गुरुवार, 30 मार्च 2023

अमावा

अमावा 

दरवाज़े पर घण्टी बजी तो सामने वो खड़ा था. मुलाकात या जान पहचान कोई खास नहीं थी. इलेक्शन ड्यूटी में वो मेरा सेक्टर मजिस्ट्रेट हुआ करता था. नौकरी में आने के बाद कितने इलेक्शन का हिस्सा बना, अब याद भी नहीं रहा. बहुत से लोगों से मुलाक़ात होती है. एक उत्सव सा माहौल बन जाता है. कितने ही जन्मों के बिछड़े उसी तरह मिलते हैं, जैसे कुम्भ के मेले में खो गये हों. चार दिन की इंटीमेसी इलेक्शन्स ख़त्म होते ही ख़त्म हो जाती है. लेकिन उन भाई साहब का भाईचारा देख कर मन आल्हादित हो गया. बोले इधर से गुजर रहा था तो सोचा वर्मा जी को खटखटाता चलूँ. इतने प्यार से कोई मिले और हम चाय भी न पूछें, ऐसे तो हालात नहीं हैं. चाय पर चर्चा लम्बी चली और इतनी घनिष्ठता देख के मेरे मन में ये विचार आना स्वाभाविक था कि इसका कोई काम तो नहीं पड़ने वाला. लेकिन फिर ध्यान आया साइंटिस्ट जैसे निरीह प्राणी से किसी का क्या काम पड़ सकता है. वो अपना काम तो निकाल नहीं पाता तो भला दूसरे का क्या भला करेगा. बातें बहुत ही सौहार्द पूर्ण वातावरण में हुयीं. जाते-जाते फिर मिलने का वादा कर और करवा के भाई साहब निकल लिये. जिस आत्मीय तरीक़े से वो मिले थे, पत्नी को शक़ होना स्वाभाविक था कि उनके भोले-भाले पति फिर किसी को उधार देने के चक्कर में न पड़ जायें. जब से पे-कमिशन्स लगे हैं, लोग भयंकर रूप से आत्मनिर्भर हो गये हैं. कोई किसी के घर आना-जाना पसन्द नहीं करता. दुर्योग से अगर आप में कोई ऐब नहीं है, तो समाज आपको वैसे ही आइसोलेट कर देता है जैसे कोरोना से पीड़ित व्यक्ति को. जल्द ही आपको एहसास होने लगता है कि दारु-सिगरेट-पान-गुटका तो शुरू कर ही देना चाहिये. क्योंकि दोस्ती की पहली इबारत यहीं लिखी जाती है. ऐसे वातावरण में कोई एकदम अचानक टपक पड़े तो अतिथि देवो भव: वाला भाव आने लगता है.

ऐसी उम्मीद तो नहीं थी कि वो ज़नाब दोबारा जल्दी आयेंगे. लेकिन वो आये. इस बार उनकी श्रीमति जी भी साथ थीं. वो भी अपने पति की तरह खुशमिज़ाज़ और मिलनसार थीं. चाय बनाने के बहाने किचन का और सूसू के बहाने बाथरूम तक पूरे घर का मुआयना कर आयीं. लौटने के बाद वो थोडा संजीदा हो कर बैठ गयीं. धर्मपत्नी जी भी चाय-वाय, बिस्कुट-विस्कुट, दालमोट-वालमोट, सेंटर टेबल पर लगा कर उनके बगल में बैठ गयीं. चाय पीते हुये उन्होंने धीरे से कहा आप तो अच्छी खासी नौकरी पर हैं लेकिन सामान तो सारा बाबा जी वाला यूज़ करते हैं. जो बहुत ही सस्ते और घटिया होते हैं. वैसे तो मै ख़ुद को बहुत ही जमीन से जुड़ा व्यक्ति मानता हूँ, लेकिन जब कोई इनफेरियौरिटी कॉम्प्लेक्स थोपने का प्रयास करता है, तो मेरा सुपीरीयौरिटी  कॉम्प्लेक्स जागने लगता है. बेसिकली इलाहाबादी होने के नाते उतना बदतमीज़ नहीं हूँ कि तू का जवाब तड़ाक से दूँ, इसलिये थोडा मुलम्मा चढ़ा कर विचारों को पेश कर देता हूँ. बोला भाभी जी बहुत बार एक्स्ट्रा क्रीम वाला साबुन ट्राई किया लेकिन अब मेरी गैंडे जैसी खाल तो मुलायम होने से रही. सर पर जब बाल ही नहीं रहे तो सतरीठा लगाओ या लॉरियाल, बाल तो उगने से रहे. मुझे लगा मेरे इतने उम्दा जोक पर कुछ ठहाका-वहाका लगेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस दिन मुझे पता चला कि मुँह बिचकाना किसे कहते हैं. मोहतरमा ने मुँह बिचकाते हुये बगल में बैठी मेरी श्रीमति जी की ओर कनखी से देखा. उन्हें ये नहीं पता था कि मेरी धर्मपत्नी यदि मार्केट ओरियेंटेड होतीं तो मेरे जैसे आउटडेटेड पति को कब का बदल चुकी होतीं. मेरी पत्नी ने कहा भाभी जी क्या बतायें ये तो मार्केट में घूम-घूम के, ढूँढ-ढूँढ के सबसे सस्ता सामान लाते हैं. कहते हैं साबुन-तेल-कंघी में कौन सी टेक्नॉलोजी लगी है. स्वदेशी सस्ता भी पड़ता है और चलता भी ज़्यादा है. लेकिन वो तो जलील करने पर आमादा लग रहीं थीं. बोलीं कभी मेरी कोठी पर आइये. उनके पति देव, जो अब तक मौन से बैठे थे, ने ऐन मौके पर इन्ट्री ली. सर ऐसा नहीं है, जब तक आप हाई एन्ड प्रोडक्टस यूज़ नहीं करते, आप उन चीजों की कमी नहीं देख पाते, जिन्हें आप यूज़ कर रहे हैं. आपके जो बाल झड़े हैं, उसमें रुसी से ज़्यादा शैम्पू का रोल हो सकता है. बहुत से हेल्थ प्रोडक्ट्स भी आते हैं, जो आपकी न्यूट्रीशन की आवश्यकता पूरी करते रहते हैं. बढती उम्र थम सी जाती है. अब हम ही लोगों को देख लीजिये पचास क्रॉस कर चुके हैं लेकिन कोई बता नहीं सकता. अगले शनिवार आप लोग आइये चाय पर फिर और बातें होंगी. वे लोग वाकई एलीट टाइप के लोग लग रहे थे. चलते समय उन्होंने एक कैसेट और बुक और पकड़ा दी. इसे सुनिये और पढियेगा. अब एक बात तो तय थी कि या तो उनका सामान वापस देने हमें उनके यहाँ जाना पड़ेगा या वो अपना सामान वापस लेने के बहाने एक बार फिर आयेंगे.

मेरी वाइफ़ मुझसे भी ज़्यादा भोली-भाली हैं. उन्होंने ने सोचा क्यों न एक बार चल कर उनकी कोठी भी देख ली जाये. दो बार तो बिना बुलाये आ कर मेहमाननवाज़ी करा चुके. एक मौका उन्हें भी देना चाहिये. इसलिये पहले ऑप्शन के लिये वो तैयार हो गयीं. जीपीएस की मदद से अपने घर से काफ़ी दूर एक पतली गली में उनकी कोठी खोजने में ज़्यादा दिक्क़त नहीं हुयी. हाँ, थोडा आश्चर्य ज़रूर हुआ कि अपने मकान, जिसे हम घर कहते हैं, से उनकी कोठी काफ़ी छोटी थी. लेकिन कोठी के अन्दर की दुनिया निराली थी. जितनी भी उपभोक्तावादी वस्तुयें आप सोच सकते हैं, उन सबके टॉप मॉडल घर में भरे पड़े थे. रंग-बिरंगी फॉल्स रूफ़ से छन के आती लाइट्स. महँगा पंखा-एसी-टीवी. सोफ़ा और सेंटर टेबल इतने बड़े कि इधर से उधर जाने की जगह दिख नहीं रही थी. जितना बड़ा टीवी उनके यहाँ लगा था, उतना बड़ा टीवी मैंने कभी देखा ही नहीं था. टीवी सेट और सोफ़े के बीच की दूरी बहुत नहीं थी, इसलिये गर्दन टेढ़ी कर के देखना पड़ रहा था. मुझे उन दिनों की याद आ गयी जब स्टूडेंट जीवन के दौरान सिनेमास्कोप फिल्में हॉल में आगे की पहली-दूसरी रो वाली सीट्स (बेंच कहना ज़्यादा उचित होगा) पर बैठ के देखनी पड़ती थी. बालकनी का टिकट औकात से बाहर हुआ करता था. जब बायीं तरफ से अमिताभ की एन्ट्री होती थी, तो शक़ होता था संजय दत्त आ गया क्या. उन्होंने थोड़ी देर बैठने के बाद ही इशारा किया कि आप लोग इधर अन्दर निकल आइये, डाइनिंग टेबल पर ही बैठते हैं. मुझे लगा सीधे मुद्दे पर आ गये. जल्दी चाय-वाय पिला कर रुखसत कर देंगे. 

अन्दर का भी वही हाल था. उस लॉबी में जितनी बड़ी डाइनिंग टेबल और फ्रिज सम्भव थी, लगी हुयी थी. पूरा का पूरा घर सामान से भरा हुआ था और हर सामान ब्रान्डेड और हर सामान से पैसा टपक रहा था. अब मुझे घर और कोठी का अन्तर भी समझ आ रहा था. बस काम चलाऊ तरीक़े से सामान खरीद लेना, घर तो बना सकता है लेकिन उसे कोठी बनाने के लिये आपको पैसे खर्च करने पड़ते हैं. हम लोगों की सोच थी कि दिखाना किसे है, ख़ुद ही तो देखना है. इसलिये मार्केट सर्वे करके सबसे सस्ते विकल्पों की तलाश करते थे. तभी हमने ये भी मार्क किया कि इन दोनों के कपड़े-लत्ते-जूते-चश्मे सब ब्रैंडेड थे. ये मियाँ-बीवी तो ख़ुद चलते-फिरते ब्रैंड एम्बेसडर थे. उनकी बातों में भी दम था कि हम लोग वाकई बिलो स्टैण्डर्ड लाइफ़ जी रहे हैं. उनकी वाइफ़ का मुँह बिचकाना, मुझे जस्टिफाईड लगने लगा. डाइनिंग टेबल के परले सिरे की तरफ़ दीवार पर एक व्हाइट बोर्ड भी लगा था. मुझे लगा भाभी जी ज़रूर ट्यूशन क्लासेज़ लेती होंगी. चाय के इंतज़ार में हम लोग इधर-उधर की बातें करते रहे. ज़्यादातर विषय उनके और हमारे लिविंग स्टैण्डर्डस से ही रिलेटेड रहे. 

इतने में घंटी बजी और मेजबान लोग दरवाज़े की ओर बढ़ गये. आगंतुक बिना किसी संकोच के अन्दर आ गया. डाइनिंग टेबल पर अपना भारी-भरकम बैग रख एक सीट पर कब्ज़ा करके बैठ गया. उनकी बातों से लगा कोई और भी आने वाला है. एक बार घन्टी और बजी. एक और बन्दा बिना तक़ल्लुफ़ के आ कर सामने बैठ गया. अब छ: सीटें थीं और आदमी भी छ: थे. किसी के साथ बेइंसाफी की गुंजाईश दिख तो नहीं रही थी. हमारे मेजबान ने नवागन्तुकों से हमारा परिचय कराना उचित नहीं समझा. जब सब लोग सेटेल हो गये तो होस्ट महोदय ने बात शुरू करने की गरज से बस इतना ही कहा - यही हैं वर्मा जी. उनकी परिचयात्मक शैली से ये आभास हो गया कि बाकी लोग हमारे बारे में उतना तो जानते ही होंगे जितना मेरे होस्ट को पता था.

जो सीनियर मोस्ट बन्दा था, उसने बिना गला खखारे बोलना शुरू किया तो मुझे अन्दाज़ लग गया था कि इसे बोलने और बोलते रहने की आदत है. उसने धीरे से कहा वर्मा जी आप वैज्ञानिक हैं, काफी पढ़े-लिखे भी हैं लेकिन ये बताइये नौ से पाँच नौकरी करने के बाद आप क्या करते हैं. मुझे उम्मीद है कि आप भी अन्य नौकरीशुदा लोगों की तरह ऑफिस से आकर सोफ़े पर बैठ जाते होंगे और, समाचार और टीवी पर अपना अमूल्य समय व्यर्थ कर देते होंगे. आप नौकरी में हैं, और आपकी एक निश्चित आय है इसलिये आपको कभी एक्स्ट्रा पैसे की आवश्यकता महसूस नहीं हुयी होगी. लेकिन एक्स्ट्रा पैसा किसे बुरा लगता है. नौकरी से गुजारा चल सकता है लेकिन शौक पूरा करने के लिये यू नीड समथिंग एक्स्ट्रा. एक ही जिंदगी मिलती है सबको, उसको खुल के जीना चाहिये और खुल के जीने के लिये आपको चाहिये पैसा. आप की पत्नी भी काफी पढ़ी-लिखी और क्वालीफाईड हैं और आप लोग शाम को अपने घर में बैठ के अपना पोटेन्शियल वेस्ट कर रहे हैं. पता नहीं आप लोगों ने कैसेट सुना या बुक पढ़ी की नहीं. लेकिन अब आप सही जगह आ गये हैं. हम लोग आपकी आय बढाने के लिये आपको नेटवर्क मार्केटिंग की दुनिया से इंट्रोड्यूस करने वाले हैं. मुझे ये एहसास होने लगा था कि कम से कम एक बार बुक को पलट के देख लेता, तो आज की स्थिति से बचा जा सकता था. नेटवर्क मार्केटिंग के गुर उसकी टिप्स पर थे. यदि हम एक ऐसी कम्युनिटी बनायें जो अपनी ही कंपनी के उत्पाद ख़रीदे, उपयोग करे और बेचे तो ये विन-विन सिचुएशन होगी. जो आपने ख़रीदा उस पर रिबेट मिलेगा और जो आप बेचेंगे उस पर कमीशन. वो बन्दा वाइट बोर्ड मार्कर उठा कर वाइट बोर्ड की ओर बढ़ गया. फिर बोर्ड पर उसने कुछ न्यूक्लियर फिशन जैसे चित्र बना डाले और उसके माध्यम से अपनी बात को और प्रभावशाली ढंग से रखने का प्रयास करने लगा. आपको बस चेन बनानी है. एक बार चेन बन गयी तो आपको लाख - डेढ़ लाख तो हर महीने घर बैठे मिलने लगेंगे. उसने अपने प्रेसेंटेशन में मेरी वर्तमान आर्थिक परिदृश्य यानि स्थिति, समस्या यानि संकुचित सोच और समाधान यानि नेटवर्क डेवलपमेंट, तीनों की बात की. उसकी वाक्पटुता निसंदेह अनुकरणीय थी. हम दोनों हिप्प्नोटाइज़ से होकर ये तक भूल गये कि भाई साहब ने शाम की चाय पर बुलाया था. इस चक्कर में हम घर की चाय बिना पिये ही नियत समय छ: बजे तक आ गये थे. आठ बजने को था और चाय का ज़िक्र तक नहीं हुआ. एक-एक करके अमावा कम्पनी के ढेर सारे प्रोडक्ट्स उनकी खूबियों का बखान करते हुये डाइनिंग टेबल पर सजा दिये गये. 

बाक़ी तीनों एप्रेशियेशन के साथ उसको बोलते हुये सुन रहे थे और बीच-बीच में हमारे चेहरों पर आते-जाते मनोभावों को पढने का प्रयास कर रह थे. मुझे भी ये अन्दाज़ लग चुका था कि अगर जरा भी चूं-चपड़ की तो लेक्चर रात तक चलेगा. और जब अब तक चाय नहीं मिली तो डिनर क्या ख़ाक मिलेगा. मनोभावों को छिपा कर मै बार-बार गुड-गुड, वेरी गुड-वेरी गुड बोल कर उन्हें ये एहसास दिलाने की कोशिश करता रहा कि मुर्गा हलाल होने को सहर्ष तैयार है. वो लोग अपने विचारों से इतने कनविंस थे कि मुझे ये भी एहसास हुआ कि मार्केटिंग करनी हो तो इतना कन्विक्शन और पैशन होना जरूरी है. मै इमैजिन करने लगा लैब से लौट कर वर्मा जी टाई-सूट में अमावा का साबुन हाथ में लिये घर-घर घूम रहे हैं. हर तरफ से पैसा घुसा आ रहा है. घर बड़े-बड़े मँहगे सामानों से इतना भर गया है कि चलने तक की जगह नहीं मिल रही है. मुस्कुराते हुये जब मैंने अफ़र्मेटिव तरीक़े से सर हिलाया, तो थोड़ी देर में चाय भी आ गयी. 

मैंने ये बताना जरूरी नहीं समझा कि भैया बेचना-वेचना मेरी फ़ितरत में होता तो जहाँ भी रहता वहाँ बहुत आगे निकल जाता. मुझे पहले से ही अपनी स्मार्टनेस पर डाउट था, इसीलिये शोध में अपना कैरियर बनाने का निर्णय लिया और शोध परीक्षा से पहले कहीं भी बायोडाटा नहीं भेजा. छिहत्तर लोगों के बैच में जब पूछा गया कि आप में से कितने लोग वैज्ञानिक ही बनना चाहते थे, तो सिर्फ़ तीन लोगों ने हाथ उठाया था. उसमें एक हाथ मेरा भी था. बहुत से लोगों ने प्रशासनिक सेवाओं में असफल होने के बाद इस सेवा का चयन किया. कुछ ने रौब और रुतबे की ख़ातिर तहसीलदारी पसंद कर ली. कुछ का इरादा रिटायरमेंट में बाद प्रधानी लड़ने का है. शायद इसीलिये उनके आचार-व्यवहार में वैज्ञानिक वाली सौम्य सहजता का नितान्त अभाव साफ़ दिखता है. यदा-कदा उनके हाव-भाव में प्रशासक की झलक देखने को मिल जाती. मेरा तो हाल ही ग़जब था. ऑफिस वाले हों या घर वाले सबको लगता, ये नार्मल लोगों की तरह क्यों नहीं रह पाता. कोई काम सीधे तरीक़े से क्यों नहीं करता. हर चीज़ में यूँ होता तो क्या होता करता रहता है. तीस साल के शोधार्थी जीवन के बाद ये लगता है कि अमावा हो या शोध, तरक्की के लिये मार्केटिंग और नेटवर्क दोनों स्किल्स का होना आवश्यक है. उस रात मुझे सपना आया कि गुरुदेव चौराहे पर मै टाई-वाई लगाये चीख़-चीख़ के कुछ बेचने का प्रयास कर रहा हूँ - एक हाथ में अमावा का दन्त मंजन है और दूसरे में शोधपत्र. 

-वाणभट्ट            

शुक्रवार, 17 मार्च 2023

साज़िश

पियर रिव्यू मीटिंग होनी थी आज। सुबह-सुबह नहाने धोने से पहले जूता पॉलिश से चमका कर रख दिया। मीटिंग फॉर्मल थी।

रैगिंग के दौरान सीनियर्स के दिये प्रवचन इंजीनियरिंग कॉलेज के पहले छः महीनों में ही कंठस्थ करा दिये जाते हैं। कई प्रकार के सम्पुट, उद्बोधन और विशेषणों के साथ ये समझा दिया जाता था कि आप अपने घर के वरांडे में नहीं टहल रहे हैं। कॉलेज का डेकोरम होता है। लाइट कलर की शर्ट, डार्क कलर की पैंट, कमर में बेल्ट और लेदर शूज़ के साथ-साथ जब तक फ्रेशर्स फंक्शन न हो जाये, टाई पहनना अनिवार्य था। ताकि सीनियर्स को जूनियर्स को आइडेंटिफाई करने में कोई दिक्कत न हो। 

एक नियम सीनियर्स के आगे अपनी शर्ट के तीसरे बटन को देखते हुये बात करना। उसके पीछे औचित्य यही रहा होगा कि आप ये न देख पायें कि कौन क्या बक रहा है। हमारे कॉलेज में रैगिंग का उद्देश्य इंट्रोडक्शन तक ही सीमित था। सबकी हिडेन टैलेंट्स को खोजा जाता। कौन ड्रॉइंग अच्छी बनाता है, किसकी राइटिंग अच्छी है, कौन गाना सुना सकता है और कौन चुटकुले। ताकि सीनियर्स को मालूम रहे कि किससे ड्रॉइंग बनवानी है, किससे असाइनमेंट लिखवाने हैं और किस-किस का उपयोग एंटरटेनमेंट के लिये करना है। छः महीनों में ही ऐसी आदत पड़ गयी कि चप्पल-सैंडल-पम्प शूज़ हम लोगों के जीवन से बाहर हो गये। तब स्पोर्ट्स शूज़ के नाम पर उतनी वैरायटीज़ नहीं थीं जितनी आज हैं। जिन्हें दौड़ना-खेलना होता था, उनके पास सफ़ेद पी.टी. शूज़ के अलावा कोई ऑप्शन नहीं था। चार साल निकलते-निकलते लेस वाले लेदर शू हमारी पर्सनालिटी का अभिन्न अंग बन चुके थे। 

जब से ऑफिस सुबह 9 बजे का हुआ है, समय से ऑफिस पहुँचने ले लिये आपा-धापी मची रहती है। पूरी तरह तैयार होने के बाद आख़िरी आइटम जूते का ही बच रहा था। जूता तो तैयार था ही। मोजा पहन कर ज्यों ही लेस चढ़ाने की कोशिश की तो आधा लेस हाथ में आ गया। दूसरे जूते पर पॉलिश करने का समय तो था नहीं। पैंट-शर्ट के साथ स्पोर्ट्स शू सूट नहीं करता, लेकिन मजबूरी आदमी से जो न कराये। मीटिंग में शायद ही किसी ने मेरे जूतों पर ध्यान दिया हो, लेकिन मुझे लगता रहा कि आज कुछ तो गड़बड़ है।

सुबह उठने में किसी दिन देर हो जाये तो पूरे दिन के टारगेट वाले 10000 स्टेप्स पूरे करना मुश्किल हो जाता है। शाम को स्टेप्स पूरे करने और फ़ीता लेने की गरज से चाय पी कर टहलने निकल पड़ा। पास के पनकी मार्केट में जूतों की बड़ी-बड़ी दुकानें और शो रूम्स थे।

मुझे थोड़ा आश्चर्य ज़रूर हुआ जब पहले शो रूम के वर्कर ने रुखाई से फ़ीता न होने की बात कही। अगले शो रूम पर भी वैसा ही जवाब मिला। फिर तो मैं अगले-अगले-अगले और अगले शो रूम्स की ओर बढ़ता गया। सबका जवाब वही था और मेरा आश्चर्य बढ़ता जा रहा था। 

अमूमन मुझे 3000 स्टेप्स पूरे करने में 30 मिनट लग जाते हैं। डेढ़ घण्टे होने को आये लेकिन फ़ीता पूरे मार्केट से नदारद लग रहा था। स्टेप्स पूरे करते-करते पनकी रोड से बिठूर रोड तक पहुँच गया। दसियों दुकानों पर निगेटिव उत्तर मिल चुका था। इस बार तो गर्मी फरवरी से ही चढ़ चुकी थी। बिना पानी-वानी पिये जब मैं ग्यारहवीं दुकान पर पहुँचा होऊंगा तो पसीना बाहर तक झलक रहा था और तालू सूख रहा था। फ़ीता बोलना चाहा लेकिन ज़बान फ़ी पर ही अटक गयी। पहला दुकानदार था, जो कुछ मुस्कुराया। पीछे उसने वर्कर को आवाज़ दी - भाई साहब को पानी पिलाओ। इतना सत्कार देख के मैं भाव-विभोर होने ही वाला था कि उसने आगे कहा - भाई साहब पहले लोग पैदल चलते थे तो दो-चार साल में जूता बदलने की नौबत आ जाती थी। सबके पास चार-चार जोड़ी जूते हैं। लोग कार और स्कूटर पर चलते हैं। अब जूते कहाँ टूटते हैं। फ़ीते न टूटें तो कोई जूता न खरीदे। कहिये तो नया जूता दिखाऊँ।

मोची के यहाँ से लिये सस्ते फ़ीते लेदर के जूतों से मैच तो नहीं कर रहे थे। लेकिन जिस वाणभट्ट ने बीटेक के चार साल एक नार्थ स्टार में ही काट लिये हों, वो नया जूता खरीदने से तो रहा।

-वाणभट्ट

शनिवार, 4 मार्च 2023

आँखों देखी 

अगर वो किसान का खेत होता और बाबा की गाय घुस गयी होती तो कोई हंगामा नहीं बरपता. हमारे किसान संतोषी टाइप के जीव हैं. बिजनेस की तरह नहीं कि अपने उत्पाद और मेहनत की कीमत मनमानी माँग लें. जब बिजनेस वाला शो देखना शुरू किया, तब पता चला कि एक बार ब्रैंड बन जाये तो मार्केट प्राइस और मुनाफ़ा आप ख़ुद डिसाइड कर सकते हैं. जबकि खेती में किसान मेहनत ख़ुद करते हैं और प्राइस मार्केट निर्धारित करता है. उस पर ऊपर वाले का आशीर्वाद भी ज़रूरी है कि सब ठीक-ठाक निकल जाये तो बिचौलियों का कर्ज़ उतर जाये. 

जब हमारी विभागीय कार धूल उडाती हुयी गाँव में प्रधान जी के दालान में पहुँची तो ग्रामीण भाइयों की भीड़ लग गयी. सभी को उम्मीद रहती है कि बड़ी गाड़ी आयी है तो कुछ बीज-खाद दे कर जायेगी. खेतों का मुआयना करने हमारी टीम जिधर भी जाती तो लोगों का एक छोटा लेकिन दृश्यमान हुजूम उधर बढ़ लेता. वो भीड़ में सबसे पीछे धीरे-धीरे लाठी के सहारे चला आ रहा था. उपरी शरीर पर कोई कपडा नहीं था और नीचे का हिस्सा एक मैली सी आधी धोती से कुछ ढँका-अनढँका सा था. चेहरा पूरी तरह से भाव रहित था. भीड़ का अंग हो कर भी वो भीड़ से अलग दिख रहा था. उसे देख कर मन में दया भाव का आना सहज ही था. सोचा जब चलने लगूँगा तो कुछ सहायता राशि उसके हाँथों में रख दूँगा. हमारे टीम लीडर एक खेत के पास जा कर रुक गये. और आवाज़ लगाते हुये बोले - अरे भाई सिरोही, तुम्हारी मूँग तो सब नील गाय ने खराब कर दी. कुछ भी नहीं मिलेगा. अब वो पीछे से अपनी उसी चाल से चलते हुये टीम के सामने आ गया. साहब क्या बतायें नील गाय की बहुत समस्या है लेकिन उपर वाले की मेहरबानी रही तो खेत एक-दो कुन्तल दे कर ही जायेगा. तब मुझे एहसास हुआ कि जिस व्यक्ति के प्रति मेरे मन में दया भाव आ रहा था दरअसल वो एक जमीन का मालिक है. और जिसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ है, उसे कोई क्या दे सकता है. मै कुछ देता तो शायद वो ले भी लेता लेकिन जमींदार व्यक्ति को कुछ देने की हिमाक़त करने की मेरी हिम्मत न हुयी. 

यहाँ बात अलग थी. शोध का खेत था. रात में किसी आवारा जानवर ने खेत में घुस कर फसल को तितर-बितर कर दिया था. ये ऐसा नुक्सान था जिसके पीछे वर्षों की मेहनत और शोध लगा था. उस नुक्सान का आँकलन करना कतई सम्भव नहीं था. जिसका नुक्सान हुआ उसका गुस्सा जायज़ भी था. लेकिन जहाँ खेत की फेंस कई जगह से गल के ख़राब हो चुकी हो वहाँ से किसी छुट्टा पशु का आ जाना असंभव नहीं था. बगल के खेतों में गन्ने की कटाई हो जाने के कारण संभव है कि जानवर इधर घुस गये हों. उनके लिये आम खेत और शोध खेत में फ़र्क करना सम्भव होता तो शायद वो इधर न आते. किसी ने बताया आठ-दस सूअर झुण्ड में आ कर फसल को रौंद गये. किसी ने बताया जहाँ से फेंस टूट गयी है, वहाँ से सूअरों का झुण्ड घुस आता है और फसल तबाह कर जाता है. जहाँ से ये फेन्स टूटी थी, वहाँ से इस खेत के बीच में कई और खेत भी पड़ते थे. किसी ने सूअरों के चरित्र पर प्रकाश डाला कि वो सबसे आख़िर में जो खेत होता है, वहीं विचरना पसन्द करते हैं. वो फसल खाते कम हैं और लोटते ज़्यादा हैं. शहरी सूअरों के बारे में तो हमें कुछ आइडिया है, जो नाली के कीचड़ और गन्दगी में घुस के पड़े रहने में ही आनन्द लेते हैं. सींग वाले जंगली सूअरों के बारे में उतना ही पता है, जितना जिम कॉर्बेट की कहानी में खौफ़नाक जंगली सूअर के शिकार का ज़िक्र था. लेकिन जब दृश्य को रीक्रियेट किया गया तो सीन कुछ ऐसा बना - जहाँ से फेंस टूटी हुयी थी वहाँ से दर्जन भर जंगली सूअरों ने प्रवेश किया. वो फेन्स के किनारे-किनारे या सड़क पर चलते हुये आखिरी उस खेत तक आये, जहाँ फ़सल पक के कटाई के लिये तैयार खड़ी थी. उसे देख के उनके मन उल्लास से भर गये और वो उसमें लोटने लगे. 

सुबह प्रत्यक्षदर्शी सिर्फ तहस-नहस हुये खेत को ही देख पाये. ये वारदात रात में हुयी थी. जिसका कोई चश्मदीद गवाह न था. नुक्सान बहुत बड़ा था. आक्रोश उससे भी ज़्यादा. तीस साल के मेरे अनुभव में ऐसा नुक्सान शायद ही कभी हुआ हो. समाधान फेन्स को मजबूत करने में था. लेकिन नतीजा निकाला गया कि चूँकि बुजुर्ग सिक्योरिटी इन्चार्ज अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं कर पा रहा है इसलिये उसे काम छोड़ कर स्वेच्छा से रिटायर्मेंट ले लेना चाहिये. बहुत सम्भव है इस घटना की पटकथा इसी मन्तव्य से लिखी गयी हो. ऐसा भी हो सकता है.

बैक मिरर में सभी पीड़ित पक्ष चाय लड़ाने के उद्देश्य से ऑफिस बिल्डिंग की ओर बढ़ते दिखे.

-वाणभट्ट   

 


आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...