जैन साहब ने एक एचपीएलसी और कुछ केमिकल्स का इन्डेन्ट मेक और ब्रैंड के साथ क्रय विभाग को भेज दिया. अगली सुबह जब वो काम पर आये तो उनकी लैब में वो सारा सामान उपस्थित था, जो उन्होंने माँगा था. उनके साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. उन्हें थोडा नहीं, बहुत आश्चर्य हुआ. बल्कि ये कहना उचित होगा की वो आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लग गये.
उसके चेहरे में एक गजब सा कॉन्फिडेंस आ गया था. और चाल में अकड़ भी. जब उसे पता चला कि उसके विरुद्ध विजिलेंस इन्क्वायरी सेट हुयी है. ये भी एक स्टेट्स सिम्बल है. इतने साल हो गये अफसर बने और अब तक कोई जाँच न हुयी, तो सर्किल में बदनामी की बात है. एक जमाना था जब लोग पड़ोसियों पर अपना प्रभाव दिखाने के लिये इनकम टैक्स की रेड का इंतज़ार करते थे. पडोसी भी जब तक रेड न पड़े, सिर्फ़ रहन-सहन से किसी को बड़ा आदमी मानने को तैयार न दिखते. समय के भी पंख होते हैं. जमाना बहुत आगे जा चुका है. अब साधन-संपन्न-समृद्ध लोग ईडी से कम में सन्तुष्ट नहीं होते. इसीलिये दस करोड़ वाला बीस करोड़ और बीस करोड़ वाला चालीस करोड़ कैश इकठ्ठा करने में लगा है. फिर वो कुछ न कुछ एंटी-नेशनल एक्टीविटी में सिर्फ़ इसलिये इन्वॉल्व हो जाता है ताकि ईडी का ध्यान आकृष्ट कर सके. वर्ना जहाँ करोड़पतियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुयी हो वहाँ पैसा अगर गद्दों-बोरों-दीवारों में दफ़न रह गया तो मरने के बाद किसे पता चलेगा की इसी धन के लिये जनाब (और जनाबिन भी) जीवन भर तन-मन से लगे रहे और वन-टू का फोर करते रहे. लेकिन इसके लिये किसी मन्त्री-सन्त्री के करीबी होना अनिवार्य है. ये जनाब बस एक सरकारी अधिकारी थे. इनके लिये विभागीय जाँच का बैठ जाना ही काफी था. अपने ही लोग हैं. मिल-बैठ के बातें होंगी. जहाँ चार यार मिल जायेंगे, महफिल रंगीन हो जायेगी. और क्या. ये इतने में ही खुश हैं कि अब उन्हें माइक्रोसॉफ्ट और सिस्को सर्टिफाइड इंजीनियर्स की तरह सर्टिफाइड भ्रष्ट होने का लाइसेन्स मिल गया है. अब वो और खुल के खेल सकेंगे.
प्रधान सेवक ने एक बार मुद्दा उठाया भी था कि सरकारी नौकरी होती है और प्राइवेट जॉब्स. और नौकर का काम होता है सेवा करना जनता की. लेकिन जब उसी सेवक के पदनाम में अधिकारी शब्द जुड़ जाता है, तो उसे लगने लगता है कि अब वो सेवा देने नहीं, लेने का पात्र बन गया है. इसी के लिये तो उसने जी-जान से हाड़-तोड़ पढाई की थी. अब भी अगर पद का मज़ा नहीं लूट पाया तो लानत है, ऐसी सरकारी नौकरी पर.
एक शोध संस्थान में जब समस्त अधिकारीयों को न्यूज़ पेपर का बिल रीइम्बर्स होने का ऑर्डर आया, तो किसी को कानों कान खबर नहीं लगी. प्रशासनिक और वित्त अधिकारी ने अपने-अपने बिल वसूलने शुरू कर दिये. जब पूछा गया भाई ऐसा कैसे, तो बोले यहाँ तो बस दो ही अधिकारी हैं, बाकी तो वैज्ञानिक हैं. वैज्ञानिक तो वैसे भी निरीह प्राणी है. पहले तो कुछ बोलता नहीं और जब बोलता है तो सीनियर कहना शुरू कर देते हैं, फिर तुममें और उनमें अन्तर क्या रह गया. इतना पढ़-लिख कर भी तुम ख़ामख्वाह अपना स्तर गिरा रहे हो. नतीजा पूरा का पूरा ऑफिस सूरमा भोपाली बना घूम रिया है. मानो मेंहदी हसन की ग़ज़ल मॉडिफाई करके गुनगुना रहा हो -
"हमसे अलग तुम रह नहीं सकते, इस बेदर्द ज़माने में"
अपने इन्डेन्ट का ऑर्डर पास करने के लिये जैन साहब कॉन्ट्रेक्ट कर्मचारी के बगल में स्टूल पर भी बैठ चुके थे. जेम पोर्टल पर अपना ऑर्डर प्लेस करने हेतु. ये बात समझ से परे है कि अमेजन और फ्लिपकार्ट से दिन-रात शॉपिंग करने वाले लोग, जेम के यूज़रनेम और पासवर्ड से महरूम हैं. यदि जेम का पासवर्ड मिल जाता तो बाक़ी कर्मचारी भी अपने कन्विनियेंट टाइम पर पोर्टल का उपयोग कर पाते. भले ऑर्डर प्लेस करने का काम ऑफिस करे लेकिन प्रोडक्ट सर्च तो कोई भी कर ही सकता है. लेकिन जीएफ़आर इसकी इज़ाजत नहीं देता. अब की बजट से पहले वित्त मन्त्री से गुज़ारिश करूँगा कि अमेजन की तरह जेम पर भी आम आदमी को अपना एकाउन्ट बनाने की परमिशन दें, ताकि सब अपने घरों के सामान भी जेम से खरीद सकें. इससे जेम पर रजिस्टर्ड उद्यमियों को भी लाभ मिलेगा.
जब बिना ज़्यादा प्रयास के जैन साहब को एचपीएलसी और केमिकल्स मिल गये तो उनके दिमाग में पहला विचार यही आया कि जापान में जीएफ़आर नहीं होता है क्या. वो दो साल के डेपुटेशन रिसर्च के लिये जापान के किसी शोध संस्थान में चयनित हुये थे. इतने मँहगे आइटम्स के लिये तो यहाँ उन्हें पिलर-टू-पोस्ट करना पड़ जाता. माँगते थे कुछ और मिलता था कुछ. उनके आश्चर्य के ठिकाने में और वृद्धि होने वाली थी, जब वो चावल के गोदाम देखने गये. वहाँ भी यहाँ की तरह धान की फ़ाईन और सुपर फ़ाईन टाइप की वैरायटीज़ होती होंगी. जैन साहब ने अपना तजुर्बा उन महिला के साथ शेयर करने की कोशिश की जो उन्हें गो-डाउन दिखा रहीं थीं. जैन साहब ने बड़ी सहजता से पूछा कि क्या ये संभव है कि फ़ाईन वैरायटी को सुपर फ़ाईन दिखा कर खरीद लिया जाये. वो महिला हतप्रभ सी रह गयीं. बोलीं जैन साहब आपने मुझसे तो कह दिया लेकिन किसी और से मत कहियेगा ये बात. हम ऐसा सोच भी नहीं सकते. तब ये समझना जरूरी हो जाता है कि हिन्दुस्तान में जीएफ़आर की जरूरत क्यों कर पड़ी होगी. और ऑडिट का ऑडिट करने की आवश्यकता क्यों पडती है.
जीएफ़आर दरअसल अन्तरात्मा की आवाज़ है, जिसे हम मारने में संकोच नहीं करते. सही और गलत का फ़र्क सबको पता है. सही करने के लिये, दिल की और गलत करने के लिये दिमाग की जरूरत होती है. यदि देशप्रेम का जज़्बा व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर होता तो, सहज ही हम वही करते जो दिल कहता. तब शायद इतने नियम और कानूनों की आवश्यकता भी न होती. लेकिन एक देश की सौ प्रतिशत जनता एक सा तो सोच नहीं सकती. वैसे भी हम फ्री पंजीरी लूटने के कायल लोग हैं. जो फ्री बिजली और पानी के लिये देश को ताक़ में रखने में देर नहीं करते. जीएफ़आर की ये व्यवस्था तो वैसे भी सिर्फ़ और सिर्फ़ देश के 4 प्रतिशत से कम सरकारी कर्मचारियों पर ही लागू होती है. दोस्तेवोसकी के एक उपन्यास क्राइम और पनिशमेन्ट में एक इंटेलिजेंट और स्मार्ट युवक को लगता था कि बुद्धिमान लोगों को क्राइम कर ही लेना चाहिये. वो अपराध कर भी देता है. लेकिन उस 800 से अधिक पेज के साइको-थ्रिलर में ये ही समझाने की कोशिश की गयी है कि अपराध करना आसान है लेकिन उसके परिणाम का दंश झेलना ही पड़ता है.
हमारे बचपन में एक दूर के रिश्तेदार हुआ करते थे. वो चार-छ: साल में एक-आध बार आते थे, और जाने का नाम नहीं लेते थे. बाद में पता चला कि जब वो भ्रष्टाचार में पकड़े जाते थे, तो बिना नोटिस रिसीव किये अज्ञातवास पर निकल जाते थे. सस्पेंशन पीरियड का उपयोग वो अर्जित धन को साधने में किया करते. बड़े विश्वास से कहते थे - पैसा लेकर सस्पेंड हुये तो पैसा दे कर बहाल भी हो जायेंगे. फ़िक्र किस बात की. जब तक वो रहते पिता जी यही डरते रहते कि कहीं यहीं छापा न पड़वा दें.
जीएफ़आर लिखी भी उनके लिये है, जिनकी बुद्धि ने अन्तरात्मा पर विजय प्राप्त कर ली हो. ताकि वो उसके नियम-कानूनों का उपयोग अपनी सहूलियत से अपने फ़ायदे के लिये कर सकें. जैसे संविधान की किताब को आगे करके देश विरोधी असंवैधानिक काम किये जाते हैं. वैसे ही ज्ञानीजन जीएफ़आर का उपयोग उसमें निहित लूप होल्स को खोजने में करते हैं. लेकिन आत्मा तो आत्मा है. चाहे दोस्तेवोसकी के नायक/खलनायक रस्कोलनिकोव की हो या किसी और की. किसी भजन में पहले भी कहा गया है -
"तोरा मन दर्पण कहलाये, भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये"
भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी चाहे कितनी भी शान-ओ-शौकत दिखा ले. किन्तु अपने ही विभाग के ईमानदार सहकर्मी उसे दुश्मन नज़र आते हैं. उनकी नज़रें उसे घूरती सी लगती हैं. उनके सामने भले ही उसने थ्री-पीस सूट पहन रखा हो, लेकिन वो ख़ुद को नंगा महसूस करता है. ईमानदारी सिखायी नहीं जाती, घुट्टी में पिलायी जाती है. बाबा शेक्सपियर पहले ही कह गये हैं -
"नो लीगेसी इस सो रिच एज़ ऑनेस्टी"
- वाणभट्ट
* मुन्शी प्रेमचन्द के जन्मदिन पर सभी सुधी पाठकों को हार्दिक बधाइयाँ
सटीक और खरी
जवाब देंहटाएंजब उसे पता चला कि उसके विरुद्ध विजिलेंस इन्क्वायरी सेट हुयी है. ये भी एक स्टेट्स सिम्बल है.--गजब सन्नाट - क्या लिखते हो भाई :)
जवाब देंहटाएं'अब साधन-संपन्न-समृद्ध लोग ईडी से कम में सन्तुष्ट नहीं होते', आजकल तो समाचारों में यही सब भरा रहता है
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2-8-22} को "रक्षाबंधन पर सैनिक भाईयों के नाम एक पाती"(चर्चा अंक--4509)
पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
धन्यवाद कामिनी जी...आज की चर्चा में जीएफ़आर को स्थान देने के लिये...🙏🙏🙏
हटाएंबहुत अच्छी पोस्ट. आपको बधाई और हार्दिक शुभकामनायें सर
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक प्रसृति।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक, खरी प्रसृति
जवाब देंहटाएंव्यंग्यात्मक शैली में आज का सत्य।
जवाब देंहटाएंनाम की महत्ता है कैसे भी हो लाइमलाइट में आने की चाह--
बहुत सटीक सुंदर।
आज का कटु सत्य....अब ईडी भी शान ही बघारती है तो फिर डर ही किस बात का...पैसा लेकर सस्पेंड हुये तो पैसा दे कर बहाल भी हो जायेंगे. अब ऐसी सोच को क्या कहें...
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब ।
बहुत पहले अपने ब्लॉग पर हमने भी ये बात लिखी थी कि रेड पड़ना इज्जत मे बढावा करता है । लोग फिर मानते है कि बहुत पैसा है और जितना बरामद होता है उससे इतर गप्पे कहानियां हवा मे तैरने लगती है 😃
जवाब देंहटाएंयथार्थ को उजागर करता धारदार व्यंग ।
जवाब देंहटाएंबड़े दिन बाद सुना यह शब्द GFR :)
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति👌
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