मंगलवार, 24 जनवरी 2023

मर्दानगी

स्टेशन पर गहमागहमी थी। सभी ट्रेनें लेट चल रही थीं। ठंड का हाई एलर्ट जारी हो चुका था। मौसम के साथ ट्रेनों को भी जुकाम हो जाता है। 

मैं भी जैकेट, दस्ताने और कनटोप से लैस हो कर अपनी ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। वेटिंग रूम ठसाठस भरा होने के कारण मैने बाहर प्लेटफ़ॉर्म पर ही खड़े रहने का निर्णय लिया। 

रात के दो बजे का समय रहा होगा। एक बुज़ुर्ग दम्पति बन्द पड़ी बुक स्टाल के सामने कम्बल बिछा और ओढ़ के बैठे हुये थे। बुज़ुर्ग की उम्र पचहत्तर के आसपास लग रही थी। उनकी पत्नी की भी उम्र सत्तर के ऊपर रही होगी। इस ठंड को भगाने के लिये चाय ही सबसे मुफ़ीद लग रही थी, सो मैं चाय की दुकान की ओर बढ़ गया। 

पत्नी ने जरूर चाय की फ़रमाइश की होगी, जो महोदय को चाय की दुकान तक आना पड़ा। उम्र के कारण या ठंड के कारण, कहना मुश्किल है, उनके हाथों में चाय के कप कुछ काँप से रहे थे। मेरी चाय खत्म हो चुकी थी, लेकिन उनको हेल्प ऑफ़र करके उनके स्वाभिमान को ठेस लगाने का मेरा मन नहीं किया। दोनों बुज़ुर्गों को चाय पीते देखना एक सुकून भरा दृश्य था। 

ढाई-पौने तीन के करीब उनकी ट्रेन का एनाउंसमेंट हो गया। गाड़ी को चार नम्बर प्लेटफ़ॉर्म पर आना था। हम लोग एक नम्बर पर थे। बुज़ुर्ग ने उठ कर दोनों कम्बल को तहा कर एक पिट्ठू बैग में डाल दिया। दोनों हाथों में अन्य दो बैग को लेकर वो बढ़ने ही वाले थे कि पत्नी ने एक बैग पकड़ लिया। आप एक बैग तो मुझको दे दीजिये। पति ने जोर दिया - कोई बात नहीं हल्के ही तो हैं। लेकिन पत्नी ने एक हल्का सा दिखने वाला बैग जबरदस्ती छुड़ा लिया।

पति ने उसे रुकने का इशारा किया। फिर पत्नी के बैग को खोल कर उसमें से दो लीटर पानी की बोतल को निकाल कर अपने बैग में डाल लिया। इस मर्दानगी पर कौन न हो जाये फ़िदा। मुझे भी होना ही था।

-वाणभट्ट

शनिवार, 7 जनवरी 2023

मेट्रो सिटी

आपने सुना होगा कि बहुत से देश तरक्क़ी कर के डेवलप्ड नेशन बन चुके हैं. हमने जब से होश सम्हाला है तब से अब तक देश डेवलप ही हो रहा है. जीवन के साठ बसन्त के करीब पहुँच के मुझे ये लगने लगा है कि इस जीवन में तो ये सम्भव नहीं दिख रहा है. कुछ लोगों से मिल कर ये एहसास जागृत होने लगता है कि हम बहुतों से बहुत आगे निकल चुके हैं लेकिन बस आप जैसे लोग (यानी मैं) अपने इंफेरियॉरिटी काम्प्लेक्स के चलते इस विकास को स्वीकार नहीं कर पाते. जैसे सावन के अंधे को हर तरफ़ हरा-हरा दिखता है, वैसे ही जेठ के अंधे को हर तरफ़ सूखा ही सूखा दिखायी देता है. आप दिन-रात विकास को खोजते रहते हैं, जबकि यहाँ विकास की ऐसी बाढ़ आयी हुयी है कि सब कुछ बहा जा रहा है. यदि अब भी आपको विकास नहीं दिखता तो आपकी दृष्टि में दोष है.

एक जमाना था जब हमारे बाप-दादा को सायकिल दहेज में मिलती थी. आज क्या मजाल कि कोई एसयूवी से नीचे बात करे. जिससे पूछो भाई बेटी की शादी में कितना ख़र्च हुआ तो गर्व से बताता फिरता है कि लड़के वालों ने जो भी माँगा, वो सब दिया. लड़के वालों ने डेस्टिनेशन वेडिंग की डिमांड रखी थी, उसी में तीस लाख लग गये. लेकिन शादी इतनी धूमधाम से की कि सब लोग याद रखेंगे. पहले वॉल्व वाले रेडियो मिल जाये तो लोग धन्य हो जाते थे. अब 85 इंच का स्मार्ट टीवी भी हजम नहीं होता. लड़के-लड़की सब पैकेज की बात करते हैं. सैलरी तो सरकारी शब्द बन के रह गया है. गाँव-गाँव ब्यूटी पार्लर खुल गये हैं. शहर गाँवों में घुसा जा रहा है और आप जनाब पूछते फिर रहे हैं कि विकास कहाँ है.

आज से कुछ साल पहले कोई सोच सकता था कि यूपी के शहरों में भी मेट्रो चल जायेगी. जब परियोजना का खाका खींचा गया, तो लोग उसे चुनावी हथकण्डे से ज़्यादा मानने को तैयार न थे. ऐसी सरकार देखने की हमारी आदत लगभग छूट चली थी जो शिलान्यास भी करें और लोकार्पण भी. जहाँ सिंगल रोड नहीं दिखती थी, वहाँ चार लेन सड़क और मेट्रो के खम्भों का निकल आना किसी चमत्कार से कम नहीं है. तय समय के अन्दर प्रोजेक्ट का पूरा हो जाना भी एक अजूबा ही है.

शहर में मेट्रो क्या चली, कुछ-कुछ दिल्ली-कोलकता-मुम्बई वाली फीलिंग हावी होने लगी है. जगह की कमी के कारण बड़े-बड़े भूखण्डों पर उभरते हुये स्काई स्क्रैपर्स इस फीलिंग को और हवा देने लगते हैं. अम्बर पे खुलेगी खिड़की या खिड़की पे खुला अम्बर होगा - जैसी स्थिति के लिये लोग इंडिपेंडेन्ट मकानों से विमुख हो कर फ्लैट कल्चर की ओर मुड़ रहे हैं. एक सोसायटी में लगभग एक ही आय वर्ग के लोगों में कुछ साम्यता तो मिल जाती है. लिफ़्ट और पार्किंग एरिया कॉमन होने के कारण गाहे-बगाहे सब टकरा ही जाते हैं. छतों पर पानी की टंकियों के बीच कितने ही इश्क़ परवान चढ़ जाते हैं. मेट्रो सिटी में जो कुछ सम्भव है, वो यहाँ भी हो सकता है. किसी प्रकार की रोका-रोकी या टोका-टाकी नहीं होती है. यही तो मेट्रो कल्चर है.

लेकिन पेसिमिस्ट टाइप के लोगों को तो दोनों जहाँ एक साथ चाहिये. होना चाहते हैं अमरीका, वो भी गाँव के उपले पर बने चोखा-बाटी के साथ. देश चाहे जितनी तरक्क़ी कर ले, उन्हें तो पुराने जमाने में ऐसा होता था, वैसा होता था, करके ठंडी आहें भरने में ही आनन्द आता है. इनमें वो लोग भी शामिल हैं जिन्हें अब्रॉड में सेटल्ड अपने बच्चों के बच्चों के कारण दुनिया देखने का मौका मिल जाता है. क्या बतायें साहब, वहाँ इतनी तरक्क़ी हो रखी है कि बच्चा-बच्चा अंग्रेज़ी बोलता है. एक बार लौटने के बाद उनका बाकी जीवन इसी में बीत जाता है कि विकसित देशों का जीवन - अहा क्या जीवन है. पूरा देश चमचमाता रहता है. कूड़ा-करकट देखने को तो आँखें तरस गयीं. साफ़-सफ़ाई तो इतनी है कि जंगल में भी टॉयलेट बने हुये हैं. रेलवे ट्रैक पर कोई तीतर-बटेर लड़ाता नहीं दिखता. ये बात अलग है कि नाती-पोतों के बड़े हो जाने के बाद बच्चों से बस फेसटाइम और व्हाट्सएप वीडियो कॉल पर ही बात हो पाती है. अब फ्लैट टाइप के घरों में इतनी जगह तो होती नहीं कि बाबा-पोता साथ रह सकें. आख़िर आज के बच्चों को प्राइवेसी भी तो चाहिये. फॉरेन विज़िट का और कुछ फ़ायदा हो या न हो, इतना तो मालूम हो ही जाता है कि हम क्यों इतने बैकवर्ड हैं (फ़िरंगी इसी को डेवलपिंग बोलते हैं). 

बाहर के लोगों में क्या अच्छाई है और हम लोगों में क्या-क्या बुरायी है, इसका जायजा लेना हो तो किसी फॉरेन रिटर्न के साथ बैठ जाइये. निश्चय ही आपको अपने बैकवर्ड होने पर विश्वास होने लगेगा. जो हम नहीं सीख पा रहे हैं वो है तमीज़. देश और समाज में हमें कैसा व्यवहार करना है. दबंगयी और बदतमीज़ी को हमने स्मार्टनेस का दर्ज़ा दे दिया है. जब सो कॉल्ड मेट्रो सिटी में ई-बस शुरू हुयी तो घुसते ही बन्दे ने पूछा इसमें गुटखा कहाँ थूकेंगे खिड़की तो सब बन्द है. चार लेन सड़क पर लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ लेकर उल्टे चलते मिल जायेंगे. डोर-टू-डोर कूड़ा कलेक्शन की सुविधा हो जाने के बाद भी कूड़ों के ढेर दिख जाना असामान्य नहीं लगता. सारा देश सरकार से कुछ ज्यादा ही उम्मीद करता है और अपने कर्तव्यों को आदर्श वाक्यों के अधिक नहीं मानता. अड़ोस पड़ोस को और पड़ोस अडोस को इसलिये नहीं पहचानता क्योंकि सब के सब आत्म निर्भर हो गये हैं. रूल्स आर फ़ॉर द फूल्स की शिक्षा बच्चों को देने वाला, अपनी गलती तब रियलाइज करता है, जब बच्चे परिवार के रूल्स को तोड़ कर उसी का सिद्धान्त उसी पर अप्पलाई कर देते हैं. स्काई स्क्रेपर्स और मेट्रो हमारी तरक्की की इबारत नहीं लिखते, हाँ जिस समाज में हम रहते हैं वो कितना कल्चर्ड है, हमारी तरक्की को परिभाषित करता है. लेकिन अफसोस तब होता है जब रैट रेस के जनक स्कूल सबको ये बताते घूम रहे हैं कि कैसे अपने ही साथियों से आगे निकलना है, तो तमीज़ सिखाने की जिम्मेदारी घर-परिवार पर आ जाती है. लेकिन हर परिवार एक स्मार्ट सिकन्दर का इंतज़ार कर रहा है.

ऐसे ही फॉरेन रिटर्न बुजुर्ग ने बुरा से मुँह बनाया जब मॉल में उनके लिफ़्ट से निकलने से पहले एक अल्ट्रा मॉडर्न सा दिखने वाला लड़का लिफ़्ट में घुस गया. मुझे मालूम था कि उनके साथ अब उनके घर तक का सफ़र कितना ज्ञानवर्धक होने वाला है.

-वाणभट्ट

सोमवार, 2 जनवरी 2023

नया साल

एक साल पहले से मुझे पता था कि ठीक एक साल बाद नया साल आने वाला है. नये साल को आना था, तो आया भी. लेकिन जैसा इस साल आया मेरे विचार से ऐसा कभी न आया होगा. दो साल तक कोरोना की दहशत में रहने के बाद, इस बार जनता ने खुल कर नये साल का जश्न मनाया. और शायद ऐसा मनाया जैसा मेरी याददाश्त में कभी न मनाया गया होगा. ऐसा लग रहा था कि अब न मनाया तो फिर ये मौका मिले न मिले. कोरोना मुहाने पर टहल रहा है. बस सरकार के मोहर लगाने की देर है, फिर चेहरा मास्क के पीछे.

पहली तारीख़ को हर साल की तरह इस बार भी ठंड अपने चरम पर थी. ऊँचे पहाड़ों पर हुयी बर्फ़बारी ने मैदानी इलाकों की गलन को बढ़ा दिया था. 31 दिसम्बर की रात तो ठंड भगाने के जितने इन्तजाम सम्भव थे, सब उपलब्ध थे. मेरा मतलब अलाव, मूँगफली, गज़क, डीजे, डांस और म्यूज़िक से था. आपने कुछ और समझा तो सही ही समझा होगा. वही तो मेन फैक्टर है हर एंजॉयमेंट के पीछे. जब भी जहाँ भी चार यार मिल जायें तो फिर नये साल का इन्तज़ार कैसा. सारे क्लब-होटल-रेस्टोरेंट रौशन हो रखे थे. नया साल एक ऐसा त्योहार है जिसमें किसी प्रकार की कोई रोक-टोक नहीं है. जिसका मन जैसे करे वैसे मनाये. बल्कि इसे त्योहार कहना भी ठीक नहीं है. ये तो मौका है आज़ादी का, लिबर्टी का. कुछ भी करो घर वालों को जस्टिफाई करने की ज़रूरत नहीं है. सब सही-गलत नये साल के जश्न के नाम.

हमारे देश की एक अच्छाई है कि हमारी अन्तरात्मा सदैव जागृत रहती है. हम लोग नैतिक रूप से कभी भी गलत नहीं करते, न ही करना चाहते हैं. गलती हो भी जाये तो गलती मानने का तो कतई कोई रिवाज़ नहीं है. तभी तो एक ही मुद्दे पर पक्ष जितनी ज़ोरदार दलील देता है, विपक्ष उतने ही दमदार तरीके से उसका विरोध करता है. कई बार तो ये शक़ होता है कि ये पक्ष-विपक्ष की नूरा-कुश्ती सिर्फ़ जनता को दिखाने के लिये है. रात को जितना जश्न मनाया जाता है, उसका हैंगओवर उतारने के लिये उसकी दोगुनी भक्ति हावी हो जाती है, अगले दिन यानि एक जनवरी को. 

उम्र के जिस पड़ाव से गुजर रहे हैं उस में नैतिकता का ठेका अपने आप आपके सर पर थोप दिया जाता है. और बच्चों के सामने आदर्श रखने के इरादे से इस मुलम्मे को हम सहर्ष ओढ़ भी लेते हैं. रात जब पड़ोस में कुछ छड़े म्यूज़िक के फुल वॉल्यूम पर नये साल की मौज कर रहे थे, तो हमको मिर्ची लगना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी. धीरे से कुछ बड़बड़ाया ही था कि कंधे से ऊपर निकल चुके बच्चे ने रिमोट बढ़ा दिया - पापा आप दूरदर्शन लगा लो. मैं जरा दोस्तों से मिल के आता हूँ. दिल्ली के पंजाबियों ने और कुछ किया हो या न किया हो लेकिन हम यूपी वालों की हिन्दी भ्रष्ट कर दी है. बच्चों को 'लीजिये' की तुलना में 'लो' बोलना ज़्यादा सुविधाजनक लगता है. मैने जाना है, आपने खाना है, टाइप की हिन्दी सुनते ही रोम-रोम सुलग जाता है. मै कुछ कह पाता उससे पहले जनाब मुझे रिमोट थमा कर निकल लिये. 

रोज की तरह मेरा सवेरा सुबह पाँच बजे हो चुका था. चूँकि मैं रोज की तरह समय से सो गया था, तो मेरा सवेरा तो जल्दी होना ही था. कड़कड़ाती ठंड में टहलने सिर्फ़ इस लिये निकल गया कि साल के पहले दिन की शुरुआत हेल्दी होनी चाहिये. सात बजे तक जब लौट के आया तो घर में जागृत अवस्था के कोई लक्षण नहीं थे. पता नहीं माँ-बेटी-बेटा रात में कब सोये. बहरहाल घर में घुसते ही सबको खड़खड़ा दिया. आज पहली तारीख़ है सब जल्दी से नहा-धो कर तैयार हो जाओ मंदिर चलेंगे. जैसी उम्मीद थी रिस्पॉन्स बहुत ठंडा सा मिला लेकिन कभी कभी मैं याद दिलाने की कोशिश करता रहता हूँ कि बाप मै ही हूँ. 

फिर भी ब्रंच करते-करते ढाई-तीन तो बज ही गये थे. इस बार सन्डे होने के कारण घर वालों ने मेरी लम्बी पूजा-ध्यान का भरपूर ख्याल रखा. सब तैयार हो गये थे. निर्णय ये हुआ कि घर से दूर शहर के बाहर हाइवे से कुछ हट के एक मन्दिर है, वही चलते हैं. वहाँ अब तक जाना नहीं हो पाया था. 25-30 किलोमीटर की दूरी तय करके शहर की भीड़-भाड़ से जूझते हुये घण्टे-सवा घण्टे में जब हम हाइवे के उस मोड़ तक पहुँचे जहाँ से मन्दिर के लिये मोड़ था. दृश्य हमारी कल्पना से परे था. कारों की जितनी लम्बी कतार उस सड़क पर घुसने को आमादा थीं, उससे लम्बी लाइन निकलने वाली कारों की दिख रही थी. कोई सहज ही अंदाज लगा सकता था कि मन्दिर प्रांगण में पार्किंग का क्या हाल होगा. कुछ देर कार की लाइन में लगने के बाद हमने निर्णय किया कि आगे हाइवे पर एक और मन्दिर पड़ता है, वहाँ पार्किंग की दिक्कत नहीं होनी चाहिये. सो गाड़ी मेन हाइवे पर आगे बढ़ा दी. वहाँ भी हाइवे के किनारे कारों की लाइन लगी थी. और मन्दिर में भी श्रद्धालुओं की अच्छी-खासी लाइन थी. फाइनली हमने रोड से ही अनन्य श्रद्धा के साथ भगवान को प्रणाम किया और वापस घर के लिये गाड़ी मोड़ दी. 

अब तक शहर का जाम अपने पूरे शबाब पर था. सभी लोग अपनी-अपनी तरह से नये साल के पहले दिन को सेलिब्रेट करने निकले थे. जाम से बचने के लिए किन-किन गलियों और रास्तों से हमें गुजरना पड़ा, राम जाने.  चार घण्टे और अस्सी किलोमीटर की ड्राइव करके हम अपने घर के पास वाले मन्दिर में बाबा के सामने खड़े थे. भीड़ यहाँ भी रोज की अपेक्षा कुछ ज़्यादा थी. लेकिन दर्शन के लिये धक्का-मुक्की नहीं थी. 

-वाणभट्ट 


आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...