मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

भोजन का भविष्य

भोजन का भविष्य 

कमॉडिटी ट्रेडिंग छोड़ कर ग्रो-इंटेलीजेंस नामक डाटा एनालिसिस कम्पनी आरम्भ करने वाली सुश्री सारा मेंकर को टेड टॉक पर सुनना एक अद्भुत अनुभव रहा। अगस्त, 2017 में प्रेषित ये वार्ता भविष्य में भोजन की उपलब्धता के लिये समय रहते आगाह करने का प्रयास है। उनके अनुमान के अनुसार भोजन उपलब्धता की भयावह तस्वीर देखने के लिये शायद 2050 का इन्तज़ार न करने पड़े। आज उस भयावहता की कोई कल्पना भी न करना चाहे। लेकिन बहुत सम्भव है अब से मात्र एक दशक बाद ही इस स्थिति से दो-चार होना पड़ जाये। कुछ घण्टी बजी। हम भी इस चपेट में आ सकते हैं। प्रस्तुत लेख सुश्री सारा की वार्ता से प्रेरित है।  

उनके आँकलन के अनुसार 2050 तक 9 बिलियन तक पहुँच चुकी वैश्विक जनसंख्या को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिये आज की तुलना में 70% अधिक खाद्य सामग्री की आवश्यकता होगी। प्रत्येक व्यावसायिक गतिविधि सदैव उर्ध्वगामी नहीं होती। एक ऊंचाई तक पहुँचने के बाद एक अप्रत्याशित उतार अवश्य आता है और स्थितियाँ एकदम से बदल जाती हैं। और कई बार ये परिस्थितियाँ अपरिवर्तनीय होती हैं। स्टॉक मार्केट अक्सर इन अनिश्चितताओं से गुज़रता है। वहाँ प्रत्यक्ष रूप से आम आदमी या मानवता पर कोई संकट दिखायी नहीं देता। कृषि क्षेत्र में ऐसा परिदृष्य तब आयेगा जब भोजन की माँग और आपूर्ति में अन्तर को पाटना असम्भव हो जायेगा। यदि कभी खाद्य उपलब्धता में ऐसा हुआ तो दृश्य भयावहता की कल्पना से परे होगा। विभीषिका या भूख के कारण से उत्पन्न अराजकता, संवैधानिक और राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न करेगी। असामान्य मूल्य पर भी खाद्य सामग्री की अनुपलब्धता मानवता के लिये खेदपूर्ण हो सकती है। तब सम्भवतः ये समझने का समय भी न मिले कि पैसा और तकनीक भोजन नहीं उपलब्ध करा सकते। कृषि व्यवस्था की स्थिति बहुत ही छिन्न-भिन्न है और भविष्य की नीति निर्धारण के लिये उपलब्ध आँकड़ों का आधार बहुत सीमित और अल्प है। इसी कारण सुश्री सारा ने कमॉडिटी ट्रेडर का काम छोड़ कर एक उद्यमी बनने का निश्चय किया। ग्रो-इंटेलिजेंस एक डाटा विश्लेषण कम्पनी है जो पॉलिसी बनाने वालों को आँकड़े उपलब्ध कराती है। ये कम्पनी विश्व के प्रत्येक नागरिक को खाद्य सुरक्षा में आने वाले संकट से बचाने के लिये एक व्यावहारिक मार्गदर्शक का काम भी कर रही है। 

विश्व कृषि परिदृश्य में गिरावट 2027 में ही परिलक्षित होने लगेगी जब विश्व की खाद्य आवश्यकता और उपलब्धता में 214 ट्रिलियन कैलोरी का अन्तर होगा। सभी खाद्य पदार्थों की पोषक क्षमता बराबर नहीं होती इसलिये टन और किलोग्राम में खाद्य उपलब्धता व्यक्त करने का कोई प्रयोजन नहीं है। भोजन की मात्रा नहीं, भोजन द्वारा प्राप्त कैलोरी का निर्धारण स्वस्थ जीवन शैली के लिये आवश्यक है। आज से चालीस साल पहले कृषि की स्थिति का आँकलन करने पर पता चलता है कुछ ही देश कैलोरी की दृष्टि के स्वावलम्बी थे या कैलोरी निर्यातक थे। अधिकाँश देश कैलोरी के आयातक हुआ करते थे। जिनमें अफ्रीका, यूरोप और भारत भी सम्मिलित थे। चीन उन दिनों खाद्य कैलोरी उपलब्धता में विषय में स्वावलम्बी था। चालीस साल बाद आज चीन में औद्योगिक क्रांति तो दिखायी देती है किन्तु खाद्य आवश्यकताओं के आधार पर यह एक बड़ा आयातक देश बन गया है। भारत ने हरित क्रांति के माध्यम से खाद्य आत्मनिर्भरता में के बड़ी छलाँग लगायी। विश्व पटल पर अफ्रीकी और मध्य एशिया के देशों और चीन को छोड़ कर अधिकाँश देश अपनी कैलोरी आवश्यकताओं में आत्मनिर्भर हो गए हैं। लेकिन आज से पाँच साल बाद (2023 में) जब विश्व की आधी आबादी के अफ़्रीका, भारत और चीन में होगी तब खाद्य अवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा ये सोचने का विषय है। ये तीनों क्षेत्र विश्व में खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से बड़ी चुनौतियाँ प्रस्तुत करने वाले हैं। ये सभी देश अतिरिक्त कैलोरी उत्पादक देशों से कैलोरीज़ का आयात करने को विवश होंगे। समस्त अतिरिक्त कैलोरी अफ़्रीकी देशों, भारत और चीन का ही भरण करने में सक्षम होंगी। अतिरिक्त कैलोरी उत्पन्न करने वाले देशों को भी ये उत्पादन वृद्धि निर्वनीकरण के रूप में मूल्य चुका कर ही करनी होगी।

कैलोरी अभाव वाले देशों के लिये अतिरिक्त कैलोरी उत्पादक देशों से खाद्य सामग्री की बर्बादी कम करने या खाद्य उपयोग में परिवर्तन लाने की आशा करना सही नहीं है, न ही समस्या का समाधान है। कोई आपकी आवश्यकता के लिए अपना खाद्य व्यवहार भला क्यों बदलेगा। समस्या का समाधान भी कैलोरी अभाव वाले क्षेत्रों से ही आयेगा। चीन में कृषि हेतु भूमि और पानी की उपलब्धता की समस्यायें हैं। इसलिए समाधान के लिये अफ्रीका और भारत ही से आशा की जा सकती है। भारत में भी भूमि एक सीमित संसाधन है किन्तु उत्पादकता में वृद्धि की सम्भावनायें हैं। अफ्रीका में कृषि योग्य भूमि बड़ी मात्रा में उपलब्ध है और वहाँ अभी भी उत्पादकता का स्तर वही है जो 1940 में उत्तरी अमेरिका का था। खाद्य सुरक्षा की समस्या के समाधान के लिये बहुत समय नहीं बचा है। इसलिये आवश्यकता है कुछ नया करने की, कुछ अलग करने की, कुछ सुधार करने की। आवश्यकता है अफ्रीका और भारत में कृषि के व्यवसायीकरण और औद्योगीकरण की। इसका उद्देश्य मात्र खेती के व्यवसायीकरण से नहीं है। इसका उद्देश्य आंकड़ों का विश्लेषण करके नीति निर्धारण में सहायता, आधारभूत संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) का विकास, परिवहन मूल्यों में कमी, बैंकिंग और बीमा क्षेत्रों में सुधार, तथा खेती में असुरक्षा की आशंका को कम करना है। बिना लघु और मझोले किसानों को प्रभावित किये सम्पूर्ण कृषि व्यवस्था के व्यवसायीकरण की महती आवश्यकता है। व्यावसायिक खेती और लघु किसानों के मध्य सहअस्तित्व का मॉडल विकसित करने की आवश्यकता है। भारत भविष्य में उत्पादकता में वृद्धि के द्वारा अपनी स्वावलम्बन की स्थिति को बनाये रखने में सक्षम है। किन्तु 2027 तक 214 ट्रिलियन कैलोरी की कमी और 8.3 बिलियन जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने में अफ़्रीकी देशों की महत्वपूर्ण भूमिका होने वाली है। भविष्य में बढ़ती जनसंख्या और वैश्विक खाद्य सुरक्षा के प्रश्न का उत्तर अब  हमारे पास है। बस उस पर अमल करने की आवश्यकता है।  

वर्ष 2006 में योजना के सितम्बर अंक में एक लेख छपा था "एग्रीकल्चर ऐज़ ऐन इंडस्ट्री"। कृषि ही एक ऐसा उद्योग है जो बढ़ती जनसंख्या को भोजन, रोजगार और आय उपलब्ध करा सकता है। आवश्यकता है इसे समग्रता से देखने की। आर्थिक समृद्धि को सहजता से अधिक भोजन ग्रहण करने की प्रवृत्ति से जोड़ा जा सकता है। जेब में पैसा है तो स्वाद पर सबका अधिकार जायज़ है। दिन-दूना रात चौगुना बढ़ता मेरा पेट मुझे रोज चिढ़ाता है। किसी दूसरे के खाद्य हिस्से पर मेरा हक़ नहीं है। डाक्टरों के यहाँ निरन्तर बढ़ती लाइनें और बढ़ता मेडिकल बिल उन्हें भी नहीं चिंतित कर पाता जो दिन-रात खाद्य समस्या हाइलाइट करने में उलझे हुये हैं। अधिक भोजन ही अधिकांश बीमारियों की जड़ है, जब कि संतुलित आहार से ही स्वस्थ जीवन शैली सम्भव है। इसलिये कैलोरी ग्रहण (काउन्ट) पर बहस करने का अब मुनासिब समय है। गुटका, शराब, अतिकैलोरी खाद्य सामग्री के उपयोग को सिर्फ इसलिए बढ़ावा मिल रहा है कि लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि हुयी है। इलाज़ पर खर्च भी उन्हीं का बढ़ रहा है जो स्वाद और जीवन-आनन्द को रुपयों से तौल रहे हैं। जापान में बॉडी-मास इंडेक्स में परिवर्तन के हिसाब से इंश्योरेंस प्रीमियम घटता या बढ़ता है। संपन्न लोगों से दूसरों के लिए त्याग की अपेक्षा व्यर्थ है लेकिन उनसे उन्हीं के स्वास्थ्य की अपेक्षा तो की ही जा सकती है। असंयमित जीवन शैली कारण मानवजनित अस्वस्थता पर इंश्योरेंस प्रीमियम में वृद्धि तथा इलाज़ पर हुये ख़र्च पर टैक्स शायद लोगों को संतुलित भोजन के लिये प्रेरित कर सके। 

जब देश भविष्य में युद्ध की आशंका से बम और बारूद के ज़खीरे इकट्ठा कर सकते हैं तो क्या भविष्य के लिये भोजन के भण्डार नहीं बनाये जा सकते। भविष्य की लड़ाई हमें आज उपलब्ध तकनीकों से ही लड़नी होगी। विगत वर्षों में दलहन में भारत की आत्मनिर्भरता ने एक नयी इबारत लिख दी है। इस सफलता ने यह सिद्ध कर दिया है कि गुणवत्ता वाले बीजों की उपलब्धता बढ़ा कर, बीज प्रतिस्थापन और सुनिश्चित सरकारी खरीद के द्वारा उत्पादन लक्ष्य को वर्तमान तकनीकों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। अब बात मात्र कृषक आय दोगुनी की ही नहीं होनी चाहिये। बात ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाओं की भी होनी चाहिये, ताकि शहरों पर बढ़ते अनावश्यक बोझ को कम किया जा सके। इसके लिये  ग्राम्य-अंचल में कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना करनी आवश्यक है। कटाई उपरान्त होने वाली हानियों को कम करके भोजन की उपलब्ध्ता को बढ़ाया जा सकता है। प्रसंस्करण के माध्यम कृषि उत्पाद की भण्डारण अवधि (शेल्फलाइफ़) तथा ग्रामीण आय में कई गुना वृद्धि सम्भव है। भण्डारित अनाज का एक बड़ा हिस्सा आपात स्थितियों से निपटने के लिये भी होना चाहिये। एक लीटर में अस्सी किलोमीटर चलने वाली हीरो हौंडा मोटरसाइकिल जब सन 1985 में जब लॉन्च हुयी थी तब उनका स्लोगन था "फिल इट-शट इट-फॉरगेट इट"। भविष्य में खाद्य सुरक्षा की चुनौतियों को देखते हुये कुछ ऐसा ही प्रबन्धन आवश्यक है। बचपन में कहानी सुना करते थे अकाल पड़ने पर राजा ने अपने सारे गोदाम खोल दिये। गोदाम भी होते थे पहाड़ की कंदराओं में। तकनीकी रूप से अब हम अधिक सक्षम हैं। दिक्कत सिर्फ इतनी है कि समस्याओं पहचान और उन्हें चिन्हांकित (हाइलाइट) करने में हमने इतनी ऊर्जा लगा दी है कि संभावनाओं और समाधानों की ओर से हमारा ध्यान भटक गया है। हम ऐसी खोज के पीछे भाग रहे हैं जिस पर जलवायु परिवर्तन, कीट या रोग का प्रकोप न पड़े। उचित जलवायु, मृदा और जल के जटिल जाल में इच्छित परिणाम प्राप्त करने में कुछ हद तक सफलता  मिली अवश्य है किन्तु ये विकास की सतत चलती रहने वाली अन्तहीन प्रक्रिया है। जैसा सुश्री सारा ने बताया हमारे पास समाधान हैं बस उन्हें अमल में लाने की आवश्यकता है। समाधान पूरी कृषि मूल्य श्रृंखला (वैल्यू चेन) के समग्र प्रबन्धन में निहित है।  

यदि भोजन और स्वास्थ्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है तो इस दिशा में भी नीतियाँ बननी चाहिये। ताकि 2023 तक हम चुनौतियों के लिये तैयार रहें। आज देश उस महापुरुष का 149वां जन्मदिन मना रहा है जिसने पूरे देश को वस्त्र उपलब्ध हो सके इसलिये आधी धोती पहन ली। क्या हम अपने स्वास्थ्य के लिये अपनी कैलोरी नहीं गिन सकते। भोजन की कमी की समस्या का निवारण उसकी उचित वितरण प्रणाली से संभव है।खाद्य समस्या के निदान के लिये उन्हीं देशों को प्रयास करना पड़ेगा जिनके लिये यह चिंता का विषय है। सम्भवतः समस्याओं का हल भी वहीं से निकलता है जहाँ से वो शुरू होती हैं।  

- वाणभट्ट 




  

2 टिप्‍पणियां:

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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