रविवार, 17 जुलाई 2022

फुग्गा

गुब्बारे लो गुब्बारे...रंग बिरंगे प्यारे प्यारे...बचपन में ये या इससे मिलती जुलती कविता हम सबने पढ़ी-सुनी होगी. इनके ना-ना प्रकार के रंग बाल मन को आकृष्ट करते हैं. शायद ही कोई बच्चा इसकी चपेट में न आया हो. शायद ही कोई बचपन हो जो इसके लिये न मचला हो. गैस वाले गुब्बारों की तो बात ही अलग थी. इनके गुच्छे बना स्कूलों के विशिष्ट आयोजनों पर उड़ाये जाते थे. हर बच्चे ने इनके माध्यम से आकाश में कल्पना की उड़ान अवश्य भरी होगी. बर्थडेज़ में घरों को गुब्बारे से सजाया जाता रहा है. और फुलाने से ज़्यादा मज़ा बच्चों को उन्हें फोड़ने में आता है. पार्टी में केक कटने का सब्र से इन्तज़ार बच्चे इसीलिये कर पाते कि उसके बाद गुब्बारे फोड़ने को मिलेंगे. गुब्बारे फोड़ने में उन्हें बम फोड़ने जैसी फ़ीलिंग ज़रूर आती होगी. हम लोग तो उस जमाने के हैं, जब गुब्बारे के फटने के बाद भी उसकी मकोइया बना कर दूसरों के सर पर फोड़ी जाती थी.  

पता नहीं क्यों फूला हुआ गुब्बारा बचपन से ही फोड़े जाने के लिये लालायित करता रहा है. आजकल वाट्सएप्प पर एक स्टोरी बहुत प्रचारित हो रही है. बॉस ने अपने सभी मातहतों को बुलाया और सबको एक-एक गुब्बारा दिया. सबको उसने उसे फुलाने के लिये कहा. उसने कहा जिसका गुब्बारा देर तक फूला रहेगा उसे एक इन्क्रीमेंट मिलेगा. शर्त ये थी कि कोई कमरे से बाहर नहीं जायेगा. लेकिन कहानी में ट्विस्ट डालने के लिये उसने सबके हाथ एक - एक ऑलपिन भी पकड़ा दी. फिर क्या था. सभी सहकर्मी अपना गुब्बारा बचाने और दूसरे के गुब्बारे फोड़ने जुगत में जुट गये. जिसका गुब्बारा पहले फूट गया वो दूसरों के गुब्बारे फुड़वाने में लग गया. आपका अनुमान सही है. दो मिनट के अन्दर ही सारे गुब्बारे फूट चुके थे. बॉस मुस्कुरा रहा था. उसने डिक्लेयर किया कि यदि सब अपना-अपना गुब्बारा पकड़े खड़े रहते तो सभी को इन्क्रीमेंट मिलता. लेकिन जहाँ प्रतिस्पर्धा की भावना इतनी गहरी हो कि हमें अपने ही साथियों से आगे निकलना हो, तो जो हुआ वो अवश्यम्भावी था. और ये कहानी हर वाट्सएप्प उपयोगकर्ता तक जरूर पहुँची होगी. लेकिन क्या मजाल कि वाट्सएप्प पर दिन-रात बहने वाली ज्ञान गंगा का असर किसी पर पड़ता. इस कहानी का हश्र भी वही होना था जो बाकियों का होता है. एक कहानी बन के ही रह जाना. जो सुनने और सुनाने में अच्छी लगे, बस इतना ही. 

उम्र बढ़ने के बाद आदमी का गुब्बारों की तरफ़ का मोह खत्म सा हो जाता है. लेकिन गुब्बारा उसे कहाँ छोड़ने वाला. वो किसी न किसी रूप में उसने ऊपर आवरण की तरह चिपक जाता है. किसी पर कुर्सी के रूप में, किसी पर पैसे के रूप में, किसी पर ताकत के रूप में. अब इन गुब्बारों के बचपन के गुब्बारों की तरह नीले-पीले रंग तो नहीं होते. एक आवरण की तरह रंगहीन-गन्धहीन-पारदर्शी मुलम्मा चढ़ जाता है. और व्यक्ति अपने द्वारा सृजित इस गुब्बारे में रोज थोड़ी-थोड़ी हवा भरता रहता है. सहअस्तित्व में विश्वास न करने वाले असामाजिक टाइप के तत्वों को लगता है, मेरा गुब्बारा दूसरों से बड़ा होना चाहिये. इसलिये उसका भरसक प्रयास होता है कि या तो वो अपने गुब्बारे में और हवा भर ले या दूसरे के गुब्बारे में पिन चुभाता घुमे. सब के सब अपना-अपना अदृश्य गुब्बारा लिये घूम रहे हैं. बड़े गुब्बारे वाले अपने गुब्बारे से सन्तुष्ट नहीं हैं. या तो उनकी नज़र अपने से बड़े गुब्बारे पर है या वो अपने से छोटे गुब्बारे वाले पर हावी होने में लगे हैं. और छोटे गुब्बारे वाले भी मौके की तलाश में रहते हैं. जरा मौका मिला नहीं कि पिन छुआ देते हैं. यदि कुछ न कर पायें तो भी बड़े गुब्बारे के स्वतः फूटने की कामना करना कोई गुनाह तो नहीं. कुछ का जीवन इसी इंतज़ार में व्यतीत हो जाता है. समय के साथ सब गुब्बारों की हवा निकलती है. मनुष्य बली नहीं होत है, समय होत बलवान. लेकिन ये बात समय रहते समझ आ जाये तो सारे गुब्बारे एक साथ उड़ने लगते. देश और समाज नित नयी ऊँचाइयों को छूता नज़र आता. जब बात मेरा गुब्बारा तुम्हारे गुब्बारे से छोटा कैसे, तो सारा ज्ञान गया तेल लेने. पहले तुम्हारा गुब्बारा निपटा लें फिर अगले गुब्बारे को देखेंगे. 

यदि आप गौर कर सकें तो देखेंगे हर आदमी एक गुब्बारे की तरह है. किसी का गुब्बारा औकात से ज़्यादा फूला हुआ है तो किसी का चुचका हुआ. जिन्होंने अपने गुब्बारे में कम हवा भर रखी है उन्हें छोटी-मोटी पिन की चुभन से फ़र्क नहीं पड़ता. जिनके गुब्बारे में हवा ज़्यादा है, वो थोड़ा ऊपर उड़ना पसन्द करते हैं. लेकिन जरा भी पिन छू गयी तो उन्हें फटने में देर नहीं लगती. पद और पैकेज आसानी से हासिल हो जाता तो हर किसी को गुरुर करने का हक़ मिल जाता. रगड़-घिस के जब इतने ऊपर आये हैं तो एक रुतबा और रुआब तो होना ही चाहिये, जिसे सब सलाम करें. इस रुतबे और रुआब को जेहन और चेहरे पर चढ़ाने के लिये भी कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते. सुबह जगने से लेकर रात में सोने तक हर पल इसे जपना पड़ता है तब जाके वो बॉडी लैंग्वेज बनती है कि आदमी आम नहीं अमरूद है. 

ख़ुदा उन्हें नीली बत्ती का शौक़ अता फ़रमाये जिन्हें इनकी ख़्वाहिश हो. जिनकी ये ख़्वाहिश पूरी नहीं होती उनकी आत्मायें शरीर में रहते हुये भी मरी-मरी सी रहती हैं. साहब को नीली बत्ती तो नहीं मिली लेकिन जिस गुलिस्तां की हर शाख पर किसी न किसी ने डेरा डाल रखा हो, वहाँ एक ऊँची शाख उनके कब्ज़े में आ ही गयी. अब वो अपने मातहतों के लिये तो साहब बन ही चुके थे. लेकिन इस लम्हे को हर पल जीना पड़ता है. सो बीवी भी नौकरों के आगे उन्हें साहब कह कर ही सम्बोधित करती थी. सभी को हिदायत थी कि घर में भी साहब से तमीज़ से पेश आयें. घर और ऑफिस फ़तह करने के बाद साहब को लगता था कि बाहर वाले भी उनको हल्के में न लें. सरकार में उच्च पदों पर आसीन लोगों को इसीलिये लाल - नीली बत्तियों से नवाज़ा जाता है कि जनता को कन्फ्यूजन न रहे कि किन से उलझना नहीं है. कई विभागों को तो युनिफॉर्म भी दे दी गयी है ताकि किसी को रास्ता बदलना हो तो बदल ले, बाद में ये न कहे कि वसूली हो गयी. 

अमरुद महात्माओं के पास अपने महात्म्य का गुब्बारा बाहर के लोगों को दिखाने का एक मात्र माध्यम है, उनकी कार. किसका गुब्बारा कितना बड़ा है ये जानने के लिये कोई विशेष मेहनत नहीं करनी है. आपने गौर किया होगा कि इधर बड़ी गाड़ियों की बिक्री की होड़ मची हुयी है. सोसायटी की पार्किंग में जाइये जिसका गुब्बारा जितना बड़ा होगा, उतनी बड़ी गाड़ी का वो मालिक होगा. जैसा की पहले भी बताया जा चुका है पद और पैसा कुछ भी आपके गुब्बारे के साइज़ को बदल सकता है. पद तो फिर भी समझ आता है कि बन्दे ने मेहनत से हासिल किया है. लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त समाज में इमानदारी से पैसा बना लेना असम्भव भले न हो लेकिन कठिन तो अवश्य है. जिनके पास पद या पैसा न भी हो तो उनके गुब्बारे के अरमान तो कम नहीं हो जाते. वर्मा जी कबाड़ी मार्केट से बीएमडब्लू का लोगो इसीलिये उठा लाये कि मारुती 800 चलाने में उन्हें अपना गुब्बारा छोटा दिखायी देता था. ये बात सिर्फ़ व्यक्ति जनता है कि उसका गुब्बारा कितना बड़ा या छोटा है. लेकिन वो उसे बड़ा बना कर प्रोजेक्ट करता है ताकि लोगों में भौकाल बना रहे. इसी का नाम सेल्फकॉनफिड़ेंस है. ये जो अपनी पर्सनल गाड़ियों पर लोग भारत सरकार, प्रदेश सरकार, मंत्रालय, पुलिस लिखाये घूम रहे हैं दरअसल उनके गुब्बारे का द्योतक है. हर ऐसी गाड़ी वाले को टोल प्लाजा पर उलझते देखा जा सकता है. यही लोग हर प्लाजा पर झक-झक करते नज़र आ जायेंगे. भौकाल चल गया तो ठीक. नहीं चला तो कौन सा ऑफिस वाले या पडोसी साथ हैं.

ऐसे ही एक माननीय अपनी पर्सनल कार पर प्रदेश सरकार जिला प्रमुख लिखाये घूम रहे थे. हाइवे की टोलप्लाजा में अपनी हेकड़ी पर आ गये. अपना आई कार्ड उन्होंने उसके सामने रख दिया. प्लाजा कर्मचारी ने विनम्रता से कहा - सर ये आपकी ऑफिशियल गाड़ी होती तो मान भी लेता, प्राइवेट गाड़ी पर तो टोल लगेगा. प्लाजा का नुमाइन्दा उनकी पर्सनालिटी से इम्प्रेस होने को राजी नहीं था. उनका गुब्बारा इस बात पर सिकुड़ गया होता, यदि साथ में मोहल्ले का ड्राइवर न होता. उन्होंने बन्दे की बात को दिल पर ले लिया. बोले - चार टोल पर बिना पेमेन्ट किये आ रहा हूँ, तेरा टोल क्या स्पेशल है. भौकाल दिखाने के लिये वो हत्थे से उखड़ चुके थे. कर्मचारी ने देखा कि अब बात उसके उपर आ रही है तो उसने अपने आर्मी से रिटायर्ड सुपरवाईज़र को बुलाना उचित समझा. सुपरवाईजर ने पूरी इज्ज़त और विनम्रता के साथ उनके नाम-पते-पद की पूरी जानकारी माँगी. लेकिन जैसे ही उसने प्राइवेट गाड़ी पर टोल देने की बात कही तो साहब अपने पुराने रौब में आ गये. फिर जो हुआ, उसका सपना भी साहब ने न देखा होगा. मातहतों पर रौब गांठते-गांठते वो भूल गये थे कि सेर को सवा सेर भी मिलता है. सुपरवाईज़र ने उनके गुब्बारे को मकोई बनाने लायक भी नहीं छोड़ा. साहब को टोल देना पड़ा और प्लाजा के सहकर्मी ने पूरे एपिसोड की रिकोर्डिंग भी कर डाली. दूसरे के गुब्बारे को फटते देखने में लोगों का कितना इंटरेस्ट होता है, ये इस बात से पता लगता है कि पूरा प्रकरण वाट्सएप्प के माध्यम से पूरी दुनिया घूमते-घामते साहब के पास-पड़ोस-मातहतों के मोबाइल तक भी पहुँच गया. लेकिन किसी ने साहब को भनक भी न लगने दी. घर-दफ़्तर में उनका भौकाल उसी तरह कायम रहा. जब वो सोने जाते थे, तो काफी देर तक सुपरवाईज़र का चेहरा उन्हें सोने नहीं देता था. कभी-कभी तो वो नींद में चौंक के जाग जाते थे. हफ्ते भर के लिये चेहरे का रुआब और रौनक दोनों विलुप्त हो गये थे. चुचका हुआ गुब्बारा मातहतों को आन्तरिक आनन्द देता. उन्हें लगता कि टोल सुपरवाईज़र ने उनका बदला ले लिया.

लेकिन थेंथरयी भी कोई चीज़ होती है. साहब रोज अपने कॉनफिड़ेंस को समझाते - ख़ुदी को कर बुलंद इतना. बच्चन की 'नीड़ का निर्माण फिर से' से प्रेरणा ले कर नये गुब्बारे के निर्माण में लग गये. नये गुब्बारे में हवा भरने में ज़्यादा समय नहीं लगता.  

उनकी अनुपस्थिति में उनके मातहत अब उन्हें फुग्गा कह कर आनन्दित हो लेते. 

-वाणभट्ट           

7 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१८-०७ -२०२२ ) को 'सावन की है छटा निराली'(चर्चा अंक -४४९४) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. रोचक!
    सटीक व्यंग्यात्मक लेख।

    जवाब देंहटाएं
  3. हार व्यक्ति गुब्बारे की तरह है. गुब्बारे से तुलना कर आपने सुंदर हास्य व्यंग्य का सृजन किया है. --ब्रजेन्द्र नाथ
    मेरी कविता यूट्यूब के इस link पर मेरी आवाज में अवश्य सुनें और अपने विचारों को कमेंट बॉक्स में अवश्य लिखें! सादर!
    Link :https://youtu.be/WdvaPzJv4rI

    जवाब देंहटाएं
  4. उम्र बढ़ने के बाद आदमी का गुब्बारों की तरफ़ का मोह खत्म सा हो जाता है - गुबारा बदल जाता है मोह तो वो ही रहता है :)

    जवाब देंहटाएं
  5. फुग्गे के माध्यम से जीवन का फलसफा खोल के रख दिया आपने ...
    मोह की कहानी भी अपनी ही है ... बहुत मुश्किल है छूटना इसका ...
    लाजवाब ...

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...