आपने सुना होगा कि बहुत से देश तरक्क़ी कर के डेवलप्ड नेशन बन चुके हैं. हमने जब से होश सम्हाला है तब से अब तक देश डेवलप ही हो रहा है. जीवन के साठ बसन्त के करीब पहुँच के मुझे ये लगने लगा है कि इस जीवन में तो ये सम्भव नहीं दिख रहा है. कुछ लोगों से मिल कर ये एहसास जागृत होने लगता है कि हम बहुतों से बहुत आगे निकल चुके हैं लेकिन बस आप जैसे लोग (यानी मैं) अपने इंफेरियॉरिटी काम्प्लेक्स के चलते इस विकास को स्वीकार नहीं कर पाते. जैसे सावन के अंधे को हर तरफ़ हरा-हरा दिखता है, वैसे ही जेठ के अंधे को हर तरफ़ सूखा ही सूखा दिखायी देता है. आप दिन-रात विकास को खोजते रहते हैं, जबकि यहाँ विकास की ऐसी बाढ़ आयी हुयी है कि सब कुछ बहा जा रहा है. यदि अब भी आपको विकास नहीं दिखता तो आपकी दृष्टि में दोष है.
एक जमाना था जब हमारे बाप-दादा को सायकिल दहेज में मिलती थी. आज क्या मजाल कि कोई एसयूवी से नीचे बात करे. जिससे पूछो भाई बेटी की शादी में कितना ख़र्च हुआ तो गर्व से बताता फिरता है कि लड़के वालों ने जो भी माँगा, वो सब दिया. लड़के वालों ने डेस्टिनेशन वेडिंग की डिमांड रखी थी, उसी में तीस लाख लग गये. लेकिन शादी इतनी धूमधाम से की कि सब लोग याद रखेंगे. पहले वॉल्व वाले रेडियो मिल जाये तो लोग धन्य हो जाते थे. अब 85 इंच का स्मार्ट टीवी भी हजम नहीं होता. लड़के-लड़की सब पैकेज की बात करते हैं. सैलरी तो सरकारी शब्द बन के रह गया है. गाँव-गाँव ब्यूटी पार्लर खुल गये हैं. शहर गाँवों में घुसा जा रहा है और आप जनाब पूछते फिर रहे हैं कि विकास कहाँ है.
आज से कुछ साल पहले कोई सोच सकता था कि यूपी के शहरों में भी मेट्रो चल जायेगी. जब परियोजना का खाका खींचा गया, तो लोग उसे चुनावी हथकण्डे से ज़्यादा मानने को तैयार न थे. ऐसी सरकार देखने की हमारी आदत लगभग छूट चली थी जो शिलान्यास भी करें और लोकार्पण भी. जहाँ सिंगल रोड नहीं दिखती थी, वहाँ चार लेन सड़क और मेट्रो के खम्भों का निकल आना किसी चमत्कार से कम नहीं है. तय समय के अन्दर प्रोजेक्ट का पूरा हो जाना भी एक अजूबा ही है.
शहर में मेट्रो क्या चली, कुछ-कुछ दिल्ली-कोलकता-मुम्बई वाली फीलिंग हावी होने लगी है. जगह की कमी के कारण बड़े-बड़े भूखण्डों पर उभरते हुये स्काई स्क्रैपर्स इस फीलिंग को और हवा देने लगते हैं. अम्बर पे खुलेगी खिड़की या खिड़की पे खुला अम्बर होगा - जैसी स्थिति के लिये लोग इंडिपेंडेन्ट मकानों से विमुख हो कर फ्लैट कल्चर की ओर मुड़ रहे हैं. एक सोसायटी में लगभग एक ही आय वर्ग के लोगों में कुछ साम्यता तो मिल जाती है. लिफ़्ट और पार्किंग एरिया कॉमन होने के कारण गाहे-बगाहे सब टकरा ही जाते हैं. छतों पर पानी की टंकियों के बीच कितने ही इश्क़ परवान चढ़ जाते हैं. मेट्रो सिटी में जो कुछ सम्भव है, वो यहाँ भी हो सकता है. किसी प्रकार की रोका-रोकी या टोका-टाकी नहीं होती है. यही तो मेट्रो कल्चर है.
लेकिन पेसिमिस्ट टाइप के लोगों को तो दोनों जहाँ एक साथ चाहिये. होना चाहते हैं अमरीका, वो भी गाँव के उपले पर बने चोखा-बाटी के साथ. देश चाहे जितनी तरक्क़ी कर ले, उन्हें तो पुराने जमाने में ऐसा होता था, वैसा होता था, करके ठंडी आहें भरने में ही आनन्द आता है. इनमें वो लोग भी शामिल हैं जिन्हें अब्रॉड में सेटल्ड अपने बच्चों के बच्चों के कारण दुनिया देखने का मौका मिल जाता है. क्या बतायें साहब, वहाँ इतनी तरक्क़ी हो रखी है कि बच्चा-बच्चा अंग्रेज़ी बोलता है. एक बार लौटने के बाद उनका बाकी जीवन इसी में बीत जाता है कि विकसित देशों का जीवन - अहा क्या जीवन है. पूरा देश चमचमाता रहता है. कूड़ा-करकट देखने को तो आँखें तरस गयीं. साफ़-सफ़ाई तो इतनी है कि जंगल में भी टॉयलेट बने हुये हैं. रेलवे ट्रैक पर कोई तीतर-बटेर लड़ाता नहीं दिखता. ये बात अलग है कि नाती-पोतों के बड़े हो जाने के बाद बच्चों से बस फेसटाइम और व्हाट्सएप वीडियो कॉल पर ही बात हो पाती है. अब फ्लैट टाइप के घरों में इतनी जगह तो होती नहीं कि बाबा-पोता साथ रह सकें. आख़िर आज के बच्चों को प्राइवेसी भी तो चाहिये. फॉरेन विज़िट का और कुछ फ़ायदा हो या न हो, इतना तो मालूम हो ही जाता है कि हम क्यों इतने बैकवर्ड हैं (फ़िरंगी इसी को डेवलपिंग बोलते हैं).
बाहर के लोगों में क्या अच्छाई है और हम लोगों में क्या-क्या बुरायी है, इसका जायजा लेना हो तो किसी फॉरेन रिटर्न के साथ बैठ जाइये. निश्चय ही आपको अपने बैकवर्ड होने पर विश्वास होने लगेगा. जो हम नहीं सीख पा रहे हैं वो है तमीज़. देश और समाज में हमें कैसा व्यवहार करना है. दबंगयी और बदतमीज़ी को हमने स्मार्टनेस का दर्ज़ा दे दिया है. जब सो कॉल्ड मेट्रो सिटी में ई-बस शुरू हुयी तो घुसते ही बन्दे ने पूछा इसमें गुटखा कहाँ थूकेंगे खिड़की तो सब बन्द है. चार लेन सड़क पर लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ लेकर उल्टे चलते मिल जायेंगे. डोर-टू-डोर कूड़ा कलेक्शन की सुविधा हो जाने के बाद भी कूड़ों के ढेर दिख जाना असामान्य नहीं लगता. सारा देश सरकार से कुछ ज्यादा ही उम्मीद करता है और अपने कर्तव्यों को आदर्श वाक्यों के अधिक नहीं मानता. अड़ोस पड़ोस को और पड़ोस अडोस को इसलिये नहीं पहचानता क्योंकि सब के सब आत्म निर्भर हो गये हैं. रूल्स आर फ़ॉर द फूल्स की शिक्षा बच्चों को देने वाला, अपनी गलती तब रियलाइज करता है, जब बच्चे परिवार के रूल्स को तोड़ कर उसी का सिद्धान्त उसी पर अप्पलाई कर देते हैं. स्काई स्क्रेपर्स और मेट्रो हमारी तरक्की की इबारत नहीं लिखते, हाँ जिस समाज में हम रहते हैं वो कितना कल्चर्ड है, हमारी तरक्की को परिभाषित करता है. लेकिन अफसोस तब होता है जब रैट रेस के जनक स्कूल सबको ये बताते घूम रहे हैं कि कैसे अपने ही साथियों से आगे निकलना है, तो तमीज़ सिखाने की जिम्मेदारी घर-परिवार पर आ जाती है. लेकिन हर परिवार एक स्मार्ट सिकन्दर का इंतज़ार कर रहा है.
ऐसे ही फॉरेन रिटर्न बुजुर्ग ने बुरा से मुँह बनाया जब मॉल में उनके लिफ़्ट से निकलने से पहले एक अल्ट्रा मॉडर्न सा दिखने वाला लड़का लिफ़्ट में घुस गया. मुझे मालूम था कि उनके साथ अब उनके घर तक का सफ़र कितना ज्ञानवर्धक होने वाला है.
-वाणभट्ट