साज़िश
पियर रिव्यू मीटिंग होनी थी आज। सुबह-सुबह नहाने धोने से पहले जूता पॉलिश से चमका कर रख दिया। मीटिंग फॉर्मल थी।
रैगिंग के दौरान सीनियर्स के दिये प्रवचन इंजीनियरिंग कॉलेज के पहले छः महीनों में ही कंठस्थ करा दिये जाते हैं। कई प्रकार के सम्पुट, उद्बोधन और विशेषणों के साथ ये समझा दिया जाता था कि आप अपने घर के वरांडे में नहीं टहल रहे हैं। कॉलेज का डेकोरम होता है। लाइट कलर की शर्ट, डार्क कलर की पैंट, कमर में बेल्ट और लेदर शूज़ के साथ-साथ जब तक फ्रेशर्स फंक्शन न हो जाये, टाई पहनना अनिवार्य था। ताकि सीनियर्स को जूनियर्स को आइडेंटिफाई करने में कोई दिक्कत न हो।
एक नियम सीनियर्स के आगे अपनी शर्ट के तीसरे बटन को देखते हुये बात करना। उसके पीछे औचित्य यही रहा होगा कि आप ये न देख पायें कि कौन क्या बक रहा है। हमारे कॉलेज में रैगिंग का उद्देश्य इंट्रोडक्शन तक ही सीमित था। सबकी हिडेन टैलेंट्स को खोजा जाता। कौन ड्रॉइंग अच्छी बनाता है, किसकी राइटिंग अच्छी है, कौन गाना सुना सकता है और कौन चुटकुले। ताकि सीनियर्स को मालूम रहे कि किससे ड्रॉइंग बनवानी है, किससे असाइनमेंट लिखवाने हैं और किस-किस का उपयोग एंटरटेनमेंट के लिये करना है। छः महीनों में ही ऐसी आदत पड़ गयी कि चप्पल-सैंडल-पम्प शूज़ हम लोगों के जीवन से बाहर हो गये। तब स्पोर्ट्स शूज़ के नाम पर उतनी वैरायटीज़ नहीं थीं जितनी आज हैं। जिन्हें दौड़ना-खेलना होता था, उनके पास सफ़ेद पी.टी. शूज़ के अलावा कोई ऑप्शन नहीं था। चार साल निकलते-निकलते लेस वाले लेदर शू हमारी पर्सनालिटी का अभिन्न अंग बन चुके थे।
जब से ऑफिस सुबह 9 बजे का हुआ है, समय से ऑफिस पहुँचने ले लिये आपा-धापी मची रहती है। पूरी तरह तैयार होने के बाद आख़िरी आइटम जूते का ही बच रहा था। जूता तो तैयार था ही। मोजा पहन कर ज्यों ही लेस चढ़ाने की कोशिश की तो आधा लेस हाथ में आ गया। दूसरे जूते पर पॉलिश करने का समय तो था नहीं। पैंट-शर्ट के साथ स्पोर्ट्स शू सूट नहीं करता, लेकिन मजबूरी आदमी से जो न कराये। मीटिंग में शायद ही किसी ने मेरे जूतों पर ध्यान दिया हो, लेकिन मुझे लगता रहा कि आज कुछ तो गड़बड़ है।
सुबह उठने में किसी दिन देर हो जाये तो पूरे दिन के टारगेट वाले 10000 स्टेप्स पूरे करना मुश्किल हो जाता है। शाम को स्टेप्स पूरे करने और फ़ीता लेने की गरज से चाय पी कर टहलने निकल पड़ा। पास के पनकी मार्केट में जूतों की बड़ी-बड़ी दुकानें और शो रूम्स थे।
मुझे थोड़ा आश्चर्य ज़रूर हुआ जब पहले शो रूम के वर्कर ने रुखाई से फ़ीता न होने की बात कही। अगले शो रूम पर भी वैसा ही जवाब मिला। फिर तो मैं अगले-अगले-अगले और अगले शो रूम्स की ओर बढ़ता गया। सबका जवाब वही था और मेरा आश्चर्य बढ़ता जा रहा था।
अमूमन मुझे 3000 स्टेप्स पूरे करने में 30 मिनट लग जाते हैं। डेढ़ घण्टे होने को आये लेकिन फ़ीता पूरे मार्केट से नदारद लग रहा था। स्टेप्स पूरे करते-करते पनकी रोड से बिठूर रोड तक पहुँच गया। दसियों दुकानों पर निगेटिव उत्तर मिल चुका था। इस बार तो गर्मी फरवरी से ही चढ़ चुकी थी। बिना पानी-वानी पिये जब मैं ग्यारहवीं दुकान पर पहुँचा होऊंगा तो पसीना बाहर तक झलक रहा था और तालू सूख रहा था। फ़ीता बोलना चाहा लेकिन ज़बान फ़ी पर ही अटक गयी। पहला दुकानदार था, जो कुछ मुस्कुराया। पीछे उसने वर्कर को आवाज़ दी - भाई साहब को पानी पिलाओ। इतना सत्कार देख के मैं भाव-विभोर होने ही वाला था कि उसने आगे कहा - भाई साहब पहले लोग पैदल चलते थे तो दो-चार साल में जूता बदलने की नौबत आ जाती थी। सबके पास चार-चार जोड़ी जूते हैं। लोग कार और स्कूटर पर चलते हैं। अब जूते कहाँ टूटते हैं। फ़ीते न टूटें तो कोई जूता न खरीदे। कहिये तो नया जूता दिखाऊँ।
मोची के यहाँ से लिये सस्ते फ़ीते लेदर के जूतों से मैच तो नहीं कर रहे थे। लेकिन जिस वाणभट्ट ने बीटेक के चार साल एक नार्थ स्टार में ही काट लिये हों, वो नया जूता खरीदने से तो रहा।
-वाणभट्ट
शायद ही कोई हो जो अपनी पोशाक को लेकर संजीदा न हो।अगर कोई कमी रही जाती है तो ऐसे में मनस्थिति और छात्र जीवन का वास्तविक चित्रण किया। कमाल की लेखनी है।👍👌🙏🙏
जवाब देंहटाएंसाजिश कहो या मार्केटिंग के तरीके बात एक ही है ग्राहक को चूना लगाना🙏🙏
जवाब देंहटाएंवाह! रोचक अंदाज़
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