रविवार, 31 जुलाई 2022

जीएफ़आर

जैन साहब ने एक एचपीएलसी और कुछ केमिकल्स का इन्डेन्ट मेक और ब्रैंड के साथ क्रय विभाग को भेज दिया. अगली सुबह जब वो काम पर आये तो उनकी लैब में वो सारा सामान उपस्थित था, जो उन्होंने माँगा था. उनके साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. उन्हें थोडा नहीं, बहुत आश्चर्य हुआ. बल्कि ये कहना उचित होगा की वो आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लग गये.

उसके चेहरे में एक गजब सा कॉन्फिडेंस आ गया था. और चाल में अकड़ भी. जब उसे पता चला कि उसके विरुद्ध विजिलेंस इन्क्वायरी सेट हुयी है. ये भी एक स्टेट्स सिम्बल है. इतने साल हो गये अफसर बने और अब तक कोई जाँच न हुयी, तो सर्किल में बदनामी की बात है. एक जमाना था जब लोग पड़ोसियों पर अपना प्रभाव दिखाने के लिये इनकम टैक्स की रेड का इंतज़ार करते थे. पडोसी भी जब तक रेड न पड़े, सिर्फ़ रहन-सहन से किसी को बड़ा आदमी मानने को तैयार न दिखते. समय के भी पंख होते हैं. जमाना बहुत आगे जा चुका है. अब साधन-संपन्न-समृद्ध लोग ईडी से कम में सन्तुष्ट नहीं होते. इसीलिये दस करोड़ वाला बीस करोड़ और बीस करोड़ वाला चालीस करोड़ कैश इकठ्ठा करने में लगा है. फिर वो कुछ न कुछ एंटी-नेशनल एक्टीविटी में सिर्फ़ इसलिये इन्वॉल्व हो जाता है ताकि ईडी का ध्यान आकृष्ट कर सके. वर्ना जहाँ करोड़पतियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुयी हो वहाँ पैसा अगर गद्दों-बोरों-दीवारों में दफ़न रह गया तो मरने के बाद किसे पता चलेगा की इसी धन के लिये जनाब (और जनाबिन भी) जीवन भर तन-मन से लगे रहे और वन-टू का फोर करते रहे. लेकिन इसके लिये किसी मन्त्री-सन्त्री के करीबी होना अनिवार्य है. ये जनाब बस एक सरकारी अधिकारी थे. इनके लिये विभागीय जाँच का बैठ जाना ही काफी था. अपने ही लोग हैं. मिल-बैठ के बातें होंगी. जहाँ चार यार मिल जायेंगे, महफिल रंगीन हो जायेगी. और क्या. ये इतने में ही खुश हैं कि अब उन्हें माइक्रोसॉफ्ट और सिस्को सर्टिफाइड इंजीनियर्स की तरह सर्टिफाइड भ्रष्ट होने का लाइसेन्स मिल गया है. अब वो और खुल के खेल सकेंगे.

प्रधान सेवक ने एक बार मुद्दा उठाया भी था कि सरकारी नौकरी होती है और प्राइवेट जॉब्स. और नौकर का काम होता है सेवा करना जनता की. लेकिन जब उसी सेवक के पदनाम में अधिकारी शब्द जुड़ जाता है, तो उसे लगने लगता है कि अब वो सेवा देने नहीं, लेने का पात्र बन गया है. इसी के लिये तो उसने जी-जान से हाड़-तोड़ पढाई की थी. अब भी अगर पद का मज़ा नहीं लूट पाया तो लानत है, ऐसी सरकारी नौकरी पर. 

एक शोध संस्थान में जब समस्त अधिकारीयों को न्यूज़ पेपर का बिल रीइम्बर्स होने का ऑर्डर आया, तो किसी को कानों कान खबर नहीं लगी. प्रशासनिक और वित्त अधिकारी ने अपने-अपने बिल वसूलने शुरू कर दिये. जब पूछा गया भाई ऐसा कैसे, तो बोले यहाँ तो बस दो ही अधिकारी हैं, बाकी तो वैज्ञानिक हैं. वैज्ञानिक तो वैसे भी निरीह प्राणी है. पहले तो कुछ बोलता नहीं और जब बोलता है तो सीनियर कहना शुरू कर देते हैं, फिर तुममें और उनमें अन्तर क्या रह गया. इतना पढ़-लिख कर भी तुम ख़ामख्वाह अपना स्तर गिरा रहे हो. नतीजा पूरा का पूरा ऑफिस सूरमा भोपाली बना घूम रिया है. मानो मेंहदी हसन की ग़ज़ल मॉडिफाई करके गुनगुना रहा हो -  

"हमसे अलग तुम रह नहीं सकते, इस बेदर्द ज़माने में" 

अपने इन्डेन्ट का ऑर्डर पास करने के लिये जैन साहब कॉन्ट्रेक्ट कर्मचारी के बगल में स्टूल पर भी बैठ चुके थे. जेम पोर्टल पर अपना ऑर्डर प्लेस करने हेतु. ये बात समझ से परे है कि अमेजन और फ्लिपकार्ट से दिन-रात शॉपिंग करने वाले लोग, जेम के यूज़रनेम और पासवर्ड से महरूम हैं. यदि जेम का पासवर्ड मिल जाता तो बाक़ी कर्मचारी भी अपने कन्विनियेंट टाइम पर पोर्टल का उपयोग कर पाते. भले ऑर्डर प्लेस करने का काम ऑफिस करे लेकिन प्रोडक्ट सर्च तो कोई भी कर ही सकता है. लेकिन जीएफ़आर इसकी इज़ाजत नहीं देता. अब की बजट से पहले वित्त मन्त्री से गुज़ारिश करूँगा कि अमेजन की तरह जेम पर भी आम आदमी को अपना एकाउन्ट बनाने की परमिशन दें, ताकि सब अपने घरों के सामान भी जेम से खरीद सकें. इससे जेम पर रजिस्टर्ड उद्यमियों को भी लाभ मिलेगा. 

जब बिना ज़्यादा प्रयास के जैन साहब को एचपीएलसी और केमिकल्स मिल गये तो उनके दिमाग में पहला विचार यही आया कि जापान में जीएफ़आर नहीं होता है क्या. वो दो साल के डेपुटेशन रिसर्च के लिये जापान के किसी शोध संस्थान में चयनित हुये थे. इतने मँहगे आइटम्स के लिये तो यहाँ उन्हें पिलर-टू-पोस्ट करना पड़ जाता. माँगते थे कुछ और मिलता था कुछ. उनके आश्चर्य के ठिकाने में और वृद्धि होने वाली थी, जब वो चावल के गोदाम देखने गये. वहाँ भी यहाँ की तरह धान की फ़ाईन और सुपर फ़ाईन टाइप की वैरायटीज़ होती होंगी. जैन साहब ने अपना तजुर्बा उन महिला के साथ शेयर करने की कोशिश की जो उन्हें गो-डाउन दिखा रहीं थीं. जैन साहब ने बड़ी सहजता से पूछा कि क्या ये संभव है कि फ़ाईन वैरायटी को सुपर फ़ाईन दिखा कर खरीद लिया जाये. वो महिला हतप्रभ सी रह गयीं. बोलीं जैन साहब आपने मुझसे तो कह दिया लेकिन किसी और से मत कहियेगा ये बात. हम ऐसा सोच भी नहीं सकते. तब ये समझना जरूरी हो जाता है कि हिन्दुस्तान में जीएफ़आर की जरूरत क्यों कर पड़ी होगी. और ऑडिट का ऑडिट करने की आवश्यकता क्यों पडती है.  

जीएफ़आर दरअसल अन्तरात्मा की आवाज़ है, जिसे हम मारने में संकोच नहीं करते. सही और गलत का फ़र्क सबको पता है. सही करने के लिये, दिल की और गलत करने के लिये दिमाग की जरूरत होती है. यदि देशप्रेम का जज़्बा व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर होता तो, सहज ही हम वही करते जो दिल कहता. तब शायद इतने नियम और कानूनों की आवश्यकता भी न होती. लेकिन एक देश की सौ प्रतिशत जनता एक सा तो सोच नहीं सकती. वैसे भी हम फ्री पंजीरी लूटने के कायल लोग हैं. जो फ्री बिजली और पानी के लिये देश को ताक़ में रखने में देर नहीं करते. जीएफ़आर की ये व्यवस्था तो वैसे भी सिर्फ़ और सिर्फ़ देश के 4 प्रतिशत से कम सरकारी कर्मचारियों पर ही लागू होती है. दोस्तेवोसकी के एक उपन्यास क्राइम और पनिशमेन्ट में एक इंटेलिजेंट और स्मार्ट युवक को लगता था कि बुद्धिमान लोगों को क्राइम कर ही लेना चाहिये. वो अपराध कर भी देता है. लेकिन उस 800 से अधिक पेज के साइको-थ्रिलर में ये ही समझाने की कोशिश की गयी है कि अपराध करना आसान है लेकिन उसके परिणाम का दंश झेलना ही पड़ता है. 

हमारे बचपन में एक दूर के रिश्तेदार हुआ करते थे. वो चार-छ: साल में एक-आध बार आते थे, और जाने का नाम नहीं लेते थे. बाद में पता चला कि जब वो भ्रष्टाचार में पकड़े जाते थे, तो बिना नोटिस रिसीव किये अज्ञातवास पर निकल जाते थे. सस्पेंशन पीरियड का उपयोग वो अर्जित धन को साधने में किया करते. बड़े विश्वास से कहते थे - पैसा लेकर सस्पेंड हुये तो पैसा दे कर बहाल भी हो जायेंगे. फ़िक्र किस बात की. जब तक वो रहते पिता जी यही डरते रहते कि कहीं यहीं छापा न पड़वा दें.

जीएफ़आर लिखी भी उनके लिये है, जिनकी बुद्धि ने अन्तरात्मा पर विजय प्राप्त कर ली हो. ताकि वो उसके नियम-कानूनों का उपयोग अपनी सहूलियत से अपने फ़ायदे के लिये कर सकें. जैसे संविधान की किताब को आगे करके देश विरोधी असंवैधानिक काम किये जाते हैं. वैसे ही ज्ञानीजन जीएफ़आर का उपयोग उसमें निहित लूप होल्स को खोजने में करते हैं. लेकिन आत्मा तो आत्मा है. चाहे दोस्तेवोसकी के नायक/खलनायक रस्कोलनिकोव की हो या किसी और की. किसी भजन में पहले भी कहा गया है - 

"तोरा मन दर्पण कहलाये, भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये"

भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी चाहे कितनी भी शान-ओ-शौकत दिखा ले. किन्तु अपने ही विभाग के ईमानदार सहकर्मी उसे दुश्मन नज़र आते हैं. उनकी नज़रें उसे घूरती सी लगती हैं. उनके सामने भले ही उसने थ्री-पीस सूट पहन रखा हो, लेकिन वो ख़ुद को नंगा महसूस करता है. ईमानदारी सिखायी नहीं जाती, घुट्टी में पिलायी जाती है. बाबा शेक्सपियर पहले ही कह गये हैं - 

"नो लीगेसी इस सो रिच एज़ ऑनेस्टी"  

- वाणभट्ट 

* मुन्शी प्रेमचन्द के जन्मदिन पर सभी सुधी पाठकों को हार्दिक बधाइयाँ 

रविवार, 24 जुलाई 2022

बाढ़

यहाँ कम से कम तीन हाथी की गहरायी होगी. बच्चों की भीड़ में से कोई चिल्लाया. हर साल बाढ़ के आने का उसी बेसब्री से इंतज़ार होता था जैसे होली और दिवाली का. उम्र के उस पड़ाव पर बाढ़ की त्रासदी से सब बच्चे अनजान थे. दूसरी क्लास के बच्चे से उम्मीद भी क्या की जा सकती है. स्कूल काफी ऊँचाई पर था. वहाँ तक बाढ़ का पानी नहीं पहुँचता था. स्कूल के पूरब की ओर गंगा जी के कछार का विस्तार इतना फैला हुआ था कि बाढ़ आने पर समुन्दर का एहसास होता था. तब समुद्र देखा नहीं था लेकिन बाद में जब सुअवसर मिला तो भी नज़ारा कुछ अलग सा नहीं लगा. 

प्रयाग स्टेशन के पास गंगा जी के कछार में हुआ करता था, हमारा एनी बेसेंट स्कूल. चूँकि मोहल्ले से सभी बच्चे उसी स्कूल में पढ़े थे या पढ़ रहे थे, तो पेरेन्ट्स को किसी प्रकार का संशय नहीं था कि अपने होनहारों को किस स्कूल में भेजना है. रेलवे ट्रैक के बगल-बगल चलते हुये मोहल्ले के बच्चों का पूरा दल चलता था. छठवीं से लेकर आठवीं के बच्चों को बड़ा माना जाता था. और उनके पास छोटे बच्चों को हाँकने का सर्वाधिकार सुरक्षित था. इसमें कान उमेंठने से लेकर कंटाप जड़ने तक का अधिकार मिला हुआ था. फिर भी यदि कोई गियर में न आये तो घर में शिकायत करवा कर कुटवाने का विशेषाधिकार भी शामिल था. यदि ओलम्पिक में रेलवे ट्रैक पर बैलेन्स करके चलने की प्रतियोगिता हो तो कोई शक़ नहीं कि चैम्पियन हमारे एनी बेसेन्ट से निकले. बच्चे ध्यान की उच्चतम अवस्था पर होते थे जब अपर इण्डिया ट्रेन के इन्जन का ड्राइवर उसे भंग करने के लिये बार-बार सीटी बजाता. बाद में उस ट्रेन के ड्राइवर्स पहचान गये थे और बच्चों के लिये डिमांड पर सीटी बजाते. वो रेलगाड़ी का जमाना था, कोयले वाले स्टीम इंजन थे, हॉर्न पों करके नहीं कू करके बजते थे. ट्रेन चलती थी - कू उ उ उ छुक-छुक-छुक-छुक.  

एनी बेसेंट में पढ़ने के कुछ खास फ़ायदे थे. इस स्कूल की कोई बाउन्ड्री नहीं थी. जहाँ तक भाग सकते हो भाग लो. कछार और स्कूल को एक लम्बी सीधी सड़क सेपरेट करती थी. नर्सरी सेक्शन के पीछे की तरफ़ एक जंगल था. जिसमें छुपम-छुपाई जैसे खेल होते थे. बाघों का डर दिखा कर शिक्षिकायें बच्चों को उधर जाने से रोकने का असफल प्रयास भी करती थीं. खेल के चार बड़े-बड़े मैदान थे. सबका लेवल गंगा जी ने अपने कटान से बनाया हुआ था. एक बड़ी प्रार्थना सभा का ग्राउन्ड अलग था जिसमें पूरा स्कूल एक साथ प्रेयर करता था. छोटे बच्चों के लिये एक छोटा प्ले ग्राउन्ड. 15 अगस्त और 26 जनवरी पर झण्डे को सलामी दी जाती और महीने भर ड्रिल का रिहर्सल होता. दूर से आने वाले बच्चों के लिये बसों की सुविधा भी थी. बिल्डिंग इतनी बड़ी थी कि नर्सरी-केजी से लेकर आठवीं तक सभी क्लास के दो सेक्शन आराम से लग सकें। बिल्डिंगें भी दूर-दूर फैल कर बनी थीं। यदि कोई बच्चा पानी पीने के लिये निकले तो आसानी से क्लास खत्म होने तक इधर-उधर घूम सकता था. बशर्ते किसी टीचर की नज़र न पड़े. टीचर्स इतनी पर्सनल थीं कि स्कूल के अन्दर हों या बाहर, यदि स्कूल के बच्चे कुछ गलत करते मिल जायें तो यथोचित पुरस्कार या प्रवचन मिलना तय था. एक बच्चे को मुर्गा सिर्फ़ इसलिये बनाना पड़ा कि उसने पानी की टंकी पर लिखे ब्रह्म वाक्य को थोड़ा परिवर्तन कर के बोल दिया था - पानी बहाओ, पियो मत. दुर्योग से प्रिन्सिपल वहीं से गुजर रही थीं. बीच में एक लाइब्रेरी और बड़ा सा हॉल था. हॉल में महापुरुषों की फ़ोटोज़ और कोट्स लगे हुये थे. वहीं पर विवेकानन्द जी का कोट - सभी नदियाँ जिस तरह अंत में समुद्र में विलीन हो जाती हैं उसी प्रकार धर्म के अनेकानेक मार्ग ईश्वर तक पहुँचते हैं - से पहली बार सामना हुआ था. कभी-कभी उस हॉल में केन्द्रीय फ़िल्म प्रभाग द्वारा निर्मित साक्षी गोपाल और सत्यवादी हरिश्चंद जैसी शिक्षाप्रद फ़िल्में दिखायी जाती थीं. आज के युग में संस्कार छोड़ते-छोड़ते भी जो थोड़ी बहुत संस्कार नाम की चीज़ बची रह गयी है, उसमें स्कूल का बहुत बड़ा दोष है. वरना हम भी देशभक्ति और ईमानदारी जैसी बिमारियों से बच जाते. और लम्पट कॉन्फिडेंस लिये देश के अथाह स्रोतों के दोहन में लिप्त होने पर गर्व अनुभव करते. उस समय इलाहाबाद के कम स्कूलों में ही को-एड सिस्टम था. इसका और कोई फ़ायदा हो या न हो, लेकिन बच्चों में  बेसिक तमीज़ जरूर आ जाती थी. एनी बेसेन्ट में पढने का एक लाभ ये भी था कि हिन्दी मीडियम स्कूल में पढ़ने पर भी इन्ग्लिश मीडियम स्कूल वाली फ़ीलिंग आती थी. 

बात बाढ़ से शुरू हुयी थी. तब कछार, कछार हुआ करता था. सिर्फ़ मैदान और मैदान के अलावा कुछ नहीं. धीरे-धीरे शहर फैलता गया. जमीनें सिकुड़ती गयीं. जमीन की कमी के कारण लोगों ने कछार में भी प्लाटिंग कर डाली. अब कछार दो-तीन मन्जिल के मकानों से भर गया है. दूसरी मन्जिल इसलिये जरुरी है कि बाढ़ तो आनी ही है हर साल. तो ख़ास दिक्क़त न हो. साल के कुछ हफ़्तों की ही तो बात होती है. भला हो ग्लोबल वार्मिंग का अब पानी कम बरसता है तो बाढ़ भी कम ही दिन रहती है. ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब कछार में बड़े-बड़े बिल्डर्स बहुमन्जिला इमारतें बनायेंगे. 

स्कूल छूटा फिर शहर भी छूट गया लेकिन गंगा जी से नाता बना रहा. जब तक लुधियाना रहा तब तक यही डर सताता रहा कि कहीं गलती से निपट गया तो गंगा किनारे वाले को बुड्ढे नाले के किनारे निपटाया जायेगा. उपर वाले की दया से नीचे वालों ने सुनी और वापस गंगा जी के पास आ आया. अब कानपुर में रह रहा हूँ. जहाँ के लिये कहावत भी है कि कानपुर में कान भी बचा के रखना पड़ता है. बहुत स्मार्ट लोग हैं, कान काट लेते हैं. मेरी मज़बूरी है कि मै चश्मा लगाता हूँ जिसके लिये कान का होना बहुत आवश्यक है. 

इस बार बरसात ने यूपी में धोखा दे रखा है. जुलाई खत्म होने को आयी और इन्द्र देव का दिल पसीज ही नहीं रहा है. लोग पानी के इन्तजार में त्राहिमाम-त्राहिमाम बस इसलिये कर रह हैं कि पूरे शहर की बिजली की खपत बढ़ गयी है और विद्युत् विभाग उतनी आपूर्ति नहीं कर पा रहा है. इन्वर्टर पंखे तो चला सकता है, लेकिन डेढ़ टन का एसी नहीं. शहर वालों को कौन सी खेती करनी है. अगर बिजली आती रहे और एसी चलता रहे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है. बारिश हो या न हो. बस खेत-किसान की फ़िक्र और ज़िक्र कर लेते हैं. उनके लिये तो बारिश मतलब गरमागरम चाय के साथ पकौड़ों का आनन्द. माहौल में थोड़ी रूमानियत आ जाये. इससे ज़्यादा कुछ नहीं. पानी ढंग से बरस जाये तो घर के आँगन को भी बारिश से बचा के रखने वाली इस शहरी जनता को दिक्कत होने लगती है. लेकिन बारिश तो दूर बादल भी नज़र नहीं आ रहे. पूरे सीजन में बस दो-चार दिन ही बादलों ने अपना असली रूप दिखाया है. शहर की प्लान्ड कॉलोनीज़ का ये हाल है कि लोग त्राहि-त्राहि करने लगे. जिस बाढ़ को देखने हमें कछार तक जाना पड़ता था, वो घर तक आ गयी है. 

कारण वही है, जहाँ ज़्यादा समझदार लोग होते हैं, वहाँ त्याग बेवकूफ़ ही करेंगे. कॉलोनी पढ़े-लिखे नौकरी-पेशा लोगों की न होती तो कोई आसानी से कह सकता था कि अनपढ़ लोग हैं. प्लाट के एक-एक इन्च पर निर्माण करने के बाद पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति प्रेम के जज्बे के चलते सबने फुटपाथ पर कब्ज़ा कर रखा है. सड़क का पानी नाली-नाले तक पहुँचे भी तो कैसे. नालियाँ जो बरसाती पानी को नालों तक ले जाने के लिये बनायीं गयीं थीं, बन्द पड़ीं हैं. बड़े नालों को घरों के सामने या तो पाट दिया गया है या उनका सदुपयोग घरों के कचरे को फेंकने में किया जाता है. कूड़े वाला आया घर से कचरा निकाल - का सुगम संगीत फुल वॉल्यूम पर सुबह-सुबह चालू हो जाता है. वॉल्यूम इतना तेज कि कोई ये नहीं कह सकता कि वो कान में रुई डाल के सो रहा था. लेकिन क्या मजाल कि हर घर इस स्मार्ट सिटी मिशन की मुहिम में शामिल होने को तैयार हो. नगर निगम के अथक प्रयासों के बाद भी हर दो सौ मीटर पर एक कूड़े का अम्बार लगा दिख जायेगा. डेमोक्रेसी का मखौल उड़ाने वाले सब कुछ सरकार पर थोप कर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ने में लग जाते हैं. गुटका चबा कर दिन में तीन लीटर पीक उगलने वाले इसी में खुश हैं कि सफ़ाई अभियान फेल हो गया.

अभी चार दिन की बारिश में ही सारी कॉलोनी न सिर्फ़ धुल गयी बल्कि भर भी गयी. घरों के सामने ढाल भी लोगों ने सड़क की ओर झेल दिये हैं ताकि उनकी दीवार सुरक्षित रहे. ये बात अलग है कि डामर वाली सडकें पानी का भराव नहीं झेल पातीं और जल्द ही रोड़ी-गिट्टी सब बाहर आ जाती है. फिर यही लोग सरकार और इंजीनियर्स को कोसते हैं, बहुत भ्रष्टाचार है. इनकी  उम्मीद होती है कि एक बार सी-सी रोड बन जाये तो हमेशा के लिये दिक्कत खत्म हो जाये. बरसाती पानी भर भी जाये तो गंगा जी सा आनन्द मिले, अभी उबड़-खाबड़ सड़क पर जल भराव का आनन्द लेने में पैर में मोच आने की सम्भावना ज़्यादा है. छई-छप्पा-छई वाले हालातों में लोग प्रसन्न हैं गंगा जी घर तक आ गयीं. बच्चों को घर बैठे कागज़ की कश्ती चलाने का सुअवसर मिल गया. लेकिन मोबाइल और कम्प्यूटर में घुसे बच्चों को कागज़ की नाव उत्साहित नहीं करती. कभी बाढ़ देखने जाना पड़ता था, अब घर के सामने ही पानी भर जाता है. इसमें भला कौन सी परेशानी है. लोग निश्चिन्त भाव से कहते हैं कि पानी अब पहले सा कहाँ बरसता. बस दो-चार दिन की दिक्क़त है, फिर तो सड़क सूखी ही मिलती है. शहर में हर नयी सड़क के साथ नालों का एक जाल तैयार होता जा रहा है, जो बहते नहीं, रुके-रुके से रहते हैं. बरसात से पहले उनकी सफ़ाई के बिल हर साल बदस्तूर पास हो जाते हैं. 

अपने घर को हरा-भरा रखने के लिये अपनी बाउन्ड्री के अन्दर कुछ पौधे-गमले लगा रखे हैं. फुटपाथ घेरने का कोई इरादा भी नहीं है. सड़क का ढाल नाली की ओर ही रहने दिया है. पडोसी अक्सर कहते रहते हैं कि आप भी पर्यावरण संरक्षण में योगदान दीजिये. अपना फुटपाथ घेरिये. पूरी गली में बस एक ही घर के आगे फुटपाथ बचा हुआ है. सामने पानी कम भरता है. सड़क भी कुछ कम टूटी है. पड़ोसियों के यहाँ कोई गेस्ट आता है तो उसे गाड़ी पार्क करने की जगह भी वहीं दिखती है. मोहल्ले में किसी ने नालियों को अहमियत नहीं दी, इसलिये आदर्शवादी वर्मा जी को घर बैठे गंगा मैया की बाढ़ का आनन्द मिल जाता है. वैसे भी बड़े-बुजुर्ग फरमा गये हैं - समझदार की मौत है. टूटी सड़क, जल भराव और गंदगी को झेलने को वर्मा जी इसलिये विवश हैं कि शहर स्मार्ट हो गया है और वो अपने बचे-खुचे एनी बेसेंटिया संस्कारों को छोड़ भी नहीं पा रहे हैं. 

गुलज़ार साहब से माफ़ी सहित ये पंक्तियाँ अर्ज़ कर रहा हूँ-

इन उम्र से लम्बे नालों को,  बहते तो कभी देखा नहीं 
बस बजबजाते रहते हैं, पर इनको सरकते देखा नहीं 
स्मार्ट लोगों के शहर में, स्मार्ट सिटी को ढूँढता है, ढूँढता है, ढूँढता है... 
   


- वाणभट्ट     

  

रविवार, 17 जुलाई 2022

फुग्गा

गुब्बारे लो गुब्बारे...रंग बिरंगे प्यारे प्यारे...बचपन में ये या इससे मिलती जुलती कविता हम सबने पढ़ी-सुनी होगी. इनके ना-ना प्रकार के रंग बाल मन को आकृष्ट करते हैं. शायद ही कोई बच्चा इसकी चपेट में न आया हो. शायद ही कोई बचपन हो जो इसके लिये न मचला हो. गैस वाले गुब्बारों की तो बात ही अलग थी. इनके गुच्छे बना स्कूलों के विशिष्ट आयोजनों पर उड़ाये जाते थे. हर बच्चे ने इनके माध्यम से आकाश में कल्पना की उड़ान अवश्य भरी होगी. बर्थडेज़ में घरों को गुब्बारे से सजाया जाता रहा है. और फुलाने से ज़्यादा मज़ा बच्चों को उन्हें फोड़ने में आता है. पार्टी में केक कटने का सब्र से इन्तज़ार बच्चे इसीलिये कर पाते कि उसके बाद गुब्बारे फोड़ने को मिलेंगे. गुब्बारे फोड़ने में उन्हें बम फोड़ने जैसी फ़ीलिंग ज़रूर आती होगी. हम लोग तो उस जमाने के हैं, जब गुब्बारे के फटने के बाद भी उसकी मकोइया बना कर दूसरों के सर पर फोड़ी जाती थी.  

पता नहीं क्यों फूला हुआ गुब्बारा बचपन से ही फोड़े जाने के लिये लालायित करता रहा है. आजकल वाट्सएप्प पर एक स्टोरी बहुत प्रचारित हो रही है. बॉस ने अपने सभी मातहतों को बुलाया और सबको एक-एक गुब्बारा दिया. सबको उसने उसे फुलाने के लिये कहा. उसने कहा जिसका गुब्बारा देर तक फूला रहेगा उसे एक इन्क्रीमेंट मिलेगा. शर्त ये थी कि कोई कमरे से बाहर नहीं जायेगा. लेकिन कहानी में ट्विस्ट डालने के लिये उसने सबके हाथ एक - एक ऑलपिन भी पकड़ा दी. फिर क्या था. सभी सहकर्मी अपना गुब्बारा बचाने और दूसरे के गुब्बारे फोड़ने जुगत में जुट गये. जिसका गुब्बारा पहले फूट गया वो दूसरों के गुब्बारे फुड़वाने में लग गया. आपका अनुमान सही है. दो मिनट के अन्दर ही सारे गुब्बारे फूट चुके थे. बॉस मुस्कुरा रहा था. उसने डिक्लेयर किया कि यदि सब अपना-अपना गुब्बारा पकड़े खड़े रहते तो सभी को इन्क्रीमेंट मिलता. लेकिन जहाँ प्रतिस्पर्धा की भावना इतनी गहरी हो कि हमें अपने ही साथियों से आगे निकलना हो, तो जो हुआ वो अवश्यम्भावी था. और ये कहानी हर वाट्सएप्प उपयोगकर्ता तक जरूर पहुँची होगी. लेकिन क्या मजाल कि वाट्सएप्प पर दिन-रात बहने वाली ज्ञान गंगा का असर किसी पर पड़ता. इस कहानी का हश्र भी वही होना था जो बाकियों का होता है. एक कहानी बन के ही रह जाना. जो सुनने और सुनाने में अच्छी लगे, बस इतना ही. 

उम्र बढ़ने के बाद आदमी का गुब्बारों की तरफ़ का मोह खत्म सा हो जाता है. लेकिन गुब्बारा उसे कहाँ छोड़ने वाला. वो किसी न किसी रूप में उसने ऊपर आवरण की तरह चिपक जाता है. किसी पर कुर्सी के रूप में, किसी पर पैसे के रूप में, किसी पर ताकत के रूप में. अब इन गुब्बारों के बचपन के गुब्बारों की तरह नीले-पीले रंग तो नहीं होते. एक आवरण की तरह रंगहीन-गन्धहीन-पारदर्शी मुलम्मा चढ़ जाता है. और व्यक्ति अपने द्वारा सृजित इस गुब्बारे में रोज थोड़ी-थोड़ी हवा भरता रहता है. सहअस्तित्व में विश्वास न करने वाले असामाजिक टाइप के तत्वों को लगता है, मेरा गुब्बारा दूसरों से बड़ा होना चाहिये. इसलिये उसका भरसक प्रयास होता है कि या तो वो अपने गुब्बारे में और हवा भर ले या दूसरे के गुब्बारे में पिन चुभाता घुमे. सब के सब अपना-अपना अदृश्य गुब्बारा लिये घूम रहे हैं. बड़े गुब्बारे वाले अपने गुब्बारे से सन्तुष्ट नहीं हैं. या तो उनकी नज़र अपने से बड़े गुब्बारे पर है या वो अपने से छोटे गुब्बारे वाले पर हावी होने में लगे हैं. और छोटे गुब्बारे वाले भी मौके की तलाश में रहते हैं. जरा मौका मिला नहीं कि पिन छुआ देते हैं. यदि कुछ न कर पायें तो भी बड़े गुब्बारे के स्वतः फूटने की कामना करना कोई गुनाह तो नहीं. कुछ का जीवन इसी इंतज़ार में व्यतीत हो जाता है. समय के साथ सब गुब्बारों की हवा निकलती है. मनुष्य बली नहीं होत है, समय होत बलवान. लेकिन ये बात समय रहते समझ आ जाये तो सारे गुब्बारे एक साथ उड़ने लगते. देश और समाज नित नयी ऊँचाइयों को छूता नज़र आता. जब बात मेरा गुब्बारा तुम्हारे गुब्बारे से छोटा कैसे, तो सारा ज्ञान गया तेल लेने. पहले तुम्हारा गुब्बारा निपटा लें फिर अगले गुब्बारे को देखेंगे. 

यदि आप गौर कर सकें तो देखेंगे हर आदमी एक गुब्बारे की तरह है. किसी का गुब्बारा औकात से ज़्यादा फूला हुआ है तो किसी का चुचका हुआ. जिन्होंने अपने गुब्बारे में कम हवा भर रखी है उन्हें छोटी-मोटी पिन की चुभन से फ़र्क नहीं पड़ता. जिनके गुब्बारे में हवा ज़्यादा है, वो थोड़ा ऊपर उड़ना पसन्द करते हैं. लेकिन जरा भी पिन छू गयी तो उन्हें फटने में देर नहीं लगती. पद और पैकेज आसानी से हासिल हो जाता तो हर किसी को गुरुर करने का हक़ मिल जाता. रगड़-घिस के जब इतने ऊपर आये हैं तो एक रुतबा और रुआब तो होना ही चाहिये, जिसे सब सलाम करें. इस रुतबे और रुआब को जेहन और चेहरे पर चढ़ाने के लिये भी कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते. सुबह जगने से लेकर रात में सोने तक हर पल इसे जपना पड़ता है तब जाके वो बॉडी लैंग्वेज बनती है कि आदमी आम नहीं अमरूद है. 

ख़ुदा उन्हें नीली बत्ती का शौक़ अता फ़रमाये जिन्हें इनकी ख़्वाहिश हो. जिनकी ये ख़्वाहिश पूरी नहीं होती उनकी आत्मायें शरीर में रहते हुये भी मरी-मरी सी रहती हैं. साहब को नीली बत्ती तो नहीं मिली लेकिन जिस गुलिस्तां की हर शाख पर किसी न किसी ने डेरा डाल रखा हो, वहाँ एक ऊँची शाख उनके कब्ज़े में आ ही गयी. अब वो अपने मातहतों के लिये तो साहब बन ही चुके थे. लेकिन इस लम्हे को हर पल जीना पड़ता है. सो बीवी भी नौकरों के आगे उन्हें साहब कह कर ही सम्बोधित करती थी. सभी को हिदायत थी कि घर में भी साहब से तमीज़ से पेश आयें. घर और ऑफिस फ़तह करने के बाद साहब को लगता था कि बाहर वाले भी उनको हल्के में न लें. सरकार में उच्च पदों पर आसीन लोगों को इसीलिये लाल - नीली बत्तियों से नवाज़ा जाता है कि जनता को कन्फ्यूजन न रहे कि किन से उलझना नहीं है. कई विभागों को तो युनिफॉर्म भी दे दी गयी है ताकि किसी को रास्ता बदलना हो तो बदल ले, बाद में ये न कहे कि वसूली हो गयी. 

अमरुद महात्माओं के पास अपने महात्म्य का गुब्बारा बाहर के लोगों को दिखाने का एक मात्र माध्यम है, उनकी कार. किसका गुब्बारा कितना बड़ा है ये जानने के लिये कोई विशेष मेहनत नहीं करनी है. आपने गौर किया होगा कि इधर बड़ी गाड़ियों की बिक्री की होड़ मची हुयी है. सोसायटी की पार्किंग में जाइये जिसका गुब्बारा जितना बड़ा होगा, उतनी बड़ी गाड़ी का वो मालिक होगा. जैसा की पहले भी बताया जा चुका है पद और पैसा कुछ भी आपके गुब्बारे के साइज़ को बदल सकता है. पद तो फिर भी समझ आता है कि बन्दे ने मेहनत से हासिल किया है. लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त समाज में इमानदारी से पैसा बना लेना असम्भव भले न हो लेकिन कठिन तो अवश्य है. जिनके पास पद या पैसा न भी हो तो उनके गुब्बारे के अरमान तो कम नहीं हो जाते. वर्मा जी कबाड़ी मार्केट से बीएमडब्लू का लोगो इसीलिये उठा लाये कि मारुती 800 चलाने में उन्हें अपना गुब्बारा छोटा दिखायी देता था. ये बात सिर्फ़ व्यक्ति जनता है कि उसका गुब्बारा कितना बड़ा या छोटा है. लेकिन वो उसे बड़ा बना कर प्रोजेक्ट करता है ताकि लोगों में भौकाल बना रहे. इसी का नाम सेल्फकॉनफिड़ेंस है. ये जो अपनी पर्सनल गाड़ियों पर लोग भारत सरकार, प्रदेश सरकार, मंत्रालय, पुलिस लिखाये घूम रहे हैं दरअसल उनके गुब्बारे का द्योतक है. हर ऐसी गाड़ी वाले को टोल प्लाजा पर उलझते देखा जा सकता है. यही लोग हर प्लाजा पर झक-झक करते नज़र आ जायेंगे. भौकाल चल गया तो ठीक. नहीं चला तो कौन सा ऑफिस वाले या पडोसी साथ हैं.

ऐसे ही एक माननीय अपनी पर्सनल कार पर प्रदेश सरकार जिला प्रमुख लिखाये घूम रहे थे. हाइवे की टोलप्लाजा में अपनी हेकड़ी पर आ गये. अपना आई कार्ड उन्होंने उसके सामने रख दिया. प्लाजा कर्मचारी ने विनम्रता से कहा - सर ये आपकी ऑफिशियल गाड़ी होती तो मान भी लेता, प्राइवेट गाड़ी पर तो टोल लगेगा. प्लाजा का नुमाइन्दा उनकी पर्सनालिटी से इम्प्रेस होने को राजी नहीं था. उनका गुब्बारा इस बात पर सिकुड़ गया होता, यदि साथ में मोहल्ले का ड्राइवर न होता. उन्होंने बन्दे की बात को दिल पर ले लिया. बोले - चार टोल पर बिना पेमेन्ट किये आ रहा हूँ, तेरा टोल क्या स्पेशल है. भौकाल दिखाने के लिये वो हत्थे से उखड़ चुके थे. कर्मचारी ने देखा कि अब बात उसके उपर आ रही है तो उसने अपने आर्मी से रिटायर्ड सुपरवाईज़र को बुलाना उचित समझा. सुपरवाईजर ने पूरी इज्ज़त और विनम्रता के साथ उनके नाम-पते-पद की पूरी जानकारी माँगी. लेकिन जैसे ही उसने प्राइवेट गाड़ी पर टोल देने की बात कही तो साहब अपने पुराने रौब में आ गये. फिर जो हुआ, उसका सपना भी साहब ने न देखा होगा. मातहतों पर रौब गांठते-गांठते वो भूल गये थे कि सेर को सवा सेर भी मिलता है. सुपरवाईज़र ने उनके गुब्बारे को मकोई बनाने लायक भी नहीं छोड़ा. साहब को टोल देना पड़ा और प्लाजा के सहकर्मी ने पूरे एपिसोड की रिकोर्डिंग भी कर डाली. दूसरे के गुब्बारे को फटते देखने में लोगों का कितना इंटरेस्ट होता है, ये इस बात से पता लगता है कि पूरा प्रकरण वाट्सएप्प के माध्यम से पूरी दुनिया घूमते-घामते साहब के पास-पड़ोस-मातहतों के मोबाइल तक भी पहुँच गया. लेकिन किसी ने साहब को भनक भी न लगने दी. घर-दफ़्तर में उनका भौकाल उसी तरह कायम रहा. जब वो सोने जाते थे, तो काफी देर तक सुपरवाईज़र का चेहरा उन्हें सोने नहीं देता था. कभी-कभी तो वो नींद में चौंक के जाग जाते थे. हफ्ते भर के लिये चेहरे का रुआब और रौनक दोनों विलुप्त हो गये थे. चुचका हुआ गुब्बारा मातहतों को आन्तरिक आनन्द देता. उन्हें लगता कि टोल सुपरवाईज़र ने उनका बदला ले लिया.

लेकिन थेंथरयी भी कोई चीज़ होती है. साहब रोज अपने कॉनफिड़ेंस को समझाते - ख़ुदी को कर बुलंद इतना. बच्चन की 'नीड़ का निर्माण फिर से' से प्रेरणा ले कर नये गुब्बारे के निर्माण में लग गये. नये गुब्बारे में हवा भरने में ज़्यादा समय नहीं लगता.  

उनकी अनुपस्थिति में उनके मातहत अब उन्हें फुग्गा कह कर आनन्दित हो लेते. 

-वाणभट्ट           

रविवार, 10 जुलाई 2022

डिजिटल इण्डिया

आजकल उसके दिमाग में हर वक्त गिनतियाँ बजती रहती. एक दौर वो भी था जब संगीत बजा करता था. हर सिचुएशन और हर मौके के लिये गीत. जैसे फिल्मों में बैक ग्राउंड म्यूसिक. ये चेंज एकाएक तो नहीं हुआ था.

एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ:-सात-आठ-नौ-दस. दस सीधी चढने के बाद चौपड़ा आ जाता है. फिर दस सीढियाँ और पहला फ्लोर. सातवें माले के अपने अपार्टमेंट तक सापेक्ष हमेशा सीढियों से ही चढना पसन्द करता था. आज की युवा पीढ़ी हेल्थ को लेकर इतनी सम्वेदनशील है कि तेल-नमक-घी-चीनी से परहेज करने में उसे कोई गुरेज नहीं है. नौकरी लगने के बाद वो थोडा लापरवाह हुआ ही था कि वेस्ट लाइन ने चुनौती पेश कर दी. इसलिये दिन में जब भी मौका मिलता वो चलने लगता. फोन आते ही, वो रोमिंग हो जाता. समय और स्टेप्स पर चाहे-अनचाहे उसका ध्यान चला ही जाता था. चलते-चलते कदम गिनना उसकी आदत में ये रच-बस सा गया था. पहले वो चलता था, तो चलता था. बीच में एक-आध बार घड़ी देख लेना ही काफी था. अब तो फ़िटनेस बैण्ड हाथ से हर समय चिपका रहता है. कितने स्टेप चले, कितनी देर बैठे और हेल्थ पैरामीटर्स कहाँ जा रहे हैं, ये पता रखना नितांत आवश्यक सा हो गया है. ये बीमारी सिर्फ़ सापेक्ष तक सीमित नहीं है. आज का हर युवा और अधेड़ इस टेक्नॉलोजी से प्रभावित है. 

सन चौरासी में जब कम्प्यूटर के आवक की आहट हुयी थी, देश घबरा सा गया था. कैसे सीखेंगे नयी तकनीक है. दस लोगों का काम अकेले कम्प्यूटर कर लेगा, तो रोजगार का क्या होगा. कम्प्यूटर आया भी और छाया भी. अब उसके बिना जीवन असम्भव सा लगता है. अच्छे से याद है जब सदी बदलने वाली थी. डर था कि सारे कम्प्यूटर काम करना न बन्द कर दें क्योंकि उसके पहले डेट लिखने की प्रथा में वर्ष के लिये आखिरी के दो अंक प्रयोग होते थे. नहीं तो सन उन्नीस सौ चौरासी लिखा होता. बहरहाल सॉफ्टवेयर कम्पनीज़ ने बहुत से अपडेट पैचेज़ बनाये. सन 1999 और 2000 के बीच की रात दिल बस इसीलिये धड़कता रहा कि कल कम्प्यूटर चलेगा भी या नहीं. उसी के बाद से सभी कम्प्यूटर प्रोग्राम्स में वर्ष के लिये चार डिजिट्स का प्रयोग आरम्भ हो गया.

सुनते आ रहे थे कि समय की रफ़्तार बहुत तेज़ है. समय ऐसे भागता है कि आदमी को पता ही नहीं चलता कि कब बचपन ख़त्म और कब बुढ़ापा शुरू. लेकिन सन 2000 के बाद टेक्नोलॉजी ने जो स्वरूप बदला तो आदमी की सारी उर्जा टेक्नोलॉजी से सामंजस्य बिठाने में ही बीती जा रही है. सबसे बड़ी क्रांति तो संचार और सूचना के क्षेत्र में आयी. कभी मोहल्ले में एक फोन हुआ करता था, नब्बे के दशक आते-आते हर घर में फोन था. पीसीओ बूथ पर एसटीडी और आईएसडी कॉल्स के लिये लाइनें लग जाती थीं. लैंड लाइन फोन्स एनलॉग से डिजिटल हुये ही थे कि मोबाइल फोन ने दस्तक दे दी. 

मोबाइल फोन आया तो साइज़ जैसे वाकी-टॉकी. बात करने के ही नहीं, सुनने के भी पैसे लगते. टेक्नोलॉजी सीडीएमए-2जी-3जी-4जी बदलती गयी तो हैंडसेट भी उतनी ही तेजी से अपग्रेड होते गये. फीचर्स से लैस फोन्स इतने स्मार्ट हो गये कि इन्सान बेवकूफ़ लगने लगा. ज़माने के साथ उपडेट होने की जितनी कोशिश करते हैं टेक्नोलॉजी उससे कहीं ज़्यादा तेजी से बदल रही है. लोग फोन सिर्फ़ इसलिये बदल रहे हैं कि नया मॉडल पुराने से ज़्यादा एफिशिएंट है. मँहगे-मँहगे फोन्स सिर्फ़ इसलिये डिब्बा हुये जा रहे हैं कि कंपनी ने नया मॉडल लौंच कर दिया है. उस एडवांस तकनीक का उपयोग वो कहाँ करेगा, ये उपयोगकर्ता के विवेक पर निर्भर करता है. ऑनलाइन शिक्षा की दिशा में भी स्मार्ट फोन का अमूल्य योगदान है. दूर-दराज़ गाँवों में बैठे बच्चों को भी उच्च शिक्षा उपलब्ध है. पुरानी पीढ़ी स्मार्ट फोन्स की चाहे कितनी भी बुराई करे लेकिन कुल मिला कर इसके फ़ायदे ज़्यादा और नुकसान कम हैं. वैसे भी पुरानी पीढ़ी तकनीक से ज़्यादा तजुर्बे पर विश्वास करती है और नयी पीढ़ी रोज नये तजुर्बे करने को तैयार रहती है.

डिजिटल इंडिया की नींव कब और कैसे पड़ गयी, हवा तक नहीं लगी. एक परिवार में चार मोबाइल फोन होंगे तो चार नम्बर दस संख्या वाले तो याद करने पड़ सकते हैं. फिर उतने ही सेविंग अकाउंट, उतने ही डेबिट और क्रेडिट कार्ड, उतने ही पिन. हर व्यक्ति के दो-दो ईमेल, हर ईमेल के पासवर्ड. कॉलेज आईडी, ऑफिस आईडी, वाहन रजिस्ट्रेशन, पॉल्यूशन व पॉलिसी, हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, बिजली, फोन का बिल ऐसी न जाने कितनी ही सूचनायें आपको कंठस्थ होने की उम्मीद लाज़मी है. यदि आप आयकर दाता हो तो पैन नम्बर के बिना आपकी गाड़ी कहीं भी फँस सकती है. जीएसटी वालों को कुछ और पासवर्ड रटने पड़ते होंगे. बची खुची जो कसर थी वो आधार नम्बर ने पूरी कर दी. डिजिटल ट्रांजेक्शंस के आने के बाद से कोई माने या न माने डिजिटल इंडिया ने हर व्यक्ति तक अपनी पहुँच बना ली है. आपकी कमाई और खर्च दोनों का पूरा ब्यौरा सरकार के पास अपने आप पहुँच जाता है. कोई भी अगर कैश की बात करता है तो सीधा सन्देह दो नम्बर की ब्लैक मनी का होता है.

वैसे तो डिजिटल इण्डिया कॉन्सेप्ट का मुख्य उद्देश्य तो वित्तीय लेन - देन में पारदर्शिता लाने का था. लेकिन इतने डिजिट और इतने ओटीपी और इतने पासवर्ड्स हर समय दिमाग में चलते रहते हैं कि दिमागी गड़बड़ी के हालात बनते जा रहे हैं. कोई न कोई गिनती या पासवर्ड या ओटीपी हर समय दिमाग में घूमता नज़र आता है. जिस देश में अधिकांश छात्र गणित से बचने के लिये उच्च शिक्षा में मैथ्स छोड़ कर अन्य विषय का चयन करते हों, उनके लिये डिजिट फ्रेंडली बनने-बनाने की क़वायद एक दुस्वप्न से कम नहीं है. कोई भी सामान लेने जाइये तो जैसे ही आप कार्ड या यूपीआई से पेमेंट करने की सोचते हैं, दुकानदार के चेहरे पर शिकन का आ जाना स्वाभाविक है. बड़े से बड़े शो रूम वाले भी दो हज़ार से उपर की राशि लेने के लिये आना-कानी करनी शुरू कर देते हैं. कारण यदि आय सरकार को मालूम होगी तो टैक्स भी तो देना पड़ेगा. सारे बिजनेस तो व्यक्तिगत पूँजी से व्यक्तिगत तौर पर खड़े किये गये हैं, उसमें सरकार को टैक्स देने का क्या औचित्य है. सरकार के विचार डिजिटल इंडिया को लेकर जिनते मुखर और प्रबल हैं, जनता और व्यापारी उतना ही कतरा रहा है. कारण टैक्स अपवंचना से बचने के प्रयास से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.  

एक सौ चालीस सीढियाँ चढ़ कर सापेक्ष ने अपने फ्लैट की घण्टी को दो बार बजाया. ये उसकी सिग्नेचर स्टाइल थी. एज़ युज़ुअल दरवाज़ा समता ने ही खोला. चाय के साथ ही उसने शाम का अपना पसंदीदा डिबेट चैनल लगा दिया. तीतर-बटेर की लड़ाइयाँ तो अब प्रचलन से बाहर हैं. इसलिये विभिन्न चैनल्स शाम के पीक आवर्स में विभिन्न पार्टी प्रवक्ताओं की वाकपटुता की प्रतियोगिता कराते हैं. ऐसा लगता है सब एक-दूसरे की जान के दुश्मन हो गये हों. न कोई जीतता है न कोई हारता है. सब विजयी भाव से विदा होते हैं. एंकर अपनी टीआरपी के लिये विक्षिप्त हुआ जाता है. लेकिन डिबेट के बाद के सांप्रदायिक समरसता की फोटो प्रसारित नहीं होती, जब दोनों पक्ष साथ-साथ चाय-कॉफ़ी लड़ा रहे होते हैं. समता को यही बात बुरी लगती कि सब काम धाम छोड़ कर सापेक्ष इस दंगल में जुट जाता है. वो उसके लिये कोई न कोई काम खोज लाती ताकि घर में टीवी का पॉल्यूशन कुछ कम हो सके. 

समता ने कहा - "घर में कैश खत्म है. दूध वाले, सब्जी वाले, फल वाले, वैन वाले, प्रेस वाले का हिसाब करना है. आपको बोलना भूल गयी नहीं तो लौटते हुये आप लेते आते". न्यूक्लियर फ़ैमिली में पतिदेवों की पत्नियों को ना कहने की आदत का विकास नहीं हो पाता. उसने जोड़ा 140 सीढियाँ और 537 कदम बस, एटीएम सामने होगा. लेकिन अभी ही तो वो इतनी सीधी चढ़ के आया है, अभी तो डिबेट का माहौल सेट हुआ है. समता में दया नाम की कोई चीज़ है कि नहीं. समता से बोला - "अरे यार उनके फोन नम्बर्स दे दो फोनपे से भेज दूँगा". समता बोली - "उन्हें तो कैश ही चाहिये. वो चाहते हैं कि साहब लोग उनके लिये एटीएम में लाइन लगायें और उन्हें कर्रे-कर्रे नोट ला कर दें". "तो भूल जाओ, उन्हें दो-चार दिन इंतज़ार करने दो. उनको बोलो कि साहब सिर्फ़ फोनपे से ही पेमेंट करते हैं सब अपना-अपना यूपीआई एकाउन्ट बना लो". जबकि उसे ख़ुद मालूम था कि यूपीआई के साथ पिन, नेटवर्क और इन्टरनेट स्पीड का मामला अक्सर पेचीदा हो जाता है. कई बार पैसा निकलता नहीं, कई बार दो-दो पेमेंट हो जाते हैं. दूध और सब्जी वालों की भी अपनी मज़बूरी होती है. उनके धंधे अमूमन कैश पर ही चलते हैं. उसने समता को विश्वास दिलाया कि कल वो ज़रूर लेता आयेगा, अभी डिबेट का आनन्द लेने दो.

आज फिर वो ऑफिस के लिये लेट हो गया था. हड़बड़ी में घर से निकला. सोसायटी के मुख्य गेट पर कुछ जाम की सी स्थिति बन गयी थी. उसे गुस्सा आया, अपने उपर और दूसरों पर भी कि सब लोग टाइम से क्यों नहीं निकल सकते. शहर के जाम में, सद्यपरचेज्ड एसयूवी लेकर बिना खरोंच ऑफिस तक पहुँचना भी एक प्रोजेक्ट से कम नहीं है. सुबह-सुबह समय की रफ़्तार और बढ़ जाती है. ऑफिस की पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके वो मुख्य बिल्डिंग के उस पोर्टिको की ओर बढ़ गया जहाँ बायोमैट्रिक मशीन लगी थी. कदमों की गिनती के साथ ही अनायास उसके दिमाग में आधार की संख्यायें घूमने लगीं. चार-पाँच लोग यहाँ भी लाइन लगाये खड़े थे. आज तो इन्ट्री लेट होने वाली थी. आख़िर उसका नम्बर आ गया.  उसने जैसे ही बायोमेट्रिक मशीन में अपना आधार अंकित करना शुरू किया था, बगल से गुजर रहे एक कलीग ने गुड मॉर्निंग सर ठोंक दिया. उसने मुस्कराते हुये गुड मॉर्निंग का जवाब तो दे दिया लेकिन ये क्या. दिमाग से आधार नम्बर उडन छू हो गया था. बहुत जोर डाला - अपना मोबाइल नम्बर, बैन्क का एकाउन्ट नम्बर, एटीएम का पिन, समता का मोबाइल, यूपीआई का पासवर्ड सब याद आ गया लेकिन आधार नहीं. तभी उसे याद आया कि ऐसी ही इमरजेंसी के लिये मोबाइल पर एक नम्बर उसने आधार के नाम पर भी सेव कर रखा है. अपने उपर मुस्कराने के अलावा उसके पास कोई चारा न था.


- वाणभट्ट 

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

बैण्ड मास्टर

बारात निकलने में अभी समय था। गर्मी और उमस इतनी की पानी से नहाने के तुरन्त बाद आदमी पसीने से नहा जाये। अगल-बगल डिओ से तर करके उसे कुछ महकने का एहसास हुआ। बाकी शरीर पर ठंडा-ठंडा कूल-कूल टेलकम पाउडर भभूत की तरह मल लिया। उसे लगा कि शरीर के सारे पोर उसने सील कर दिये। अब देखें पसीना कहाँ से निकलता है।

शो बिजनेस वाला उसका काम था। इस तरह के हाई-एनर्जी वाले कामों में दारू-गुटका कब अत्यावश्यक सामग्री बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता। ये बात अलग है कि ऐसी आदतें शरीर को अन्दर से खोखला भी कर देती हैं। आदमी ने कपड़ों को शायद इसीलिये ईज़ाद किया होगा कि शरीर मेन्टेन करने से कपड़े मेन्टेन करना ज्यादा आसान होगा। और संज्ञा भी दी तो परिधान की। शरीर चाहे कितना भी बेडौल हो जाये ये परिधान सब कमियों को छिपा कर परी जैसी फिलिंग देता है। प्रेस कर लो, कलफ़ कर लो। कमर कमरा बन जाये तो फेंटा ढीला कर लो। बड़ी सुविधायें हैं, तोंद कम करने के अलावा। अपनी आदतों के कारण आदमी अन्दर से कितना ही खोखला हो गया हो लेकिन जब ड्राइक्लीन किया हुआ सूट पहनता है तो जेहन में लाट साहबी सवार हो जाती है। हंस बने कौवे की चाल-ढाल दोनों बदल जाती है। 

टाइट फिट ब्लैक सूट और वाइट शर्ट उसकी पसंदीदा ड्रेस थी। वैसे शादियों के स्टैंडर्ड के अनुसार उसने कपड़े भी एलआईजी, एमआईजी और एचआईजी टाइप के सिलवा रखे थे। बरातियों का जैसा स्टैंडर्ड होता उसी हिसाब से वो ड्रेस पहनता। अलबत्ता कलर कम्बीनेशन वही रहता। मैयत में भी कभी-कभी बैंड बजाना पड़ जाता था, उसके लिये कुर्ते, शेरवानी और अचकन भी बनवा रखे थे। आज हाई क्लास वाली शादी थी। उम्मीद थी न्योछावर भी अच्छा मिलेगा। लेकिन उफ़ ये उमस भरी गर्मी।

पैंट-शर्ट पहन कर वो टाई पहनने के लिये आदमक़द आईने के सामने खड़ा हो गया। अपने चेहरे को देख कर मुस्कराया। लेकिन तम्बाखू से ज़र्द पड़ गये दाँतों को देख कर उसका कॉन्फिडेंस लड़खड़ा गया। मूँछों को कंघी से नीचे खींच कर पुनः मुस्कराने की कोशिश की। अब थोड़ा ठीक लगा। टाई लगा कर उसने उस उमस भरी गर्मी में मन-मसोस कर सूट के तीनों पीस पहन लिये। ये उसका ड्रेसिंग सेंस ही उसको बैंड के बाकी मेम्बर्स से अलग करता था। उसे पूरी बैंड को लीड करना होता था। जब बाराती हर्षातिरेक में नाच रहे हों, तो उन्हें ये पहचानने में दिक्कत न हो कि न्योछावर किसे देना है, इसलिये भी ये टीम-टाम जरूरी था। 

वो पूरी तरह सूट-बूट में तैयार हो चुका था जब उसे कनपटी के बगल से बहते पसीने का आभास हुआ। मन हुआ टाई उतार दे लेकिन फिर वो बैंड मास्टर न लगता। पैसे वालों की बारात थी। शायद मामला दो-चार घंटे तक खिंच जाये। ऐसा सोच कर उसने कोट उतारना ही उचित समझा। सूट के तीसरे पीस और मैचिंग टाई में उसने अपनी बाँकी छवि को एक बार फिर दर्पण में निहारा। कॉन्फिडेंस दोहरा हो गया। अब वो सही से बैंड को लीड कर सकता है।

बाराती सज-धज के तैयार थे। बैंड वाले धीरे-धीरे ढम-ढम कर रहे थे। बीच-बीच में भोंपू वाले भी पों-पों करके अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते। घुड़चढ़ी के बाद बैंड अपनी पूरी रौ में आ गया। शहनाई पर लीड बैंड मास्टर के हाथ ही थी। उसने मीठी सी धुन निकाली - टीं टीं टीं टींटों टैन्टर (आई एम अ डिस्को डान्सर) भोंपू वालों ने साथ दिया - पों-पों-पों-पों और बारात चल पड़ी। बैंड मास्टर ने अपना पूरा ध्यान न्यौछावर देने वाले जीजा, फूफा और मामाओं पर केंद्रित कर दिया। 

- वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...