दीपो भव. अंतःकरण में एक ध्वनि प्रतिध्वनित हो रही थी. बुद्ध-बुद्ध-बुद्ध. हर तरफ़ बस परमानन्द.

परमानन्द की अवस्था बनी रहती यदि उसी ध्यान में एक आवाज़ न आती - ऑफ़िस के लिये देर हो रही है. और एकाएक आँखें खुल गयी. जैसे किसी स्वप्न से जग गया हूँ. घड़ी अभी भी छः बजा रही थी. ऑफ़िस जाने के लिये पर्याप्त समय था. मैं पूरी तरह जग चुका था. अन्तर्ज्ञान के लिये बाहर की नहीं अन्दर की यात्रा करनी होगी. इसका कोई सेट फॉर्मूला नहीं है. हर एक की यात्रा अलग है, जो उसे स्वयं तय करनी है. अपनी गति से और अपनी विधि से. बुद्ध होना एक घटना है. कभी भी घट सकती है, किसी के साथ. 

मैं जग गया तो सोचा औरों को जगाने के उद्देश्य से एक लेख ही लिख डालूँ. इंटरनेट पर जब कुण्डली जागरण जैसे विषय पर वीडिओज़ उपलब्ध हैं तो कोई मुझ जैसे अज्ञानी की बात तो मानने से रहा. लोगों को ये बताना जरूरी है कि तुम्हारा जागरण भी भीतर ही घटित होगा. जगा हुआ आदमी भला दूसरों को सोता कैसे देख सकता है. न मैं बुद्ध हूँ न महावीर. न किसी पियर रिव्यूड पेपर का लेखक. लोग हँसेंगे कि क्या बक़वास है, सोच के मैं लोगों को जगाने का प्रयास तो नहीं बन्द कर दूँगा. घर में तो किसी ने न बुद्ध की सुनी न महावीर की. इसलिये मुझे भी शुरुआत बाहरी लोगों से ही करनी पड़ेगी. भाइयों और बहनों ये फ्री का ज्ञान है. इसे तुरन्त ले लीजिये. एक बार पॉपुलर हो गया तो बाद में कोचिंग लगा के बेचूँगा. फ़िलहाल अभी ये फ्री है ताकि अधिक से अधिक लोग इसका लाभ ले सकें. 

सोते हुये शहर को जगाने की चाह है

सोते शहर में जागना भी इक गुनाह है

ऐसा भला कौन सोच सकता है, सिवाय एक और अकेले वाणभट्ट के.


-वाणभट्ट

शनिवार, 11 नवंबर 2023

शुभ दीपावली

शुभ दीपावली

हठ पर बैठे दियों ने ठानी है
आज रात अमावस भगानी है
सूर्य जब भी तम में खो गया है
जुगनुओं ने भी अँधेरों से लड़ा है

हर अँधेरी रात की इतनी कथा है
सूर्य उगने तक ही सारी व्यथा है
तब तक अँधेरों से तुझे लड़ना पड़ेगा
बाती बन दीप में स्वयं जलना पड़ेगा

एक दीपक से सभी दीपक जला लो
काली अमावस में धरा को जगमगा लो
हर एक के कुछ त्याग से यह देश है
दीपावली पर्व का बस यही सन्देश है

शुभ-समृद्ध-मंगलमय दीपावली...सभी को...🪔🪔🪔

-वाणभट्ट

मंगलवार, 7 नवंबर 2023

बाज़ार

टहलने के बाद और श्रीमती जी के उठने से पहले, मैं चाय बनाने की प्रक्रिया में लगा हुआ था. यही समय है जब कमल, मेरा अख़बार वाला, अख़बार डालता है. तब तक सुबह के छ: बज चुके होते हैं. ये रोज की बात है. देर-से सोने के कारण कभी मै लेट हो सकता हूँ लेकिन यदि कमल ने पेपर नहीं डाला तो जरुर कोई इमरजेंसी होगी या वो शहर के बाहर गया होगा, वो भी किसी जरूरी काम से. एक हिंदी और एक अंग्रेजी अख़बार पलट लेने की अपनी पुरानी आदत आज भी बदस्तूर चल रही है. अख़बार गिरने की आवाज़ सुन कर मै बाहर निकल आया. आज सन्डे था इसलिये रविवासरीय परिशिष्ठ का भी दोनों समाचार पत्रों के साथ आना तय था. जब अख़बार उठाया तो वो असामान्य रूप से भारी था. ईमानदारी से बताऊँ कि मेरे मन में पहला विचार यही आया कि उतने ही पैसे में आज ज्यादा रद्दी मिल रही है कबाड़ी को बेचने के लिये. ये भी लगा, आज मसाला काफ़ी है. ख़बरों से ज्यादा मुझे परिशिष्ठों का इंतज़ार रहता है. खबरों का क्या है. वही घिसी-पिटी ख़बरें. चाहे दस साल पुराना अखबार भी उठा लो, ख़बरें वही रहतीं हैं. बस उनसे जुड़े नाम भले बदल जायें. कोई घटना घटेगी तो आज की खोजी पत्रकारिता उसे ऐसे प्रस्तुत करेगी जैसे आज से पहले ऐसी घटना कभी घटी ही नहीं. किसी विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की न्यूज़ ने सारे टीवी चैनलों और अखबारों में ऎसी धूम मचा रखी थी, जैसे कोई उस विभाग के भ्रष्ट आचरण को जानता ही न हो. आम आदमी तो सरकार को ही भ्रष्टाचार का पर्याय मानता है. नहीं तो अच्छे पे-पैकेज वाले प्राइवेट जॉब्स को छोड़ कर कौन सरकारी नौकरी के लिये जान देता. ये सोच कर कि ब्रेकफ़ास्ट के बाद इत्मीनान से पढूँगा, अख़बारों का पुलिन्दा सेंटर टेबल पर छोड़ दिया. 

नहा-धो कर, नाश्ता करके पूरे फुरसतिया मोड में अख़बार उठा कर सोफ़े पर विराजमान हो गया. दोनों अख़बारों में दो-दो परिशिष्ठ रखे हुये थे. लेकिन ये क्या अख़बार के ऊपर के दोनों पन्नों पर दोनों साइड फुल पेज विज्ञापन छपे हुये थे. आखिरी पेज पर भी ऐसा ही विज्ञापन था. न्यूज़ तीसरे पन्ने से शुरू हुयी थी. उस पर भी आधे पन्ने का विज्ञापन. विज्ञापन इतने आकर्षक और लुभावने थे कि समाचारों की ओर नज़र डालना मुश्किल हो रहा था. नया मकान खरीदना हो या कार बदलनी हो. मॉल्स की सेल हो या किचन अप्लायेंसेज़ पर भारी छूट. इन ख़बरों से अख़बार भरा पड़ा था. पूरा का पूरा एक परिशिष्ठ विज्ञापनों को ही समर्पित था. सब तरफ तकनीकी उत्पादों  के नये-नये मॉडल्स को देख के ऐसी फीलिंग आ रही थी, मानो मेरा घर, घर न हो कर कोई म्यूज़ियम हो. सारे के सारे अप्लायेंसेज़ पचीस साल की गृहस्थी में धीरे-धीरे जमा हुये थे. नए एडवान्स मॉडल्स के सामने सब ओब्सलीट हो चुके लगते थे. इन विज्ञापनों से मुझे याद आया कि दीपावली करीब है, इसलिये बाज़ार घर में घुसने के लिये बेताब हो रहा है. अपनी पुरानी कार, मोटर सायकिल, टीवी, वाशिंग मशीन, मिक्सी आदि को बदलने के बारे में सोच कर मै डिप्रेशन की कगार तक पहुँचने वाला था कि धर्मपत्नी जी कुछ घर के बाहर के काम ले कर आ गयीं. मै यथाशीघ्र अख़बार को टेबल के नीचे छिपा के बाहर निकल लिया. 

एक-आध घन्टे बाद जब मै वापस लौटा तो घर का दृश्य देखने लायक था. माँ-बेटी सेंटर टेबल हटा कर पूरा अख़बार जमीन पर  फैलाये बैठी थीं. जिस पेज को देख कर उनकी आँखें चमक रही थीं, वो इस बात का एलान कर रहा था कि उन्हें बेडशीट्स से लेकर पर्दों से लेकर सोफ़ा कवर और कुशन्स बदलने की प्रेरणा मिल चुकी है. उन्हें मालूम था कि कार और टीवी बदलने की माँग ख़ारिज हो जायेगी. हिन्दुस्तानी महिलायें अपने से ज़्यादा अपने घर के बारे में सोचती हैं. लिहाजा मुझे बताया गया कि शहर के सबसे बड़े मॉल में होम फ़र्निशिंग आइटम्स की सेल लगी है. घर के पुराने पर्दे-चादरें बदल दिये जायें. दीपावली सेल में बहुत सारे समान विशेष छूट के साथ मिल रहे हैं. नये कपड़े भी तो लेने हैं सबके लिये. आप हम दोनों को वहाँ छोड़ दीजिये. शॉपिंग के बाद आपको बुला लेंगे. आदमी भले ही ख़ुद को हेड ऑफ़ द फैमली समझे, पर उसकी औकात एक ड्राइवर से ज़्यादा नहीं होती. लेकिन ड्राइवर होने के अपने फ़ायदे हैं, ज़्यादा दिमाग़ नहीं लगाना पड़ता. बस आर्डर और इंस्ट्रक्शंस फ़ॉलो करने होते हैं. 

मॉल दूर था इसलिये सिर्फ़ छोड़ने का कोई मतलब नहीं था. मुझे रुकना ही पड़ेगा. इंडिया...सॉरी...भारत और साउथ अफ्रीका के मैच की तो ऐसी-तैसी होती दिख रही थी. लेकिन फिर मौका भी नहीं था. अगले हफ़्ते ही तो दिवाली थी. मॉल तक पहुँचने से पहले ही लग गया कि पूरा शहर ही बाज़ार बन गया है और हर कोई घर के बाहर आ चुका है. त्योहार कोई मेरा अकेले का तो है नहीं. दुकानें फुटपाथ छोड़ कर सड़क तक आ गयीं हैं. फुटपाथ तो साल भर घिरे रहते हैं. कभी-कभी तो ये लगता है कि फुटपाथ न होते तो हिंदुस्तानी दुकानदारों की दुकान कैसे चलती. इन्हें ट्रैफ़िक की कोई चिंता नहीं. पहले फुटपाथ घेरेंगे, फिर कोई ग्राहक उनकी दुकान देखने से वंचित न रह जाये, इसलिये बोर्ड सड़क पर लगा देंगे. ये ट्रैफ़िक का सरदर्द है कि वो सड़क खोजे और उस पर चले. भीड़-भाड़ वाले इलाकों में भेंड़ की तरह चलते लोग हॉर्न्स के आदी हो चले थे. यहाँ से गुजरते हुये यदि आपने सम्पुटों का प्रयोग नहीं किया तो आप स्वयं को छोटा-मोटा तपस्वी मान सकते हैं. मैने नहीं किया, लेकिन उसके पीछे कारण कुछ और था. साथ में धर्मपत्नी और बेटी थे. वो क्या सोचेंगे कि मेरी अपब्रिंगिंग सही नहीं हुयी है.

बहरहाल राम-राम करते-करते मॉल के आस-पास पहुँच गये. कुछ दूर से ही जाम का माहौल बन रहा था. मुझे लगा कि सब्जी मंडी होने के कारण जाम लगा होगा. जब मॉल के गेट पर पहुँचा तो समझ आया सब गाडियाँ अन्दर जाने पर उतारू हैं. पार्किंग में उपलब्ध जगह का एहसास बाहर ही होने लगा था. पार्किंग से पहले ही कुछ कारें खड़ी हुयी थीं. अन्ततोगत्वा तीसरे लेवल की पार्किंग में बमुश्किल जगह मिली. त्योहार मनाना तो कोई हिंदुस्तानियों से सीखे, साल भर त्योहार और हर त्योहार एक उत्सव. होली और दिवाली तो विशेष हैं ही. 

मॉल में भीड़ बेइन्तहा थी. एक से एक सामान आकर्षक पैकिंग में उपलब्ध थे. बड़े-बड़े होर्डिंग्स में मॉडल्स आपको वो-वो चीजें खरीदने को प्रेरित कर रहे थे जिनका इस्तेमाल लोग सिर्फ़ स्टेटस दिखाने के लिये करते हैं. स्टेटस भी वो ही देखेगा जिसे ब्राण्ड का पता होगा. होर्डिंग्स का ये ही फ़ायदा है, मेरे जैसे लोग जो ब्राण्ड नहीं, दाम देख कर शॉपिंग करते हैं, उन्हें भी मालूम हो जाता है कि कौन-कौन से पॉपुलर ब्राण्ड मार्केट में मौज़ूद हैं. विज्ञापन की चकाचौंध इतनी आकर्षक होती है कि आपको लगने लगता है - समथिंग इज़ मिसिंग. ये हर किसी को याद दिलाते रहते हैं कि आपके पास क्या-क्या नहीं है. कोई कमज़ोर दिल का आदमी हो तो इंफेरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स में गोते लगाने लगे. विज्ञापनों का स्टैण्डर्ड इतना हाई है कि आपको लगता है कि दुनिया कितने आगे निकल गयी है और हम पीछे छूट गये हैं. शायद इन्हीं विज्ञापनों को देख कर दुष्यन्त कुमार ये कहने को विवश हुये हों-

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार

मॉल की शॉपिंग के कुछ फ़ायदे हैं और कुछ नुक़सान. आपको वो चीजें दिख जाती हैं जो आपकी लिस्ट में नहीं होतीं. नुक़सान बस इतना है कि न चाहते हुये भी ख़र्च बढ़ जाता है. त्योहार में तो वैसे भी दिल दरिया हो जाता है. मेरा परिवार थोड़ा मितव्ययी है इसलिये मुझे भरोसा रहता है कि वे कम से कम फ़ालतू के समान तो खरीदने से रहे. सो मैं निश्चिन्त हो कर एक कोने में खड़ा हो गया. उम्मीद थी कि दो घण्टे तो इन्हें लग ही जायेंगे. तब तक मोबाइल पर एक ब्लॉग लिखने की गुंजाइश बनती दिख रही थी. ब्लॉग कोई शोध पत्र तो है नहीं कि जिसके लिये दो-चार जगह से काटा-पीटा-चेपा जाये. शुद्ध क्रिएटिव काम है. कोना देख के मै उसमें रम गया. बता दिया कि तुम लोग शॉपिंग जब कर लेना तो बुला लेना. अपने यूपीआई से पेमेन्ट कर दूँगा. 

तकरीबन दो घण्टे बाद दोनों लोग दिखायी दिये, दो ट्रॉली लिये. मेरा ब्लॉग ख़त्म होने को था लेकिन ख़त्म हुआ नहीं था. मोबाइल देना सम्भव नहीं था. सो उनके हाथ में एटीएम कार्ड दे कर मैं उपसंहार की प्रस्तावना बनाने लगा. सुधी पाठकों का ख़्याल रखना लेखक की ज़िम्मेदारी है. पात्रों को समझना और उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना कि लगे वो आम आदमी की आम ज़िन्दगी की कहानी है. उसमें घटनायें-दुर्घटनायें तो हो सकती हैं लेकिन फिल्मों की तरह उसमें कोई एक्सट्रीम हीरो या एक्सट्रीम विलेन नहीं होता. हर किरदार अपनी-अपनी जगह सही होता है. बस आपको उसके दृष्टिकोण से देखना होता है. ब्लॉग में अगर पाठकों को कुछ नया न मिले तो उनका पढ़ना और मेरा लिखना दोनों व्यर्थ गया. इसी उधेड़बुन में एक घण्टा कब निकल गया, मुझे पता नहीं चला. ब्लॉग ख़त्म करके जब मैं काउन्टर की ओर पहुँचा तो दृश्य बहुत ही विकट था. हर काउन्टर पर लम्बी-लम्बी कतारें लगी थीं. अभी भी इन लोगों की लाइन में इनकी दो ट्रॉली के आगे दो ट्रॉली और लगी थीं. जिनमें सामान ऊपर तक भरा था. मुझे लगा कि ये पन्द्रह मिनट और मिल जाते तो मैं बाज़ार और इश्तहार से पीड़ित कहानी के मुख्य पात्र की व्यथा के साथ उचित न्याय कर पाता.

-वाणभट्ट

शनिवार, 4 नवंबर 2023

तजुर्बा

चाचा जी का चेम्बर बड़ा था और उसमें पड़ी एक बड़ी मेज के पीछे वो बैठे हुये थे. यूनिवर्सिटी अंग्रेजों के जमाने की थी. पुराने लोग चाहे हमारे पूर्वज रहे हों या मुग़ल या अंग्रेज़, छोटा नहीं सोचते थे. इसलिये मंदिर से बड़ा मंदिर का प्रांगण हुआ करता था. जितने बड़े विश्विद्यालय के भवन नहीं थे, उससे कहीं बड़ा उसका परिसर था. उसमें हॉकी, क्रिकेट और इनडोर या आउटडोर स्पोर्ट्स के लिये स्टेडियम तक की व्यवस्था थी. इतने बड़े कैम्पस में घुसने के बाद ग़ुम हो जाने का शुबहा बना रहता था. 

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का प्रांगण था भी ऐसा कि वहाँ जाने का मन किया करता था. उसके कारण वही थे, जिसके कारण लड़के हायर स्टडीज़ के लिये प्रेरित होते और कुछ बनने के सपने पाल बैठते हैं. और भी कई कारण थे. मेरे एक मित्र की सम्भावित माशूका बॉटनी डिपार्टमेंट में दिखा करती थीं. पता नहीं उसे पता भी था या नहीं, लेकिन ये भाई साहब उस पर लट्टू हुआ करते थे. हम लोग बस दोस्ती निभाने के लिये साथ चले जाते थे कि भाई पिट-पिटा गया तो कम से कम घर तक तो पहुँचा देंगे. हमारा जाना इसलिये भी ज़रूरी हो जाता था कि मेरे एक बाल सखा के पिता जी वनस्पति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हुआ करते थे. हर बार उनसे मिलना ज़रूरी नहीं था, लेकिन कहीं गलती से किसी ने पूछ लिया कि यहाँ क्या कर रहे हो तो जवाब थोड़ा ऑथेंटिक रहे. हालाँकि कभी किसी ने पूछा नहीं. 

उस जमाने के बच्चे अंकल-आंटी शब्द से परहेज करते थे. इसका उपयोग कॉन्वेंटी बच्चों के लिये छोड़ रखा था. हिन्दी मीडियम का बच्चा, चाचा-ताऊ-बाबा-दादा से काम चलाता था. अंकल बोलने पर चाचा जी टाइप के लोगों को अपनेपन की फीलिंग नहीं आती थी. और इसकी परिणति एक ज्ञान व्यापी लेक्चर से होती थी. साल-छः महीने में चाचा जी से मिल भी लेते थे. इस तरह वो मेरे कई दोस्तों से वाकिफ़ भी हो चले थे. 

उस दिन मैं अकेला ही चला गया उनसे मिलने. चाचा जी ने मुस्कराते हुये चुहल भरे अंदाज़ में पूछा - आज तुम्हारा दोस्त दिखायी नहीं दे रहा है. तब लगा कि हम बुजुर्गों को जितना बुजुर्ग समझते हैं, वो उतने होते नहीं. जब तक घाट-घाट के पानी न पी लो, उम्र बढ़ती कहाँ है. अपनी झेंप मिटाने के उद्देश्य से मैं मेज के दूसरी तरफ़ उनके चरणों में झुक गया. वो घुटना छूने वाला दौर भी न था. झुक के चरण छुओगे तो पीठ पर स्नेहिल स्पर्श के साथ आशीर्वाद भी मिलता था. चाचा जी ने उस बड़ी मेज की पहली तरफ़ मुझे बैठने की आज्ञा दी, जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूँ. 

मैंने उनको हृदय के पूर्ण अंतःकरण से बधाइयाँ अर्पित कीं. उनका बड़ा चेम्बर और बड़ी मेज देख कर मैं अभिभूत हुआ जा रहा था. इधर नैनी स्थित एग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट में पढ़ने के कारण यूनिवर्सिटी आने का समय नहीं मिलता था. बचपन से उनके सहायक प्रोफेसर से प्रोफेसर बनने तक के दौर का साक्षी था मैं. कॉलेज से लौटते हुये अपनी काइनेटिक विश्वविद्यालय गेट के अन्दर घुसेड़ दी. शाम के साढ़े छः बजे रहे थे. पहले की बात होती तो शायद मिलने की सम्भावना न होती लेकिन अब बात अलग थी. शायद मुलाक़ात हो जाये. ख़बर मिली थी कि चाचा जी विभागाध्यक्ष बन गये हैं, तो उन्हें उन्हीं के चेम्बर में बधाई देने की इच्छा बलवती हो गयी. चाचा जी को विभागाध्यक्ष बने लगभग एक महीना हो चुका था. पूछा - चाचा जी कैसा लग रहा है.

चाचा जी मौन हो कर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुये मेरी ओर देखने लगे गये. उन्हें मैंने बहुत करीब से देखा था. चाचा जी खुशमिज़ाज व्यक्ति थे. ज़िन्दगी जीने का अपना ही फ़लसफ़ा लिये, सम्पूर्ण निर्लिप्तता के साथ अब तक का जीवन जिया था उन्होंने. उसी तरह मुस्कुराते हुये बोले - बेटा तुम तो मुझे बचपन से जानते हो. ईमानदारी से पढ़ते-पढ़ाते ज़िन्दगी गुज़र गयी. लेक्चर लेना, प्रैक्टिकल कराना, और एक-दो छात्रों को गाइड करना. कभी ये देखने की कोशिश ही नहीं की कि दुनिया कहाँ जा रही है. बस अपने काम से काम. समय से आना समय से जाना. ज़रूरत हो तो कभी भी आओ कभी भी जाओ. ज़्यादा रोक-टोक थी नहीं. कितनी ईज़ी गोइंग लाइफ़ रही है. मैने पहले कभी नहीं देखा कि वरांडे में रखे गमलों में पानी पड़ा है या नहीं. चपरासी ने मेरा कमरा खोल कर मेज साफ़ की या नहीं. सुराही और कूलर में पानी भरा या नहीं. अपनी सुराही लॉन वाले नल से भरने में मुझे कभी संकोच नहीं हुआ. स्टाफ़ का हाल तो ये है कि लगता है दिन भर कैंटीन में ही बैठा रहता है. यूनिवर्सिटी के कामों से हमेशा बचता रहा. अब डिपार्टमेंट के सामने का लॉन हो या बोटैनिकल गार्डन सब का ध्यान रखना पड़ता है. आज की जेनरेशन ऐसी नहीं रही है जो सीनियरों का लिहाज करे. कोई काम बता दो तो इतना लटका देते हैं कि उससे अच्छा है ख़ुद ही कर डालो. बाक़ी लोग कब आते हैं कब जाते हैं, इस पर कभी ध्यान नहीं दिया. अब डीन और वीसी कब तलब कर लें पता नहीं. कोई आये या न आये, मुझे तो सुबह से शाम तक रहना है. ख़ुद को कंट्रोल में रखना आसान है लेकिन दूसरों पर कंट्रोल करने की तो कहीं ट्रेनिंग मिलती नहीं एकेडेमिक्स में. लोगों ने तो हेड के लिये अप्पलायी करना ही बन्द कर दिया है. जो सीनियर मोस्ट हो जाता है, उसी को चार्ज पकड़ा दिया जाता है. रोटेशन में है इसलिये तीन साल तो झेलना ही पड़ेगा. तब तक तो चला-चली की बेला आ जायेगी. ख़ैर ये तो मालूम ही था कि एक दिन तो ऐसा आना ही है. अभी आदत नहीं है, धीरे-धीरे पड़ जायेगी. ज़िन्दगी के तजुर्बों में एक तजुर्बा और सही. 

-वाणभट्ट


आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...